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“અહો! શ્રુતજ્ઞાન” ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૨૨૦
ન્યાયગ્રંથ
'વાદાર્થ સંગ્રહ ભાગ-૨
: દ્રવ્ય સહાયક : સુવિશાળ ગચ્છાધિપતિ પૂ. આ. શ્રી વિજય રામચંદ્ર-ભટૂંકર
કુંદકુંદસૂરીશ્વરજી મહારાજના શિષ્યરત્ન વર્ધમાનતપોનિધિ પૂ. ગણિવર્ય શ્રી નયભદ્રવિજયજી મ.સા.ની પ્રેરણાથી શ્રી ભીડભંજન પાર્શ્વનાથ જૈન સંઘ, વિરાર, મુંબઈ
જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી
: સંયોજક : શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૫
(મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543 સંવત ૨૦૭૨
ઈ. ૨૦૧૬
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अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६५ (ई. 2009) सेट नं.-१
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। પુસ્તકનું નામ
ક્રમાંક
પૃષ્ઠ
કર્તા-ટીકાકાર-સંપાદક पू. विक्रमसूरिजी म.सा.
पू. जिनदासगणि चूर्णीकार
पू. मेघविजयजी गणि म. सा.
001
002
003
004
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015
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017
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद - 05.
018
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029
श्री नंदीसूत्र अवचूरी
श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी
श्री अर्हद्गीता भगवद्गीता
| श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः
श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं
श्री मानतुङ्गशास्त्रम्
अपराजितपृच्छा
शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम्
शिल्परत्नम् भाग - १
शिल्परत्नम् भाग - २
प्रासादतिलक
काश्यशिल्पम्
प्रासादमञ्जरी
राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र
शिल्पदीपक
वास्तुसार
दीपार्णव उत्तरार्ध
જિનપ્રાસાદ માર્તણ્ડ
जैन ग्रंथावली
હીરકલશ જૈન જ્યોતિષ
| न्यायप्रवेशः भाग-१
दीपार्णव पूर्वार्ध
| अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग - १
| अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-२
प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह
तत्त्पोपप्लवसिंहः
शक्तिवादादर्शः
क्षीरार्णव
वेधवास्तु प्रभा
पू. भद्रबाहुस्वामी म.सा.
पू. पद्मसागरजी गणि म.सा.
पू. मानतुंगविजयजी म.सा.
श्री बी. भट्टाचार्य
| श्री नंदलाल चुनिलाल सोमपुरा
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री विनायक गणेश आपटे
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री नारायण भारती गोंसाई
श्री गंगाधरजी प्रणीत
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા
श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फ्रन्स
શ્રી હિમ્મતરામ મહાશંકર જાની
श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
पू. मुनिचंद्रसूरिजी म. सा.
श्री एच. आर. कापडीआ
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
श्री जयराशी भट्ट, बी. भट्टाचार्य
श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
238
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().
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190
202
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30 | શિન્જરત્નાકર
श्री नर्मदाशंकर शास्त्री प्रासाद मंडन
| पं. भगवानदास जैन श्री सिद्धहेम बृहदवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-१ पू. लावण्यसूरिजी म.सा. | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-२ પૂ. ભવિષ્યસૂરિની મ.સા. श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-३
પૂ. ભાવસૂરિ મ.સા. श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-3 (२)
પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા. 036. | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-५ પૂ. ભાવસૂરિન મ.સા. 037 વાસ્તુનિઘંટુ
પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા 038 તિલકમશ્નરી ભાગ-૧
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 039 તિલકમગ્નરી ભાગ-૨
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી તિલકમઝરી ભાગ-૩
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી સખસન્ધાન મહાકાવ્યમ્
પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી સપ્તભફીમિમાંસા
પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી ન્યાયાવતાર
| સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ 044 વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વલોક
શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) 045 સામાન્ય નિર્યુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક
શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) 046 સપ્તભીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ પૂ. લાવણ્યસૂરિજી. વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા
શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી નયોપદેશ ભાગ-૧ તરષિણીકરણી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરકિણીતરણી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી ન્યાયસમુચ્ચય
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી સ્યાદ્યાર્થપ્રકાશઃ
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ
પૂ. દર્શનવિજયજી 053 બૃહદ્ ધારણા યંત્ર
પૂ. દર્શનવિજયજી 054 | જ્યોતિર્મહોદય
સ. પૂ. અક્ષયવિજયજી
228
60
218
190
138
296
(04)
210
274
286
216
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113
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|
શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર
ભાષા |
स
पू. लावच
218.
164
સંયોજક – બાબુલાલ સરેમલ શાહ શાહ વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન
हीशन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, महावाह-04. (मो.) ८४२७५८५८०४ (यो) २२१३ २५४३ (5-मेल) ahoshrut.bs@gmail.com महो श्रुतज्ञानमjथ द्धिार - संवत २०७5 (5. २०१०)- सेट नं-२
પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને ડી.વી.ડી. બનાવી તેની યાદી.
या पुस्तsी www.ahoshrut.org वेबसाईट ५२थी upl stGirls sरी शाशे. ક્રમ પુસ્તકનું નામ
ता-
टीर-संपES પૃષ્ઠ 055 | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्यास अध्याय-६
| पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
296 056| विविध तीर्थ कल्प
प. जिनविजयजी म.सा.
160 057 ભારતીય જૈન શ્રમણ સંસ્કૃતિ અને લેખનકળા
| पू. पूण्यविजयजी म.सा. 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः
श्री धर्मदत्तसूरि
202 059 | व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका
| श्री धर्मदत्तसूरि જૈન સંગીત રાગમાળા
. श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी | 306 061 | चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश)
| श्री रसिकलाल एच. कापडीआ 062 | व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय |सं श्री सुदर्शनाचार्य
668 063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी
सं पू. मेघविजयजी गणि
516 064| विवेक विलास
सं/. | श्री दामोदर गोविंदाचार्य
268 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध
|
सं पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा. 456 066 | सन्मतितत्त्वसोपानम्
| सं पू. लब्धिसूरिजी म.सा.
420 06764शमाता वही गुशनुवाह
गु४. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा. 638 068 | मोहराजापराजयम्
सं पू. चतुरविजयजी म.सा. 192 069 | क्रियाकोश
सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया
428 070 | कालिकाचार्यकथासंग्रह
सं/४. श्री अंबालाल प्रेमचंद
406 071 | सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका | सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य
308 072 | जन्मसमुद्रजातक
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
128 073 मेघमहोदय वर्षप्रबोध
सं/हिं श्री भगवानदास जैन 0748न सामुद्रिन पांय jथो
१४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी | 376
4. 14.
060
322
532
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'075
374
238
194
192
254
ગુજ. |
260
| જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૧ 16 | જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૨ 77) સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી
ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પ સ્થાપત્ય 79 | શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧ 080 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૧ 081 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૨
| બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૩ 083. આયુર્વેદના અનુભૂત પ્રયોગો ભાગ-૧
કલ્યાણ કારક 085 | વિ૨નીવન જોશ
કથા રત્ન કોશ ભાગ-1
કથા રત્ન કોશ ભાગ-2 088 | હસ્તસગ્નીવનમ
238 260
ગુજ. | શ્રી સારામારૂં નવાવ ગુજ. | શ્રી સYTમારૂં નવા ગુજ. | શ્રી વિદ્યા સરમા નવીન ગુજ. | શ્રી સારામાકું નવાવ ગુજ. | શ્રી મનસુભાન કુકરમલ
| श्री जगन्नाथ अंबाराम ગુજ. | श्री जगन्नाथ अंबाराम ગુજ. | શ્રી ગગન્નાથ મંવારમ ગુજ. | . વન્તિસાગરની ગુજ. | શ્રી વર્ધમાન પર્વનાથ શાસ્ત્રી सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा ગુજ. | શ્રી લેવલાસ ગીવરીન લોશી ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરીન લોશી સં. | પૂ. મેષવિનયની સં. પૂ.વિનયની, પૂ.
पुण्यविजयजी आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी
114
'084.
910 436
336
087
230
322,
(089/
114
એન્દ્રચતુર્વિશતિકા સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા
560
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05.
अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार- संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। पुस्तक नाम
कर्त्ता / टीकाकार
संपादक / प्रकाशक
91
मोतीलाल लाघाजी पुना
स्याद्वाद रत्नाकर भाग - १
वादिदेवसूरिजी
92 स्याद्वाद रत्नाकर भाग-२
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना
93
मोतीलाल लाघाजी पुना
स्याद्वाद रत्नाकर भाग-३
वादिदेवसूरिजी
94
मोतीलाल लाघाजी पुना
स्याद्वाद रत्नाकर भाग-४
वादिदेवसूरिजी
95 स्याद्वाद रत्नाकर भाग - ५
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना
96 | पवित्र कल्पसूत्र
साराभाई नवाब
टी. गणपति शास्त्री
टी. गणपति शास्त्री
वेंकटेश प्रेस
क्रम
97 समराङ्गण सूत्रधार भाग - १
98 | समराङ्गण सूत्रधार भाग - २
99 भुवनदीपक
100 गाथासहस्त्री
101 भारतीय प्राचीन लिपीमाला
102 शब्दरत्नाकर
103 सुबोधवाणी प्रकाश
104 लघु प्रबंध संग्रह
105 जैन स्तोत्र संचय - १-२-३
106 सन्मति तर्क प्रकरण भाग १,२,३
107 सन्मति तर्क प्रकरण भाग-४, ५
108 न्यायसार न्यायतात्पर्यदीपिका
109 जैन लेख संग्रह भाग - १
110 जैन लेख संग्रह भाग-२
111 जैन लेख संग्रह भाग-३
112 | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग-१
113 जैन प्रतिमा लेख संग्रह
114 राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह
115 | प्राचिन लेख संग्रह - १ 116
बीकानेर जैन लेख संग्रह
117 प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग-१ 118 प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग - २
119 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो - १
120 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो २ 121 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३ 122 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल - १
123 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-४ 124 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल - ५ 125 | कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स 126 विजयदेव माहात्म्यम्
पुण्य
भोजदेव
भोजदेव
पद्मप्रभसूरिजी
समयसुंदरजी
गौरीशंकर ओझा
साधुसुन्दरजी
न्यायविजयजी
जयंत पी. ठाकर
माणिक्यसागरसूरिजी
सिद्धसेन दिवाकर
सिद्धसेन दिवाकर
सतिषचंद्र विद्याभूषण
पुरणचंद्र नाहर
पुरणचंद्र नाहर
पुरणचंद्र नाहर
कांतिविजयजी
दौलतसिंह लोढा
विशालविजयजी
विजयधर्मसूरिजी
अगरचंद नाहटा
जिनविजयजी
जिनविजयजी
गिरजाशंकर शास्त्री
गिरजाशंकर शास्त्री
गिरजाशंकर शास्त्री
पी. पीटरसन
पी. पीटरसन
पी. पीटरसन
पी. पीटरसन जिनविजयजी
भाषा
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हिन्दी
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सं./हि पुरणचंद्र नाहर
सं./हि
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि
पुरणचंद्र नाहर
सं./ हि
सं./हि
सं./हि
सं./हि
सं./गु
सं./गु
सं./गु
अं.
