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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
उस पूर्ण व्यञ्जना के अविशिष्ट साधन बनकर ही आते हैं। किसी कवि की अनुभूति की अभिव्यञ्जना जिस रूप में हुई है—यदि वह अलङ कृत है, तो जिस अलङ्कार के साथ हुई है-उससे भिन्न रूप में ठीक वैसी ही व्यञ्जना सम्भव नहीं है। एक प्रकार की उक्ति का अर्थ दूसरे प्रकार की उक्ति के अर्थ से अभिन्न हो ही नहीं सकता। ऐसी स्थिति में कवि की अलङ कृत उक्ति का अर्थ अलङ्कार और अलङ्कार्य को अलग-अलग कर व्यक्त किया ही नहीं जा सकता । अलङ्कार यदि कथन की चमत्कारपूर्ण भङ्गी का प्रकारविशेष है तो कवि की उक्ति से उस विशेष भङ्गिमा को निकालकर उसकी व्यञ्जना को अक्षुण्ण नहीं रखा जा सकता। अलङ्कार को निकालकर—उक्ति की चमत्कारपूर्ण भङ्गी को अलग कर-जो सीधा कथन बच रहेगा उसे कवि की अनुभूति की अभिव्यञ्जना नहीं कहा जा सकेगा । अतः वह अवशिष्ट अलङ्कारहीन उक्ति काव्य नहीं होगीअलङ्कार्य नहीं होगी। (जहाँ कवि की अनुभूति अनलङ कृत रूप में ही व्यक्त हुई हो वहाँ की बात और है । वहाँ वही पूर्ण व्यञ्जना है, वही काव्य है ।) एक अलङ कृत काव्योक्ति का उदाहरण लेकर हम इस तथ्य को सष्ट करेंगे । सूर ने विरहिणी गोपियों की पीड़ा की कल्पना करते हुए माना है कि काली रात उन्हें नागिन के दंश की तरह पीड़ा देती है और जब उस रात्रि के अन्धकार को दूर करती हुई चाँदनी फैल जाती है तब तो उनकी वियोग-व्यथा और तीव्र हो उठती है, जैसे नागिन डॅसकर उलट गई हो
पिया बिन नागिन काली रात।
कबहुँक जामिनि होत जुन्हया, डसि उलटो ह जात ॥' नागिन जब डंसकर उलट जाती है तो वह दंश में और भी अधिक विष भर देती है। काली नागिन उलटती है तो उसके नीचे का उजला भाग ऊपर आ जाता है। रात्रि के अन्धकार के बाद चाँदनी के छा जाने में नागिन का यह रूप साम्य भी है।
सूर के उक्त पद में यदि अलङ्कार और अलङ्कार्य को अलग-अलग कर देखें, तो यह मानेंगे कि इसमें मुख्य कथ्य या अलङ्कार्य है-'वियोगिनी गोपियों के लिए रात्रि का अन्धकार तो दुःखद है ही, चाँदनी छाने से उनका दुःख और भी बढ़ जाता है । सष्ट है कि यह कथन कवि की उक्त दो पंक्तियों में व्यजित अर्थ से सर्वथा भिन्न है। उन पंक्तियों में अलङ्कार और अलङ्कार्य के अलग-अलग अस्तित्व की कल्पना न कर उसे कवि की अनुभूति की एक पूर्ण अभिव्यञ्जना
१. सूरसागर