Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आवश्यक निर्युक्ति
सुत्तपरिवाडी' ' सूत्र - पद्धति की विविध प्रकार से व्याख्या करके शिष्यों को समझाने हेतु निर्युक्ति की रचना की जा रही है। उदाहरण देते हुए भाष्यकार कहते हैं कि जैसे मंख चित्रफलक पर लिखित वस्तु को भी अंगुलि, शलाका आदि से इशारा करके तथा मुंह से बोलकर समझाता है। इसी प्रकार श्रोता को सुखपूर्वक समझाने के लिए उन पर अनुग्रहबुद्धि से सूत्र में निर्युक्त अर्थ की भी आचार्य व्याख्या करते हैं। आचार्य हरिभद्र कहते हैं कि 'इच्छावेइ' शब्द से नियुक्तिकार का तात्पर्य है कि शिष्य ही सूत्र को सम्यग् न समझने के कारण गुरु को प्रेरित करके सूत्र - व्याख्या करने की इच्छा उत्पन्न करते हैं। भाष्यकार के अनुसार बिना इच्छा के भी शिष्य आचार्य को सूत्र - परिपाटी अर्थात् सूत्र की व्याख्या रूप निर्युक्ति लिखने को प्रेरित करते हैं।
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पिंडनियुक्ति की टीका में मलयगिरि स्पष्ट कहते हैं कि स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में कुछ लिखना नियुक्तिकार का प्रयोजन नहीं था। सूत्र में निबद्ध अर्थ को व्याख्यायित करना ही उनको अभीष्ट था ।" जिन भद्रगणि क्षमाश्रमण भी निर्युक्ति लिखने का प्रयोजन स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि मंदबुद्धि शिष्य व्याख्या के बिना सारे अर्थों को नहीं जान पाते अतः सूत्र में कहे गए अर्थों को निर्युक्ति के द्वारा व्याख्यात किया जाता है।
नियुक्ति के भेद
मुख्यतः नियुक्ति के तीन भेद मिलते हैं - १. निक्षेप निर्युक्ति २. उपोद्घात निर्युक्ति ३. सूत्र - स्पर्शिक नियुक्ति | सर्वप्रथम निक्षेप निर्युक्ति में निक्षेप द्वारा पारिभाषिक शब्दों का अर्थकथन होता है । नियुक्ति और निक्षेप का भेद स्पष्ट करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि नियुक्ति में सूत्र की व्याख्या होती है। और निक्षेप में सूत्र का न्यास मात्र होता है ।' उपोद्घात निर्युक्ति में २६ प्रकार से उस विषय या शब्द की मीमांसा होती है।
व्याख्येय सूत्र को व्याख्या-विधि के निकट लाना, जिस सूत्र की जिस प्रसंग में जो व्याख्या करनी हो, उसकी पृष्ठभूमि तैयार करना उपोद्घात कहलाता है । उपोद्घात के अर्थ का कथन उपोद्घात निर्युक्ति है। यहां सामायिक के माध्यम से उपोद्घात के छब्बीस द्वारों की व्याख्या की जा रही है
१. उद्देश - सामान्य रूप से नाम कथन करना, जैसे -- आवश्यक । - विशेष नाम का निर्देश करना १२, जैसे- सामायिक ।
२. निर्देश ११.
१. आवनि ८२ ।
२. विभामहे १०८९, महेटी पृ. २५० ।
३. आवहाटी. १ पृ. ४५ ।
४. विभामहे १०८८;
तो सुपरिवाडि च्चिय, इच्छावेइ तमणिच्छमाणं पि । निज्जुत्ते वि तदत्थे, वोत्तुं
।
तदणुग्गहट्ठाए ५. पिंनिटी. प. १; निर्युक्तयो न स्वतंत्रशास्त्ररूपाः किंतु तत्तत्सूत्रपरतंत्राः तथा तद्व्युत्पत्याश्रयणात् तथाहि सूत्रोपात्ता अर्थाः स्वरूपेण संबद्धा अपि शिष्यान् प्रति निर्युज्यन्ते - निश्चितं संबद्धा उपदिश्य व्याख्यायंते यकाभिस्ताः निर्युक्तयः ।
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६. विभामहे १०८७ ;
निज्जुत्ताणं, निज्जुत्ती पुणो किमत्थाणं ? । निज्जुत्ते वि न सव्वे, कोइ अवक्खाणिए मुणइ ॥ ७. विभामहे ९६७; निज्जुत्तितिविकप्पा, णासोवग्घातसुत्तवक्खाणं । ८. विभामहे ९६५ ; निज्जुत्ती वक्खाणं, निक्खेवो नासमेत्तं तु । ९. आवनि. १२५, १२६ ।
१० विभामहेटी पृ. ३१९; वस्तुनः सामान्याभिधानमुद्देशः । ११. उद्देश निर्देश की विस्तृत जानकारी हेतु देखें,
विभामहे ९७५ - ९८४ । १२. विभामहेटी पृ. ३१९; निर्देशनं निर्देश:,
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वस्तुन एव विशेषाभिधानं यथा - सामायिकम् ।
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