सुखलालजी
मुन्शीराम मनोहरराम
हरगोविन्ददास बेचरदास
हेमचंद्राचार्य जैन सभा
ओरीएन्ट इन्स्टीट्युट बरोडा
आगमोद्धारक सभा
अं.
अं.
अं.
सं.
सुखलाल संघवी
सुखलाल संघवी
एसियाटीक सोसायटी
जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार
अरविन्द धामणिया
यशोविजयजी ग्रंथमाळा
यशोविजयजी ग्रंथमाळा
नाहटा धर्स
जैन आत्मानंद सभा
जैन आत्मानंद सभा
फार्बस गुजराती सभा
फार्बस गुजराती सभा
फार्बस गुजराती सभा
रॉयल एशियाटीक जर्नल
रॉयल एशियाटीक जर्नल
रॉयल एशियाटीक जर्नल
भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपा.
जैन सत्य संशोधक
पृष्ठ
272
240
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466
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134
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404
404
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274
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320
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद - 05. संवत २०६८ (ई. 2012) सेट नं.-४
- - -
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प्रकाशक
कर्त्ता / संपादक साराभाई नवाब
महाप्रभाविक नवस्मरण
साराभाई नवाब
साराभाई नवाब
साराभाई नवाब
हीरालाल हंसराज
हीरालाल हंसराज
पी. पीटरसन
एशियाटीक सोसायटी
कुंवरजी आनंदजी
जैन धर्म प्रसारक सभा
शील खंड
133 करण प्रकाशः
ब्रह्मदेव
134 | न्यायविशारद महो. यशोविजयजी स्वहस्तलिखित कृति संग्रह यशोदेवसूरिजी
135 भौगोलिक कोश- १
136 भौगोलिक कोश-२
डाह्याभाई पीतांबरदास डाह्याभाई पीतांबरदास जिनविजयजी
137 जैन साहित्य संशोधक वर्ष १ अंक - १, २
क्रम
127
128 जैन चित्र कल्पलता
129 जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास भाग - २
130 ओपरेशन इन सर्च ओफ सं. मेन्यु. भाग-६
131 जैन गणित विचार
132 | दैवज्ञ कामधेनु ( प्राचिन ज्योतिष ग्रंथ)
138 जैन साहित्य संशोधक वर्ष १ अंक ३, ४
139 जैन साहित्य संशोधक वर्ष २ अंक - १, २ 140 जैन साहित्य संशोधक वर्ष २ अंक-३, ४ 141 जैन साहित्य संशोधक वर्ष ३ अंक-१, 142 जैन साहित्य संशोधक वर्ष ३ अंक-३, 143 नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-१ 144 नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-२
४
145 नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-३ 146 भाषवति
147 जैन सिद्धांत कौमुदी (अर्धमागधी व्याकरण)
148 मंत्रराज गुणकल्प महोदधि
149 फक्कीका रत्नमंजूषा- १, २
150 | अनुभूत सिद्ध विशायंत्र (छ कल्प संग्रह) सारावलि
151
152 ज्योतिष सिद्धांत संग्रह
153
१
२
ज्ञान प्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्रम्
नूतन संकलन
आ. चंद्रसागरसूरिजी ज्ञानभंडार - उज्जैन
श्री गुजराती श्वे. मू. जैन संघ हस्तप्रत भंडार कलकत्ता
जिनविजयजी
जिनविजयजी
जिनविजयजी
जिनविजयजी
जिनविजयजी
सोमविजयजी
सोमविजयजी
सोमविजयजी
शतानंद मारछता
रनचंद्र स्वामी
जयदयाल शर्मा
कनकलाल ठाकूर
मेघविजयजी
कल्याण वर्धन विश्वेश्वरप्रसाद द्विवेदी
रामव्यास पान्डेय
हस्तप्रत सूचीपत्र
हस्तप्रत सूचीपत्र
भाषा
गुज.
गुज.
गुज.
अंग्रेजी
गुज.
सं.
सं./अं.
गुज.
गुज.
गुज.
हिन्दी
हिन्दी
हिन्दी
हिन्दी
हिन्दी
हिन्दी
गुज.
गुज.
गुज.
सं./हि
प्रा./सं.
हिन्दी
सं.
सं./ गुज सं. सं.
सं.
हिन्दी
हिन्दी
व्रज. बी. दास बनारस
सुधाकर द्विवेदि
यशोभारती प्रकाशन
गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी
गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी
जैन साहित्य संशोधक पुना
जैन साहित्य संशोधक पुना
जैन साहित्य संशोधक पुना
जैन साहित्य संशोधक पुना
जैन साहित्य संशोधक पुना
जैन साहित्य संशोधक पुना
शाह बाबुलाल सवचंद
शाह बाबुलाल सवचंद
शाह बाबुलाल सवचंद
एच. बी. गुप्ता एन्ड सन्स बनारस
भैरोदान सेठीया
जयदयाल शर्मा
हरिकृष्ण निबंध
महावीर ग्रंथमाळा
पांडुरंग जीवाजी
बीजभूषणदास जैन सिद्धांत भवन
बनारस
श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
पृष्ठ
754
84
194
171
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286
272
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232
160
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
|
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122
208 70
310
शा
462 512 264
| तीर्थ
144 256
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६९ (ई. 2013) सेट नं.-५ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता/संपादक विषय | भाषा
संपादक/प्रकाशक 154 | उणादि सूत्रो ओफ हेमचंद्राचार्य | पू. हेमचंद्राचार्य | व्याकरण
| संस्कृत
जोहन क्रिष्टे 155 | उणादि गण विवृत्ति | पू. हेमचंद्राचार्य
व्याकरण संस्कृत
पू. मनोहरविजयजी 156| प्राकृत प्रकाश-सटीक
भामाह व्याकरण प्राकृत
जय कृष्णदास गुप्ता 157 | द्रव्य परिक्षा और धातु उत्पत्ति | ठक्कर फेरू
धातु संस्कृत /हिन्दी | भंवरलाल नाहटा 158 | आरम्भसिध्धि - सटीक पू. उदयप्रभदेवसूरिजी ज्योतीष संस्कृत | पू. जितेन्द्रविजयजी 159 | खंडहरो का वैभव
| पू. कान्तीसागरजी शील्प | हिन्दी | भारतीय ज्ञानपीठ 160 | बालभारत | पू. अमरचंद्रसूरिजी | काव्य संस्कृत
पं. शीवदत्त 161 | गिरनार माहात्म्य
दौलतचंद परषोत्तमदास । तीर्थ संस्कृत /गुजराती | जैन पत्र 162 | गिरनार गल्प पू. ललितविजयजी
संस्कृत/गुजराती | हंसकविजय फ्री लायब्रेरी 163 | प्रश्नोत्तर सार्ध शतक
पू. क्षमाकल्याणविजयजी | प्रकरण हिन्दी | साध्वीजी विचक्षणाश्रीजी 164 | भारतिय संपादन शास्त्र | मूलराज जैन
साहित्य हिन्दी
जैन विद्याभवन, लाहोर 165 | विभक्त्यर्थ निर्णय
गिरिधर झा
न्याय संस्कृत
चौखम्बा प्रकाशन 166 | व्योम बती-१
शिवाचार्य
न्याय
संस्कृत संपूर्णानंद संस्कृत युनिवर्सिटी 167 | व्योम वती-२
शिवाचार्य न्याय
संपूर्णानंद संस्कृत विद्यालय | 168 | जैन न्यायखंड खाद्यम् | उपा. यशोविजयजी न्याय संस्कृत /हिन्दी | बद्रीनाथ शुक्ल 169 | हरितकाव्यादि निघंटू | भाव मिथ
आयुर्वेद संस्कृत /हिन्दी शीव शर्मा 170 | योग चिंतामणि-सटीक पू. हर्षकीर्तिसूरिजी
| संस्कृत/हिन्दी
| लक्ष्मी वेंकटेश प्रेस 171 | वसंतराज शकुनम्
पू. भानुचन्द्र गणि टीका | ज्योतिष
खेमराज कृष्णदास 172 | महाविद्या विडंबना
पू. भुवनसुन्दरसूरि टीका | ज्योतिष | संस्कृत सेन्ट्रल लायब्रेरी 173 | ज्योतिर्निबन्ध
शिवराज | ज्योतिष | संस्कृत
आनंद आश्रम 174 | मेघमाला विचार
पू. विजयप्रभसूरिजी ज्योतिष संस्कृत/गुजराती मेघजी हीरजी 175 | मुहूर्त चिंतामणि-सटीक रामकृत प्रमिताक्षय टीका | ज्योतिष संस्कृत अनूप मिश्र 176 | मानसोल्लास सटीक-१ भुलाकमल्ल सोमेश्वर ज्योतिष
संस्कृत
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 177 | मानसोल्लास सटीक-२ भुलाकमल्ल सोमेश्वर | ज्योतिष संस्कृत
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 178 | ज्योतिष सार प्राकृत
भगवानदास जैन
ज्योतिष
प्राकृत/हिन्दी | भगवानदास जैन 179 | मुहूर्त संग्रह
अंबालाल शर्मा
ज्योतिष
