Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
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२१० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक १३.-उद्देशक २. १२, प्र०] कति णं भंते ! अणुसरविमाणा' पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा! पंर्च अणुत्तरविमाणा पन्नता।प्रि० तेणे भंते.! किं संखेजवित्थडा, असंखेजवित्थडा ? [उ०] गोयमा! संखेजवित्थडे य असंखेंजवित्थडा य ।
१३. [प्र०] पंचसु णं भंते ! अणुत्तरविमाणेसु संखेजवित्थडे विमाणे एगसमएणं केवतिया अणुत्तरोववाइया देवा ज्ववजंति, केवतिया सुक्कलेस्सा उववजंति-पुच्छा तहेव । [उ०] गोयमा ! पंचसुणं अणुत्तरविमाणेसु संखेजवित्थडे अणुत्तरविमाणे एगसमएणं जहन्नेणं एको वा दोवा तिन्नि वा, उक्कोसेणं संखेजा अणुत्तरोषवाइया देवा उववजंति, एवं जहा गेवेज विमाणेसु संखेजवित्थडेसु, नवरं किण्हपक्खिया, अभवसिद्धिया, तिसु अन्नाणेसु एप न उववजंति, न चयंति, न पन्नत्तएसु भाणियधा, अचरिमा.वि खोडिजंति, जाव-संखेजा चरिमा पन्नत्ता, सेसं तं चेव । असंखेजवित्थडेसु वि एए न भन्नति, नवरं अचरिमा अत्थि, सेसं जहां गेवेजएसु असखेजवित्थडेसु जाव-असंखेजा अचरिमा पन्नत्ता।
.१४. [प्र०] चोसट्ठीए णं भंते ! असुरकुमारावाससयसहस्सेसु संखेजवित्थडेसु असुरकुमारावासेसु किं. सम्मट्टिी असुरकुमारा उववजंति, मिच्छादिट्ठी ? [उ०] एवं जहा रयणप्पभाए तिन्नि आलावगा भणिया तहा भाणियथा । एवं असंखे. जवित्थडेसु वि तिन्नि गमगा; एवं जाव-गेवेजविमाणे, अणुत्तरविमाणेसु एवं चेवा, नवरं तिसु वि आलावएसु मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी य न भन्नति, सेसं तं चेव ।।
१५. [प्र०] से नूणं भंते ! कण्हलेस्से, नील० जाव-सुक्कलेस्से भवित्ता कण्हलेस्सेसु देवेसु उववजंति ? [उ०] हंता गोयमा ! एवं जहेव नेरइएसु पढमे उद्देसए तहेव भाणियचं, नीललेसाए वि जहेव नेरइयाणं, जहा नीललेस्साए एवं. जाव:पम्हलेस्सेसु, सुक्कलेस्सेसु एवं चेव, नवरं लेस्सट्ठाणेसु विसुज्झमाणेसु २ सुक्कलेस्सं परिणमति, सु० २. परिणमित्ता सुकले स्सेसु देवेसु उववजंति । से तेणटेणं जाव-उववजंति । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! त्ति ।
तेरसमसए वीओ उद्देसो समत्तो अनुत्तर विमानो. १२. [प्र०] हे भगवन् । केटला अनुत्तर विमानो कह्यां छे ? [उ०] हे गौतम! पांच अनुत्तर विमानो कहेला छे. [प्र०] हे भगवन् ।
ते अनुत्तर विमानों संख्याता योजनविस्तारवाळां छे के असंख्याता योजनविस्तारवाळां छे! [उ.०] हे गौतम! "संख्याता योजनविस्तार
वाळु पण छे, तेमज असंख्याता योजनविस्तारवाळा पण छे.. पाँच अनुत्तरमा १३. [प्र०] हे भगवन् ! पांच अनुत्तर विमानोमांना संख्याता योजन विस्तारवाळा विमानने विषे एक समये केटला अनुत्तरोपपातिक एक समये दैवोना र उत्पादादि.
