Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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प्रस्तावना
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जो जन स्वर्ग - मोक्षादिरूप पारलौकिकी सिद्धिकी अभिलाषा करते हैं तथा उसके साधनभूत शान्त मनकी स्वयं प्रशंसा भी करते हैं, किन्तु अन्तरंग से स्वयं उन कोधादि कषायोंको दूर नहीं करते हैं, उनके इन दोनों कार्यों में बिल्ली और चूहेके समान परस्पर जातिविरोध दिखलाकर यहां निन्दा की गई है तथा इसे कलिकालका प्रभाव भी प्रगट किया गया है ( २१४ ) । उन क्रोधादि कषायों के वशीभूत होकर प्राणी किस प्रकारसे अपना अहित करते हैं, एतदर्थ यहां क्रोधके लिये महादेव, मानके लिये बाहुबली, मायाके लिये मरीचि, युधिष्ठिर एवं कृष्ण; तथा लोभके लिये चमर मृगका उदाहरण दिया गया है (२१६-२३ ) । इस प्रकार कषायनिग्रहके लिये प्रेरणा करते हुए साधुको लक्ष्य करके यहांतक कहा गया है कि जब प्राणी रमणीय स्त्री आदि चेतन-अचेतन पदार्थोंसे मोहको छोडकर मुनिधर्मको अंगीकार करता है तब फिर उसे संयम के साधन भूत पींछी कमण्डलु आदिके विषय में क्यों मुग्ध होना चाहिये । यह मोह तो उसका ऐसा हुआ जैसे कि कोई रोगके भयसे भोजनका तो परित्याग करता है, किन्तु साथ ही रोग के परिहारार्थ औषधिको अधिक मात्रामें लेकर अज्ञानतासे उस रोगको और भी अधिक वृद्धिंगत करता है ( २२८ ) । आत्मा और उसको कर्मबद्ध अवस्था
आत्मा अस्तित्वको स्वीकार नहीं करते तथा सांख्य आत्माके अस्तित्वको तो स्वीकार करते हैं, किन्तु उसे सर्वथा और सर्वदा हीं शुद्ध ( कर्ममल से रहित ) मानते हैं । इन दोनों मतोंपर दृष्टि रखकर ग्रन्थकर्ता श्री गुणभद्राचार्यने ' अस्त्यात्मास्तमितादिबन्धनगतः ' इत्यादि श्लोक (२४१) के द्वारा उस आत्मा के अस्तित्वका निर्देश करते हुए उसे अनादिबन्धनबद्ध बतलाया है । प्रत्येक प्राणीको जो 'अहम् अहम्' अर्थात् मैं चलता हूं, मैं भोजन करता हूं, मैं सुखी हूं, मैं दुखी हूं, मैं बालक हूं, मैं युवा हूं, मैं वृद्ध हूं तथा मैं रोगग्रस्त हूं; इत्यादि प्रकारका जो स्वसंवेदन होता है उससे आत्माका अस्तित्व सिद्ध होता है १ । कारण यह कि उक्त
१. स्वसंवेदनसुव्यक्तस्तनुमात्रो निरत्ययः । अत्यन्तसौख्य वानात्मा लोकालोकविलोकन ।