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अलङ्कार का स्वरूप और काव्य में उसका स्थान
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विन्यास से अलङ्कार काव्य- शोभा के बाधक ही बन जाते हैं । संन्यासी आभूषण पहन ले तो उससे उसकी कान्ति नहीं बढ़ ेगी । अनौचित्य के कारण वे आभूषण संन्यासी को हास्य का आलम्बन ही बना देंगे। लोक-जीवन में भी जैसे आभूषण अपने उचित स्थान में रहकर ही शोभावृद्धि करते हैं उसी तरह काव्य के अलङ्कार भी उचित स्थान में ही शोभाकारी होते हैं । कटि की मेखला गले में डाल ली जय और हार कमर में पहन लिया जाय, तो सौन्दर्य बढ़ने के बजाय बिगड़ ही जायगा । क्षेमेन्द्र ने हार, मेखला आदि के साथ काव्यालङ्कार की उपमा देकर उसे काव्य का बहिरङ्ग धर्म ही माना है; पर उचित स्थान में अलङ्कार की योजना को काव्य-सौन्दर्य में सहायक मानकर उसकी उपादेयता स्वीकार की है । वस्तुतः अलङ्कार ही क्या, सभी काव्य-तत्त्वों की उचित योजना होनी ही चाहिए । औचित्य के अभाव में सभी काव्याङ्ग असुन्दर और अग्राह्य हो जाते हैं । यह स्पष्ट है कि क्षेमेन्द्र में न तो अलङ्कार को सभी काव्य-तत्त्वों में प्रधान मानकर उसे काव्य-सौन्दर्य का आवश्यक हेतु मानने का आग्रह है, न उसे बहिरङ्ग मानकर उसकी अवमानना का ही आग्रह है । औचित्यपूर्ण अलङ्कारयोजना काव्य को सुन्दर बनाती है । अतः वह ग्राह्य है ।
ध्वनि - सम्प्रदाय में काव्य में अलङ्कार के स्थान - निरूपण का महत्त्वपूर्ण आयास हुआ है । ध्वनि-सम्प्रदाय के आचार्यों की दृष्टि अपेक्षाकृत अधिक उदार, पूर्वाग्रहमुक्त तथा वैज्ञानिक रही है । उन्होंने अलङ्कार आदि सम्प्रदाय के आचार्यों की तरह काव्य के किसी एक तत्त्व के प्रति अनावश्यक मोह से सभी तत्त्वों को उसी में अन्तर्भुक्त मान लेने का अशास्त्रीय आग्रह नहीं दिखाया है । उन्होंने ध्वनि को काव्य की आत्मा मानने पर भी गुण, रीति, अलङ्कार आदि काव्य-तत्त्वों का तटस्थ भाव से काव्य में स्थान निरूपित किया है । आनन्दवर्द्धन के पूर्व अलङ्कार को बाह्य तथा अन्तरङ्ग काव्य-धर्म माननेवाले दो मत प्रचलित थे । आनन्दवर्द्धन ने उन मतों में समन्वय स्थापित करते हुए रसोत्कर्ष में उपादेयता की दृष्टि से अलङ्कार का मूल्याङ्कन किया है । अलङ्कार के सम्बन्ध में उनकी सामान्य धारणा है कि रस को प्रकाशित करनेवाले वाच्य-विशेष ( चमत्कारपूर्ण कथन) ही रूपक आदि अलङ्कार हैं । २ स्पष्टतः
१. कण्ठे मेखलया नितम्बफलके तारेण हारेण वा
पाणौ नूपुरबन्धनेन चरणे केयूरपाशेन वा ॥
शौर्येण प्रणते रिपौ करुणया नायान्ति के हास्यताम् । - वही, पृ० १८६, २. तत् (रस) प्रकाशिनो वाच्यविशेषा एव रूपकादयोऽलङ्काराः । — आनन्दवर्धन, ध्वन्यालोक, २ पृ० १३२