Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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प्रस्तावना
चूसनेके अयोग्य होता है वैसे ही मनुष्य पर्याय भी मूलमें- बाल्यावस्थामेंविषयोपभोगके अयोग्य रहती है; तथा मध्य भागमें जहां गन्ना कीडोंके द्वारा भक्षित होकर अनेक छेदोंसे युक्त हो जाता है वहां वह मनुष्य पर्याय भी मध्यम अवस्थामें भूख, प्यास, फोडा-फुसी, कोढ एवं जलोदर आदि भयानक अनेक रोगोंसे व्याप्त होती है । इस प्रकार गन्नेकी समानता होनेपर जिस प्रकार किसान उस निःसार गन्ने की गांठोंको सुरक्षित रखकर उनका बीजके रूपमें उपयोग करता हुवा उस निःसारको भी सारभूत किया करता है उसी प्रकार सत्पुरुषोंको इस मनुष्य पर्यायको भी परलोकका बीज बनाकर-परलोकमें स्वर्ग-मोक्षके अभ्युदयको प्राप्त्यर्थ जो तप-संयमादि अन्य पर्यायमें दुर्लभ हैं उन्हें धारण कर- सारभूत (सफल) करना चाहिये (८१) । आगे बाल्यादि अवस्थाओंका स्वरूप दिखलाते हुए जन्मके दुखका जो दिग्दर्शन कराया गया है वह स्मरणीय है (९८-९९) ।
इस प्रकार यद्यपि वह मनुष्य पर्याय दुर्लभ, अशुद्ध, दु.खोंसे परिपूर्ण, मरणज्ञानसे रहित एवं देवादिकी अपेक्षा अतिशय स्तोक आयुसे संयुक्त है; तथापि चूंकि वह तपश्चरणका अद्वितीय साधन है और तरके विना कदाचित् भी मुक्ति सम्भव नहीं है; अतएव उस दुर्लभ मनुष्य पर्यायको पाकर जन्ममरणके दुःसह दुखसे सर्वथा छटकारा पानेके लिये तपश्चरण करना चाहिये (१११)। इस प्रकारसे यहां तप आराधनामें प्रवृत्त होनेकी प्रेरणा की गई है।
ज्ञानाराधना सम्यग्दर्शन, सम्यक् वारित्र, और तपरूप शेष तीन आराधनायें चूंकि सम्यग्ज्ञानकी प्रेरणा पा करके ही अभीष्ट प्रयोजनकी साधक होती हैं, अतएव दर्शन आराधनाके पश्चात् ज्ञानाराधनाके स्वरूपका दिग्दर्शन कराते हुए संयमी पुरुषकी दीपकसे तुलना की गई है-- जिस प्रकार दीपकके पूर्वमें केवल प्रकाशकी प्रधानता होती है उसी प्रकार संयमी साधके भी पूर्वमें स्व-परप्रकाशक ज्ञानकी प्रधानता होती है । तत्पश्चात् वह सूर्यके समान ताप और प्रकाश दोनोंसे संयुक्त होकर शोभायमान होता हैज्ञानके साथ ही तप और चारित्रके अनुष्ठान (ताप) से भी संयुक्त हो जाता है। तथा जिस प्रकार दीपक प्रकाश और आतापसे संयुक्त होकर स्व एवं
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