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:१४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण आनन्दवर्धन के अनुसार अलङ्कार की सार्थकता रस के प्रकाशन में ही है । रस की व्यञ्जना वाच्यार्थ से ही होती है । अलङ्कार वाच्य अर्थ तथा वाचक शब्द का उपस्कार कर रस की व्यञ्जना में सहायक होते हैं। रस-सिद्ध कवि के भावोद्वेलित हृदय का उद्गार जब अनायास काव्यात्मक रूप में अभिव्यक्त होने लगता है, तो कितने ही अलङ्कार सहज भाव से उसमें समाविष्ट हो जाते हैं। कवि को अलङ्कार-योजना के लिए आयास नहीं करना पड़ता । अलङ्कार तो जैसे परस्पर होड़ लगाकर उस अभिव्यक्ति में स्थान पाने के लिए आ जुटते हैं।' भावाभिव्यक्ति के क्रम में सहज भाव से समाविष्ट अलङ्कार भाव-व्यञ्जना को सबल बनाते हैं। अतः ऐसे अलङ्कार को बाह्य धर्म मानना उचित नहीं। रस-व्यञ्जना के साथ सहज भाव से आनेवाले अलङ्कार को आनन्दवर्द्धन ने 'अपृथग्यत्ननिर्वर्त्य' अलङ्कार कहा है। ऐसे अलङ्कार ही "ध्वनि-काव्य में ग्राह्य होते हैं। जिस कवि के हृदय में गहन भावानुभूति नहीं होती, वह केवल उक्तिभङ्गी से पाठक को चमत्कृत करने के लिए सायास अलङ्कारों की योजना करता है । उसे अलङ्कार-योजना के लिए भाव-व्यञ्जना से अतिरिक्त श्रम करना पड़ता है। इसलिए ऐसे अलङ्कार 'पृथग्यत्ननिर्वयं' माने गये हैं। ऐसी सायास अलङ्कार-योजना आनन्दवर्धन के अनुसार अग्राह्य है। ___आनन्दवद्धन की मान्यता है कि अलङ्कार वाच्योपस्कारक होने के कारण काव्य के शरीर हैं (शरीरभूत शब्दार्थ से अविभाज्य रूप में सम्बद्ध हैं); पर कभी वे शरीरी भी बन सकते हैं। अलङ्कार वाच्य हों तो शरीर किन्तु व्यङ ग्य होने पर ध्वनि का अङ्ग होते हुए भी शरीरी का पद प्राप्त कर लेते हैं। 3 अभिनवगुप्त ने इस कथन का तात्पर्य स्पष्ट करते हुए कहा है कि अलङ्कार कभी-कभी रमणी के कुङ कुम-लेप की तरह शरीर का सुश्लिष्ट आभूषण बन जाते हैं । पर, उन्हें शरीर कहना भी कठिन है, उनके आत्मा बनने का तो १. ..."अलङ्कारान्तराणि हि निरुप्यमाणदुर्घटनान्यपि रससमाहितचेतसः
प्रतिभानवतः कवेरहम्पूर्विकया परापतन्ति ।—वही, २, पृ० १३१ । २. रसाक्षिप्ततया यस्य बन्धश्शक्यक्रियो भवेत् । ____ अपृथग्यत्ननिर्वर्त्यः सोऽलङ्कारो ध्वनौ मतः ।।-आनन्दवर्धन, ध्वन्या०
कारिका सं० ३६, पृ० १२६ ३. शरीरीकरणं येषां वाच्यत्वेन व्यवस्थितम् । तेऽलङ्काराः परां छायां यान्ति ध्वन्यङ्गतां गताः।-वही, कारिका सं०
५१ पृ० २१४ ।