| गुजराती | शास्त्री जगन्नाथ परशुराम द्विवेदी 180 | हिन्दु एस्ट्रोलोजी
पिताम्बरदास त्रीभोवनदास | ज्योतिष गुजराती पिताम्बरदास टी. महेता
75 488 | 226 365
संस्कृत
190
480 352 596 250
391
114
238 166
368
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com
शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७१ (ई. 2015) सेट नं.-६
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची।
यह पुस्तकेwww.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं।
क्रम
विषय
|
भाषा
पृष्ठ
पुस्तक नाम काव्यप्रकाश भाग-१
| संपादक / प्रकाशक पूज्य जिनविजयजी
181
| संस्कृत
364
182
काव्यप्रकाश भाग-२
222
183
काव्यप्रकाश उल्लास-२ अने ३
330
184 | नृत्यरत्न कोश भाग-१
156
185 | नृत्यरत्र कोश भाग-२
___ कर्ता / टिकाकार पूज्य मम्मटाचार्य कृत पूज्य मम्मटाचार्य कृत उपा. यशोविजयजी श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री कुम्भकर्ण नृपति
श्री अशोकमलजी | श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव
248
504
संस्कृत
पूज्य जिनविजयजी संस्कृत यशोभारति जैन प्रकाशन समिति संस्कृत श्री रसीकलाल छोटालाल संस्कृत
श्री रसीकलाल छोटालाल संस्कृत /हिन्दी | श्री वाचस्पति गैरोभा संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत श्री मंगेश रामकृष्ण तेलंग गुजराती मुक्ति-कमल-जैन मोहन ग्रंथमाला
448
188
444
616
190
632
| नारद
84
| 244
श्री चंद्रशेखर शास्त्री
220
186 | नृत्याध्याय 187 | संगीरत्नाकर भाग-१ सटीक
| संगीरत्नाकर भाग-२ सटीक 189 | संगीरत्नाकर भाग-३ सटीक
संगीरनाकर भाग-४ सटीक 191 संगीत मकरन्द
संगीत नृत्य अने नाट्य संबंधी 192
जैन ग्रंथो 193 | न्यायबिंदु सटीक 194 | शीघ्रबोध भाग-१ थी ५ 195 | शीघ्रबोध भाग-६ थी १० 196| शीघ्रबोध भाग-११ थी १५ 197 | शीघ्रबोध भाग-१६ थी २० 198 | शीघ्रबोध भाग-२१ थी २५ 199 | अध्यात्मसार सटीक 200 | छन्दोनुशासन 201 | मग्गानुसारिया
संस्कृत हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
422
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
304
श्री हीरालाल कापडीया पूज्य धर्मोतराचार्य पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य गंभीरविजयजी एच. डी. बेलनकर
446
|414
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा संस्कृत/गुजराती | नरोत्तमदास भानजी
409
476
सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ
444
संस्कृत संस्कृत/गुजराती
श्री डी. एस शाह
| ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ट्रस्ट
146
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com
शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७२ (ई. 201६) सेट नं.-७
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची।
पृष्ठ 285
280
315 307
361
301
263
395
क्रम
पुस्तक नाम 202 | आचारांग सूत्र भाग-१ नियुक्ति+टीका 203 | आचारांग सूत्र भाग-२ नियुक्ति+टीका 204 | आचारांग सूत्र भाग-३ नियुक्ति+टीका 205 | आचारांग सूत्र भाग-४ नियुक्ति+टीका 206 | आचारांग सूत्र भाग-५ नियुक्ति+टीका 207 | सुयगडांग सूत्र भाग-१ सटीक 208 | सुयगडांग सूत्र भाग-२ सटीक 209 | सुयगडांग सूत्र भाग-३ सटीक 210 | सुयगडांग सूत्र भाग-४ सटीक 211 | सुयगडांग सूत्र भाग-५ सटीक 212 | रायपसेणिय सूत्र 213 | प्राचीन तीर्थमाळा भाग-१ 214 | धातु पारायणम् 215 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-१ 216 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-२ 217 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-३ 218 | तार्किक रक्षा सार संग्रह
बादार्थ संग्रह भाग-१ (स्फोट तत्त्व निरूपण, स्फोट चन्द्रिका, 219
प्रतिपादिक संज्ञावाद, वाक्यवाद, वाक्यदीपिका)
वादार्थ संग्रह भाग-२ (षट्कारक विवेचन, कारक वादार्थ, 220
| समासवादार्थ, वकारवादार्थ)
| बादार्थ संग्रह भाग-३ (वादसुधाकर, लघुविभक्त्यर्थ निर्णय, 221
__ शाब्दबोधप्रकाशिका) 222 | वादार्थ संग्रह भाग-४ (आख्यात शक्तिवाद छः टीका)
कर्ता / टिकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक | श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री मलयगिरि | गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ.श्री धर्मसूरि | सं./गुजराती | श्री यशोविजयजी ग्रंथमाळा श्री हेमचंद्राचार्य | संस्कृत आ. श्री मुनिचंद्रसूरि श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ. श्री वरदराज संस्कृत राजकीय संस्कृत पुस्तकालय विविध कर्ता
संस्कृत महादेव शर्मा
386
351 260 272
530
648
510
560
427
88
विविध कर्ता
। संस्कृत
| महादेव शर्मा
78
महादेव शर्मा
112
विविध कर्ता संस्कृत रघुनाथ शिरोमणि | संस्कृत
महादेव शर्मा
228
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VÂDÂRTHA-SAMGRAHA
CONSISTING OF SHATKÂRAKA-VIVECHANA, KÂRAKA-VÂDÂRTH,
SAMÂSA-VÂDÂRTH, EVAKÂRA-VÂDA.
SECOND PART
EDITED BY MAHADEVA GANGADHARA BAKRE
Printed and Published by Manilal Itcharam Desai at THE GUJARATI PRINTING PRESS, SASSOON BUILDINGS, CIRCLE, FORT,
BOMBAY.
V. S. 1970
A. D. 1914 Price Six Aana..
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Page #13
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वादार्थसंग्रहः षट्कारकविवेचन-कारकबादार्य-समासवादा%-वकार
वादार्थेतिग्रन्थचतुष्टयात्मकः
(द्वितीयो भागः)
बाकेइत्युपाहगङ्गाधरभट्टात्मजमहादेव
शर्मणा संस्कृतः
- मुंबय्या
'गुजराती' मुद्रणालयाधिपतिना मणिलाल इच्छाराम .. . देशाई इत्यनेन स्वीये मुद्रणालये
मुद्रयित्वा प्रकाशितः ।
संवत् १९७०. '
सन १९१४.
मूल्यं षडाणकाः
Page #14
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अस्य सर्वेऽधिकारा राजनियमानुसारेण लेखारूढीकृत्य प्रकाशकेन स्वायत्तीकृताः ।
Page #15
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अस्य मुद्रणे आदर्शतया गृहीतानि पुस्तकानि ।
१ षट्कारकविवेचनम् । एतन्मुद्रणालयस्थम् । २ " " रा. रा. मनेशराव तेलंग इत्येतैर्दत्तम् । १ कारकवादार्थः । एतन्मुद्रणालयस्थः ।
२ " " सावंतवाडीस्थानां वे. शा. सं. रा. रा. विनायकशास्त्री .
(दादाशास्त्री) बाक्रे इत्येतेषाम् । . ३ " "वे. शा. सं रा. रा. पुण्यपत्तनस्थानां गोविंद नारायण
शास्त्री डेगवेकराणाम् । ४ "." वेङ्कटेश्वरमुद्रणालये मुद्रितम् । १ समासवादः। एतन्मुद्रणालयस्थः । २ " " अमदाबादस्थैः वे. शा. सं. रा. रा. (रैक) शास्त्री
मणिशंकर लल्लूभाई धर्मभूषण इत्येतेः प्रेषितम् । ३ " " भारतमार्तण्ड-पण्डित-गोवर्धनभट्टानां ग्रन्थसंग्रहाल
यस्थम् । १ एवकारवादः । एतन्मुद्रणालयस्थः । एतन्मुद्रणाय थैर्महात्मभिः पुस्तकानि दत्तानि तैः प्रभूतमुपकृतोऽस्मीति सविनयं विज्ञापयति
'गुजराती' मुद्रणालयाधिपतिः।
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वादार्थसंग्रहः।
(द्वितीयो भागः) श्रीभवानन्दतर्कवागीशप्रणीतं षट्कारकविवेचनम् ६.
