Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ आचारांग सूत्र -प्रथम श्रुतस्कन्ध टोकाकार आचार्य शीलांक ने कहा है --अग्नि की सजीवता तो स्वयं ही सिद्ध है। उसमें प्रकाश व उष्णता का गुण है, जो सचेतन में होते हैं। तथा अग्नि वायु के बिना जीवित नहीं रह सकती।' स्नेह, काष्ठ आदि का आहार लेकर बढ़ती है, आहार के अभाव में घटती हैयह सब उसकी सजीवता के स्पष्ट लक्षण हैं / किसी सचेतन की सचेतनता अस्वीकार करना अर्थात् उसे अजीव मानना अभ्याख्यान दोष है, अर्थात् उसकी सत्ता पर झूठा दोषारोपण करना है तथा दूसरे की सत्ता का अस्वीकार अपनी आत्मा का ही अस्वीकार है। दीर्घलोकशस्त्र' शब्द द्वारा अग्निकाय का कथन करना विशेष उद्देश्यपूर्ण है। दीर्घलोक का अर्थ है-वनस्पति / पांच स्थावर एकेन्द्रिय जीवों में चार की अवगाहना अंगुल का असंख्यातवां भाग है, जबकि वनस्पति की उत्कृष्ट अवगाहना एक हजार योजन से भी अधिक है / वनस्पति का क्षेत्र भी अत्यन्त व्यापक है। इसलिए वनस्पति को अागमों में 'दीर्घलोक' कहा है / अनि उसका शस्त्र है। दीर्घलोकशस्त्र--इसका एक अर्थ यह भी है कि अग्नि सबसे तीष्ण और प्रचंड शस्त्र है। उत्तराध्ययन में कहा है नत्थि जोइसमे सत्थे तम्हा जोई न दोवए-३५।१२ -अग्नि के समान अन्य कोई तीक्ष्ण शस्त्र नहीं है / बड़े-बड़े विशाल बीहड़ वनों को वह कुछ क्षरणों में ही भस्मसात् कर देती है। अग्नि वडवानल के रूप में समुद्र में भी छिपी रहती है। ___ 'खेयण्णे' शब्द के संस्कृत में दो रूप होते हैं-- 'क्षेत्रज्ञ'-निपुण / अथवा क्षेत्र-शरीर किंवा आत्मा, उसके स्वरूप को जानने वाला-क्षेत्रज्ञ / खेदज्ञ--जीव मात्र के दुःख को जानने वाला / कहीं-कहीं क्षेत्रज्ञ का; गीतार्थ ग्राचार व प्रायश्चित्त विधि का ज्ञाता अर्थ भी किया है। भगवान् महावीर का खेयन्नए' विशेषण बताकर इसका अर्थ लोकालोक स्वरूप के ज्ञाता व प्रत्येक प्रारमा के खेद/सुख-दुःख तथा उसके मूल कारणों के ज्ञाता, ऐसा अर्थ भी किया गया है। गीता में शरीर को क्षेत्र व आत्मा को क्षेत्रज्ञ कहा है। बौद्ध ग्रन्थों में क्षेत्रज्ञ का अर्थ 'कुशल' किया है। 1. न विणा वाउयाएणं अगणिकाए उज्जलति-भगवती श० १६।उ० 11 सूत्र (अंगसुत्ताणि) 2. प्रज्ञापना, अवगाहना पद। 3. अोधनियुक्ति (अभि० राजेन्द्र 'खेयन्ने' शब्द)। 4. धर्म संग्रह अधिकार (अभि. " ) / 5. खेयन्नए से कुसले महेसी-सूत्रकृतांग 116 6. गीता 13 / 12 / 7. अंगुत्तरनिकाय, नवक निपात, चतुर्थ भाग पृ० 57 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org