Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 729
________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य० १ उ. ६ सु. ६ त्रसहिंसाया ग्रन्थाद्यर्थत्वम् ६६९ 'लोकः पुनः पुनर्ग्रन्थाद्यर्थमेव प्रवर्तते' इति यदुक्तं, तत् कथं ज्ञायते ? इति जिज्ञासायामाह - ' यदिमम् . ' इत्यादि । यद्=यस्माद्, विरूपरूपैः=नानाविधैः शस्त्रैः = पूर्वोक्तप्रकारैः त्रसकायसमारम्भेण= सकायोपमर्दनरूपसावद्यव्यापारेण, इमं त्र सकार्यं विहिनस्ति । तथा त्रसकायशस्त्रं समारभमाणः=व्यापारयन् अन्यान् पृथ्वीकायादीन् स्थावरान् प्राणान् = प्राणिनः, विहिनस्ति = उपमर्दयति ॥ ०६ ॥ यस्मै प्रयोजनाय सकायो हन्यते, तत् प्रयोजनं यद्यपि - 'इमरस चेव जीवियस्स.' इत्यादिनाऽभिहितम्, तथापि विशिष्य तत्तत्प्रयोजनं पुमः प्रदर्शयितुमाह' से बेमि' इत्यादि । लोग बारम्बार ग्रंथ आदि के लिए ही प्रवृत्ति करते है, यह बात कैसे मालूम हुई 2 इस का समाधान के लिए कहते है - ' यदिमम्' इत्यादि । क्यों कि वे नाना प्रकार के शस्त्रो द्वारा त्रसकाय का समारंभ करके काय की हिंसा करते हैं और त्रसकाय का समारंभ करते हुए पृथ्वीकाय आदि अन्य स्थावर प्राणियों का भी विराधना करते है || सू० ६ ॥ जिस प्रयोजन से त्रसकाय की हिंसा की जाती है वह योजन 'इस जीवन के सुख के लिए' इत्यादि कथन द्वारा बतलाया जा चुका है, फिर भी विशेष रूप से उस हिंसाका प्रयोजन बतलाने के लिए श्री सुधर्मा स्वामी कहते है - ' से बेमि . ' इत्यादि । લાક વારવાર ગ્રંથ આદિના માટેજ પ્રવૃત્તિ કરે છે, એ વાત કેવી રીતે માલૂમ घडी ? मेनु सभाधान वा भाटे हे छे:- ' यदिमम् . ' त्याहि. કેમ કે નાના પ્રકારના શસ્રાદ્વારા ત્રસકાયને સમારભ કરીને ત્રસકાયની હિંસા કરે છે, અને ત્રસકાયના સમારભ કરતા થકા પૃથ્વીકાય આદિ અન્ય સ્થાવર પ્રાણીयो घात उरे छे. ॥ सू० ६॥ જે પ્રત્યેાજનથી ત્રસકાયની હિંસા કરવામા આવે છે. તે પ્રત્યેાજન આ જીવનના સુખ માટે” ઈત્યાદિ વિવેચનદ્વારા બતાવ્યુ છે. ( પતાવી ચૂકયા છીએ.) ક્રી પણ વિશેષરૂપથી એ હિંસાનું પ્રત્યેાજન ખતાવવા માટે શ્રી સુધર્મા સ્વામી કહે છેઃ'से बेमि.' इत्याहि.

Loading...

Page Navigation
1 ... 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801