Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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प्रस्तावना
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यहां श्लोक ९० का प्रथम चरण (बाल्येऽस्मिन् यदनेन ते विरचितं स्मर्तुं च तन्नोचितम्) विशेष ध्यान देने योग्य है। वह भगवती आराधनाकी १०२५ वीं गाथासे विशेष प्रभावित दिखता है ।
आत्मानुशासन (१२६-१३६) में सत्पुरुषोंको विरक्त करानेकी इच्छासे स्त्रियोंके कुछ दोष दिखलाते हुए उन्हें दृष्टिविष सर्पसे भी भयानक, क्रोधी,प्राणघातक,निरौषधविष,ईर्ष्यालु,बाह्यमें ही रमणीय,विषयानुरागको उत्पन्न करनेवाली तथा दूषित शरीरकी धारक बतलाया है। ऐसे ही उनके अनेक दोष उक्त भगवती आराधना (गा. ९३८-९०) में भी दिखलाये गये हैं । विशेषता यह पायी जाती है कि आगे चलकर वहां यह स्पष्ट कह दिया है कि स्त्रियोंके इन निर्दिष्ट तथा अन्य अनिर्दिष्ट भी दोषोंका विचार करनेसेउन्हें विष व अग्निके समान संतापजनक जानकर-पुरुषका चित्त उद्वेगको प्राप्त होता है । तब वह जैसे व्याघ्रादिके दोषोंको जानकर उनका परित्याग करता है बेसे ही वह महिलाओंके दोषोंको देखकर उनका भी परित्याग करता है१ । इसके पश्चात् वहां यह भी निर्देश कर दिया है कि जो दोष महिलाओंके सम्भव हैं वे तथा उनकी अपेक्षा और भी कुछ अधिक दोष उन नीच पुरुषोंके भी हो सकते हैं, क्योंकि, वे उनकी अपेक्षा अधिक बल एवं शक्तिसे संयुक्त होते हैं । जिस प्रकार अपने शीलका संरक्षण करनेवाले पुरुषोंके लिये स्त्रियां निन्दित हैं उसी प्रकार अपने उस शीलकी रक्षा करनेवाली स्त्रियोंके लिये पुरुष भी निन्दित हैं। कारण यह कि जिनकी कीर्ति दिशाओं में विस्तृत है तथा जो अनेक गुणोंसे विभषित हैं ऐसे भी स्त्रियां लोकमें सम्भव हैं। वे मनुष्यलोककी देवता हैं, उसकी बन्दना स्वयं देव भी आकर किया करते हैं । उत्तम देव-मनुष्योंसे पूजित वे
१. एए अण्णे य बहु (हू) शोसे महिलाको विचितयदो।
महिलाहितो वि चितं उम्वियदि विसग्गि-सर (रि) सोहि । । वग्यादीणं दोसे णच्चा परिहरदि ते जहा पुरिसो। सह महिलाणं दोसे बटुं महिलाओ परिहा ॥ भ. ९