देवो उत्पन्न थाय, केटला शुक्ललेश्यावाळा उत्पन्न थाय-इत्यादि प्रश्न करवो. [उ०] हे गौतम! पांच अनुत्तरविमानोमा संख्याता योजन विस्तारवाळा सर्वार्थसिद्ध अनुत्तर विमानने विषे जघन्यथी एक, बे के त्रण, अने उत्कृष्टथी संख्याता अनुत्तरौपपातिक देवो उत्पन्न थाय छे ए प्रमाणे जेम संख्याता विस्तारवाळा अवेयक विमानो संबन्धे कडं ते प्रमाणे अहिं कहेवं, परन्तु एटलो विशेष के. कृष्णपाक्षिको, अभळ्या अने त्रण अज्ञानने विषे वर्तता जीवो, अहिं उपजता नथी, च्यवता नथी अने सत्तामा पण होता नथी-एम कहेवू. अचरमनो (जेने, छेल्लो अनुत्तर देवनो भव नथी, पण वधारे भवो छे तेनो) पण प्रतिषेध करवो, [ केमके अनुत्तरसर्वार्थसिद्धने विषे जे चरम होय तेज उपजे.] यावत-त्या संख्याता चरम' (जेने छेल्लो अनुत्तर देवनो भव छे तेओ) कहेला छे. बाकी बधुं पूर्व पेठे जाणवं. असंख्याता योजन विस्तावाळा अनुत्तर विमानोने विषे पण पूर्वोक्त (कृष्णपाक्षिकादिक) न कहेवां; पण त्यां अचरम (जेने ते छेल्लो भव नथी एवा) उपजें छे. बाकी
जेम अवेयकने विषे कयुं तेम असंख्याता योजन विस्तारवाळा अनुत्तर विमानोने विषे यावत्-'असंख्याता अचरम कह्या छे' त्या सुधी जाणवू. बारकुमारावासमा १४. [प्र०] हे भगवन् ! चोसठलाख असुरकुमारना आवासोमांना संख्यातायोजन विस्तारवाळा असुरकुमारना आवासोने विषे शु सम्यग्दृष्टयादि
सम्यग्दृष्टि असुरकुमारो उत्पन्न थाय, मिथ्यादृष्टि असुरकुमारो उत्पन्न थाय, (के मिश्रदृष्टि उत्पन्न थाय) [उ०] ए प्रमाणे जेम रत्नप्रभा संबन्धे त्रण आलापको कह्या (उ० १ सू० १३.) तेम अहिं पण कहेवा. ए प्रमाणे असंख्याता योजन विस्तारवाळा असुरकुमारोना आवासोने विषे पण सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि अने मिश्रदृष्टि संबन्धे ए त्रण आलापको कहेवा. ए प्रमाणे यावत्-प्रैवेयक विमानने विषे अने अनुत्तर विमानने विषे पण जाणवू, परन्तु एटलो विशेष छे के अनुत्तरविमानसंबन्धे उत्पाद, च्यवन अने सत्ताना त्रण आलापकने विषे मिथ्यादृष्टि अने मिश्रदृष्टिं
न कहेवा. बाकी बधुं पूर्व पेठे जाण. कृष्णादिलेश्या- १५. [प्र०] हे भगवन्! खरेखर कृष्णलेश्यावाळा, नीललेश्यावाव्य, यावत्-शुक्ललेश्यावाळा थईने कृष्णलेझ्यावाळा देवोमा उत्पन्न बाळा थईने कृष्ण
थाय? [उ०] हा, गौतम! जेम नारको संबन्धे प्रथम उद्देशकमां (सू० १९) का छे ते प्रमाणे जाणवू. नीललेल्यावाळाने पण जेम लेश्यावाला देवोमा
नारकोने कयुं छे तेम कहेवू. जेम नीललेश्यावाळाने विषे कयुं छे तेम यावत्-पद्मलेश्यावाळा अने शुक्ललेश्यावाळा माटे पण जाणवू. परन्तु एटलो विशेष छे के-लेश्याना स्थानको विशुद्ध थतां थतां शुक्ललेश्यारूपे परिणमे छे, शुक्ललेश्यारूपे परिणमन थया पछी शुक्ललेश्यावाळा देवोमा ते उत्पन्न थाय छे, ते कारणथी हे गौतम! यावत् 'उत्पन्न थाय छे. हे भगवन्! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.
त्रयोदश शतके द्वितीय उद्देशक समाप्त. १२ * तेमां वच्चेनुं सर्वार्थसिद्ध विमान लक्ष योजन प्रमाण होवाथी संख्यातायोजन विस्तारवाळु छे, अने विजयादि चार विमानो असंख्ययोजनविस्तारवाळो छे.
उपजे।
उत्पत्र थाय?
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