Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust

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Page 335
________________ शतक १३.-उद्देशक ४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३१५ १३. [प्र०] किमियं भंते ! लोएत्ति पवुच्चइ ? [उ०] गोयमा ! पंचत्थिकाया, एस णं एषतिए लोप त्ति पवुच्चइ, तंजहा१ धम्मत्थिकाप, २. अहम्मत्थिकाए, जाव-५ पोग्गलत्थिकाए । १४. [प्र०] धम्मत्थिकारणं भंते ! जीवाणं किं पवत्तति ? [उ०] गोयमा! धम्मत्थिकारणं जीवाणं आगमण-गमणभासु-म्मेस-मणजोगा-वइजोगा-कायजोगा, जे यावन्ने तहप्पगारा चला भावा सचे ते धम्मत्थिकाए पवत्तंति, गइलपत्रणे णं धम्मत्थिकाए। - १५. [प्र०] अहम्मत्थिकारणं भंते ! जीवाणं किं पवत्तति ? [उ०] गोयमा! अहम्मत्थिकारणं जीवाणं ठाण-निसीयणतुयट्टण, मणस्स य एगत्तीभावकरणता, जे यावन्ने तहप्पगारा थिरा भावा सधे ते अहम्मत्थिकाए पवत्तंति, ठाणलपत्रणे गं अहम्मत्थिकाए । १६. [प्र०] आगासत्थिकारणं भंते ! जीवाणं अजीवाण य किं पवत्तति ? [उ०] गोयमा ! आगासत्थिकारणं जीवदघाण य अजीवदवाण य भायणभूए । “एगेण वि से पुग्ने दोहि वि पुन्ने सयं पि माएजा । कोडिसपण वि पुन्ने कोडिसहस्सं पि माएजा" अवगाहणालक्खणे णं आगासत्थिकाए । १७. [प्र०] जीवत्थिकारणं भंते ! जीवाणं किं पवत्तति ? [उ०] गोयमा जीवत्थिकारणं जीवे अणंताणं आभिणियोहियनाणपजवाणं, अणताणं सुयनाणपज्जवाणं एवं जहा बितियसए अत्थिकायउद्देसए जाव-उवओगं गच्छति, उवओगलक्खणे णं जीवे । १८. [प्र०] पोग्गलत्थिकाए णं पुच्छा। [उ०] गोयमा ! पोग्गलंत्थिकारणं जीवाणं ओरालिय-घेउधिय-आहारग-तेयाकम्मए सोइंदिय-चखिदिय-धाणिदिय-जिभिदिय-फासिदिय-मणजोग-वयजोग-कायजोग-आणापाणूणं च गहणं पवत्तति, गहणलक्षणे णं पोग्गलत्थिकाए। १३. [प्र०] हे भगवन् ! आ लोक केवो कहेवाय छे ! [उ०] हे गौतम ! आ लोक पंचास्तिकायरूप कहेवाय छे, ते आ प्रमाणे१ धर्मास्तिकाय, २ अधर्मास्तिकाय, यावत्-३ आकाशास्तिकाय ४ जीवास्तिकाय अने] ५ पुद्गलास्तिकाय. १४. [प्र०] धर्मास्तिकाय बडे जीवोनी शी प्रवृत्ति थाय ? [उ०] हे गौतम ! धर्मास्तिकाय वडे जीवोनू आगमन, गमन, भाषा, ७अखिकाय प्रवर्तनहार. उन्मेष (नेत्रनुं उघड), मनोयोग, वचनयोग अने काययोग प्रवर्ते छे; ते शिवाय बीजा तेवा प्रकारना गमनशील भावो छे, ते सर्व धर्मा धर्मास्तिकायबढे स्तिकायथी प्रवर्ते छे; केमके गतिलक्षण धर्मास्तिकाय छे. जीवोर्नु प्रवर्तन. १५. प्र०] अधर्मास्तिकाय वडे जीवोनी शी प्रवृत्ति थाय ! (उ०] हे गौतम! अधर्मास्तिकाय वडे जीवोनं उभा रहेवं, बेसवं, अधर्मास्तिकायवदे प्रवर्तन. सुवु अने मनने स्थिर कर-वगेरे प्रवर्ते छे, ते शिवायं बीजा स्थिर भावो छे ते सर्वे अधर्मास्तिकाय थकी प्रवर्ते छे, केमके स्थितिलक्षण अधर्मास्तिकाय छे. १६. प्र०] हे भगवन् ! आकाशास्तिकायवडे जीवोनी अने अजीवोनी शी प्रवृत्ति थाय ! [उ० हे गौतम! आकाशास्तिकाय आकाशास्तिकायबडे प्रवर्तन. जीव अने अजीव द्रव्यनो आश्रयरूप छे. अर्थात् तेथी जीव अने अजीवद्रव्यनो अवगाह प्रवर्ते छे. "एक-[परमाणु-]थी के बे[परमाणु] थी पूर्ण एक आकाशप्रदेशनी अंदर सो परमाणुओ पण माय, अने सो क्रोड [परमाणुओ] वडे पूर्ण एक आकाशप्रदेशा हजार कोड [परमाणुओ] पण "माय;" केमके अवगाहनालक्षण आकाशास्तिकाय छे. १७. प्र०] हे भगवन् ! जीवास्तिकायवडे जीवोनुं शुं प्रवर्ते ! [उ०] हे गौतम ! जीवास्तिकायवडे जीव अनन्त आभिनिबोधिक- नीवालिकायबडे मतिज्ञानना पर्यायो, अने अनन्त श्रुतज्ञानना पर्यायोना-इत्यादि जेम बिीजा शतकना अस्तिकाय उद्देशकमा कड्यु छे तेम अहिं कहेवं, यावत्-ते [ज्ञान अने दर्शनना] उपयोगने प्राप्त थाय छे, केमके उपयोगलक्षण जीव छे. १८. [प्र०] हे भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय वडे शुं प्रवर्ते ! [उ०] हे गौतम ! पुद्गलास्तिकायवडे जीवोने औदारिक, वैक्रिय, आहा- पुद्रलास्तिकायबरे प्रवर्तन. रक, तैजस, कार्मण, श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुइन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, स्पर्शनेन्द्रिय, मनोयोग, वचनयोग, काययोग अने श्वासोच्छासन ग्रहण प्रवर्ते छे. केमके ग्रहणलक्षण पुद्गलास्तिकाय छे. १६* जेम एक ओरडानो भाकाश एक दीवाना प्रकाशथी भराय, भने बीजो दीवो करीए तो तेनो प्रकाश पण त्यांज समाय, एम सो के सहन दीवानो प्रकाश पण त्या ज समाय, पण बहार न नीकळे तेम पुद्गलनो परिणाम विचित्र होवाथी एक, बे, संख्याता, असंख्याता के अनन्त परमाणुषी पूर्ण एक आकाश प्रदेशमा एकथी मांटीने अनन्त परमाणुओ सुधी त्यां समाय. १७१ भग० ख०१ श०२१०१.पृ.३०९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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