Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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प्रस्तावना
देखो,जब वे गर्भमें आनेवाले थे तब उसके छह महिने पूर्व से ही इंद्र हाथ जाडकर दासके समान सेवामें संलग्न रहा । उधर उनका पुत्र भरत चक्रवर्ती चौदह रत्न और नौ निधियोंका भी स्वामी था । तथा युगके आदिमें वे स्वयं सृष्टिके स्रष्टा थे । फिर भी उन्हें क्षुधा के वश होकर छह महिने पृथिवीपर घूमना पडा । यह उस दैवकी प्रबलता नहीं तो क्या है ?
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यह सब जानता हुआ भी प्राणी आशारूप पिशाचके वशीभूत होकर कभी खेती में प्रवृत्त होता है तो कभी राजाओंकी सेवा करता है, और कभी समुद्र आदिके मार्ग से देश-विदेश में परिभ्रमण भी करता है । परंतु जिस प्रकार बालुसे कभी तेल नहीं निकल सकता है तथा विषभक्ष से जीवित नहीं रह सकता है उसी प्रकार इस विषयतृष्णा से प्राणीको कभी सुखका लाभ भी नहीं हो सकता है । वह केवल मोहवश व्यर्थका परिश्रम करता हुआ दुखी ही रहता है । सच्चा सुख तो उसे उस आशा के निराकारणसे ही प्राप्त हो सकता है (४२) | किसीने यह ठीक ही कहा है
जहां चाह तहां दाह है हुईये वेपरवाह । चाह जिन्होंकी मिट गई वे शाहन के शाह ||
यह आशा एक प्रकारकी नदी है- जिस प्रकार नदी प्रवाहम पडकर प्राणी दूर तक बहता ही चला जाता है और अन्तमें समुद्र में जाकर वहां भयानक जलजन्तुओं का ग्रास बन जाता है उसी प्रकार यह प्राणी भी उस आशा के वशीभूत होकर निरंतर अभीष्ट विषयसामग्रीको प्राप्त करनेके लिये परिश्रम करता है और अन्तमें मृत्युका ग्रास बनकर धर्मसे विमुख होनेके कारण संसार समुद्रमें दीर्घ काल तक गोता खाता है (४९) कवि भूधरदासजीने यह ठीक ही कहा है
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चाहत है धन होय किसी विध तो सब काज सरें जियराजी | गेह चिनाय करूं गहना कछु व्याह सुता-सुत बांटिय भाजी ॥ चितत यो दिन जाहिं चले जम आन अचानक देत दगाजी । खेलत खेल खिलारी गये हि जाय रुपी सतरंजकी बाजी ।