Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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प्र०१: समय : श्लो० ६३-७१
सूयगडो १ ६३. एवं तु समणा एगे
वट्टमाणसुहेसिणो । मच्छा वेसालिया चेव घायमेसंतणंतसो
एवं तु श्रमणा: एके, वर्तमानसुखैषिणः । मत्स्या वैशालिका इव, घातमेष्यन्ति अनन्तशः।।
६३. इसी प्रकार वर्तमान सुख की एषणा करने वाले
कुछ श्रमण१२२ इन विशालकाय मत्स्यों की भांति अनन्त बार मृत्यु को प्राप्त होते हैं । १२३
।
६४. इणमण्णं तु अण्णाणं
इहमेगेसिमाहियं । देवउत्ते अयं लोए बंभउत्ते त्ति आवरे ।५।
इदं अन्यत् तु अज्ञानं, इह एकेषां आहृतम् । देवोप्तः अयं लोकः, ब्रह्मोप्तः इति चापरे ।
६४. यह एक अज्ञान है। कुछ प्रावादुकों द्वारा यह निरू
पित है कि यह लोक देव द्वारा उप्त है (देव द्वारा इसका बीज-वपन किया हुआ है)। कुछ कहते हैं-यह लोक ब्रह्मा द्वारा उप्त है (ब्रह्मा द्वारा इसका
बीज-वपन किया हुआ है) । २५ ।। ६५. कुछ कहते हैं-जीव-अजीव से युक्त तथा सुख-दुःख
से समन्वित यह लोक ईश्वर द्वारा कृत है और कुछ कहते हैं-यह प्रधान (प्रकृति) द्वारा कृत है ।
ईश्वरेण कृतो लोकः, प्रधानादिना तथा अपरे । जीवाजीवसमायुक्तः, सुखदुःखसमन्वितः ॥ स्वयंभुवा कृतो लोकः, इति उक्तं महर्षिणा । मारेण संस्तृता माया, तेन लोकः अशाश्वतः ।।
६६. स्वयंभू ने इस लोक को बनाया २७--यह महर्षि ने
कहा है । उस स्वयंभू ने मृत्यु से युक्त माया की रचना की, इसलिए यह लोक अशाश्वत है।
६७. कुछ ब्राह्मण और श्रमण कहते हैं कि यह जगत् अण्डे
से उत्पन्न हुआ है ।" उस ब्रह्मा ने सब तत्त्वों की रचना की है । जो इसे नहीं जानते वे मिथ्यावादी
६५. ईसरेण कडे लोए
पहाणाइ तहावरे। जीवाजीवसमाउत्ते
सुहदुक्खसमण्णिए । ६६. सयंभणा कडे लोए
इति वृत्तं महेसिणा । मारेण संथुया माया
तेण लोए असासए ।७। ६७. माहणा समणा एगे
आह अंडकडे जगे। असो तत्तमकासी य
अयाणंता मुसं वए।। ६८. सएहि परियाएहिं
लोगं बूया कडे त्ति य। तत्तं ते ण वियाणंति
णायं णासी कयाइ वि ।। ६६. अमणण्णसमुप्पायं
दुक्खमेव विजाणिया। समुप्पायमजाणंता
किह णाहिति संवरं ? ॥१०॥ ७०. सुद्धे अपावए आया
इहमेगेसिमाहियं । पुणो कीडापदोसेणं से तत्थ अवरज्झई।११॥
ब्राह्मणाः श्रमणाः एके, आहुः अंडकृतं जगत् । असौ तत्त्वमकार्षीच्च, अजानन्तः मृषा वदन्ति । स्वकैः पर्यायः, लोकं ब्रूयात् कृत इति च । तत्त्वं ते न विजानन्ति, नायं नासीत् कदाचिदपि । अमनोज्ञसमुत्पाद, दु:खं एव विजानीयात् । समुत्पादं अजानन्तः, कथं ज्ञास्यन्ति संवरम् ॥
६८. अपने पर्यायों से लोक कृत है—ऐसा कहना चाहिए।
(लोक किसी कर्ता की कृति है ऐसा मानने वाले) तत्त्व को नहीं जानते । लोक कभी नहीं था-ऐसा नहीं है।
६६. दुःख असंयम की उत्पत्ति है-यह ज्ञातव्य है । जो
दुःख की उत्पत्ति को नहीं जानते वे संवर (दुःखनिरोध) को कैसे जानेंगे ? १३१
शुद्धः अपापक: आत्मा, इह एकेषां आहतम् । पुनः क्रीडाप्रदोषेण, स तत्र अपराध्यति ॥
७०. कुछ वादियों ने यह निरूपित किया है-आत्मा शुद्ध
होकर अपापक-कर्म-मल रहित या मुक्त हो जाता है। वह फिर क्रीडा और प्रद्वेष (राग-द्वेष) से युक्त होकर मोक्ष में भी कर्म से बंध जाता है। (फलतः
अनन्तकाल के बाद फिर अवतार लेता है।) ७१. मनुष्य जीवनकाल में संवृत मुनि होकर अपाप (कर्म
मल से रहित) होता है। फिर जैसे पानी स्वच्छ होकर पुनः मलिन हो जाता है, वैसे ही यह आत्मा निर्मल होकर पुनः मलिन हो जाता है । १२
७१. इह संवुडे मुणी जाए
पच्छा होइ अपावए । वियडं व जहा भुज्जो णीरयं सरयं तहा।१२।
इह संवृतः मुनिर्जातः, पश्चाद् भवति अपापकः । विकटं इव यथा भूयो, नीरजस्कं सरजस्कं तथा ॥
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