Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १ २४. तेणाविमं तिणच्चा णं
ण ते धम्मविऊ जणा। जे ते उ वाइणो एवं ण ते दुक्खस्स पारगा।२४॥
तेनापि इदं त्रिज्ञात्वा, न ते धर्मविदः जनाः । ये ते तु वादिनः एवं, न ते दुःखस्य पारगाः ।।
प्र. १: समय : श्लो० २४-३१ २४. किसी दर्शन में आ जाने तथा त्रिपिटक आदि ग्रंथों
को जान लेने से वे मनुष्य धर्मविद् नहीं हो जाते । (इस दर्शन में आ जाने से मनुष्य सब दुःखों से मुक्त हो जाते हैं) जो ऐसा कहते हैं वे दुःख के पार नहीं जा सकते।
२५. तेणाविमं तिणच्चा णं
ण ते धम्मविऊ जणा। जे ते उ वाइणो एवं ण ते मारस्स पारगा।२५॥
तेनापि इदं त्रिज्ञात्वा, न ते धर्मविदः जनाः । ये ते तु वादिनः एवं, न ते मारस्य पारगाः ।।
२५ किसी दर्शन में आ जाने तथा त्रिपिटक आदि ग्रन्थों
को जान लेने से वे मनुष्य धर्मविद् नहीं हो जाते । (इस दर्शन में आ जाने से मनुष्य सब दुःखों से मुक्त हो जाते हैं) जो ऐसा कहते हैं वे मृत्यु के पार नहीं जा सकते।
नानाविधानि दुःखानि, अनुभवंति पुनः पुनः । संसारचक्रवाले, व्याधिमृत्युजराकुले ॥
२६. वे व्याधि, मृत्यु और जरा से आकुल इस संसार
चक्रवाल में नाना प्रकार के दुःखों का बार-बार अनुभव करते हैं।
२६. णाणाविहाई दुक्खाई
अणुहवंति पुणो पुणो। संसारचक्कवालम्मि
वाहिमच्चुजराकुले ।२६॥ २७. उच्चावयाणि गच्छंता
गन्भमेस्संतणंतसो । णायपुत्ते महावीरे एवमाह जिणोत्तमे।२७।
-त्ति बेमि॥
उच्चावचानि गच्छन्तः, गर्भमेष्यन्ति अनन्तशः । ज्ञातपुत्रः महावीरः, एवं आह जिनोत्तमः ।।
-इति ब्रवीमि ॥
२७. वे उच्च और निम्न स्थानों में भ्रमण करते हुए
अनन्त बार जन्म लेंगे-ऐसा जिनोत्तम ज्ञातपुत्र महावीर ने कहा है।
-ऐसा मैं कहता हूं।
बीया उद्देसो : दूसरा उद्देशक
२८. कुछ दार्शनिक (नियतिवादी) यह निरूपित करते
हैं—जीव पृथक्-पृथक् उत्पन्न होते हैं, पृथक्-पृथक् सुख-दुःख का वेदन करते हैं और पृथक्-पृथक् ही अपने स्थान से च्युत होते हैं-मरते हैं।
२६. वह दुःख स्वयंकृत नहीं होता, अन्यकृत भी नहीं
होता। सैद्धिक-निर्वाण का सुख हो अथवा असैद्धिक-सांसारिक सुख-दुःख हो (वह सब नियतिकृत होता है।)
२८. आघायं पुण एगेसि
उववण्णा पुढो जिया। वेदयंति सुहं दुक्खं
अदुवा लुप्पंति ठाणओ ।। २६. ण तं सयं कडं दुक्खं
ण य अण्णकडं च णं । सुहं वा जइ वा दुक्खं
सेहियं वा असेहियं ।२। ३०.ण सयं कडं ण अण्णेहि
वेदयंति पुढो जिया । संगइयं तं तहा तेसि
इहमेगेसिमाहियं ।। ३१. एवमेयाणि जंपंता
बाला पंडियमाणिणो। णिययाणिययं संतं अयाणंता अबुद्धिया।४।
आख्यातं पुनरेकेषां, उपपन्नाः पृथग् जीवाः । वेदयन्ति सुखं दुःखं, अथवा लुप्यन्ते स्थानतः ।। न तद् स्वयं कृतं दुःखं, न च अन्यकृतं च । सुखं वा यदि वा दुःखं, सैद्धिकं वा असैद्धिकम् ।। न स्वयं कृतं न अन्यैः, वेदयन्ति पृथग् जीवाः । सांगतिकं तत् तथा तेषां, इह एकेषामाहृतम् ।। एवमेतानि जल्पन्तो, बालाः पंडितमानिनः । नियताऽनियतं सत्, अजानन्तः अबुद्धिकाः ।।
३०. सभी जीव न स्वकृत सुख-दुःख का वेदन करते हैं
और न अन्य कृत सुख-दुःख का वेदन करते हैं । वह . सुख-दुःख उनके सांगतिक-नियति जनित" होता है,
ऐसा कुछ (नियतिवादी) मानते हैं ।
३१. इस प्रकार नियतिवाद का प्रतिपादन करने वाले
अज्ञानी होते हुए भी अपने आपको पंडित मानते हैं। कुछ सुख-दुःख नियत होता है और कुछ अनियत-" इस सत्य को वे अल्पबुद्धि वाले मनुष्य नहीं जानते।
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