नत्वा कृष्णपदद्वन्द्व कारकाद्यर्थनिर्णयः । श्रीभवानन्दसिद्धान्तवागीशेन वितन्यते ॥
कारकत्वविवेचनम् । तत्रक्रियानिमित्तत्वं कारकत्वम् इति न सामान्यलक्षणं, संप्रदानादेरनुमतिप्रकाशनद्वारेव तण्डुलादिसंपादनद्वारा संबन्धिनोऽपि पाकादिक्रियानिमित्तत्वेन संबन्धिनि मैत्रस्य तण्डुलं. पचतीत्यादी मैत्रादावतिव्याप्तेः । किंतु
विभक्त्यर्थद्वारा क्रियान्वयित्वं मुख्यनाक्तसाधारणं कारकत्वम् । क्रियानिमित्त
त्वसहितं मुख्यमिति। स्तोकं पचतीत्यादौ क्रियाविशेषणेऽतिव्याप्तिवारणाय विभक्त्यर्थद्वारेति । मैत्रस्य पचतीत्यादौ मैत्रसंबन्धित्वं न पाकेऽन्वेति, षष्ठयर्थस्य नामार्थसाकाङ्कतया क्रियाया अपि कर्मादिकारकसाकाङ्कतया परस्पराकाडाविरहात् । किंतु तण्डुलमित्यादिपदाध्याहारेणैव मैत्रस्य तण्डुलं पचतीत्येवान्वयबोधः।
ओदनस्य भोक्ता मैत्रस्य पाक इत्यादौ कर्मत्वकर्तृत्वार्थिका षष्ठी कारकविभक्तिरेव 'कर्तृकर्मणोः कृति' इत्यनेन तद्विधानात् । अत एव संबन्धस्य कारकत्वं नास्तीति शाब्दिकाः । __ यदि-गुरुविप्रतपस्विदुर्गतानां प्रतिकुर्वीत भिषक् स्वभेषजैः' १ नास्ति क्रियायोगाभावादितीति पाठः।
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वादार्थसंग्रहः
[२ भागः इत्यादिप्रयोगे विनापि नामाध्याहारं धात्वयें षष्ठयर्थः संबन्धोऽन्वीयते तदा कर्तृत्वकर्मत्वादिषट्रोन्यतमत्वे सति क्रियान्वयित्वं कारकत्वम् इति तत्त्वम् ॥
कर्तृत्वविवेचनम् तत्र*क्रियाश्रयत्वं कर्तृत्वम् इति वैयाकरणाः, तेषामयमाशयः-यद्धातूत्तराख्यातेन यगाद्यसमभिव्याहृतेन यद्धात्वान्वितयद्धर्मवत्त्वं बोध्यते तादृशधर्मवत्त्वमेव तत्क्रियाकर्तृत्वम् । एवं पचतीत्यादौ अनुकूलव्यापाखत्त्वं जानातीत्यादौ आश्रयत्वं नश्यतीत्यादौ प्रतियोगित्वं तेत्तक्रियाकर्तृत्वम् । यगाद्यसमभिव्याहृतेतिकरणात्पच्यते तण्डुल इत्यादौ पाकजन्यफलाश्रयत्वेन तण्डुलादेबर्बोधनान्न तस्य कर्तृत्वं, काष्ठैः स्थाल्यामोदनं पचतीत्यादौ करणाधिकरणकर्मणां क्रियान्विततद्धर्मवत्त्वेऽपि स धर्मो नाख्यातेन प्रतिपाद्यः । यदातु तत्तात्पर्येणाख्यातं प्रयुज्यते काष्ठं पचति स्थाली पंचतीत्यादौ तदा कर्तृत्वं तेषामिष्टमेव ।
तथा पच्यते ओदनः स्वयमेवेत्यादौ कर्मकर्तरि ओदनादेः कर्मणोऽपि कर्तृत्वम् । तत्र हि स्ववृत्तिव्यापारजन्यपाकजन्यफलशाल्योदन इति शाब्दबोधः । एवं चौदनपदोत्तरप्रथमाया व्यापारो लक्षणयार्थः । यद्वा व्यापारसामान्ये शक्तस्याख्यातस्यार्थः । व्युत्पत्तिवैचित्र्याचात्र यगादिसमभिव्याहृताख्यातार्थव्यापारे प्रथमान्तार्थस्य विशेषणत्वेनान्वयः । तत्राख्यातस्य व्यापारवाचकत्वात्, ओदनान्विततादृशव्यापारस्य यगाद्यसमभिव्याहृताख्यातप्रतिपाद्यत्वादोदनस्य यगाद्यसमभिव्याहृताख्यातप्रतिपाद्यधात्वर्थान्वितव्यापारवत्त्वरूपकर्तृत्वं निराबाधमेव । ओदनः स्वं पचतीति प्रयोगस्यासाधुतयाऽभावेऽपि तादृशव्यापारे तजन्यप्रतिपत्तिविषयतायोग्यतानपायादिति ।
पाचयतीत्यादौ तु पाकानुकूलव्यापारो णिजन्तार्थः। तदनुकूलव्यापारश्चाख्यातार्थस्तदाश्रय एव कर्तेति ।
१ षट्कारकान्यतमद्वारा क्रियां इति पाठः । २ शाब्दिका इति पाठः। ३ ताहशतद्धर्मेति पाठः । ४ पाकानुकूलेति पाठः । ५ क्रियानिरूपितत्वंमिति पाठः । ६ व्यापारे लक्षणा इति पाठः । ७ तया धात्वर्थस्य विशेष्यतयान्वयः इति पाठः । ८ अत्र काख्यातस्येति पाठः । ९ स्यापि यगादिस। १० तस्येति तदाश्रय इति पाठः।
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६ प्रन्थः ] षट्कारकविवेचनम् ।
'स्वतन्त्रः कर्ता ' इति पाणिनिसूत्रमप्येतत्परतयैव व्याख्येयमिति । तन्न । अचेतने अभियुक्तानां स्वरसतः कर्तृपदाप्रयोगात् । ..
यत्तु*कारकान्तराप्रयोज्यत्वे सति कारकान्तरप्रयोजकत्वं कर्तृत्वम् * इति । सत्यन्ताच छेद्यसंयोगादिरूपव्यापारजनके कुठारादौ नातिव्याप्तिरित्यपरे । तदप्यसत् । ईश्वरप्रयोज्यानां संसारिणां तत्तनियास्वकर्तृतापत्तेः । अप्रयोज्यत्वं च यदि फलानुकूलतजन्यव्यापारानाश्रयत्वं तदा दण्डादिजन्यसंयोगादिरूपव्यापाराश्रयत्वात् कुलालादाकव्याप्तिः, अन्यच्च दुर्वचमिति । अत्राहुः
अनुकूलकृतिमत्त्वं कर्तृत्वम् । । . पाकानुकूलव्यापारवत्त्वप्रतिसंधानेऽपि काष्ठादौ तान्त्रिकाणां स्वरसतः कर्तृपदाप्रयोगात् , कृताकृतविभागादिना कृधातोर्यत्नार्थकत्वे निश्चिते आश्रयार्थक-तृजन्तकृधातुव्युत्पन्नकर्तृपदस्य यत्नाश्रयार्थबोधकत्वाञ्च, अचेतने कर्तृपदप्रयोगो गौणः । यदि चान्यविषयककृतिजन्ये नान्तरीयके मत्तो भूतं न तु मया कृतमिति व्यपदेशान्न मुख्यं कर्तृत्वं तदा तद्विषयकत्वेनापि कृतिर्विशेषणीया ।
न चैवं तत्तद्विषयककृतिमत्त्वमेव तत्तक्रियाकर्तृत्वमस्तु, गुरुतरभारोत्तोलनादौ तद्विषयककृतिमत्त्वेऽपि उत्तोलनक्रियाद्यनिष्पत्तौ कर्तृपदाप्रयोगात् । विषयत्वं च साध्यत्वेन बोध्यम् । तेन भोजनकृतेरुद्देश्यत्वेन सुखादिविषयत्वेऽपि तत्कर्तुर्न सुखकर्तृत्वम् । अस्मदादिकर्तृकपाकादावीश्वरस्य कर्तृत्वमिष्टमेव । न चैवमीश्वरः पचतीति स्यात् , तथाविवक्षायामिष्टत्वात् । कार्यत्वानवच्छिन्नजन्यतानिरूपितमसाधारणमनुकूलत्वमेव लक्षणघटकमित्यप्याहुः ।
कर्मत्वविवेचनम्।. .. कर्मत्वं तु न*करणव्यापार्यत्वम् । तद्धि करणजन्यक्रियानुकूलव्यापाराश्रयत्वम् । तच्च दोत्रेण धान्यं लुनातीत्यादौ हस्तादिकरणव्यापायें दात्रेऽतिव्याप्तम् । नापि *परसमवेतक्रियाजन्यफलशालित्वम् । - १ क्रियाया अक" इति पाठः । २ विशेषणीयम् ३ सुखविषयकत्वेन इति पाठः । ४ संबन्धमिति पाठः । ५ व्यापारवत्त्वमिति पाठः।।
Page #20
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वादार्थसंग्रहः
[ २ भाग:
गमिपत्योः कर्मत्वस्य पूर्वस्मिन्देशे, त्यजेश्वोत्तरस्मिन्, स्पन्देः पूर्वापरदेशयोः प्रसङ्गात् । नदी वर्धत इत्यादौ वृद्धेरवयवोपचयस्य परंपरया तीरप्राप्तिफलकत्वात् तज्जन्यफलाश्रये तीरेऽतिव्याप्तेः ।
अत्राहुः —त्यजिगमिप्रभृतीनां स्पन्दमात्रं नार्थः । नहि त्यजति गच्छतीत्यनयोः प्रतीत्योरविशेषं कश्चिदभ्युपैति । एवं च त्यजेर्विभागेन, गमेरुत्तरसंयोगेन, पतेश्चाधः संयोगेनावच्छिन्नाः स्पन्दा वाच्याः । तथा च तत्तद्धात्वर्थतावच्छेदकफलशालित्वं तत्तद्धात्वर्थकर्मत्वं, स्पन्देर्वृधधातोश्च फलावच्छिन्नव्यापाराबोधकत्वान्न पूर्वापरदेशयोस्तीरस्य च कर्मत्वम् । फलावच्छिन्नव्यापारबोधकत्वादेव धातूनां सकर्मकत्वव्यवहारो मुख्यः ।
