Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust

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Page 247
________________ शतक ११.-उद्देशक ९. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २२७ १८. एवं २त्ता जेणेव तावसावसहे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता तावसावसह अणुप्पविसति, ता० २ सुबहुं लोही-लोहकडाह० जाव किढिणसंकातिगं च गेण्हइ, गेण्डित्ता तावसावंसहाओ पडिनिक्समति, ताव. २ पडिवडियविम्भंगे हथिणागपुरं नगरं मझमज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव सहसंबवणे उजाणे, जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव उवागच्छद, तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, बंदति नमंसति, वंदित्ता नमंसित्ता नञ्चासन्ने नाइदूरे जाव- पंजलिउडे पजुवासइ । तए णं समणे भगवं महावीरे सिवस्स रायरिसिस्स तीसे य महतिमहालियाए० जाव-आणाए आराहए भवइ । १९. तए णं से सिवे रायरिसी समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा, निसम्म जहा खंदओ, जाव उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागं अवक्कमइ, २ सुबहुं लोही-लोहकडाह जाव-किढिणसंकातिगं एगंते एडेइ, ५० २ सयमेव पंचमुट्रियं लोयं करेति, सयमे० २ समणं भगवं महावीरं एवं जहेव उसभदत्ते तहेव पवइओ, तहेव इक्कारस अंगाई अहिजति, तहेव सवं जाव-सष्वदुक्खप्पहीणे । २०. [प्र. भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी जीवा भंते ! सिज्झमाणा कयरंमि संघयणे सिझंति ? [उ०] गोयमा! वयरोसभणारायसंघयणे सिझंति । एवं जहेव उववाइए तहेव “संघयणं संठाणं उच्चत्तं आउयं च परिवसणा"। एवं सिद्धिगंडिया निरवसेसा भाणियवा, जाव-"अव्वाबाहं सोक्खं अणुहोंति सासयं सिद्धा" ॥ सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॥ सिवो समत्तो। एकारससए नवमो उद्देसो समत्तो। भागमन. १८. ए प्रमाणे विचार करी ज्या तापसोनो मठ छे त्यां आवे छे. आवी तापसोना मठमा प्रवेश करी घणी लोढी, लोढाना कडाया शिवराजर्षितुं महायावत् कावड वगेरे उपकरणोने लेइ तापसोना आश्रमथी नीकळे छे. नीकळीने विभंगज्ञानरहित ते शिवराजर्षि हस्तिनापुर नगरनी वच्चो- पारस्वामी पास वच्च थईने ज्यां सहस्राम्रवन नामे उद्यान छे, ज्यां श्रमण भगवान् महावीर छे त्यां आवे छे. आवीने श्रमण भगवान् महावीरने त्रण वार प्रदक्षिणा करीने वांदे छे अने नमे छे. वांदी अने नमीने तेओथी बहु नजीक नहीं अने बहुदूर नहीं तेम उभा रही यावत् हाथ जोडी ते शिवराजर्षि श्रमण भगवंत महावीरनी उपासना करे छे. त्यार बाद ते शिवराजर्षिने अने मोटामा मोटी पर्षदने श्रमण भगवंत महावीर धर्मकथा कहे छे. अने यावत् ते शिवराजर्षि आज्ञाना आराधक थाय छे. १९. पछी ते शिवराजर्षि श्रमण भगवान् महावीरनी पासेथी धर्मने सांभळी अने अवधारी "स्कंदकना प्रकरणमां कह्या प्रमाणे शिवराजर्षिनी दीक्षा. यावत् ईशान कोण तरफ जइ घणी लोढी, लोढाना कडाया यावत् कावड वगेरे तापसोचित उपकरणोने एकांत जग्याए मूके छे. मूकीने पोतानी मेळे पंच मुष्टि लोच करी, श्रमण भगवंत महावीर पासे ऋिषभदत्तनी पेठे प्रव्रज्यानो स्वीकार करे छे, अने ते प्रमाणे अग्यार अंगोनुं अध्ययन करे छे, तथा एज प्रमाणे यावत् ते शिवराजर्षि सर्व दुःखथी मुक्त थाय छे. २०. 'हे भगवन्'! एम कही भगवान् गौतम श्रमण भगवंत महावीरने वांदे छे अने नमे छे, वांदी अने नमीने भगवंत गौतमे आ प्रमाणे पूज्यु-प्र०] "हे भगवन् ! सिद्ध थता जीवो कया संघयणमां सिद्ध थाय ? [उ०] हे गौतम! जीवो वज्रऋषभनाराच संघयणमां सिद्ध थाय"-इत्यादि औपपातिकसूत्रमा कह्या प्रमाणे "संघयण, संस्थान, उंचाइ, आयुष, परिवसना (वास)" अने ए प्रमाणे आखी *सिद्धिगंडिका कहेवी; यावत् अ याबाध (दु.खरहित) शाश्वत सुखने सिद्धो अनुभवे छे. हे भगवन्! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे' एम कही यावद् विहरे छे. एकादश शते शिवनामे नवम उद्देशक समाप्त. १९. जुओ भग० सं० १.१ उ. १ पृ. २३८. ऋिषभदत्तनी प्रवज्या जुओ भग• खं० ३ श०९ उ. ३३ पृ. १६५. २. सिद्धना खरूपर्नु वर्णन जुओ औपपा०प० ११२-१. पभोपपातिक सूत्रने अन्ते सिद्धना स्वरूप वर्णन करनार "कहिं पडिहया सिद्धा." इत्यादि बावीश गाथाना प्रकरणने सिद्धिगंडिका कहे छे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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