Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust

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Page 301
________________ शतक १२.-उद्देशक ६. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २८१ ५. [प्र०] चंदस्स णं भंते ! जोइसिंदस्स जोइसरन्नो कति अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ ? [उ०] जहा दसमसए जाव-णो चेव णं मेहुणवत्तियं । सूरस्स वि तहेव। .. ६. [प्र०] चंदिम-सूरिया णं भंते ! जोइसिंदा जोइसरायाणो केरिसए कामभोगे पश्चणुभवमाणा विहरंति ? [10] गोयमा! से जहानामए केइ पुरिसे पढमजोषणुट्ठाणबलत्थे पढमजोधणुढाणबलत्थाए भारियाए सद्धिं अचिरवत्तविवाहकज्जे, अत्थगवेसणयाए सोलसवासविप्पवासिए, से णं तओ लद्धटे, कयकज्जे, अणहसमग्गे पुणरवि नियगगिहं हवमागए, पहाए कयबलिकम्मे, कयकोउय-मंगलपायच्छित्ते, सवालंकारविभूसिए, मणुघ्नं थालिपागसुद्धं अट्ठारसवंजणाकुलं भोयणं भुत्ते समाणे, तंसि तारिसगंसि वासघरंसि, वन्नओ महब्बले कुमारे, जाव-सयणोवयारकलिए ताए तारिसियाए भारियाए सिंगारागारचारवेसाए जाव-कलियाए अणुरत्ताए अविरत्ताए मणाणुकूलाए सद्धिं इट्टे सहे फरिसे जाव-पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पञ्चणुब्भवमाणे विहरेजा, से णं गोयमा! पुरिसे विउसमणकालसमयंसि केरिसयं सायासोक्खं पञ्चणुभवमाणो विहरति ? ओरालं समणाउसो! तस्स णं गोयमा! पुरिसस्स कामभोगेहिंतो वाणमंतराणं देवाणं पत्तो अणंतगुणविसिटुतरा चेव कामभोगा, वाणमंतराणं देवाणं कामभोगेहिंतो असुरिंदवजियाणं भवणवासीणं देवाणं एत्तो अणंतगुणविसिट्ठतरा चेव कामभोगा, असुरिंदवजियाणं भवणवासियाणं देवाणं कामभोगेहिंतो असुरकुमाराणं देवाणं एत्तो अणंतगुणविसिट्टतरा चेव कामभोगा; असुरकु. माराणं देवाणं कामभोगेहितो गहगण-नक्षत्त-तारारूवाणं जोतिसियाणं देवाणं एत्तो अनंतगुणविसिट्टतरा चेव कामभोगा, गहगण-नक्खत्त-जाव-कामभोगेहिंतो चंदिम-सूरियाणं जोतिसियाणं जोतिसराईणं एत्तो अणंतगुणविसिट्टयरा चेव कामभोगा, चंदिम-सूरिया णं गोयमा! जोतिसिंदा जोतिसरायाणो एरिसे कामभोगे पच्चणुब्भवमाणा विहरति । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं जाव-विहरद । छ?ओ उद्देसओ समतो। चन्द्रने अपमहि ५. [प्र०] हे भगवन् ! ज्योतिषिकना इंद्र अने ज्योतिषिकना राजा चंद्रने केटली पट्टराणीओ कही छे ! [उ०] हे गौतम! जेम "दशम शतकमां कयुं छे तेम अहीं जाणवं, यावत्-पोतानी राजधानीमां सिंहासन विषे जिनना अस्थिओनु संनिधान होवाथी] ' मैथुन निमित्ते देवीओ साथे भोग भोगववा समर्थ नथी' त्यां सुधी जाणवं, तथा सूर्य संबंधे पण तेज प्रमाणे जाणवं. ६. [प्र०] हे भगवन् ! ज्योतिष्कना इंद्र अने राजा, चंद्र अने सूर्य केवा प्रकारना कामभोगोने भोगवता विहरे छे ! [उ०] जेम सूर्य भने चन्द्र केवा प्रथम युवावस्थाना प्रारंभमां बलवान् कोइ एक पुरुषे प्रथम उगती युवावस्थामां बळवाळी भार्या साथे ताजोज विवाह कर्यो, अने पछी ते धन । प्रकारना कामभोगो भोगवे छे। मेळवंवा माटे सोळ वरस एभी परदेश गयो, अनेते धनने मेळवी, कार्य समाप्त करी समस्त विघ्नरहितपणे पाछो पोताने घेर तुरत आव्यो, स्नान करी, बलिकर्म-पूजा करी, कौतुक अने मंगलरूप प्रायश्चित्त करी तथा सर्वालंकारथी विभूषित थई मनोज्ञ, अने स्थालीमां पाक करवा बडे शुद्ध तथा अढार प्रकारना व्यंजन-शाकादिथी युक्त भोजन कर्या बाद मिहाबल उद्देशकमां वासगृहनुं वर्णन कयु छे तेवा प्रकारना-शयनोपचार युक्त वासगृहमां यावत्-तेवा प्रकारनी उत्तम शृंगारना गृहरूप सुंदर वेषवाळी, यावत्-कलित-कलायुक्त, अनुरक्त, अत्यन्त रागयुक्त, अने मनने अनुकूल एवी स्त्री साथे इष्ट शब्द, स्पर्श यावत्-पांच प्रकारना मनुष्य संबंधी कामभोगोने भोगवतो विहरे छे, हे गौतम ! हते ते पुरुष वेदोपशमनना-विकार शांतिना-समये केवा प्रकारना सुखने भोगवे ! हे आयुष्मन् श्रमण ! ते पुरुष उदार सुिखने अनुभवे. हे गौतम ! ते पुरुषना कामभोगो करतां वानव्यंतर देवोने अनंतगुण विशिष्टतर कामभोगो होय छे. वानव्यंतर देवोना कामभोगोथी असुरेन्द्र सिवायना भवनवासी देवोने अनन्तगुण विशिष्टतर कामभोगो होय छे, असुरेन्द्र सिवाय भवनवासी देवोना कामभोगो करतां असुकुमार देवोना कामभोगो अनंतरण विशिष्टतर होय छे, असुरकुमार देवोना कामभोगो करतां अनंतगुण विशिष्टतर कामभोगो ज्योतिषिक देवरूप ग्रहगण, नक्षत्र अने ताराओने होय छे. ज्योतिषिक देवरूप ग्रहगण, नक्षत्र अने ताराओना कामभोगो करतां अनंतगुण विशि४तर कामभोगो ज्योतिषिकना इन्द्र अने ज्योतिषिक देवोना - राजा चन्द्र तथा सूर्यने होय छे. हे गौतम! ज्योतिष्कना इन्द्र, अने ज्योतिष्कना राजा चंद्र अने सूर्य आवा प्रकारना कामभोगोने अनुभवता विहरे छे. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे' एम कही भगवान् गौतम श्रमण भगवंत महावीरने (वांदी अने नमी ) यावद् विहरे छे. द्वादश शते षष्ठ उद्देशक समाप्त ५. भग० सं०३.२०१० उ०१०पृ० २०३ सू० २३. ६ भग० सं०३-२०११-उ०११पृ० २३६ सू० १५. अहिं कामभोगोना सुखने-सुखाभासने उदार सुख तरीके कबु ते प्राकृत जननी दृष्टिए समजवू, वास्तविक रीते तो ते दुःखरूप ज छै.-अनुवादक. ३६ भ. सू. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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