सविषयपदार्थाभिधायिजानातीत्यादीनां तु विषयित्वरूपविभक्त्यर्थद्वारा नामार्थान्वयित्वमेव गौणं सकर्मकत्वम् । घटं जानातीत्यादौ द्वितीयातो विषयित्वोपस्थितौ घटविषयिता यज्ञानाश्रयतावान् इत्यन्वयबोधात् । अत एव ने यतधातोः सकर्मकत्वं तदुपस्थापिते यत्ने नामार्थस्योद्देश्यत्वेनैवान्वयबोधात् । अभुञ्जानेऽपि भोजनाय यतत इति प्रयोगात् । अत एव तादृशधातुयोगे कर्मप्रत्ययाभावाद् भोजनं यतत इति न प्रयोगः ।
अत्र भूमिं प्रयाति तरुं त्यजति खग इत्यादौ धात्वर्थतावच्छेदकसंयोगविभागरूपफलशालित्वेऽपि स्वस्य, स्वं प्रयाति त्यजतीत्यप्रयोगात् धात्वर्थे परसमवेतमपि विशेषणं देयम् । न चैवमुभयकर्मजसंयोगस्थले मल्लो मल्लं गच्छतीतिवत्स्वात्मानं गच्छतीति प्रयोगः स्यात् । भूमिं प्रयातीत्यादितो हि द्वितीयादिना परत्वं प्रकृत्यर्थापेक्षिकं बोध्यते । तथा च भूमिभिन्नसमवेतभूमिवृत्तिसंयोगजनकस्पन्दानुकूलकृतिमानित्यन्वयबोधः ! स्वात्मानं गच्छतीत्यादौ तु स्वात्मभिन्नसमवेतं स्वात्मवृत्तिसंयोगजनकं यन्मल्लान्तरवृत्तिगमनं तदनुकूलकृतिमत्त्वस्य स्वस्मिन्नभावादेव नातिप्रसङ्गः । अत्र प्रकृत्यर्थस्यान्वयितावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वसंबन्धेन न परत्वेऽन्वयः । पृथिवीं प्रयाति विहग इत्यादौ विहगस्य पृथिवीत्वावच्छिअभिन्नत्वाभावाद नन्वयापत्तेः । प्रतियोगितामात्रेणान्वये स्वात्मनोऽपि स्वप्रतियोगिकद्वित्वावच्छिन्नभिन्नत्वात्तथैव दोषात् । अतो द्वितीयाद्यर्थफले
१ यतधातोरकर्मकत्वमिति पाठः । २ आत्मानमिति पाठः । ३ स्वप्रकृत्यर्थतावच्छेदकावच्छिन्नेति पाठः ।
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६ ग्रन्थः ]
षट्कारकविवेचनम् ।
यद्व्यक्तेरन्वयः तद्व्यक्तित्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वसंबन्धेन प्रकृत्यर्थस्य कर्माख्यातार्थ फैलान्वयिनश्च परत्वेऽन्वयः । पृथिवीं प्रयातीत्यादौ यत्पूथिवीवृत्तिसंयोगजनकत्वं प्रयाणस्य शाब्दधीविषयः तद्व्यक्तिभिन्नत्वं विहगे वर्तत इति न कोऽपि दोषः ।
अन्ये तु पृथिवीं प्रयातीत्यादौ भूखण्डस्यैव पृथिवीपदार्थत्वात् न तु वृक्षविहगसाधारणपृथिवीत्वजात्यवच्छिन्नस्य, तथा चान्वयितावच्छेदकावछिन्नप्रतियोगिताकत्वस्य व्युत्पत्तावपि न क्षतिः । एवमन्यत्रापि कर्मवा'चकसामान्यपदे लक्षणया विशेषपरत्वं सूपपन्नमित्याहुः ।
यत्तु तत्क्रियानधिकरणत्वे सति तत्क्रियावच्छेदकफलशालित्वं कर्मत्वं द्वितीयादेरपि तत्क्रियानधिकरणत्वमर्थ इति तन्न, क्रियाव्यक्तिभेदादनन्तशक्तिकल्पनापत्तेः ।
वस्तुतस्तु अन्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वं क्रियान्वयि द्वितीयादेरर्थः । तथा च द्वितीयाद्यर्थफले पदार्थैकदेशे अन्योन्याभावे च एकव्यhra प्रकृत्यर्थस्य कर्माख्यातार्थ फैलान्वयिनश्चाधिकरणत्वेनान्वयः । एवं च भूमिं प्रयातीत्यादौ भूमिवृत्तिसंयोगजनकभूमिवृत्त्यन्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकप्रयाणानुकूलकृतिमानित्यन्वयश्रीः | स्वात्मक्रियाया स्ववृत्त्यन्योन्याभावप्रतियोगितानवच्छेदकत्वात् स्वात्मानं प्रयातीत्या
देर्न प्रसङ्गः ।
एवं ददातेर्मूल्यग्रहणं विना स्वस्वत्वध्वंसपूर्वकपर स्वत्वोत्पत्त्यवच्छिन्नत्यागो यजतेश्च देवतोदेश्य कस्व स्वत्वध्वंसफलकत्यागः जुहोतेश्च तादृशत्बागफलकाग्निप्रक्षेपः । अत एव ऋत्विजां तादृशत्यागाभावेऽपि होतृत्वम् । अग्निप्रक्षेपञ्चाग्निसंयोगानुकूलक्रियानुकूलघृतादिवृत्तिनादनादिव्यापारः । न चैत्रग्नौ जुहुयादित्यत्राग्निवृत्त्यग्निसंयोगानुकूलक्रियानुकूलघृतादिवृत्तिनोदनादिव्यापारः इत्यादिशाब्दबोधे पुनरुक्तिनिबन्धनोऽनन्वयः धात्वर्थतावच्छेदकसंयोगरूपफलशालित्वेनाग्नेरपि कर्मत्वापत्तिश्चेति वाच्यम् । तत्र संयोगावच्छिन्नक्रियानुकूलव्यापारस्यैव धात्वर्थतावच्छेदकतया आद्यदोषस्याभावात् । तत्र क्रियाया एवं धात्वर्थतावच्छेदकतया संयो
१ फलशालिनः इति पाठ: । २ व्युत्पन्नत्वेऽपि इति पाठः । ३ वच्छिन्न इति पाठः । ४ फलशालिनश्चेति पाठः । ५ आत्मवृत्तिक्रियायाः आत्म' इति पाठः । ६ जनकस्त्यागः इति पाठः । ७ क्रियेत्यादिशाब्दे पुनरुक्तिनिबन्धनोऽनन्वयः इति पाठः ।
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वादार्थसंग्रहः [२ भागः मस्यावच्छेदकतावच्छेदकतया तदन्वयिनोऽप्यग्नेः कर्मत्वासंभवेन द्वितीयदोषस्याप्यभावात् ।
द्वितीयाद्यर्थश्च वृत्तित्वं तच्च धात्वर्थतावच्छेदके फलेऽन्वेति । एवं च विप्राय गां ददाति विष्णु यजते घृतं जुहोति इत्यादौ विप्रोद्देश्यकगोवृत्तिस्वस्वत्वध्वंसपूर्वकपरस्वत्वफलकत्यागानुकूलकृतिमान, विष्णूद्देश्यकस्वस्वत्वध्वंसफलकत्यागानुकूलकृतिमान् , घृतवृत्त्यग्निसंयोगावच्छिन्नक्रियानुकूलव्यापारानुकूलकृतिमान् इत्यादि क्रमेणान्वयधीः । अत्र देवतायाः म्वत्वस्वीकारे तत्र द्वितीयार्थवृत्तित्वान्वयेनैव विष्णोः कर्मत्वम् । इतरथा तु उद्देश्यतासंबन्धेन तादृशस्वत्वध्वंसरूपधात्वर्थतावच्छेदकफलवत्त्वात् कर्मत्वम् । अत एव मन्त्रकरणकहविस्त्यागभागित्वेनोद्देश्यत्वं देवतात्वमिति मणिकृतः । घृतं जुहोतीत्यत्र धात्वर्थतावच्छेदकीभूताग्निसंयोगानुकूलक्रियावत्त्वात् कर्मत्वम् ।
मूल्यग्रहणप्रयुक्तस्वस्वत्वध्वंसपूर्वकपरस्वत्वजनकत्यागो विक्रयः, मूल्यप्रदानपुरःसरं स्वस्वत्वोत्पादकस्वीकारः क्रयः, दत्तद्रव्यस्वत्वजनकस्वीकारः प्रतिग्रहः । तथा च गां विक्रीणीते क्रीणाति प्रतिगृह्णाति वेत्यादौ गोवृत्तिमूत्यग्रहणप्रयुक्तस्वस्वत्वध्वंसपूर्वकपरस्वत्वोत्पत्त्यवच्छिन्नत्यागानुकूलकृतिमान गोवृत्तिमूल्यदानप्रयुक्तस्वत्वावच्छिन्नस्वीकारवान् गोवृत्तिदानप्रयुक्तस्वत्वजनकस्वीकारवानिति क्रमादन्वयधीः । सर्वत्र धात्वर्थतावच्छेदकतत्तत्फलाश्रयत्वेन गवादेः कर्मत्वम् । एवमनयैव दिशा सर्वत्र कर्मत्वमूह्यम् ।
न चैवमपि पतेरधःसंयोगावच्छिन्नस्पन्दात्मकतया तदवच्छेदकीभूताधःसंयोगवत्त्वात् भूतलादेः कर्मत्वे वृक्षात्पर्ण भूतलं पततीति प्रयोगः स्यादिति वाच्यम् । तथा विवक्षायामिष्टत्वात् । अत एव द्वितीयाश्रितातीतपतितेत्यादिसूत्रे पतितशब्दयोगे द्वितीयान्तसमासविधानं, तदुदाहरणं च नरकं पतितो नरकपतित इत्यादि साधु संगच्छते । कचित्सतम्यपि साधुः भूतले पततीति, ग्रामे गच्छातिवत् ।।
अन्ये तु तादृशफलशालित्वेऽपि भूतलादेन द्वितीया, फलस्य हि संबन्ध्याकाङ्क्षायां भूतलादेरन्वयो वाच्यः, प्रकृते चाधःसंयोगरूपफलस्याधोवृत्तितयोपस्थितराश्रयान्तरनिराकाङ्कत्वात् ।
१ विष्णोरुद्देश्यतासंबन्धेन तादृशस्वत्वध्वंसरूपधात्वथतावच्छेदकफलवत्त्वाद्धृतस्य जुहोतीत्यत्र इति पाठः । २ स्वत्वावच्छिन्नेति पाठः । ३ आश्रयाकाक्षायामिति पाठः।
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६ ग्रन्थः ] षट्कारकविवेचनम् ।
