Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. ७ सु. २ वायुकाय विराधना
छाया — गन्धर्वनृत्यवादित्र - लवणजलारात्रिका दिदीपादयः । यत्किञ्चित्कृत्यं तत्सर्वमप्यवतरत्यग्रपूजायाम् ॥ १ ॥ इति । किञ्च - सप्तदशमेदिपूजाविधावपि गीतनृत्यवाद्यानि कर्त्तव्यतयोपदिशन्ति । किञ्चैकविंशतिविधपूजायामपि नृत्यगीतवादित्रैश्चामरवीजनैश्च वायुकायसमा
रम्भ कारयन्ति ।
उक्तश्च- -" स्नात्रं विलेपनविभूषण पुष्पवास -
धूपप्रदीपफलतन्दुलपत्रपूगैः । नैवेद्यवारिवसनैश्वमरातपत्र, - वादित्रगीतनटनस्तुतिकोशहद्धया ॥ १ ॥ इत्येकविंशतिविधा जिनराजपूजा " इत्यादि ।
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"गाना, नाचना, बजाना, लवण-जल, आरती करना, दीपक जलाना आदि जितने कार्य हैं, वे सब अग्रपूजा में किये जाते हैं " ॥ १॥
तथा वे द्रव्यलिंगी दण्डी 'सत्तरहप्रकार की पूजा में भी गीत, नृत्य और वाद्य आदि क्रियाएँ करनी चाहिए' ऐसा अपदेश देते हैं ।
तथा इक्कीसभेदी पूजा में भी नृत्य, गीत, वादित्र तथा चामर और पंखा आदि के द्वारा वायुकाय का समारंभ कराते हैं । जैसा कहा है:
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स्नान, विलेपन, आभूषण, पुष्प, वास, धूप, दीप, फल, चावल पत्र, सुपारी, नैवेद्य जल, वस्त्र, चामर, छत्र, वादित्र, गीत, नाट्य, स्तुति और कोंशवृद्धि, इस तरह इक्कीस प्रकार की जिन भगवान् की पूजा होती है " ॥ १॥
“गावु, नाथवु, जन्मववु, भीहुँ, भस, भारती ४२वी, द्वीप -डीवो माजवा माहि नेटसा अर्थ छे, ते सर्व अथयूलमां उरवामां आवे छे.” ॥ १ ॥
તથા તે દ્રવ્યલિંગી–૪'ડી ‘સત્તરપ્રકારની પૂજામાં પણ હમેશાં નૃત્ય અને વાદ્યવાજીંત્ર આદિ ક્રિયાએ કરવી જોઇએ. ' એવા ઉપદેશ આપે છે.
તથા એકવીસલેન્રી પૂજામાં પણ નૃત્ય, ગીત, વાજીંત્ર તથા ચામર અને પંખા આદિ દ્વારા વાયુકાયના સમારભ કરાવે છે. જેમ કહ્યું પણ છે
“स्नान, विलेयन, आभूषणु, पुष्प, वास, धूप, दीप, इस, योमा, पत्र, सोयारी, नैवेध, ०४५, वस्त्र, याभर, छत्र, पात्र, गीत, नाटड, स्तुति भने अशवृद्धि ( धर्माहाना नाभे नाथां-धन-नीवृद्धि ) या प्रमाये ये वीस अहारनी निभगवाननी चूल थाय छे.” ॥१॥
શ્રી આચારાંગ સૂત્ર ઃ ૧