Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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प्रस्तावना
आत्मा ) गुणमय होता है-अपने उन गुणोंसे अभिन्न होता है-तब गुणोंका नाश माननेपर उन गुणोंसे अपृथग्भूत आत्माका भी विनाश अवश्य मानना पडेगा । और तब ऐसी अवस्थामें वैशेषिकसम्मत उस मुक्तिका अभाव होकर बौद्धोंके द्वारा कल्पित मुक्तिका प्रसंग दुर्निवार होगा । कारण यह कि मुक्तिके विषयमें बौद्ध इस प्रकारकी कल्पना करते हैं कि जिस प्रकार तेलके समाप्त हो जानेपर दीपक बुझ जाता है-वह बुझकर न पृथिवीमें प्रविष्ट होता है,न आकाशमें जाता है, न किसी दिशामें जाता है,और न किसी विदिशामें भी जाता है ; किन्तु केवल स्नेह (तेल) के विनष्ट हो जानेसे शांतिको प्राप्त करता है । उसी प्रकार मुक्तिको प्राप्त हआ जीव भी न पृथिवीमें प्रविष्ट होता है,न आकाशमें जाता है, न किसी दिशामें जाता है, और न किसी विदिशामें; किंतु केवल स्नेह (राग) के नष्ट हो जानेसे शांतिको प्र.प्त करता है१ । उनके मतानुसार जिस पदमें न जन्म है, न जरा है, न मृत्यु है, न रोग है,न अनिष्ट संयोग है, न इष्टवियोग है, न इच्छा है, और न विपत्ति है; वहीं कल्याणकारक नैष्ठिक पद कहा जाता है ।
वस्तुतः जन्मसे रहित (अनादि), अविनश्वर (अनिधन),अमूर्तरूप-रसादिसे रहित,कर्ता-शुभाशुभ भावों अथवा आत्मपरिणमनका कर्ता, आत्मकृत कर्मोंके फलका भोक्ता,सुखस्वरूप,ज्ञानमय और प्राप्त शरीरके बराबर आत्मा कर्म-मलसे रहित होकर स्वभावतः ऊपर चला जाता है और वहींपर सर्वशक्तिमान् होकर स्थिर सो जाता है-गमनागमनसे रहित हो जाता है (२६६)। वैसे तो इन विशेषणोंमें सब ही महत्त्वके हैं, फिर भी कर्ता, भोवता,सुखी और बुध (ज्ञानमय)ये विशेषण सांख्यसिद्धांतकी अपेक्षा विशेष महत्त्वके हैं । सांख्योंका अभिमत है कि प्रवृत्ति की और पुरुष कमलपत्रके समान निर्लेप है । वह केवल बुद्धिसे अध्यवसित अर्थका अनुभवन करता है-भोक्ता मात्र है । ज्ञान और सुख प्रकृतिके धर्म हैं,न कि पुरुष आत्मा के। इसी अभिप्रायको लक्ष्यमें रखकर उक्त विशेषणों द्वारा यह प्रगट किया है कि वही आत्मा कर्ता है और वही भोक्ता भी है-कर्ता
१. षट्खण्डागम पु. ६, ९, १३३.