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अलङ्कार का स्वरूप और काव्य में उसका स्थान . [ १७ अलङ्कार है और काव्य की उक्तियां-यदि वे अलङ कृत या चमत्कारपूर्ण हों तो -अपने अलङ्कार या विशेष विच्छित्ति के साथ ही व्यक्त होती हैं । अतः हार आदि लौकिक आभूषण से काव्यालङ्कार की उपमा सटीक नहीं बैठती। इस उपमा का तात्पर्य इतना ही समझा जाना चाहिए कि अलङ्कार शरीर के साथ ही प्रत्यक्षतः सम्बद्ध रहते हैं, आत्मा का उपकार वे शरीर के माध्यम से ही कर सकते हैं। जो अलङ्कार भावाभिव्यञ्जना के उत्कर्ष में सहायक हों और भावाभिव्यक्ति के क्रम में सहज भाव से आ जाते हों-ऐसे अपृथग्यत्ननिर्वर्त्य अलङ्कार को बहिरङ्ग नहीं माना जाना चाहिए। अलङ्कार को काव्य का अनित्य धर्म केवल इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि अलङ्कार के अभाव में भी सुन्दर काव्य की सत्ता रहती है। काव्य में अलङ्कार की सार्वत्रिक स्थिति अनिवार्य नहीं। दूसरे, कहीं-कहीं अलङ्कार काव्य की आत्मा रस के अनुपकारी भी हो जाते हैं। ऐसे अलङ्कार-अलङ्कार नहीं, शोभावर्धक धर्म नहीं। केवल भाव-समृद्धि से, रसपेशलता से अकृत्रिम तथा अलङ्काररहित उक्ति भी सुन्दर काव्य मानी जाती है, पर रस का उपकार करनेवाले अलङ्कार का महत्त्व अनुपेक्षणीय है। रस के उपकार में ही अलङ्कार की सार्थकता है । रस-ध्वनिवादी आचार्यो की इस मान्यता को ध्वनि-विरोधी ( रसानुमितिवादी) महिम भट्ट ने भी स्वीकार किया है।'
अलङ्कार के सम्बन्ध में दो प्रश्न बहुधा उठाये जाते रहे हैं-(१) अलङ्कार यदि अलङ कृत करने-शोभा का आधान या स्वाभाविक शोभा की वृद्धि करने के साधन हैं, जैसा कि करण-व्युत्पत्ति से अलङ्कार शब्द का अर्थ माना गया है, तो वे काव्य में अलङ कृत किसे करते हैं ? दूसरे शब्दों में काव्यालङ्कार का अलङ्कार्य किसे माना जाय ? (२) अलङ्कार और अलङ्कार्य क्या एक दूसरे से सर्वथा स्वतन्त्र सत्ता रखते हैं ? ___भामह, उद्भट आदि आचार्यों ने शब्द और अर्थ को अलङ्कार्य माना है। भामह ने शब्द और अर्थ को काव्य कहकर उन्हें ही अलङ्कार्य स्वीकार किया है। उद्भट ने अलङ्कार को 'वाचाम् अलङ्कार' कह कर वाक् अर्थात् शब्द तथा अर्थ को अलङ्कार्य स्वीकार किया है। रीतिवादी वामन ने व्यापक अर्थ में तो अलङ्कार को सौन्दर्य का पर्याय कहा है; पर विशिष्ट अर्थ में उपमा आदि के १. विनोत्कर्षापकर्षाभ्यां स्वदन्तेऽर्था न जातुचित् । तदर्थमेव कवयोऽलंकारान्पर्युपासते ॥
-महिमभट्ट, व्यक्तिविवेक, २, १४