यद्वा पतिबातोरकर्मकत्वं कर्तृभिन्नान्वयिफलावच्छिन्नव्यापारबोधक- . स्यैव धातोः सकर्मकत्वात् । यथा ग्रामं गच्छतीत्यादौ गम्यादेः । पतिर्हि पर्णगतमधःसंयोगमेव बोधयति न तु भूतलगतं भूतलस्याधःसंयोगाभावात् । पर्णस्याधो भूतलमित्येव प्रतीतेः । अत एव भूतले. पततीत्येव प्रयोगः न तु भूतलं पततीत्याहुः ।
प्राश्चस्तु ग्रामं गच्छति त्यजति, गम्यते त्यज्यते वा ग्राम इत्यादी संयोगविभागयोः फलयोः द्वितीया-कर्माख्याताभ्यां प्रत्यायनात् अनन्यलभ्यस्पन्दाद्यात्मकव्यापार एव तत्र धात्वर्थः । न चैवं तत्तन धातुयोगे द्वितीयादेः संयोगत्वादिना फलविशेषबोधकत्वोपगमेन ग्राम गच्छति त्यजति इत्यादौ ग्रामवृत्तिसंयोगजनकस्पन्दस्य ग्रामवृत्तिविभागजनकस्पन्दस्य च लाभात्पर्यायत्ववारणेऽपि गच्छति त्यजति गमनं त्याग इत्यनयोः पर्यायता स्यादिति वाच्यम् । संयोगावच्छिन्नस्पन्दशाब्दत्वस्य गमेविभागावच्छिन्नस्पन्दशाब्दत्वस्य त्यजे: कार्यतावच्छेदकत्वात् । एवं च यथायथं संयोगविभागावच्छिन्नस्पन्दलक्षणां विना त्यजति गच्छतीत्यनयोरबोधकत्वमेव ।
संयोगावच्छिन्नस्पन्दशाब्दत्वं च जन्यजनकभावसंबन्धेन संयोगस्पन्दोभयवैशिष्टथावगाहिशाब्दत्वम् । तेन त्यज्यते गम्यते ग्राम इत्यादी स्पन्दविशेषणककर्माख्यातार्थसंयोगादिविशेष्यकशाब्दस्य संग्रहः । भावाख्यातस्थलेऽपि गमनमित्यादाविव संयोगाद्यवच्छिन्नस्पन्दे धातोर्लक्षणैव । न चैवं लक्षणया अपि गमित्यजिभ्यां त्यागगमनयोरबोधप्रसङ्ग इति वाच्यम् । शक्तिलक्षणान्यतरसंबन्धेन संयोगाद्यवच्छिन्नस्पन्दबोधकत्वानुपपत्तेनिर्णयानन्तरमेव गम्यादिना विभागाद्यवच्छिन्नस्पन्दबोधनात् ।एवं च
परसमवेततत्तद्धात्वर्थान्वयिफलविशेषशालित्वं तत्तहात्वर्थकर्मत्वम् । अत एव गमधातोः पूर्वदेशे न कर्मत्वं तस्य विभागरूपफलेनानन्वयात् । एवं पतेरपि गुरुत्वासमवायिकारणप्रयोज्या विजातीयक्रियैव.अर्थः । तस्या
१ इत्यन्यदतत् इति पाठः । २ लाभादिति पाठः । ३ बोधकानुपपत्तेरिति; बोधकत्वान्यथानुपत्तेरिति च पाठः ।
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वादार्थसंग्रहः . . [२ भागः श्राधःसंयोगरूपफलेनान्वयः । एवं ददात्यादेरपि व्यापारमात्रार्थत्वे द्वितीयादीनां(?दिना) तत्तत्फलविशेषान्वयो बोध्य इत्याहुः । .. कर्म च त्रिविधं प्राप्यं, विकाय, निर्वत्यै चेति । ... संयोगादिफलशालि प्राप्यं, यथा ग्रामं गच्छतीत्यादौ प्रामादिः । क्रिया यद्ध(?त्क)मनाशकं फलं जनयति तद्विकार्य, काण्डं लुनाति इत्यत्र काण्डपदेन लक्षणयावयवा उच्यन्ते । लुनातिना चारम्भकसंयोगविरोधिविभागहेतु: कुठारादिव्यापारः । तथा च काण्डावयववृत्तितादशविभागावच्छिन्नव्यापारानुकूलकृतिमानित्यन्वयधीः । एवं च प्राप्यविकार्ययोः कारकत्वात्तादृशफलाश्रयत्वाच्च मुख्यकर्मत्वम् ।। . निर्वत्यै च निष्पाद्यं, यथा कटं घटं वा करोतीति । अत्र च कृञ्धातोः फलावच्छिन्नव्यापाराबोधकत्वात् कटादेम्तादृशफलानाश्रयत्वेन गौणं कर्मत्वम् । तच्च साध्यत्वेन विषयत्वम् । अत एव वीरणादेरुपादानस्वेन विषयत्वेऽपि वीरणं करोतीति न प्रयोगः ।
प्राञ्चस्तु कटादेगौणकर्मत्वेऽपि कारकस्वोपपत्त्यर्थमवयवे. लक्षणा कटस्यासिद्धत्वेनाकारकत्वात् । न चैवं कदाचित् वीरणं करोतीति मुख्यप्रयोगः स्यादिति वाच्यम् । करोतिपदसमभिव्याहारे कर्मवाचकपदम्यावयवे निरूढलक्षणानियमादित्याहुः ।
ओदनं पचतीत्यादौ ओदनपदस्य तण्डुले तदवयवे वा लक्षणा । धातुना च रूपादिपरावृत्तिफलाकाधःसंतापनादि । तथा च तत्तद्धात्वर्थतावच्छेदकरूपादिपरावृत्तिशालित्वात् कर्मत्वं, अत्र च पूर्वरूपविरोधेन रूपान्तगपत्तियदि विकारस्तदा विकार्यमध्ये अन्यथा तु प्राप्यमध्ये अम्यान्तर्भावः ।
स्तोकं पचतीत्यादौ क्रियाविशेषणे द्वितीया, विशेषणविभक्तिवत् पेंयोगः साधुः । धात्वर्थे स्तोकस्याभेदः संसर्गः । नामार्थधात्वर्थयोर्भेदान्वयबोध एव. प्रकारीभूतविभक्त्यर्थोपस्थितेस्तन्त्रत्वात् । नीलं घटमित्यादौ विशेषणविभक्तेरभेदार्थकत्वे तु अस्या अपि अभेदार्थकत्वमिति ॥
करणत्वविवेचनम्। करणत्वं च-- : कारकान्तरेऽचरितार्थत्वे सति फलहेतुत्वम् । तत्र चरितार्थत्वं च तद्व्यापारमुत्पाद्यैव फलहेतुत्वम् । कर्ता हि सिद्धं १ प्रयोगसाधुत्वार्थकत्वम् इति पाठः ।
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६ ग्रन्थः]
षट्कारकविवेचनम् ।
कुठारादि व्यापारयञ्छिदालक्षणं फलमुत्पादयतीति करणे चरितार्थो न तु फले । कापि करणे चरितार्थ कर्मासिद्धौ करणव्यापारासिद्धेः। नहि छेद्यासिद्धौ कुठारादिकरणानां छिदानुकूलव्यापारः संभवति । अत एव करणव्यापारविषयत्वं कर्मत्वमिति प्राञ्चः । अधिकरणमपि कर्तृकर्मान्यतरव्यापारद्वारा क्रियानिष्पादकम् । यथा गृहे चैत्र: स्थाल्यां तण्डुलं पचतीत्यत्र चैत्रव्यापारसंपादनेन गृहस्य तण्डुलव्यापारसंपादनेन स्थाल्याश्च कारकत्वम् । संप्रदानापादानयोश्च न क्रियासामान्यहेतुत्वम् । किं तु दाने अनुमतिप्रकाशनेन कर्तुरिच्छामुत्पाद्य संप्रदानस्य, पतनाश्रये च पर्णादी पतनप्रतिबन्धकसंयोगनाशजनकविभागमुत्पाद्य चापादानस्य चरितार्थत्वमेवेति ।
करणं च कारकान्तरे न चरितार्थम्, तस्य चरमकारणत्वात् । एवं च तदनुकूलव्यापारमद्वारीकृत्य तजनकत्वं फलायोगव्यवच्छिन्नकाणत्वं पर्यवसितं . करणत्वमिति लब्धम् । एवं च तन्मते चरमकारणमेव करणामिति कुठारादौ करणपदं गौणमिति ।।
वस्तुतस्तु*व्यापारवत्कारणं करणम* । तेन हस्तादौ कुठारादौ च नाव्याप्तिः । न चैवमदृष्टद्वारा कार्यमात्रे, विशेषतः ज्ञानेच्छादौ मनोयोगद्वारा आत्मनः करणत्वापत्तिः । उपधेयसंकरस्येष्टत्वात् । अनुकूलकृतिसमवायित्वलक्षणकर्तृत्वस्य निरुक्तकरणत्वादन्यत्वेनैवोपाध्योरसंकरात् ।
कर्तृभिन्नत्वेन करणलक्षणं विशेषणीयमित्यपि कश्चित् ।
इत्थं चानुमितौ व्याप्तिस्मृतिः करणं परामर्शी व्यापारः । चक्षुरादेश्वाक्षुषादिज्ञान चक्षुरादिसंयोगः, श्रोत्रस्य श्रावणज्ञाने श्रोत्रमनःसंयोगो न तु शब्दो व्यापारः, शब्दाभावप्रत्यक्षे तस्य व्यभिचारात् । न च शब्दश्रावणे शब्दो व्यापारः, लाघवेन श्रावणत्वावच्छिन्नं प्रत्येव श्रोत्रत्वेन हेतुत्वान , न तु शब्दश्रावणत्वावच्छिन्नं प्रति गौरवात् ।।
अन्ये तु कुठारादौ करणे*कर्तृव्यापारविषयत्वं करणत्वम् । तच्च फलानुकूलकर्तृव्यापारवत्त्वं कुठारादौ छिदानुकूलकर्तृजन्यनमनोन्नमनादिमत्वमविकलम् । न चैवंस्थाल्यादेरधिकरणस्यापि कर्तृव्यापार्यत्वात् तत्रातिव्याप्तिरिति वाच्यम्, उपधेयसंकरस्येष्ठत्वात् । छिदादी चेष्टायाः प्रयत्नरूपकर्तृव्यापारविषयत्वेन हस्तादेश्व तज्जन्यचेष्टावत्त्वेन च करणत्वमिष्टमेव !
