Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.३ म्.२ श्रद्धास्वरूपम् ४८५ जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तम्, स उत्कर्षतो देशोनार्द्धपुद्गलपरावर्त्त स्थित्वा पुनः सम्यक्त्वं प्राप्स्यति, स सादिमिथ्यादृष्टिभवति ।
यथाप्रवृत्तिकरणम्एवमुभयविधस्य मिथ्यादृष्टेजीवस्य परिणामरूपाध्यवसायः पूर्व जघन्यशुभपरिणाममङ्गीकृत्य परः परः शुभपरिणामः परिणामविशेष इत्युच्यते । स एव परिणामविशेषो 'यथाप्रतिकरण'-मित्युच्यते ।
__ यथाप्रवृत्तिकरण-मित्यस्य शब्दार्थस्त्वेवम्-यथान्येन अनादिसंसिद्धप्रकारेण प्रवृत्तिर्यस्य तत् यथाप्रवृत्ति, क्रियते कर्मक्षपणमनेनेति करण जीवस्य शुभपरिणामः, यथाप्रवृत्ति च तत्करणं च यथाप्रवृत्तिकरणं कर्मक्षपणकारणस्याबाद में अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से फिर मिथ्यात्व आ गया किन्तु वह मिथ्यात्व जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट देशोन अर्द्धपुद्गलपरावर्तन तक रहता है वह जीव सादिमिथ्यादृष्टि है।
यथाप्रवृत्तिकरण___ इस प्रकार दोनों प्रकार के मिथ्यादृष्टि जीवों का अध्यवसाय पहले के जघन्य शुभ परिणाम से लेकर उत्तरात्तर बढते हुए शुभ परिणाम, परिणामविशेष कहलाता है। उसी परिणामविशेष को 'यथाप्रवृत्तिकरण' कहते हैं।
'यथाप्रवृत्तिकरण' का शब्दार्थ इस प्रकार है-'यथा' अर्थात् अनादिकालीनरूप से जिस की प्रवृत्ति हो वह यथाप्रवृत्ति कहलाता है । जिस से कर्मों का क्षय किया जाता है, जीव के उस शुभ परिणाम को 'करण' कहते हैं। यथाप्रवृत्ति
અનન્તાનુબંધી કષાયના ઉદયથી ફરીથી મિથ્યાત્વ આવી ગયું. પણ તે મિથ્યાત્વ જઘન્ય અન્તમુહૂર્ત સુધી અને ઉત્કૃષ્ટ દેશોન અદ્ધ પુદ્ગલપરાવર્તન સુધી રહે છે. તે જીવ સાદિમિથ્યાષ્ટિ છે.
यात्रवृत्ति२९१આ પ્રકારના બને મિથ્યાદષ્ટિ ના અધ્યવસાય પહેલાના જઘન્ય શુભ પરિ. ણામથી લઈને ઉત્તરોત્તર વધતા શુભ પરિણામ, પરિણામવિશેષ કહેવાય છે. તે પરિણામविशेषने यथाप्रवृत्तिकरण ४ छे. “यथाप्रवृतिकरण" नो हाथ २ प्रारे छे-~-'यथा' मर्थात मनाहिदीन२१५थी २नी 'प्रवृत्ति' रयते 'यथाप्रवृत्ति' वाय छे. नाथी भाना क्षय ४२१॥भ मावे छ, न त शुभ परिणामने “करण” ४९ छे.
શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૧