Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust

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Page 371
________________ शतक १४ - उदेशक ५. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ६. असुरकुमारा दस ठाणारं पश्चणुग्भवमाणा विहरंति, तंजहा - १ इट्ठा सहा, २ इट्ठा रुवा, जाव- इट्ठे उट्ठाण-कम्मबल - पीरिय- पुरिसकारपरक्कमे, एवं जाय धणियकुमारा । ७. पुढविकाया छट्ठाणाई पच्चणुब्भवमाणा विहरंति, तं जहा इट्ठाणिट्ठा फासा, इट्ठाणिट्ठा गती, एवं जाव - परक्कमे एवं जाव- वणस्सइकाइया । ८. बेदिया सत्त द्वाणाई पथणुग्भवमाणा विहरंति, संजहारट्ठापिट्ठा रसा, सेसं जहा पगिदियाणं । ९. तेंदिया अट्ठट्ठाणाई पञ्चणुग्भवमाणा विहरन्ति, तं जहा इट्ठाणिट्ठा गंधा, सेसं जहा बेंदियाणं । १०. चउरिंदिया नव ट्ठाणाई पश्चणुब्भवमाणा विहरंति, तंजहा - इट्ठाणिट्ठा रुवा, सेसं जहा तेंदियाणं । ११. पंचिदियतिरिक्खजोणिया दस ठाणाई पच्चणुब्भवमाणा विहरंति, तंजहा - इट्टाणिट्ठा सहा, जाव - परक्कमे, एवं मस्सा वि, वाणमंतर - जोइसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा । ३५१ १२. [अ०] देवे णं भंते ! महिडीए जाब- महेसक्से बाहिरए पोग्गले अपरियाइता पभू, तिरियपचयं वा तिरियमिति वा उल्लंघेत वा लंघेत्तर वा ? [उ०] गोयमा ! णो तिणट्ठे समट्ठे । " १३. [प्र०] देवे णं भंते ! महिडीए जाब मसको बाहिरए पोगले परिवारता पभू तिरिष० जाव-पयेत्तर वा [३०] हंता पभू । ' सेवं भंते ! सेवं भंते 'ति । चोदसमसए पंचमो उद्देसो समत्तो. ६. असुरकुमारो दश स्थानोने अनुभवता बिहरे छे से आ प्रमाणे १ इष्ट शब्द, २ इष्ट रूप यावत् १० इए उत्थान, कर्म, बल, वीर्य अने पुरुषकार पराक्रम र प्रमाणे यावत् स्वनितकुमारो सुची जाणं. ७. पृथिविकायिको छ स्थानोने अनुभवता हिरे छे, ते आ प्रमाणे- १ इथनिष्ठ स्पर्श, २ इष्टानिष्ट गति यावत्-६ 'इष्टानिष्ट पुरुषकार - पराक्रम' – ए प्रमाणे यावत्-वनस्पतिकायिक सुधी जाण ८. बेइन्द्रिय जीवो सात स्थानोने अनुभवता विहरे छे, ते आ प्रमाणे- १ इष्टानिष्ट रस - इत्यादि समग्र एकेन्द्रियोनी पेठे अहिं कहेवुं. ९. तेइन्द्रिय जीवो आठ स्थानोने अनुभवता विहरे छे, ते आ प्रमाणे- १ इष्टानिष्ट गन्ध - इत्यादि बाकी बधुं बेइन्द्रियोनी पेठे कहेतुं . १०. परिन्द्रिय जीवो नव स्थानोने अनुभवता विहरे छे, ते आ प्रमाणे- १ इष्टानिष्ट रूप इयादि बाकी वधुं तेइन्द्रिय जीवोनी द्र पेठे जाणवुं. जीवो. ११. पंचेन्द्रियचियोनिको दश स्थानकोने अनुभवता विहरे छे, ते आ प्रमाणे- १ इष्टानिष्ट शब्द इलादि यावत्-पराक्रम सुधी वे कहेवुं. ए प्रमाणे मनुष्यो पण जाणवा. जेम असुरकुमार संबन्धे कह्युं तेम वानव्यंतर, ज्योतिषिक भने वैमानिक संबन्धे कहे. तिर्यचो. १२. [प्र० ] हे भगवन् ! मोटी ऋद्धिवाळो यावत्-मोटा सुखवाळो देव बहारना - भवधारणीय शरीर व्यतिरिक्त पुद्गलोने ग्रहण कर्या शिवाय तिर्छा पर्वतने के तिर्धी [प्राकारनी] भींतने उल्लंघवा के वारंवार उल्लंघवा समर्थ थाय ? [उ०] हे गौतम! ए अर्थ यथार्थ नथी, [अर्थात् भवधारणीय शरीर व्यतिरिक्त बीजा बहारना पुलोने ग्रहण कर्या शिवाय पर्वतादिने उहुंघचानुं सामर्थ्य प्रवर्ततुं नथी.] १२. [प्र०] हे भगवन्! मोटी दिवालये यावत्-मोटा सुखवाळो देव बहारमा पुलोने ग्रहण करी तिर्छा पर्वताने के तिहीं प्राकारनी भीतने उल्लंघना समर्थ के [त०] हा, गौतम | समर्थ छे. 'हे भगवन्! ते एमज छे, हे भगवन्! ते एमज छे'-एम कही [ भगवान् गौतम यावद् विहरे छे.] चतुर्दश शतके पंचम उद्देशक समाप्त. ७ * एकेन्द्रियोनी शुभाशुभ क्षेत्रमां उत्पत्ति थवानो संभव होवाथी तेने साता अने असाताना उदयनो संभव छे माटे तेने इष्टानिष्ट स्पर्शादि होय छे. यद्यपि तेओ स्थावर छे तेथी तेने खभावधी गमनरूप गतिनो संभव नथी तो पण तेओमां परप्रेरित गति होय छे, अने ते शुभाशुभरूप होवाथी 'इष्टानिष्ट' शनिष्टान्य मदि ने पत्थरने विषे जाग स्थावर होवाथी एकेन्द्रिवने विवे उत्थानादि होता नथी, परन्तु पूर्वअमला उत्था नादिना संस्कारमा Jain Education International For Private & Personal Use Only बरकुमारी पृथिवीकायिको. मैन्द्रियो महर्द्धिक देव लो ग्रहण कर्या शिवा य पर्वता दिने उ लंबी शके १ पहारना पुगकोने करीत ग्रहण दिने उल्लंघनास मर्थ छे. www.jainelibrary.org/

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