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१८ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण लिए अलङ्कार शब्द का प्रयोग माना है। काव्य-सौन्दर्य के सामान्य अर्थ में अलङ्कार ही काव्य है; क्योंकि सौन्दर्य से पृथक् काव्य की कल्पना ही नहीं की जा सकती। इस तरह वह काव्य-सौन्दर्य अलङ्कार भी है और अलङ्कार्य भी। काव्य के सभी सौन्दर्याधायक तत्त्व इस अर्थ में अलङ्कार हैं; पर विशिष्ट अर्थ में वामन ने अलङ्कार को काव्य की स्वाभाविक शोभा की वृद्धि का हेतु कहा है। उनके अनुसार रीति या विशेष प्रकार की पद-संघटना काव्य-सर्वस्व है।' वही अलङ्कार्य है। उसके सौन्दर्य के हेतु गुण होते हैं। रीति में गुण से उद्भूत सौन्दर्य की अलङ्कार से वृद्धि होती है। रीति या पद-संघटना तत्त्वतः शब्दार्थ से भिन्न नहीं। अतः रीतिवादी आचार्यों के अनुसार भी शब्दार्थ ही अलङ्कार्य सिद्ध होते हैं। वक्रोक्तिवादी कुन्तक ने अलङ्कार और अलङ्कार्य के प्रश्न पर बहुत गहन विचार किया है। उनके अनुसार वक्रोक्ति या चमत्कारपूर्ण कथनशैली अलङ्कार है और शब्दार्थ अलङ्कार्य ।२ इसीलिए वे स्वाभाविक उक्ति को अलङ्कार्य मानकर स्वभावोक्ति की अलङ्कारता का खण्डन करते हैं। __रसवादी समीक्षा के जनक भरत ने अलङ्कार के अलङ्कार्य का स्पष्टतः उल्लेख नहीं किया था, फिर भी अभिनवगुप्त ने अलङ्कार का काव्य में स्थान निरूपित करते हुए यह मन्तव्य प्रकट किया है कि भरत काव्य के लक्षण को शरीर-स्थानीय मानते थे । अतः उनके लक्षण को ही उनके मतानुसार अलङ्कार्य मानना चाहिए। हमने यह देखा है कि भरत के अनेक लक्षण पीछे चलकर अलङ्कार के रूप में स्वीकार कर लिये गए हैं । लक्षण शब्दार्थ के शोभाधायक धर्म थे। लक्षणों से समुद्भूत शब्दार्थ-सौन्दर्य की अभिवृद्धि में अलङ्कार की सार्थकता मानी गयी थी। अतः तात्त्विक रूप में लक्षण या लक्षणयुक्त शब्दार्थ को ही भरत अलङ्कार्य मानते होंगे।
काव्यशास्त्र में रस और ध्वनि-प्रस्थान की स्थापना हो जाने पर अलङ्कार और अलङ्कार्य के सम्बन्ध में मौलिक दृष्टि-भेद आया। रस या ध्वनि को
१. रीतिरात्मा काव्यस्य । -वामन, काव्यालं० सू० वृ० १, २, ६ २. उभावतावलंकायौं तयोः पुनरलंकृतिः ।
वक्रोक्तिरेव वैदग्ध्यभङ्गीभणितिरुच्यते ॥–कुन्तक, वक्रोक्ति जी०१,१० ३. द्रष्टव्य वही, १, कारिका १०-१५, पृ० ५१-५६ ४. काव्ये तावल्लक्षणं शरीरं, तस्योपमादयस्त्रयोऽर्थभागे, यथा हि
पृथग्भूतेन हारेण रमणी विभूष्यते तथोपमानेन शशिना तत्सादृश्येन वा कविबुद्धिचञ्चलतया परिवर्त्तमानत्वात् पृथक्सिद्धेनैव प्रकृतवर्णनीयवनितावदनादि सुन्दरीक्रियत इति तदेवालङ्कारः।।
-ना० शा०, अभिनव कृत अभिनव भारती टीका, पृ० ३२१