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अध्यात्मदर्शन
मे उमे चाहे जितने कष्ट उठाने पडे, वद परिणरागणा या पनियता ही गती है परन्तु उग प्रीति मे नो प्राय भग होना देया गया । माई कर पति आनी पत्नी को अकारण ही छोड़ देने है कई गरी गन्दी ; अपनी पत्नी की उपेक्षा कर बैठते है, कई मालमृत्य बिन पाने, इसलिए ऐमी लांकिक प्रीति तो अस्थायी और प्राय विपतिकारिणी होती। उमी कारण गुद्धचेतना सनी ऐने फिगी लौगि व गगटेपपगा पनि पिगतम) ने प्रीति जोडना नहीं चाहती।
अखण्डप्रोति के धनी परमात्मा शुद्धचेतना को अन्तरात्मा पुकार उठनी है कि राग में अन्यन्त दर परमात्मा (ऋपभदेव) ही अखण्डप्रीति के धनी है, उनके नाय ए बार भेगे प्रीति जुड जाने पर वह कभी टूटेगी नहीं। वे एक वार गुझे, प्रगमनापग अपना लेंगे तो फिर कदापि मेरा साथ नहीं छोड़ेंगे। । यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि परमात्मा के गाय ऐगी उलगडप्रीति तभी अविच्छिन्न, स्थायी और अटूट रह सकती है, जब आत्मा (चेतना) भी नतन अपनी शुद्ध स्वभावदशा मे रहे। आत्मा गद्ध स्वभावदना की प्रीति छोर कर यदि मामारिक वस्तुओ, इन्द्रियविपयो या व्यक्तियों के प्रति मोह, आगनि, आकाक्षा या स्वार्थबग प्रीति करने जायेगी तो उसकी वह प्रोति परमात्मा के प्रति अव्यभिचारिणी नहीं रहेगी । अत वे पाहते है-'परमात्माम्मी पति भी नमी प्रसन्न रहेंगे, जब उनके प्रति अनन्यभक्ति, अनन्यश्रद्धा और स्वभाव धारा में मततरमणता होगी और एक बार प्रसन्न (म्वभावनिष्ठ) होने पर वे मेरे हृदयसर्वम्ब कभी मेग परित्याग नहीं करेंगे।'
परमात्मा के प्रति प्रीति के स्थायित्व का कारण एक वार परमात्मा के साथ प्रीति होजाने पर वह मदा के लिए स्थायी क्यो हो जाती है, इसके लिए आनन्दघनजी कहते है कि वह प्रीति मादि-अनन्त है। उमनी एक वार आदि (शुरुआत) तो होती है, परन्तु उन प्रीति का अन्त नहीं होता। जिस प्रीति का प्रारम्भ तो हो, पर अन्त हो जाय, वह प्रीति स्थायी नहीं होती, ज्यादा से ज्यादा वह-एक जन्म तक टिकती है। शरीर टूटने के बाद वह भी छूट जाती है।