Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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प्रस्तावना
निराकरणार्य उन्हें दण्डित करते हैं तो नमस्कार करना तो दूर रहा, वे तो उस अवस्थामें उनके संघको छोडकर स्वतन्त्रतासे पृथक् रहना ही पसंद करते हैं। इसका प्रत्यक्ष अनुभव वर्तमान साधुओंकी प्रवृत्तियोंसे सबको हो ही रहा है । आचार्योंकी इस कमजोरीका लाभ उठाकर साधुओंकी स्वेच्छाचारिता बढ जाती है । यह स्थिति ग्रन्थकार श्री गणभद्राचार्यके सामने निर्मित हो चुकी थीं। इसीलिये उन्हें यहां यह कहना पडा कि--
तपःस्थेष श्रीमन्मणय इव जाता: प्रविरलाः (१४९) ।
अर्थात् जैसे मणियोंके मध्य में कान्तिमान् मणि विरले ही पाये जाते हैं वैसे ही आजके साधुओंमें समीचीन संयमका परिपालन करनेवाले साधु विरले ही रह गये हैं।
___ आगे तो वे यहांतक कहते हैं कि अपनेको मुनि माननेवाले ये साधु स्त्रियोंके कटाक्षोंके वशीभूत होकर ऐसे व्याकुल हो रहे हैं जैसे कि व्याधके बाणसे विद्ध होकर हिरण व्याकुल होते हैं। इसलिये उन्होंने समीचीन साधुओंको सावधान करते हुए उनके संसर्गसे बचनेका उपदेश दिया है (१५०) ।
तपका अन्तिम फल निर्बाध मोक्षसुखकी प्राप्ति है। अतः उसकी प्राप्तिकी इच्छासे यदि छह खण्डोंका अधिपति चक्रवर्ती अपनी समस्त विभूतिको छोडकर उस तपका स्वीकार करता है तो यह कुछ आश्चर्यजनक बात नहीं है। आश्चर्य तो उसके ऊपर होता है कि जो बुद्धिमान् इन्द्रियविषयोंको विषके समान घातक जानकर प्रथम तो उनका परित्याग करता हुआ तपको स्वीकार करता है और फिर तत्पश्चात् वह उच्छिष्टके समान छोडे हुए उन्हीं विषयोंको पुन: भोगनेकी इच्छासे उस गृहीत तपको भी छोड़ देता है । ऐसा करते हुए वह अधम यह नहीं सोचता कि जो तप समस्त ही दुराचरणको शुद्ध करनेवाला है, उसे ही मैं मलिन क्यों करूं। देखो, पलंग आदि किसी ऊंचे स्थानपर स्थित अल्पवयस्क अज्ञानी बालक तो उसके ऊपरसे गिर जानेकी शंकासे भयभीत होता है, किन्तु तीनों लोकोंके शिखरस्वरूप उस तपके ऊपर स्थित वह विचारशील साधु अपने अधःपतनसे भयभीत नहीं होता है। यह खेदकी बात है (१६४-६६) ।