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अलङ्कार का स्वरूप और काव्य में उसका स्थान
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काव्य की आत्मा के रूप में स्वीकृति मिलने के कारण शरीरभूत शब्दार्थ का महत्त्व गौण पड़ गया। वाचक शब्द और वाच्य अर्थ का काव्य में उसी अंश तक महत्त्व माना जाने लगा, जिस अंश में वे व्यङ ग्यार्थ या ध्वनि में सहायक होते हैं। पीछे अभिधा-मात्र को एक शब्द-शक्ति मानकर वाच्यार्थ के महत्त्व की स्थापना का प्रयास भी काव्यशास्त्रीय चिन्तन को विशेष प्रभावित नहीं कर पाया। अस्तु ; रस-ध्वनि-सम्प्रदाय में काव्य के आत्मभूत रस या ध्वनि को ही अलङ्कार्य माना गया। प्रमुखतः अलङ्कार का सम्बन्ध शब्द और अर्थ से ही रहता है; पर शब्दार्थ-मात्र के उपस्कार में अलङ्कार की सार्थकता नहीं। शब्दार्थ का उपस्कार कर उनके माध्यम से काव्य के अङ्गी रस या ध्वनि के उपकार में ही उसकी सार्थकता है। यदि अङ्गी न हो तो अलङ्कार से अङ्ग का भी उपस्कार नहीं हो सकता। मृत व्यक्ति के निष्प्राण शव को कितने भी मूल्यवान रत्नाभरण से लाद दिया जाय, उसमें सुन्दरता नहीं आ सकती। रस-ध्वनिवादी आचार्यों की दृष्टि में भावहीन काव्य अलङ्कार के चमत्कार से युक्त होने पर भी निष्प्राण होता है, निस्तेज होता है । अतः, उनकी दृष्टि में अलङ्कार्य तत्त्वतः रस या ध्वनि ही है। इस प्रकार काव्य के शरीरभूत शब्द और अर्थ को, शरीर के सहजात कान्ति आदि धर्म के समान काव्य के शब्दार्थगत लक्षण को तथा रस या ध्वनि को अलङ्कार्य और अनुप्रास, उपमा आदि को अलङ्कार माननेवाले तीन मत सामने आते हैं । लक्षण को अलङ्कार्य माननेवाले उसके आश्रयभूत शब्दार्थ को भी अलङ्कार्य स्वीकार करेंगे ही। अतः, काव्यशरीर और काव्य की आत्मा को अलङ्काये माननेवाले दो मत ही मुख्य हैं, जो समीक्षकों की काव्य-विषयक बहिरङ्ग और अन्तरङ्ग दो दृष्टियों के अलग-अलग परिणाम हैं। अलङ्कार और अलङ्कार्य ___ अब हम अलङ्कार और अलङ्कार्य के भेद-अभेद के प्रश्न पर विचार करें। काव्य कवि की अनुभूति की व्यञ्जना है। कवि अपनी अनुभूति को अनेक प्रकार से प्रभावोत्पादक बनाकर व्यक्त करना चाहता है। काव्य के अलङ्कार उसकी इसी इच्छा के फल होते हैं। कवि की वाणी जब अलङ कृत होकर कवि की अनुभूति की व्यञ्जना करने लगती है, तब वाणी के अलङ्कार
१. विवक्षा तत्परत्वेन...]-आनन्दवर्धन, ध्वन्या० २, कारिका सं० ४१ २. तथा हि अचेतनं शवशरीरं कुण्डलाद्य पेतमपि न भाति, अलंकार्यस्याभावात् ।
-अभिनवगुप्त, ध्वन्या० लोचन, पृ० ७५