Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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प्रस्तावना
तेरे तीनों लोक श्रीहीन हो जावेंगे। यह सुनकर इन्द्र तुरन्त हाथीपरसे उतरा और ऋषिसे प्रार्थना करने लगा। तब ऋषि प्रणामपूर्वक प्रार्थना करनेवाले उस इन्द्रसे बोले कि मेरे हृदयमें न दया है और न क्षमा भी है, वे क्षमा करनेवाले ऋषि दूसरे हैं । मुझे तू दुर्वासा समझ । हे इन्द्र ! मैं क्षमा नहीं करूंगा। इस प्रकार कहकर ऋषि चले गये। तब वह इन्द्र भी ऐरावतपर चढकर अमरावतीको चला गया।
___ उसी समयसे इन्द्र और उसके तीनों लोकोंकी वह श्री (शोभा) नष्ट होने लगी। औषधियां और लतायें सूख गई। यज्ञोंको प्रवृत्ति बंद हो गई । तपस्वियोंने तप करना छोड दिया। मनुष्योंका चित्त दानादि सत्कार्योसे विमुख हो गया। तथा सब ही प्राणी लोभादिके वशीभूत होकर बलहीन हो गये और क्षुद्र वस्तुओंकी भी अभिलाषा करने लगे। बल चूंकि लक्ष्मीका अनुसरण करता है, अतः लक्ष्मीके न रहनेसे उनका वह बल नष्ट हो गया तथा बलके नष्ट हो जानेसे गुण भी जाते रहे । इस प्रकार तीनों लोकोंके निःश्रीक, निर्बल एवं गुणहीन हो जानेसे दैत्य और दानवोंने देवोंके ऊपर आक्रमण कर दिया। उन्होंने लोभके वश होकर देवोंके साथ खूब युद्ध किया । अन्तमें देव हार गये । तब वे सब अग्निदेवको आगे करके ब्रह्माज की शरणमें पहुंचे। उन्होंने ब्रह्माजीसे सब घटना कह दी। उसे सुनकर ब्रह्माजी बोले कि तुम सब विष्णु भगवान्की शरणमें जाओ। वे ही उन दैत्योंको दलित कर सकते हैं। यह कहकर उन देवोंके साथ वे स्वयं भी क्षीरसमुद्रके उत्तर किनारेपर जा पहुंचे । वहां जाकर उन्होंने देवोंके साथ विष्णु भगवान्की स्तुति की ।
इस प्रकार स्तुति करनेपर भगवान् विष्णुने उन्हें दर्शन दिया और वे प्रसन्न होकर बोले कि हे देवगण ! मैं तुम्हारे उस तेजको वृद्धिंगत करूंमा । तुम लोग दैत्य और दानवोंके साथ सब औषधियोंको लाकर अमृतके लिये क्षीरसमुद्रमें डालो तथा मन्दर पर्वतको मथानी और वासुकि सर्पको नेती (रस्सी)बनाकर दैत्योंके साथ समुद्रका मन्थन करो। सहायताके लिये में स्वयं वहां उपस्थित रहुंगा । उससे जो अमृत निकलेगा उसके