Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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एक्कारसम सयं : ग्यारहवाँ शतक
प्राथमिक
यह भगवती सूत्र का ग्यारहवाँ शतक है। इसके १२ उद्देशक हैं। जीव और कर्म का प्रवाहरूप से अनादिकालीन सम्बन्ध है। जिनके कर्मों का क्षय हो जाता है, वे सिद्ध हो जाते हैं। परन्तु सभी जीव कर्मों का क्षय करने में समर्थ नहीं होते। विशेषतः एकेन्द्रिय जीव, जिनकी चेतना अल्पविकसित होती है. वे कर्मबन्ध, उसके कारण और बन्ध से मुक्त होने के उपाय को नहीं जानते। उनके द्रव्यमन नहीं होता। ऐसी स्थिति में एक शंका सहज ही उठती है, जो कर्मबन्ध को जानता ही नहीं, जिनके जीवन में मनुष्य या पंचेन्द्रिय जीवों (पशु-पक्षी आदि) की तरह प्रकटरूंप में शुभ-अशुभ कर्म होता दिखाई नहीं देता, फिर उन जीवों के कर्मबन्ध कैसे हो जाता है ? बहुसंख्यक जनों की इसी शंका का निवारण करने हेतु उत्पल आदि एकेन्द्रिय वनस्पतिकायिक जीवों की उत्पत्ति, स्थिति, बन्ध, योग, उपयोग, लेश्या. आहार आदि कर्मबन्ध से सम्बन्धित ३२ द्वारों के माध्यम से प्रथम उत्पल से लेकर आठवें नलिन उद्देशक तक में प्रश्नोत्तर अंकित हैं। उन्हें पढ़ने से जीव और कर्म के सम्बन्ध का स्पष्ट परिज्ञान हो जाता है तथा विभिन्न जीवों में इनकी उपलब्धि का अन्तर भी स्पष्टत: समझ में आ जाता है। नौवें उद्देशक में शिव राजा का दिशाप्रोक्षक तापसजीवन अंगीकार करने का रोचक वर्णन दिया गया है। उसके पश्चात् प्रकृतिभद्रता तथा बालतप आदि के कारण उन्हें विभंगज्ञान प्राप्त हो जाता है, जिसे भ्रान्तिवश वे अतिशयज्ञान समझ कर झूठा प्रचार एवं दावा करने लगते हैं। किन्तु भगवान् महावीर द्वारा उनके उक्त ज्ञान के विषय में सम्यक् निर्णय दिये जाने पर उनके मन में जिज्ञासा होती है। वे भगवान् के पास पहुँच कर समाधान पाते हैं और निर्ग्रन्थ मुनिजीवन अंगीकार कर लेते हैं। अंगशास्त्राध्ययन, तपश्चरण तथा अन्तिम समय में संलेखना-संथारा करके समाधिपूर्वक मृत्यु प्राप्त करके वे सिद्ध-बुद्धमक्त हो जाते हैं। शिवराजर्षि के जीवन में उतार-चढाव से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जीव कर्मबन्धन को काटने का वास्तविक उपाय न जानने से, सम्यग्दर्शन न पाने से सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र से वंचित रहता है। किन्तु सम्यग्दर्शन पाते ही ज्ञान और चारित्र भी सम्यक् हो जाते हैं और जीव कर्म का सर्वथा क्षय कर देता है। दसवें उद्देशक में लोक का स्वरूप, द्रव्यादि चार प्रकार, क्षेत्रलोक तथा उसके भेद-प्रभेद, अधोलोकादि का संस्थान तथा अधोलोकादि में जीव, जीवप्रदेश हैं, अजीव, अजीव प्रदेश हैं, इत्यादि प्रश्नोत्तर हैं तथा समुच्चय रूप से जीव-अजीव आदि के विषय में प्रश्नोत्तर हैं। फिर लोक-अलोक में जीव-अजीव द्रव्य तथा वर्णादि पुद्गलों के अस्तित्व संबंधी प्रश्नोत्तर हैं । अन्त में लोक और अलोक कितना-कितना बड़ा है ? इसे रूपक द्वारा समझाया गया है। अन्त में एक आकाशप्रदेश में एकेन्द्रिय जीवादि के परस्पर