Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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प्रस्तावना
३९
तत्त्वार्थ सूत्र के कर्ता भगवान् उमास्वामीने तत्त्वार्थश्रद्धानको सम्यग्दर्शन बतलाया है। स्वामी समन्तभद्र परमार्थ आप्त, आगम और तपस्वी के तीन मूढता व आठ मदोंसे रहित तथा आठ अंगोंसे सहित श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहा है१। इसी प्रकार अमृतचन्द्राचार्यने भी जीवाजीवादि तत्त्वार्थों के विपरीत अभिप्रायसे रहित श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहकर उसे आत्माका स्वरूप बतलाया है२ | पंचाध्यायीकार कहते हैं कि इस प्रकार जो तत्त्वका ज्ञाता होकर स्वकीय आत्माको देखता है वह सम्यग्दृष्टि है और वह विषयजन्य सुख तथा ज्ञानके विषयमें राग-द्वेषको छोड देता है३ ।
इस प्रकार सम्यग्दर्शन के उपर्युक्त लक्षणों में भेदके दिखनेपर भी अभिप्राय सबका एक ही है । इन लक्षणोंमें जो आप्त, आगम और गुरु अथवा जीवादि तत्त्वों के श्रद्धानको सम्यग्दर्शन बतलाया गया है उसे समयग्दर्शन न समझकर उसका कारण समझना चाहिये। पंचाध्यायीकार कहते हैं कि श्रद्धा, रुचि और प्रतीति आदि ये सम्यग्दृष्टि के बाह्य लक्षण हैं, किन्तु वे स्वयं सम्यक्त्व नहीं हैं; क्योंकि वे सब ज्ञानकी पर्यायें हैं। यहां तक कि वे तो स्वानुभूतिको भी उस सम्यक्त्वका बाह्य ही लक्षण मानते हैं, क्योंकि, वह स्वानुति भी तो ज्ञानकी पर्याय होनेसे ज्ञान के ही अन्तर्गत है४ । हां, यह अवश्य है कि यदि उक्त श्रद्धा आदि स्वानुभूति से संयुक्त हैं तब तो वे गुण हो सकते हैं; अन्यथा गुण न होकर
१. श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभूताम् ।
त्रिमूढापोढमष्टाङ्गं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ।। र. श्रा. ४. २. जीवाजीवादीनां तत्त्वार्थानां सदैव कर्तव्यम् ।
श्रद्धानं विपरीताभिनिवेशविविक्तमात्मरूपं तत् ।। पुरु. २२. ३. इत्येवं ज्ञाततत्त्वोऽसौ सम्यग्दृष्टिनिजात्मदृक् ।
वैषयिके सुखे ज्ञाने राग-द्वेषौ परित्यजेत् ॥ पंचाध्यायी २-३७१.
४. श्रद्धानादिगुणा बाह्यं लक्ष्म सम्यग्दृगात्मनः ।
न सम्यक्त्वं तदेवेति सन्ति ज्ञानस्य पर्ययाः ॥ अपि स्वात्मानुभूतिस्तु ज्ञानं ज्ञानस्य पर्ययात् । अर्थात् ज्ञानं न सम्यक्त्वमस्ति चेत् बाह्यलक्षणम् ॥ पंचाध्यायी २, ३८६-८७.