Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
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१३४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक ९.-उद्देशक ३१. हिए अणताणुबंधी कोह-माण-माया-लोभे खवेइ, अणं० खवेदत्ता अपञ्चक्खाणकसाए कोह-माण-माया-लोभे खवेह, अपच्च० वेइत्ता पञ्चक्खाणावरणकोह-माण-माया-लोभे खवेद, पञ्च० खवेइत्ता संजलणकोह-माण-माया-लोभे खवेइ, संज० खवेइत्ता पंचविहं नाणावरणिजं, नवविहं दरिसणावरणिजं, पंचविहं अंतराइयं, तालमत्थाकडं च णं मोहणिजं कट्ट कॅम्मरयविकिरणकरं अपुष्टकरणं अणुपविट्ठस्स अणंते अणुत्तरे निवाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवलवरनाण-दसणे समुप्पन्ने ।
२८. [प्र०] से णं भंते ! केवलिपन्नत्तं धम्मं आघवेज वा, पनवेज वा, परवेज वा ? [उ०] णो तिणटे समढे, णण्णत्थ एगण्णाएण वा, एगवागरणेण वा ।
२९. [प्र०] से णं भंते ! पद्यावेज वा, मुंडावेज वा ? [उ०] णो इणढे समढे, उवदेसं पुण करेजा । ३०. [प्र०] से णं भंते ! सिज्झति, जाव अंतं करेति ? [उ०] हंता सिज्झति, जाव अंतं करेति ।
३१. [प्र०] से णं भंते ! किं उडे होजा, अहे होजा, तिरियं होजा? [१०] गोयमा! उहुं वा होजा, अहे वा होजा, तिरियं वा होजा; उडे होजमाणे सद्दावइ-वियडावइ-गंधावइ-मालवंतपरियाएसु वट्टवेयड्ढपचएसु होजा; साहरणं पडुश्च सोमणसवणे वा होजा, पंडगवणे वा होजा; अहे होजमाणे गड्ढाए वा, दरीए वा होजा; साहरणं पडुच पायाले वा, भवणे वा होजा; तिरियं होजमाणे पन्नरससु कम्मभूमीसु होजा; साहरणं पडुच्च अड्डाइजदीव-समुद्द-तदेकदेसभाए होजा।
३२. [प्र०] ते णं एगसमए णं केवतिया होजा? [उ०] गोयमा! जहण्णेणं एक्को वा, दो वा, तिन्नि वा, उक्कोसेणं दस, से तेणट्रेणं गोयमा! एवं बुच्चइ-'असोचा णं केवलिस्स वा जाव अत्थेगतिए केवलिपन्नत्तं धम्म लभेजा सवणयाए, अत्थेगतिए असोच्चा णं केवलि. जाव नो लभेजा सवणयाए, जाव अत्थेगतिए केवलनाणं उप्पाडेजा, अत्थेगतिए केवलनाणं नो उप्पाडेजा'।
क्षय करे, पछी पांच प्रकारे ज्ञानावरणीय कर्म, नव प्रकारे दर्शनावरणीय कर्म, पांच प्रकारे अंतराय कर्म, तथा मोहनीय कर्मने छे
मस्तकवाळा ताडवृक्षना समान [क्षीण] करीने कर्म रजने विखेरी नांखनार अपूर्व करणमा प्रवेश करेला एवा तेने अनंत, अनुत्तर, व्याघातरहित, आवरणरहित, सर्व पदार्थने ग्रहण करनार, प्रतिपूर्ण, श्रेष्ठ एवं केवलज्ञान अने केवलदर्शन उत्पन्न थाय छे...
अनुस्वा केवली
२८. [प्र०] हे भगवन् ! ते [केवलज्ञानी] केवलिए कहेल धर्मने कहे, जणावे अने प्ररूपे ! [उ०] हे गौतम! ते अर्थ योग्य बर्मोपदेश न करे. नथी, परन्तु एक न्याय-उदाहरण अने एक [प्रश्नना] उत्तर शिवाय. [अर्थात् ते अश्रुत्वा केवली एक उदाहरण या एक प्रश्नना उत्तर
शिवाय धर्मनो उपदेश न करे.]
प्रवज्या न आपे.
२९. [प्र०] हे भगवन् ! ते [ केवली] कोइने प्रव्रज्या आपे, मुंडे-दीक्षा आपे ? [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ योग्य नथी, पण मात्र [ 'अमुकनी पासे प्रव्रज्या ग्रहण करो' एवो ] उपदेश करे.
सिद्ध थाय. ३०. प्र०] हे भगवन् ! ते (अश्रुत्वा केवलज्ञानी) सिद्ध थाय, यावत् सर्व दुःखोनो अंत करे! [उ.] हा, सिद्ध थाय, यावत्
सर्व दुःखोनो अन्त करे. ऊर्च, अधो भने ३१. [प्र०] हे भगवन् ! ते (अश्रुत्वा केवलज्ञानी) ऊर्ध्वलोकमां होय, अधोलोकमां होय के तिर्यग् लोकमां होय ! [उ०] हे तिर्यग् लोकमां होय. ऊर्ध्वलोकमां वृत्त गौतम ! ते ऊर्ध्वलोकमां पण होय, अधोलोकमां पण होय अने तिर्यग् लोकमां पण होय. जो ते ऊर्ध्वलोकमां होय तो शब्दापाति, विकटावताढ्यमा होय. पाति, गंधापाति, अने माल्यवंत नामे वृत्तवैताढ्य पर्वतोमा होय. तथा संहरणने आश्रयी सौमनस्यवनमा के पांडकवनमा होय. जो ते अधोअधोलोकयामा- लोकमां होय तो गर्ता-अधोलोकप्रामादिमां के गुफामा होय, तथा संहरणने आश्रयी पातालकलशमां के भवनमा (भवनवासि देवोना दिमा होय.
. देठाणमा होय. जो ते तिर्यग्लोकमा होय तो ते पंदर कर्मभूमिमां होय, अने संहरणने आश्रयी अढी द्वीप अने समुद्रोना एक कर्मभूमिमा होय.. भागमा होय.
३२. [प्र०] हे भगवन् ! ते [ अश्रुत्वा केवलज्ञानी ] एक समये केटला होय ! [उ०] हे गौतम ! जघन्यथी एक, बे, त्रण अने होय? उत्कृष्टथी दस होय. माटे हे गौतम! ते हेतुथी एम कयुं छे के, केवली पासेथी यावत् सांभळ्या विना कोइ जीवने केवलिए कहेल धर्म
श्रवणनो लाभ थाय अने केवली पासेथी सांभळ्या सिवाय कोइ जीवने केवलिप्रणीत धर्म श्रवणनो लाभ न थाय, यावत् कोइ जीव केवलज्ञानने उत्पन्न करे अने कोइ जीव केवलज्ञानने न उत्पन्न करे.
भयं पाठो नास्ति क-ख। २-क्खाणावरणे को-ड। ३-लणे को-ख-दुः। ४-विकरण-घ।
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