१ संयोगेति पाटः।
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___ वादार्थसंग्रहः
[२ भागः चेष्टया हस्तादिना च छिनत्तीति प्रयोगस्य सर्वसंमतत्वात् । कर्मादौ विवक्षावशात्प्रयोगो भवत्येव । तण्डुलेन स्थाल्यां पांकं साधयति गवा दानं साधयति ब्राह्मणेन दानं साधयाति प्रयोगात् । चैत्र आत्मना चैत्रेण वा पचतीत्यप्रयोगात् कर्तुः शरीरस्य च वारणाय द्रव्यासमवायि-क्रियानुकूलकृतिमद्-भिन्नत्वं विशेषणं देयम् । कृतिमत्त्वं च समवायेनावच्छेदकतया च बोध्यम् । तेन शरीरस्य आत्मनश्च व्युदासः; विशिष्टाभावाच हस्तादिसंग्रहः । इदं च न व्याप्तिस्मृत्यादिसाधारणम् । तत्र च पूर्वनिरुक्तमेव करणत्वम् । इत्थं च करणपदं नानार्थमेवेत्याहुः ।
परशुना छिनत्तीत्यादौ निरुक्तं करणत्वं तृतीयार्थः । प्रकृत्यर्थस्य तत्राश्रयत्वेन धात्वर्थस्य छिदादेश्च निरूपकत्वेनान्वयः । इत्थं च परशुनिष्ठकरणतानिरूपकच्छिदानुकूलकृतिमानित्यन्वयधीः इति प्राञ्चः ।
परशुना छिनत्ति न दात्रेणेत्यादौ निरूपकत्वादेः ( संसर्गस्य) प्रतियोगितावच्छेदकसंबन्धत्वाभावान्नमर्थानुरोधेन निरुक्तकरणतानिरूपितं जन्यत्वमेव तृतीयार्थः । तत्र च निरूपकतया प्रकृत्यर्थस्य आश्रयतया च धात्वर्थस्यान्वयः । इत्थं च परशु (निष्ठकरणता) निरूपितजन्यताश्रयच्छिदानुकूलकृतिमानित्यन्वयधीः इति नव्याः ।
जटाभिस्तापसमद्राक्षीदित्यादौ तृतीया न करणत्वे किंतु विशेषणत्वे । तच प्रकृते वैशिष्टयरूपं, जदाभिस्तापसमित्यस्य जटाविशिष्टं तापसेमित्यर्थः। अत्र चोपलक्षणत्वेऽभिधानम्। उपलक्षणत्वं च बोध्यान्यव्यावृत्त्यनवच्छेदकत्वे सति तत्समानाधिकरणत्वम् । जटाया अतापसव्यावृत्त्यनवच्छेदकत्वात् । शमदमादिमत्त्वस्यैवापिसव्यावृत्त्यन्यूनानतिरिक्तवृत्तित्वेनाबच्छेदकत्वात् । न चैवं शमदमादिना तापस इति न स्यात् । इष्टत्वात् । विवक्षावशादुक्तप्रयोगस्येष्टत्वे च विशेषणोपलक्षणसाधारणं वैशिष्ट्यमात्रं न तूपलक्षणत्वमपि नियामकम् ।
अक्ष्णा काणः पादेन खजः मुखेन त्रिलोचन इत्यादौ वपुषा चतुर्भुजः इत्यादौ (च) येनाङ्गविकार इतिसूत्रेण तृतीया । येनाङ्गेन विकारो हानिरा
१ प्रायो भवत्येवेति पाठः २ अन्नमिति पाठः । ३ छिदादौ चेति पाठः । ४ बोध्यव्यावृत्त्यनवच्छेदकत्वे । ५ व्यावृत्तिसमानाधिकरणत्वमिति पाठः । ६ व्यावृत्त्यवृत्तीति पाठः । ७ इष्टत्वाच्चेति पाठः ।
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६ ग्रन्थः
षट्कारकविवेचनम् ।
धिक्यं वा तदङ्गवाचकात्तृतीयेति सूत्रार्थः । इत्थं च तृतीयायाः वृत्तित्वमर्थः । तच्चेह व्युत्पत्तिवैचित्र्यात्काणादिपदार्थैकदेशे विकार एवान्वेति ।
काणत्वं च बहिरवच्छेदेन चक्षुःशून्यगोलकवत्त्वं, जातप्रभृत्यन्धस्याकाणत्वे तु चक्षुष्मद्गोलकवत्त्वे सतीति विशेषणीयम् । एकेनार्धेन वा चक्षुषा पश्यन्नपि काण एव गोलकाधै गोलके वा चक्षुरभाववत्त्वात् । गोलकोपघातेऽपि काण एव तदवच्छेदेन चक्षुरभावात् । यदि च तद्गोलकावच्छेदेन चक्षुःसत्त्वेप्युपघातादेव च न तत्र चाक्षुषं तदोपहतगोलकवत्त्वमेव काणत्वम् । अक्ष्णेतिपदसमभिव्याहारस्थले च काणपदं चक्षुःशून्यत्वविशिष्टस्य उपहतत्वविशिष्टस्य वा बोधकम् । अक्षिपदं च यदाकदाचिचक्षुष्मदोलकपरम् । एवं च तादृशगोलकवृत्ति चक्षुःशून्यत्वमुपघातो वा तद्विशिष्टवानित्यक्ष्णा काण इति वाक्यार्थः ।
एवं खञ्जत्वं तथाविधसंस्थानशून्यपादबत्त्वम् । पादेनेत्यादिपदसमभिव्याहारस्थले च तादृशसंस्थानशून्यवानेव खञ्जपदार्थः । तथा च पादवृत्ति यत्तथाविधसंस्थानशून्यत्वं तद्विशिष्टवानित्यर्थः ।
त्रिलोचन इत्यस्य च बहुव्रीहिणा लोचनत्रयवानित्यर्थः । तथा च मुखवृत्तिलोचनत्रयवानिति 'मुखेन त्रिलोचन' इतिवाक्यार्थः । एवमन्यत्राप्यूह्यम् । __अक्ष्णा काण इत्यादौ पूर्वानरुक्ता एव पदार्थाः । तृतीया चाभेदे । तथा च तादृशगोलकाभिन्नं यच्चक्षुःशून्यमुपहतं वा तद्वानिति वाक्यार्थः । मुखेन त्रिलोचन इत्यत्र तु त्रिलोचनपदं लोचनत्रयविशिष्टवत्परम् । तथा च मुखाभिन्नलोचनत्रयविशिष्टवानिति वाक्यार्थः । एवं पादेन खञ्जः इत्यादावपि बोध्यमित्यपि कश्चित् ।
धनेन कुलमित्यादौ तृतीया हेतुत्वे । कर्तृकरणयोस्तृतीयेत्यत्र क्रियासाकाङ्के निरुक्तकरणत्वे तृतीया विहिता, अत्र तु नामार्थेनापि साकाङ्के हतुत्वसामान्ये हेताविति सूत्रेण तृतीया विहिता इति भेदः ।
पुत्रेण सहागत इत्यादौ तृतीयायाः कर्तत्वमर्थः । सहशब्दस्य समभिव्याहृतक्रियाऽऽगमनादि । तस्य चैकवादिरूपैकदेशावच्छेदेनैकका. लीनत्वसंसर्गेण समभिव्याहृतक्रियायामन्वयः । एवं च पुत्रकर्तृकतादृशागमनसमानकालीनागमनकर्तेत्यन्वयबोधः ।
१ जातप्रसन्नान्धस्येति पाठः ।
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१२
[२ भाग:
वस्तुतस्तु सहशब्दस्यापेक्षाबुद्धि विशेषविषयत्वादिरूपसाहित्यमर्थः । तृतीयार्थश्व वृत्तित्वं संख्यामात्रं वा । सहशब्दार्थस्य च संबन्धः प्रथमा'न्तार्थेनैव (तृतीयार्थेनापि समं वाक्यार्थः ?) । निपातातिरिक्तनामार्थयोरेव भेदान्वयस्य विभक्त्यर्थद्वारकत्वान् । साहित्यावच्छेदेन च सर्वत्र विधेयान्वयः । एवं च पुत्रेण सहागतश्चैत्रः इत्यस्य पुत्रवृत्तिसाहित्यावच्छिन्नञ्चैत्र आगमनकर्तेत्यन्वयबोधः । तेन शिष्येण सहोपाध्यायो ब्राह्मणः सुन्दर इत्यादौ द्रव्यगुणादिविधेयस्थले नानन्वयः ।
वादार्थसंग्रहः
सदैव दशभिः पुत्रैर्भारं वहति गर्दभी ।
इत्यादौ पुत्रेषु भारवहन कर्तृत्वाभावेऽपि तादृशप्रयोगादेकदेशविधमानेत्यध्याहारेण एकदेशविद्यमानतायामुक्तसाहित्यस्यावच्छेदकतया अन्वयः । अत एवात्र विद्यमानसहार्थे तृतीयेति शाब्दिका वदन्ति । एवं पुत्रेण सह भुङ्क्ते इत्यादावप्यूह्यम् ।
एवं धान्येन धनवान् गोत्रेण गार्ग्यः प्रकृत्याभिरूप इत्यादौ प्रकृत्या - दिभ्यश्चेत्यनेनैव तृतीयाऽभेदार्थिका । धान्याभिन्नधनवानिति, गायों गर्गकुलोत्पन्नः: गोत्राभिन्नगर्गकुलोत्पन्न इति बोधः । प्रकृतिपदस्य साहजिकोऽभिरूपपदस्य रमणीयतावानर्थः । तथा च साहजिकाभिन्नरमणीयतावानित्यन्वयधीः ।
संप्रदानत्वविवेचनम् ।
कर्मणा यमभिप्रति स संप्रदानम् ' इति पाणिनिसूत्रम् । तत्क्रियाकरणीभूतेन तत्क्रियाकर्मणा यं संबन्धी कर्तुमभिप्रैति कर्ता स संप्रदानमिति सूत्रार्थः ।
एवं च
८
करणीभूतकर्मजन्य फलभ । गित्वेनोद्देश्यत्वं संप्रदानत्वम् ।
इति पर्यवसितम् । ग्रामं गच्छतीत्यत्र गमनकर्मजन्यफलभागित्वेनोहेश्यत्वस्य चैत्रादौ सत्त्वात् चैत्रादेस्तत्क्रियासंप्रदानत्वाभावात् तद्वारणाय करणीभूतेति । तत्र गमने ग्रामस्याकरणत्वात् । दानादौ च गवादि देयादिकमेव करणमिति लक्षणसमन्वयः । विप्राय गां ददातीत्यादौ जन्य
१ सुखादिभागित्वेनेति पाठः ।
