Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust

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Page 66
________________ ४६ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ८.-उद्देशक. १. भेदो भाणिअव्वो, जाव जे य पजत्तासव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइअ०, जाव परिणता ते वेउब्विय तेआ-कम्मासरीरपओगपरिणया (दं. ३.). जे अपज्जत्तासुहमपुढविक्काइअएगिदिअपयोगपरिणता ते फासिदिअपयोगपरिणया । जे पजत्तासुहुमपुढविकाइम० एवं चेव। जे अपजत्तावादरपुढविक्काइअ० एवं चेव, एवं पजत्तगा वि । एवं चउक्कएणं भेदेण जाव वणस्सतिकाइआ। जे अपजत्तावेइंदियपयोगपरिणया ते. जिभिदिय-फासिदियपयोगपरिणया, जे पजत्तावेइंदिय० एवं चेव, एवं जाव चतुरिंदिया, नवरं एक्ककं इंदियं वड्ढयव्वं, जाव अपजत्तरयणप्पभापुढविनेरइयपंचिंदियपयोगपरिणता ते सोइंदिय-चक्खिदिय-घाणिदिय-जिभिदिय-फासिदियपओगपरिणया । एवं पज्जत्तगा वि, एवं सव्वे भाणिअव्वा तिरिक्खजोणिय-मणुस्स-देवा, जाव जे पज्जत्तासब्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइअ० जाव परिणया ते सोइंदिय-चविखदिय० जाव परिणया। (दं.४.). जे अप्पजत्तासुहुमपुढविकाइअएगिदियओरालिय-तेया-कम्मसरीरपयोगपरिणया ते फासिंदियप्पओगपरिणया । जे पज्जत्तासुहुम० एवं चेव, बादरअपजत्ता एवं चेव, एवं पजत्तगा वि । एवं एतेणं अभिलावेणं जस्स जति इंदियाणि सरीराणि य ताणि भाणिअवाणि, जाव'जे पजत्तासचट्टसिद्धअणुत्तरोववाइअ.जाव देवपंचिंदियवेउधिय-तेया-कम्मासरीरप्पओगपरिणया ते सोइंदिय-चविखदिय-जाव फासिंदियप्पयोगपरिणता । (दं. ५.). ___ जे अपजत्तासुहुमपुढविकाइअएगिदियपयोगपरिणया ते वन्नओ कालवनपरिणया वि, नील-लोहिय-हालिह-सुक्किल, गंधओ सुब्भिगंधपरिणया वि, दुभिगंधपरिणया वि; रसओ तित्तरसपरिणया वि, कडुयरसपरिणया वि, कसायरसपरिणया वि, अंबिलरसपरिणया वि, महुररसपरिणया वि; फासओ काखडफासपरिणया वि, जाव लुक्खफासपरिणया वि; संठाणओ परिमंडलसंठाणपरिणया वि, वट्ट-तंस-चउरंस-आयत-संठाणपरिणया वि। जे पजत्तसुहमपुढवि० एवं चेव; एवं जहाणुपुव्वीप नेयव्वं, जाव जे पजत्तासव्वदृसिद्धअणुत्तरोववाइअ० जाव परिणता ते वन्नओ कालवनपरिणया वि, जाव आयतसंठाणपरिणया वि । (दं०.६.). चतुर्थ देख पुद्गलो अपर्याप्तसर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिक यावत् [ पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक-1 प्रयोगपरिणतं छे, ते वैक्रिय, तैजस अने कार्मणशरीरप्रयोगपरिणत छे. ए प्रमाणे त्रण दंडक कह्या. . जे पुद्गलो अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे, जे पुद्गलो पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते ए प्रमाणे [ स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत ] छे. जे पुद्गलो अपर्याप्तबादरपृथिवीकायिकप्रयोगपरिणत छे ते पण एज प्रकारे छे. जे पुद्गलो पर्याप्तबादरपृथिवीकायिकप्रयोगपरिणत छे ते पण एवाज छे.. ए प्रमाणे चार भेदो यावद् वनस्पतिकायिकोना जाणवा. जे पुद्गलो अपर्याप्तबेइन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते जिह्वाइन्द्रिय अने स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे. जे पर्याप्तबेइन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते ए प्रमाणे जाणवा. ए प्रकारे यावत् चउरिन्द्रिय जीवो जाणवा; परन्तु एक एक इन्द्रिय वधारवी [अर्थात् त्रीन्द्रियजीवोने स्पर्शेन्द्रिय, रसेन्द्रिय अने घ्राणेन्द्रिय कहेवी, अने चउरिन्द्रियजीवोने एक चक्षुरिन्द्रिय वधारवी.] यावत् जे पुद्गलो अपर्याप्तरनप्रभापृथिवीनारकपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घाणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय अने स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे. ए प्रमाणे पर्याप्तनारकप्रयोगपरिणत पुद्गलो पण जाणवा. सर्व तिर्यंचयोनिको, मनुष्यो अने देवो पण ए प्रकारे कहेवा. यावत् जे पुद्गलो पर्याप्तसर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिकदेवप्रयोगपरिणत छे ते श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय इत्यादि यावत् परिणत छे. [दं. ४ ] जे पुद्गलो अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकएकेन्द्रिय औदारिक, तैजस अने कार्मणशरीरप्रयोगपरिणत छे ते स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे.. जे पुद्गलो पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकप्रयोगपरिणत छे ते ए प्रमाणे [ स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत ] छे. अपर्याप्तबादरपृथिवीकायिक अने पर्याप्तबादरपृथिवीकायिक पण ए प्रमाणे जाणवा. ए प्रकारे ए अभिलाप (पाठ) वडे जेने जेटली इन्द्रियो अने शरीरो होय तेने तेटलां कहेवा. यावत् जे पुद्गलो पर्याप्तसर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिकदेवपञ्चेन्द्रिय वैक्रिय, तैजस अने कार्मणशरीरप्रयोगपरिणत छे ते श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे. [दं. ५] जे पुद्गलो अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते वर्णथी काळावणे, नीलवर्णे, रक्तवर्णे, पीतवर्णे अने शुक्लवर्णे पण परिणत छे; गन्धथी सुरभिगन्ध अने दुरभिगन्धपणे पण परिणत छे. रसथी तिक्तरस, कटुकरस, कपायरस, अम्लरस अने मधुररसरूपे पण परिणत छे; स्पर्शथी कर्कशस्पर्श, यावत् रूक्षस्पर्शरूपे पण परिणत छे, अने संस्थानथी परिमंडलसंस्थान, वृत्तसंस्थान, व्यस्रसंस्थान, चतुरस्र (चोरस) संस्थान अने आयतसंस्थानरूपे पण परिणत छे. जे पुद्गलो पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे, ते ए प्रमाणे जाणवा. अने ए प्रकारे सर्व क्रमपूर्वक जाणवू, यावत् जे पुद्गलो पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक-यावत् प्रयोगपरिणत छे ते वर्णथी कालावणे परिणत पण छे, यावत् आयतसंस्थान रूपे पण परिणत छे. [दं. ६] पंचम दंडक. १ भाणिअब्वा ङ। २ भपजत्ता-घ। ३ कम्मास-क। ८ सुकिल्ला क। जइ घ। ५ इंदियाई का जेय प-घ। -णया विते क। Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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