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१ ऋषभदेव स्तुति —
सच्ची परमात्म-प्रीति
(तर्ज - कर्मपरीक्षा करण कुमर चाल्यो "राग-मारु) ऋषभजिनेश्वर प्रीतम माहरो रे, और न चाहूँ रे कंत । रोइयो साहेब संग न परिहरे रे, भांगे सादि-अनन्त ॥ ध्रुव ॥१॥ अर्थ
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मेरे सच्चे प्रियतम ( पतिदेव ) तो रागद्वेष-विजेता ऋषभदेव परमात्मा हैं । मैं और किसी को अपने पति के रूप में नहीं चाहती, क्योकि मेरे परमात्मदेव (पति) यदि एक बार प्रसन्न हो जायेंगे तो वे सादि- अनन्त भग (विकल्प) की दृष्टि से कदापि मेरा साथ नहीं छोडेंगे ।
भाष्य
परमात्म-प्रीति है ।
परमात्म
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अन्तरात्मा की सर्वोत्तम उपलब्धि प्रीति के सम्बन्ध मे विभिन्न विकल्प है । परन्तु स्तुतिकर्ता श्रीआनन्दघनजी जगत् के किसी भी तथाकथित महान् (धन, सौन्दर्य आदि की दृष्टि से ) व्यक्ति को अपने प्रियतम के रूप मे पसद नही करते । इसीलिए अपनी श्रद्धा नाम की मखी से चेतना ( अन्तरात्मा ) द्वारा कहलाते है - मेरे प्रियतम तो रागद्वेषविजयी ऋषभदेव परमात्मा ( शुद्ध आत्मदेव ) हैं । इन्ही के चरणो मे मैं अपने तन, मन, इन्द्रिय, हृदय, बुद्धि आदि सर्वस्व अर्पण करती हूँ । इन्ही के पास रहने, इन्ही की सेवा में अहर्निण सलग्न रहने की मेरी भावना है । मैं अपने इन्ही पतिदेव को चाहती हूँ । इनके साथ रहने में मैं अपने जीवन की परम सफलता मानती हूँ |
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अन्य के साथ क्यो नहीं ? लेती है, उसे अपना सर्वस्व
आर्यनारी जिसके साथ एक वार प्रीति जोड समर्पण कर देती है, वही उसका आमरणान्त पति कहलाता है । उसके साथ