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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
अलङ्कार के सम्बन्ध में मम्मट की दृष्टि को और स्पष्ट रूप से समझने के लिए उनके अलङ्कार-लक्षण पर विचार कर लेना अपेक्षित है। उन्होंने काव्यपुरुष के सम्पूर्ण व्यक्तित्व की कल्पना कर उसमें अलङ्कार का स्थान निर्धारित करने का प्रयास किया है। शब्द और अर्थ काव्य-पुरुष के शरीर हैं । रस उसकी आत्मा है और माधुर्य आदि रस के धर्म-काव्य गुण-मानव के शौर्य आदि गुण की तरह उसके गुण हैं । अलङ्कार काव्य-पुरुष के शरीर कोशब्द और अर्थ को-विभूषित करते हैं; अतः वे मानव-शरीर के हार आदि आभूषण की तरह उसके अलङ्कार हैं। लोक-जीवन में जैसे हार आदि आभूषण धारण करने वाले का शरीर अलङ कृत होकर लोक-धारणा को प्रभावित करता है और इस प्रकार अलङ कृत व्यक्ति की आत्मा का उपकार होता है, उसी प्रकार काव्य के अलङ्कार से काव्य का शब्दार्थ-रूप शरीर अलङ कृत' होकर उसकी आत्मा रस को उपकृत करता है।'
मम्मट ने काव्यालङ्कार के लिए हार आदि लौकिक आभूषणों को उपमान बनाया था। उनके पूर्व भी मानव-शरीर के बाह्य अलङ्कार के साथ काव्य के अलङ्कार की उपमा दी गई थी। लौकिक आभूषण के साथ तुलना करते हुए विश्वनाथ ने अलङ्कार को काव्य का बहिरङ्ग और अनित्य धर्म कहा है। भोज ने बाह्य, आभ्यन्तर और बाह्याभ्यन्तर; इन तीन वर्गों में अलङ्कार का विभाजन किया था। इस विभाजन की परीक्षा के क्रम में हम देख चुके हैं कि यह विभाजन वैज्ञानिक नहीं है ।
काव्य के अलङ्कार को काव्य-शरीर के साथ संयोग-वृत्ति से सम्बद्ध बाह्य धर्म मानने वाले मत के औचित्य की परीक्षा के लिए हम काव्य की सृजनप्रक्रिया पर विचार करें। काव्य कवि की अनुभूति की व्यञ्जना है। अनुभूति को व्यक्त करने के क्रम में कवि अपनी उक्ति को अलङ कृत बनाकर प्रस्तुत कर सकता है। अतः अलङ्कार काव्य के सहजात ही होते हैं । लौकिक आभूषण मानव शरीर के साथ उत्पन्न नहीं होते; पर काव्य का शब्दार्थ-शरीर सृजनप्रक्रिया में अलङ कृत होकर ही अवतरित होता है। उक्ति का चमत्कार १. उपकुर्वन्ति तं सन्तं येऽङ्गद्वारेण जातुचित् । हारादिवदलङ्कारास्तेऽनुप्रासोपमादयः ।
-मम्मट, काव्य प्रकाश, ८, ६७, पृ० १८६ २. शब्दार्थयोरस्थिरा ये धर्माः शोभातिशायिनः । । रसादीनुपकुर्वन्तोऽलङ्कारास्तेऽङ्गदादिवत् ॥
-विश्वनाथ, साहित्य द० १०, १,पृ० ५५७