Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
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शतक १३.-उद्देशक १.
भगवत्सुंधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. नोइंदिओवउत्ता उववजंति, मणजोगी ण उववजंति, एवं वइजोगी वि, जहन्नेणं एको वा दो वा तिमि वा, उकोसेणं संखेजा कायजोगी उववजंति, एवं सागारोवउत्ता वि, एवं अणागारोवत्ता वि।।
५.० इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेजवित्थडेसु नरपसु एगसमएणं केवडया नेहया उच्चति ? केवतिया काउलेस्सा उच्चट्टति ? जावं-केवतिया अणागारोवउत्ता उच्चस॒ति ? [उ०] गोयमा! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेजवित्थडेसु नरएसु एगसमपणं जहन्नेणं एको वा दो वा तिमि "वा, उक्कोसेणं संखेजा नेहया उच्चद॒ति, जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि वा, उकोसेणं संखेजा काउलेस्सा उच्चति, एवं जावसनी । असन्त्री ण उच्चति । जहनेणं एको वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं संखेजा भवसिद्धीया उच्चदंति, एवं जाव-सुयमनाणी । विभंगनाणी ण उववर्ल्डति, चक्खुदंसणी ण उच्चटुंति । जहन्नेणं एको वा दो वा-तिन्नि वा, उक्कोसेणं संखेजा अचमखु. दसणी उच्चट्ठति, एवं जाव-लोभकसायी। सोइंदिओवउत्ता ण उच्वहृति, एवं जाव-फासिदियोवउत्ता न उच्चति । जहन्ने] एको वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं संखेजा नोइंदियोवउत्ता उबटुंति । मणजोगी न उच्वदृति, एवं वाजोगी वि। जहन्ने] एको वा दो वा तिन्नि वा, उकोसेणं संखेजा कायजोगी उच्चटुंति, एवं सागारोवउत्ता वि, अणागारोवउत्ता वि।
६. [प्र०] इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेजवित्थडेसु नरपसु केवइया नेरइया, पन्नत्ता केवइया काउलेस्सा, जाव-केवतिया अणागारोवउत्ता पन्नत्ता ? केवतिया अणंतरोवपन्नगा पन्नचा १ ? केवइया परंपरोववनगा पन्नत्ता २१ केवइया अणंतरोवगादा पन्नत्ता ३ ? केवइया परंपरोवगाढा पन्नत्ता ४ ? केवइया अणंतराहारा पन्नत्ता ५ ? केवतिया परंपराहारा पन्नत्ता ६ ? केवतिया अणंतरपजत्ता पन्नत्ता ७ ? केवतिया परंपरपजत्ता पन्नत्ता ८१ केवतिया चरिमा पन्नत्ता ९१ केवतिया अचरिमा पन्नत्ता १०१ [उ०] गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेजवित्थडेसु नरपसु संखेजा नेरतिया पन्नत्ता, संखेजा काउलेस्सा पन्नत्ता, एवं जाव-संखेजा सन्त्री पत्ता।
के त्रण अने उत्कृष्टथी संख्याता *नोइंदियना उपयोगवाळा उत्पन्न थाय छे. मनयोगी अने वचनयोगी उत्पन थता नथी. जघन्यथी एक, बे अने त्रण तथा उत्कृष्टथी संख्याता काययोगवाळा उत्पन्न थाय छे. ए प्रमाणे साकारोपयोगवाळा अने ए रीते अनाकारोपयोगवाळा पण उत्पन्न थाय छे.
