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बीओ उद्देसओ
पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा का निषेध
१०. अट्टे लोए परिजुष्णे दुस्संबोहे अविजाणए ।
अस्सं लोए पव्वहिए। तत्थ तत्थ पुढो पास आतुरा परितावेंति ।
१०. जो (मनुष्य) आर्त है, (विषय-वासना - कषाय आदि से पीड़ित है ) ( वह ज्ञान-दर्शन से - ) परिजीर्ण अर्थात् वंचित - दूर रहता है। ऐसे दुस्संबोध व्यक्ति को ( समझाना कठिन होता है) क्योंकि वह अज्ञानी है (तत्त्व से अनभिज्ञ है ) ।
द्वितीय उद्देशक
हाहाह
( अज्ञानी मनुष्य ) इस लोक में व्यथा / पीड़ा का अनुभव करते हैं। तू देख ! पृथक्-पृथक् भावों के वश हुए (काम, भोग व सुख के लिए) आतुर / लालायित बने प्राणी ( पृथ्वीकाय आदि) जीवों को परिताप (कष्ट) देते रहते हैं।
LESSON TWO
PROSCRIBING THE DESTRUCTION OF EARTH-BODIED BEINGS
10. In this world the tormented one (by desires, lust and passicns, etc.) remains deprived (of knowledge and perception). He is beyond instructing and remains ignorant (of truth).
(The ignorant) in this world suffer pain. See ! These beings, driven by different sentiments and craving (for lust, indulgence and pleasure), keep on torturing (causing pain to) other living beings (including living organisms like earth-bodied beings).
११. संति पाणा पुढो सिआ । १२. लज्जमाणा पुढो पास।
'अणगारा मो' त्ति एगे पवयमाणा, जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं पुढवि-कम्म-समारंभेणं पुढवि-सत्थं समारंभेमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंस |
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११. पृथ्वीकायिक प्राणी पृथक्-पृथक् शरीर में रहते हैं (अर्थात् वे प्रत्येकशरीरी होते हैं)।
१२. तू देख ! प्रत्येक आत्म-साधक, लज्जमान है ( अर्थात् हिंसा करने में लज्जा या ग्लानि का अनुभव करता हुआ संयममय जीवन जीता है ) ।
आचारांग सूत्र
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Illustrated Acharanga Sutra
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