Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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प्र० १: समय : श्लो० ३२-३६
सूयगडो १ ३२. एवमेगे उ पासत्था
ते भुज्जो विप्पगभिया। एवंपुवट्ठिया संता णऽत्तदुक्खविमोयगा ।
एवं एके तु पार्श्वस्थाः , ते भूयो विप्रगल्भिताः । एवमपि उपस्थिताः सन्तः, नात्मदुःखविमोचकाः ॥
३२. इस प्रकार कुछ पार्श्वस्थ (नियति का एकांगी आग्रह
रखने वाले नियतिवादी) साधना-मार्ग में प्रवृत्त होते हैं । यह उनकी दोहरी धृष्टता है। वे साधनामार्ग में प्रवृत्त होने पर भी अपने दुःखों का विमोचन नहीं कर सकते।
जविनो मगा यथा श्रान्ताः, परितानेन तजिताः । अशंकितानि शंकन्ते, शंकितानि' अशंकिनः ।।
३३. जैसे वेगगामी मृग मगजाल से भयभीत और
श्रान्त (दिग्मूढ) होकर" अशंकनीय के प्रति शंका करते हैं और शंकनीय के प्रति अशंकित रहते हैं।
परिततानि शंकमानाः, पाशितानि' अशंकिनः । अज्ञानभयसंविग्नाः, संप्रलीयन्ते तत्र तत्र ।
३४. वे बिछे हुए मृगजाल के प्रति शंकित होते हैं और
पाशयंत्र के प्रति अशंकित होते हैं। वे अज्ञानवश भय से व्याकुल होकर इधर-उधर दौड़ते हैं।
३३. जविणो मिगा जहा संता
परिताणेण तज्जिया। असंकियाई संकति
संकियाइं असंकिणो।६। ३४. परिताणियाणि संकेता
पासियाणि असंकिणो। अण्णाणभय संविग्गा
संपलिति तहि तहिं ७॥ ३५.अह तं पवेज्ज वज्झं
अहे वज्झस्स वा वए। मुच्चेज्ज पयपासाओ
तं तु मंदो ण देहई।। ३६. अहियप्पाऽहियपण्णाणे विसमतेणुवागए । से बद्ध पयपासाई
तत्थ घायं णियच्छइ ।। ३७.एवं तु समणा एगे
मिच्छदिट्ठी अणारिया। असंकियाई संकंति संकियाइं असंकिणो।१०।
३५. यदि वे छलांग भरते हुए पदपाश (कूटयंत्र) की बाध
को" फांद जाएं अथवा उसके नीचे से निकल जाएं तो वे उस पदपाश से" मुक्त हो सकते हैं, किन्तु वे मंदमति उस उपाय को नहीं देख पाते।
अथ तत् प्लवेत वधं, अधो वधस्य वा व्रजेत् । मुच्येत पदपाशात्, तत् तु मन्दो न पश्यति ॥ अहितात्मा अहितप्रज्ञान:, विषमान्तेन उपागतः । स बद्धः पदपाशान, तत्र घातं नियच्छति ।। एवं तु श्रमणा: एके, मिथ्यादृष्टयः अनार्याः । अशंकितानि शंकन्ते, शंकितानि अशंकिनः ।।
३६. अपना हित नहीं समझने वाले और हित की बुद्धि
से शून्य वे मृग विषमांत-संकरे द्वार वाले पाशयंत्र से जाते हैं और उस बंधन में बंध कर मृत्यु को प्राप्त होते हैं।
३७. इसी प्रकार कुछ मिथ्यादृष्टि अनार्य" श्रमण अशंक
नीय के प्रति शंका करते हैं और शंकनीय के प्रति शंका नहीं करते ।"
३८.धम्मपण्णवणा जा सा
तं तु संकति मूढगा। आरंभाइं ण संकंति अवियत्ता अकोविया ॥११॥
धर्मप्रज्ञापना या सा, तां तु शंकन्ते मूढकाः। आरम्भान न शंकन्ते. अव्यक्ताः अकोविदाः ।।
३८. अव्यक्त", अकोविद और मोहमूढ श्रमण जो धर्म
की प्रज्ञापना है उसके प्रति शंका करते हैं और आरंभ (हिंसा) के प्रति शंका नहीं करते।
३६. सव्वप्पगं विउक्कस्सं
सव्वं णमं विहूणिया। अप्पत्तियं अकम्मसे एयमझें मिगे चुए।१२।
सर्वात्मक व्युत्कर्ष, सर्वं 'मं विधूय । अप्रीतिक अकर्मांशः, एनमर्थं मृगः च्युतः ॥
३६. पूर्ण लोभ, मान, माया और क्रोध को नष्ट कर
साधक अकर्माश (सिद्ध)" हो जाता है, किन्तु मृग की भांति अज्ञानी नियतिवादी इस अर्थ (उपलब्धि) से च्युत हो जाता है-अकर्माश नहीं हो सकता।
१. 'प्रति' इति शेषः। २. 'प्रति' इति शेषः। ३. 'प्राप्तः' इति शेषः।
४. 'प्रति' इति शेषः । ५. 'मं' (दे०) माया इत्यर्थः।
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