Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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आत्मानुशासनम्
हुई उसे देखकर आकाशमें देवोंने प्रार्थना की कि हे प्रभो ! क्रोधको शान्त कोजिये। किन्तु इसके पूर्व ही उसे उक्त अग्निज्वालाने भस्म कर दिया।
तत्पश्चात् यथावसर जब महादेव के लिये पार्वतीको देना निश्चित हो गया तब हिमालयने तपस्वियोंसे विवाहकी तिथि पूछी। इसके उत्तरमें उन्होंने तीन दिनके पश्चात् चतुर्थ दिन निर्दिष्ट किया । परन्तु तब उन्हीं तपस्वी महादेवने पार्वतीके समागममें उत्सुक होकर इन तीन दिनोंको भी कष्टपूर्वक बिताया।
५. श्लोक २१६ में महादेवका उदाहरण देकर क्रोधके निमित्तसे होनेवाली कार्यकी हानिको दिखलाया गया है । कथानक वही पूर्वोक्त है।
६. श्लोक २१७ में बाहुबलीका उदाहरण देकर मान कषायके निमित्तसे होनेवाली महती हानिको प्रदर्शित किया गया है । (कथानक उक्त श्लोकके विशेषार्थ में देखिये)
७. श्लोक २२० में मरीचि, युधिष्ठिर और कृष्णका उदाहरण देकर थोडे-से भी मायाचारको विषके समान भयानक बतलाया गया है। (इन तीनों कथानकोंको उक्त श्लोकके विशेषार्थ में देखिये) आत्मानुशासनपर पूर्ववर्ती अन्य भारतीय साहित्यका प्रभाव
कोई भी अध्ययनशील विद्वान् जब कुछ स्वतन्त्र मौलिक साहित्यकी रचना करता है तब उसकी कृतिपर अपनेसे पूर्ववर्ती साहित्यका प्रभाव १. स दक्षिगापाङ्गनिविष्टमुष्टि नतांसमाकुञ्चितसव्यपादम् ।
ददर्श चक्रीकृतचारुचापं प्रहर्तुमभ्युद्यतमात्मयोनिम् ॥ तपःपरामर्शविवृद्धमन्योधूमङ्गदुष्प्रेक्ष्यमुखस्य तस्य । स्फुरन्नुचिः सहसा तृतीयादक्ष्णः कृशानुः किल निष्पपात ॥ क्रोधं प्रभो संहर संहरेति यावद् गिरः खे मरुतां चरन्ति । तावत्स वन्हि वनेत्रजन्मा भस्मावशेष मदनं चकार ॥कु.सं.३,७०-७२. २ः वैवाहिकी तिथि पृष्टास्तत्क्षणं हरबन्धुना। ते त्र्यहादूर्ध्वमाल्याय चेरुश्चीरपरिग्रहाः ॥ पशुपतिरपि तान्यहानि कृच्छादगमयदद्रिसुतासमागमोत्कः । कमपरमवशं न विप्रकुर्युविभुमपि तं यदमी स्पशन्ति भावाः ।।
कु. सं. ६-९३, ९५.