Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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प्रस्तावना
वह मनके आश्रयसे ही होता है । परंतु आश्चर्य इस बातका है कि वह मन प्रियाको भोगनेके लिये अधीर तो बहुत होता है,पर स्वयं उसे भोग नहीं सकता है । वह तो केवल दूसरोंको-स्पर्शन आदि इंद्रियोंको-भोगते हुए देखकर आनन्दका अनुभव करता है । उक्त मन निश्चयतः न केवल शदसे ही-व्याकरणकी दृष्टिसे ही-नपुंसक है, किंतु अर्थसे भी-प्रियाको न भोग सकनेके कारण भी-नपुंसक है । फिर भला जो पुरुष शब्द और अर्थ दोनो ही प्रकारसे पुरुष है - व्याकरणसे पुल्लिग तथा पुरुषाथसे प्रियाके भोगनेमें समर्थ भी है-वह उस नपुंसक मनके द्वारा कैसे जीता जाता है,यह विचारणीय है ( १३७) अभिप्राय यह है कि पुरुषको स्वयं मनका दास न बनकर उसे ही अपना दास बनाते हुए स्वाधीन करना चाहिये।
समीचीन गुरु कौन ? जो गुरु शिष्यके दोषोंको देखता हुआ भी अविवेकतासे उन्हें प्रकाशित नहीं करता है वह वास्तव में गुरु नहीं है । कारण यह कि यदि उन दोषोंके विद्यमान रहते हुए शिष्यका मरण हो जाता है तो फिर वह गुरु उसका उद्धार कैसे कर सकता है ? इससे तो वह दुर्जन ही अच्छा, जो भले ही दुष्टबुद्धिसे भी क्यों न हो,क्षुद्र भी दोषोंको निरंतर बढा चढा कर कहता है १ (१४२) । इस कारण समीचीन गुरु उसको ही समझना चाहिये जो कि शिष्यके दोषोंको प्रगट करके उसे उनसे रहित करना चाहता है । ऐसा करते हुए गुरुको उस शिष्यके असंतुष्ट हो जानेकी भी शंका नहीं करना चाहिये, क्योंकि, जिस प्रकार तीव्र भी सूर्यको किरणें कमलकलिकाको प्रफुल्लित ही किया करती हैं उसी प्रकार गुरुके कठोर भी वचन सुयोग्य शिष्यके मनको प्रमुदित ही किया करते हैं (१४१)। जो बुद्धिमान् शिष्य आत्महितके इच्छुक होते हैं वे उक्त प्रकारसे दिखलाये गये दोषोंको छोडकर उनके स्थानमें सद्गुणोंको ग्रहण किया करते हैं। लोकमें श्रेष्ठ विद्वान् वही माना जाता है जो कारणांतरोंकी अपेक्षा न करके १. गुणान् यथैवोपदिशन् प्रशंसया गुरुत्वबुद्धया सुजनो नमस्यते । तथैव दोषान् दिशतःप्रणिन्दया कृतः खलस्यापि मयायमञ्जलिः॥च.च.१-९