Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १
४६. एवं तक्काए साता धमाधम्मे अकोदिया । दुक्खं ते णातिवट्टेति सउणी पंजरं जहा । २२ ।
५०. सयं सयं पसंसंता गरहंता परं वयं । जे उ तत्थ विउस्संति
संसारं ते विउस्सिया |२३|
५९. अहावरं किरियावाइदरिसणं
कमचितापणा दुधविद्वर्ण
पुरवखायं
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|२४|
५२. जाणं कारणऽणा उट्टी अबुहो जं च हिंसइ । पुट्ठो वेदे परं अवियत्तं खु सावज्जं । २५।
५३. संति तओ आयाणा जह कीरइ पावगं । अभिकम्मा य पेसा य मणसा अणुजानिया | २६ |
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५४. एए उ तओ आयाणा जेहि कोरड पावगं । एवं भावविसोहोए निव्वाणमभिगच्छ ||२७|
५५. पु पि ता समारंभ आहारट्ठ असंजए । भुंजमाणो वि महावी कम्पुणा
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साधयन्तः, अकोविदाः ।
एवं तर्केण धर्माधर्मे दुःखं ते ते नातिवर्तन्ते, शकुनिः पञ्जरं यथा ॥
स्वकं स्वकं प्रशंसन्तः, गर्हमाणाः
परं वचः ।
ये तु तत्र व्युच्छ्रयन्ति, संसारं ते
व्युच्छ्रिताः ॥
पुराख्यातं,
अथापरं क्रियावादिदर्शनम् कर्मचिन्ताप्रणष्टानां दुःखस्कन्धविवर्धनम् 11
जानन् कायेन अनाकुट्टी, अबुधः वं च हिनस्ति । स्पृष्टो वेदयति परं अव्यक्तं खलु सावधम् ॥
सन्ति इमानि त्रीणि
आदानानि यैः क्रियते पापकम् । अभिक्रम्य च प्रेष्य च, मनसा अनुज्ञाय ॥
एतानि तु त्रीणि
आदानानि यैः क्रियते पापकम् । एवं भावविशोध्या, निर्वाणमभिगच्छति 11
पुत्रमपि तावत् समारभ्य, आहारार्थमसंयतः भुञ्जानोऽपि मेधावी, कर्मणा नोपलिप्यते ||
श्र० १ : समय : इलो० ४६-५५
४६. वे तर्क से ( अपने मत को सिद्ध करते हैं, पर धर्म और अधर्म को " नहीं जानते । जैसे पक्षी पिंजरे से" अपने आपको मुक्त नहीं कर सकता, वैसे ही वे दुःख से " मुक्त नहीं हो सकते ।
५०. अपने अपने मत की प्रशंसा और दूसरे मतों की निंदा करते हुए जो गर्व से उछलते हैं वे संसार (जन्ममरण की परंपरा) को बढ़ाते हैं । "
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५१. अज्ञानवादी दर्शन के बाद क्रियावादी दर्शन का निरूपण किया जा रहा है जो प्राचीन काल से निरूपित है। बौद्धों का कर्म-विषयक चिन्तन सम्पष्ट नहीं है। इसलिए यह दुःख स्कंध को बढ़ाने वाला है ।
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५२. जो जीव को जानता हुआ (संकल्पपूर्वक) काया से उसे नहीं मारता अथवा अबुध हिंसा करता है-अनजान में किसी को मारता है, उसके अव्यक्त (सूक्ष्म) सावद्य (कर्म) स्पृष्ट होता है । उसी क्षण उसका वेदन हो जाता है - वह क्षीण होकर पृथग् हो जाता है ।
५३. ये तीन आदान -मार्ग हैं जिनके द्वारा कर्म का उपचय होता है
१. अभिक्रम्य - स्वयं जाकर प्राणी की घात करना । २. प्रेष्य-दूसरे को भेजकर प्राणी की घात कर
वाना |
३. प्राणी की घात करने वाले का अनुमोदन
करना ।
५४. ये तीन आदान हैं जिनके द्वारा कर्म का उपचय होता है जो इन तीन आदानों का सेवन नहीं करता वह भावविशुद्धि ( राग-द्वेष रहित प्रवृत्ति ) के द्वारा निर्वाण को प्राप्त होता है ।
५५. असंयमी गृहस्थ भिक्षु के भोजन के लिए पुत्र ( यूजर या बकरे ) को मार कर मांस पकाता है, मेधावी भिक्षु उसे खाता हुआ भी कर्म से लिप्त नहीं होता ।"
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