Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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आत्मानुशासनम्
आशाको यद्यपि अग्निकी उपमा दी जाती है,परन्तु वह उससे भी भयानक है । कारण यह कि अग्नि तो तबतक ही जलती है जबतक कि उसे ईंधन प्राप्त होता रहता है-ईंधनके विना वह स्वयमेव शांत हो जाती है। परन्तु आश्चर्य है कि वह आशारूप अग्नि ईंधन (इष्ट सामग्री) की प्राप्ति और अप्राप्ति दोनों ही अवस्थाओंमें जलती है-जबतक अभीष्ट विषयसामग्री प्राप्त नहीं होती है तबतक तो प्राणी उसकी अप्राप्तिमें संतप्त रहता है और जब वह प्राप्त हो जाती है तब वह उसकी उत्तरोतर बढती हुई तृष्णाके वश होकर संतप्त रहता है । जिस प्रकार ग्रीष्मकालीन सूर्य के तापसे पीडित कोई दुबल बैल उत्पन्न हुई प्यासकी वेदनाको शांत करनेके लिये किसी जलाशयके किनारे जाता है और वहां गहरे की चडमें फंसकर दुखी होता है उसी प्रकार यह अज्ञानी प्रागो सूर्यके समान संतापजनक इन्द्रियोंके वशीभूत होकर उत्पन्न हुई विषयतृष्णाको शांत करने के लिये उन उन विषयोंका प्राप्त करने का प्रयत्न करता है । परंतु वैसा पुण्य शेष न रहनेसे वे विषय उसे प्राप्त नहीं होते । तब वह केवल उस परिश्रमजनित दुखका ही अनुभव करता है (५५-५६) ।
इसका कारण यह है कि मूढ प्राणी आत्मा और शरीरमें भेद नहीं समझता । वह शरीरको ही आत्मा समझता है। परन्तु वह विनश्वर एवं जड शरीर आत्मा नहीं है । वह तो उससे भिन्न ज्ञायकस्वभाव,चेतन व नित्य है । यद्यपि वह स्वभावतः अमूर्तिक होकर भी कर्मवश अनादि कालसे उस मूर्तिक शरीरमें एकक्षेत्रावगाह स्वरूपसे स्थित है,तो भी वे दोनों दूधमें मिले हुए पानीके समान स्वरूपतः भिन्न ही हैं । जिस प्रकार अन्यके लिये सम्भव न होनेपर भी हंस दूधमें मिले हुए पानीको पृथक करके उसमेंसे केवल दूधको ग्रहण कर लेता है, उसी प्रकार विवेकी जन (अंतरात्मा) दोनोंके एक क्षेत्रावगाह स्वरूपसे स्थित रहनेपर भी उस परम ज्योतिस्वरूप आत्माको म्यानमें स्थित खड्गके समान उस शरीरसे पृथक् ही ग्रहण किया करते हैं। इसीलिये वे शरीरके निमित्तसे होनेवाले दुखका भी कभी अनुभव नहीं करते । किसीने यह ठीक ही कहा है--