.. ५. [प्र०] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभापृथिवीना त्रीश लाख नरकावासोमांना संख्यातायोजन विस्तारवाळा नरकावासोने विषे एक समयमां एक समये नारकाकेटला नारक जीवो उद्वर्ते-मरण पामे, केटला कापोतलेश्यावाळा उवर्ते, यावत्-केटला अनाकारोपयोगवाळा उद्वर्ते? [उ०] हे गौतम! ना आ रत्नप्रभा पृथिवीना त्रीश लाख नरकावासोमांना संख्याता योजन विस्तारवाळा नरकावासोमा एक समये जघन्यथी एक, बे के त्रण अने उत्कृष्टथी सिंख्याता नारको उद्वर्ते, जघन्यथी एक, बे के त्रणं अने उत्कृष्टथी संख्याता कापोतलेश्यावाळा उद्वर्ते, ए प्रमाणे यावत्-संज्ञी जीवो सुधी उद्वर्तना जाणवी. असंज्ञी जीवो उद्वर्तता नथी. भवसिद्धिक जीवो जघन्यथी एक, बे के त्रण अने उत्कृष्टथी संख्याता उद्वर्ते के. ए प्रमाणे यावत् श्रुतअज्ञानी सुधी जाणवू. विभंगज्ञानी अने चक्षुदर्शनी उद्वर्तता नथी. जघन्यथी एक, बे के त्रण भने उत्कृष्टथी संख्याता अचक्षुदर्शनी उद्वर्ते छे. ए प्रमाणे यावत् लोभकषायी जीवो सुधी जाणवू. श्रोत्रेन्द्रियना उपयोगवाळा उद्वर्तता नथी. ए प्रमाणे यावत्स्पर्शनेन्द्रियना उपयोगवाळा पण उद्वर्तता नथी. जघन्यथी एक, बे के त्रण भने उत्कृष्टथकी संख्याता नोइंद्रियना उपयोगवाळा उदर्ते छे. मनयोगी उद्वर्तता नथी. ए प्रमाणे वचनयोगी पण उदवर्तता नथी. काययोगी जघन्यथी एक, बे के त्रण अने उत्कृष्टथी संख्याता उद्वर्ते छे. ए प्रमाणे साकारोपयोगवाळा अने अनाकारोपयोगवाळा पण जाणवा. [ए प्रमाणे नारक जीवोने विषे उद्वर्तनानुं परिमाण कयुं]. ६. [प्र०] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभापृथिवीना त्रीश लाख नरकावासोमांना संख्यातायोजन विस्तारवाळा नरकावासोने विषे १ केटला रसप्रभामा नारक
जीवोनी सत्ता. नारक जीवो कहेला छे ? २ केटला कापोत लेश्यावाळा, यावत्-३९ केटला अनाकारोपयोगवाळा कहेला छे. १ केटला अनन्तरोपपन्न-प्रथम समये उत्पन्न थयेला होय छे, अने केटला परंपरोपपन्न-उत्पत्ति समयनी अपेक्षाए बे इत्यादि समयोने विषे उत्पन्न थयेला होय छे. केटला अनंतरावगाढ-विवक्षित क्षेत्रने विषे प्रथम समयमा रहेला छे, केटला परंपरावगाढ-विवक्षित क्षेत्रमा द्वितीयादि समयने विषे रहेला छे, केटला अनंतराहार-प्रथम समये आहार करवावाळा छे, केटला परंपराहार-द्वितीयादि समये आहार करवावाळा छे, केटला अनंतरपर्याप्ता-प्रथम समये पर्याप्ता होय छे, अने केटला परंपरपर्याप्ता-द्वितीयादि समये पर्याप्ता होय छे, केटला चरम-जेने छेल्लो तेज नारकभव बाकी छे एवा होय छे अथवा केटला नारक भवना चरम छेल्ले समये वर्ते छे, १० अने केटला अचरम-चरमथकी विपरीत होय छे ! [उ०] हे गौतम! आ:रतप्रभापृथिवीना त्रीश लाख नरकावासोमांना संख्याता. योजन विस्तारवाळा नरकावासोने विषे १ संख्याता नारक जीवो कहेला छे, २
४* नोइन्द्रिय-मन, यद्यपि अहिं अपर्याप्तावस्थामा मनःपर्याप्तिनो अभाय होवाथी द्रव्य मन होतुं नथी, तो पण चैतन्यरूप भावमन हमेशा होय छे, माटे 'नोइन्द्रियना उपयोगवाळा उत्पन्न थाय छे'-एम कयुं छे-टीका. ' संख्याता योजन विस्तारवाळा नरकावासने विषे संख्याताज नारको समाइ शके.
उद्वर्तना परभवना प्रथम समयने विषे होय, अने नारकी असंज्ञीने विषे न उपजे, माटे असंही उदवर्तता नथी.-टीका.
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