Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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आत्मानुशासनम्
अभिप्राय यह है कि प्राणी बाल्यावस्थाको प्राप्त होकर अज्ञानतासे परिपूर्ण उस शैशवकालमें अशुचि (विष्ठा आदि) पदार्थके मध्यमें लोटता है-खेलता है और उसी अपवित्र पदार्थको बहुत वार खाया भी करता है१।
आत्मानुशासन और भगवती-आराधना हम यह ऊपर लिख चुके हैं कि आत्मानुशासनके श्लोक८८और८९ में बाल्यावस्थाकी अज्ञानतापूर्ण प्रवृत्तिका दिग्दर्शन मात्र कराया गया है । उसका विशेष वर्णन भगवती-आराधनाकी निम्न गाथाओंमें उपलब्ध होता है--
बालो विहिंसणिज्जाणि कुणदि तह चेव लज्जणिज्जाणि । मेज्झामेज्झं कज्जाकज्जं किंचि वि अयाणंतो । १०२२ । अण्णस्स अप्पणो वा सिंहाणय-खेल-मुत्त-पुरिसाणि । चम्मठ्ठि-वसा-पूयादीणि य तुडे सगे छुभदि ।। १०२३ ॥ जं किंचि खादि जं किंचि जं किंचि जंपदि अलज्जो। जं किंचि जत्थ तत्थ व वोसरदि अयाणगो बालो ।। १०२४।। बालत्तणे कदं सव्वमेव जि णाम संभरिज्ज तदो। अप्पाणम्मि दु गच्छे णिव्वेदं किं पुण परम्मि ।। १०२५ ।
अर्थात् पवित्र-अपवित्र और कार्य-अकार्यका कुछ भी विवेक न रखनेवाला अल्पवयस्क बालक हिंसा एवं लज्जाको उत्पन्न करनेवाले अनेक कार्योंको किया करता है । वह दूसरेके और स्वयं अपने भी नासिकामल,कफ,मूत्र,मल,चमडा, हड्डी, चर्बी और पीव आदिको अपने मुंहमें डाला करता है । वह अज्ञान बालक लज्जारहित होकर कुछ भी खाता है, कुछ भी करता है, कुछ भी बोलता है, तथा जहां कहीं भी मल-मूत्र आदिको भी किया करता है । उस बाल्यावस्थामें जो कुछ भी किया गया है उसका स्मरण मात्र भी विरक्तिको उत्पन्न करनेवाला है।
१. इनके अतिरिक्त श्लोक ११० मोक्षप्राभृतको १२वीं, श्लोक १६१ मोक्षप्राभूतको २०वीं, श्लोक, १६७ मोक्षप्राभूतको ७८वीं तथा श्लोक १९३ मोक्षप्राभूतको ५वी गाथासे प्रभावित प्रतीत होते हैं।