Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
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आचारागसूत्रे सन्ति । एतावान् कालो वनस्पतिकाल इत्युच्यते । परिमाणतस्तु प्रत्युत्पन्नवनस्पतिकायिकानां निर्लेपना नास्ति ।
शरीरावगाहनया च सातिरेकं योजनसहस्रम् । अतो वनस्पतिकायस्य दीर्घलोक इति व्यपदेशः । (प्रज्ञापना १८ पदे)
ननु प्रसिद्धमग्निशब्दं विहाय किमर्थमिह दीर्घलोकशस्त्रशब्दोपादानम् ? उच्यते-वनस्पतिकायदहनप्रवृत्तोऽग्निकायो बहुतरप्राणिनां विनाशको भवति, वनस्पतिकाये बहुविधाः प्राणिनः कीट पिपीलिका भ्रमरमधुमक्षिकाकपोतादयो निवसन्ति, तरकोटरेषु पृथिवीकायाश्च, अवश्यायरूपा अपकाया अपि, मृदुतर
जितने समय होते है उतने है, इतना काल वनस्पतिकाल कहलाता है । परिमाण से प्रत्युत्पन्न वनस्पतिकायिक जीवों की निर्लेपना नहीं है । इनके शरीर की अवगाहना कुछ अधिक एक हजार योजन है । इसी कारण वनस्पतिकाय को दीर्घलोक कहते है ।
अब प्रश्न हो सकता है कि-प्रसिद्ध 'अग्नि' शब्द को छोड़ कर 'दीर्घलोकशस्त्र शब्द का प्रयोग करने की क्या आवश्यकता थी ?
इसका उत्तर यह है कि-वनस्पतिकाय को जलाने में प्रवृत्त अग्निकाय और भी बहुत से प्राणियों का विनाश करता है । वनस्पतिकाय के सहारे कीडे, चिउंटी, भोरे, मधुमक्खी और कबूतर आदि बहुत से प्राणी निवास करते हैं । वृक्षों को खोतरों में पृथ्वीकाय के जीव भी होते हैं । ओसरूप अप्काय भी होता है, और अत्यन्त कोमल
ભાગમાં જેટલા સમય થાય છે. તેટલા છે એટલે કાળ તે વનસ્પતિકાળ કહેવાય છે. પરિમાણથી પ્રત્યુત્પન્ન વનસ્પતિકાયિક જીની નિલેપના નથી. તેના શરીરની અવગાહના * अघि मे उन्नर यान छे. मा १२Yथी वनस्पति यने 'दीर्घलोक ' ४ छे.
वे प्रश्न य श छ -प्रसिद्ध अग्नि शहने छीन 'दीर्घलोकशस्त्र' શબ્દને પ્રયોગ કરવાની શું આવશ્યકતા હતી? તેને ઉત્તર એ છે કે-વનસ્પતિકાયને બાળવામાં પ્રવૃત્ત (ચાલુ) અગ્નિકાય બીજા પણ પ્રાણીઓને વિનાશ કરે છે. વનસ્પતિના આશ્રયે કીડા, મકેડા, ભમરા, મધમાખી અને કબૂતર આદિ ઘણજ પ્રાણીઓ નિવાસ કરે છે. વૃક્ષના બોલમાં પૃથ્વીકાયના જીવ પણ હોય છે. ઝાકળરૂપ અષ્કાય પણ હોય છે.