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६ ग्रन्थः] षट्कारकविवेचनम्। फलप्रकारकेच्छापूर्वकत्वं चतुर्थ्यर्थः । व्युत्पत्तिवैचित्र्याञ्च तदेकदेशे जन्यत्वेऽप्रकृत्यर्थस्यापि कर्मणो गवादेर्निरूपकतासंबन्धेनान्वयः । स्वस्वत्वध्वंसपूर्वकपरस्वत्वोत्पत्त्यवच्छिन्नस्त्यागो ददात्यर्थः । कृतिराख्यातार्थः । एवं च विप्रविषयकगोजन्यफलप्रकारकेच्छापूर्वकगोवृत्तिस्वस्वत्वध्वंसपूर्वकपरस्वबोत्पत्त्यवच्छिन्नत्यागानुकूलकृतिमानित्यन्वयधीः ।
पितृस्वर्गमुद्दिश्य कृते गोदाने च दानजन्यफलभागित्वेन पिता उद्देश्यो न तु गोजन्यफलभागित्वेनेति पित्रादेर्न संप्रदानत्वम् । यदि च दत्ता गौः पितुः स्वर्गमुत्पादयिष्यतीत्यभिसंधिः तदा अदृष्टाद्वारकतादृशकर्मजन्यत्वं वाच्यम् ।
केचित्तु धात्वर्थतावच्छेदकत्वेन फलं विशेष्यं, निरूपितत्वेनेच्छाविषयत्वं चतुर्थ्यर्थः स च धात्वर्थतावच्छेदके फलेऽन्वेति, इत्थं च विप्रनिरूपि. तत्वेनेच्छाविपयगोवृत्तिस्वस्वत्वध्वंसपूर्वकपरस्वत्वोत्पत्त्यवच्छिन्नत्यागानुकूलकृतिमानित्यन्वयधीः । जन्यस्वत्वस्य गोवृत्तित्वे लब्बे अर्थात् तज्जन्यत्वं न्टभ्यत एवेति तादृशगोजन्यस्वत्वनिरूपकत्वेनोद्देश्यत्वं विप्रस्याक्षतम् ।__ एवं वृक्षायोदकं सिञ्चति इत्यादौ संयोगावच्छिन्नद्रवद्रव्याक्रियावच्छिअव्यापारो धात्वर्थः । वृत्तित्वेनेच्छाविषयत्वं चतुर्थ्यर्थः । स च धात्वर्थतावच्छेदकतावच्छेदकसंयोगान्वयी। वृत्तित्वरूपद्वितीयार्थोऽपि तादृशद्रवद्रव्यक्रियायाम्। एवं च वृक्षवृत्तित्वेनेच्छाविषयसंयोगानुकूलजलवृत्तिद्रवद्रव्यक्रियावच्छिन्नव्यापारानुकूलकृतिमानित्यन्वयवोधः ।
न चैवं सिञ्चयात्वर्थतावच्छेदकद्रवद्रव्यक्रियायां द्वितीयार्थवृत्तित्वान्वये पयसा वृक्षमासिञ्चाति प्रयोगो न स्यात्, तादृशक्रियाया वृक्षावृत्तित्वादिति वाच्यम् । तत्र संयोगावच्छिन्नद्रवद्रव्यक्रियाया एव धात्वर्थतया तद्वच्छेदकीभूतसंयोग एव वृक्षवृत्तित्वान्वयात् । द्रवद्रव्यसंयोग एव तत्र धात्वर्थ इति न युक्तम् । तथा सति फलावच्छिन्नव्यापाराबोधकवेन धातोरकर्मकत्वे धात्वर्थतावच्छेदकफलशालित्वाभावेन वृक्षादेरकर्मत्वापत्तेः । अत एवाजां ग्रामं नयतीतिवन्न द्विकर्मकत्वं संयोगावच्छिन्नद्रवद्रव्यक्रियार्थत्वे तदवच्छेदकफलद्वयाभावात् । तादृशक्रियावच्छिन्नव्यापारार्थकत्वे च तादृशक्रियायामेव द्वितीयार्थवृत्तित्वान्वयात्तक्रियावच्छेदकसंयोगे च चतुर्थ्यर्थस्योद्देश्यत्वस्यैवान्वयात् । फलबलेन तथैव व्युत्पत्तिक१ गोवृत्तित्वेनार्थादिति पाठः । २ सयोगावच्छिमोदकवृत्तीति पाठः ।
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वादार्थसंग्रहः .
[२ भागः
ल्पनात् । नचैवमजा नयति ग्राममित्यादौ ग्रामस्य संप्रदानत्वापत्तिः । तत्र हि संयोगावच्छिन्नगमनानुकूलव्यापारः प्रेरणादिर्धात्वर्थः । द्वितीयाद्वयस्य वृत्तित्वमर्थः । धात्वर्थतावच्छेदकगमनैकदेशे संयोगे ग्रामपदोत्तरद्वितीयार्थस्य, गमने चाजापदोत्तरद्वितीयार्थस्य वृत्तित्वस्यान्वयः। एवं च ग्रामवृत्तिसंयोगजनकाजावृत्तिगमनावच्छिन्नव्यापारानुकूलकृतिमानित्यन्वयधीः । तथा चाजाजन्यफलभागित्वेनोद्देश्यत्वेन ग्रामस्याप्रत्ययात् न संप्रदानता ।
यत्र तु तथोद्देश्यत्वं विवक्ष्यते तदा प्रामायाजां नयतीति प्रयोगो भवत्येवेत्याहुः।
वस्तुतस्तु त्यक्तुस्त्यज्यमानद्रव्यस्वत्वभागित्वेनोद्देश्यत्वं संप्रदानत्वम् । त्यागविशेषश्चात्र ग्राह्यः । तेन विक्रयादौ क्रेत्रादेन संप्रदानता । श्राद्धादौ पित्रादेर्न स्वत्वभागित्वेनोद्देश्यत्वं, किंतु प्रीतिभागितयेति । अत एव संप्रदाने चतुर्थ्यसंभवात् नमः स्वस्तीत्यादिना सूत्रान्तरेण चतुर्थीविधानम् । रुद्राय गां ददातीत्यादौ रुद्रादेः स्वत्वभागित्वेनोद्देश्यत्वम् । एवं कर्मणेत्यादिसूत्रमप्येतत्परतयैव व्याख्येयमिति कर्मणा दानकर्मणा यमभिप्रैति स्वत्वभागित्वेनोद्देश्याकरोति तत्संप्रदानमिति । एवं च संप्रदीयतेऽस्मा इति व्युत्पत्त्या संप्रदानसंज्ञाप्यन्वथैव ।
वृक्षायोदकमासिञ्चतात्यादौ संप्रदानप्रयोगो गौणः चतुर्थीप्राप्त्यर्थः । अत एव शत्रवेऽस्त्रं मुञ्चति मित्राय दूतं प्रेरयतीत्यादौ धात्वर्थतावच्छेदकफलोद्देश्यत्वाभावेऽपि चतुर्थीप्रयोग उपपद्यते । विभागानुकूलव्यापारो मोचनम् । गमनानुकूलव्यापारश्च प्रेषणम् । तदवच्छेदकविभागगमनादिशालित्वेन शत्रुमित्रयोरनुद्देश्यत्वात् । तथाच तत्र तत्र उदकादिजन्यफलपल्लवादि-शस्त्रजन्यदुःखादि-दूतजन्यवार्ताज्ञानादिफलशालित्वेनोद्देश्यत्वमेव गौणश्चतुर्थ्यर्थः ।
न चैवं गुरुप्रीतिमुद्दिश्य गुरुपुत्राय दत्ते गुरवे ददातीति स्यात् । तथा विवक्षायामिष्टत्वात् । अत एव यत्र रजकसंबन्धित्वमानं तात्पर्यविषयस्तत्र रजकस्य वस्त्रं ददातीति प्रयोगः । यत्र वस्त्रजन्यफलभागित्वेनोद्देश्यत्वं तात्पर्यविषयः तत्र रजकाय वस्त्रं ददातीति प्रयोगो भवत्येव । - न चैवं श्राद्धादावपि पित्रादेः प्रीतिभागितया उद्देश्यत्वाद्गौणसंप्रदान
१ प्राणवियोगानुकूल क्रियावच्छिन्नव्यापार इति पाठः । २ संयोगेति पाठः ।
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६ ग्रन्थः ]
षट्कारकविवेचनम् ।
१५
त्वेन संप्रदाने चतुर्यैवोपपत्तेः नमः स्वस्तीत्यादिसूत्रान्तरं व्यर्थमिति वाच्यम्, यत्किंचितक्रियाकर्मजन्यफलभागित्वेनोद्देश्यत्वस्यैव गौणसंप्रदानत्वेन नमःपदादेः क्रियावाचित्वाभावेन पृथक्सूत्रप्रणयनात् ।
नारदाय रोचते कलहः, वैश्याय शतं धारयतीत्यादौ तु नारदादेर्न संप्रदानता किंतु 'रुच्यर्थानां प्रीयमाणः ' 'धारेरुत्तमर्ण:' इति सूत्रद्वयेन संबन्धमात्रे चतुर्थी विधीयते । तत्र चतुर्थ्या संबन्धो धातुना रुचिरा - ख्यातेन विषयताभिधीयते । नारदस्य रुचिविषयः कलहः इत्याद्यस्य; पुनदनमङ्गीकृत्य द्रव्यग्रहणं धारणं, वैश्यः शतकर्मकतादृशग्रहणाश्रय इति चान्त्यस्यान्वयधीः ।
संप्रदानस्य कारकत्वं धात्वर्थतावच्छेदकफलनिष्पादकत्वेन ददस्वेत्यनुमतिप्रकाशनेन कर्तुरिच्छामुत्पाद्य दाननिष्पादनेनं वेति ।
त्यागजन्यस्वत्वजनकस्वीकारवत्त्वं संप्रदानत्वम् । श्राद्धादौ पित्रादेर्न स्वीकारः । रुद्राय गां ददातीत्यादावपि संप्रदानत्वं गौणमुद्देश्यत्वरूपमित्यण्याहुः ॥
अपादानत्वविवेचनम् ।
परकीयक्रियाजन्यविभागाश्रयत्वमपादानत्वम् ।
वृक्षात्पर्ण पततीत्यादौ पतनाश्रयस्य पत्रादेरपादानत्ववारणाय परकीयेति । अत्र पञ्चम्या विभागजनकत्वमन्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वं चाभिधीयते । विभागे अन्योन्याभावे च वृक्षोऽधिकरणत्वेनान्वीयते । एवं च वृक्षवृत्तिविभागजनक वृक्षवृत्त्यन्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकपतनाश्रयः पत्रमित्यन्वयधीः ।
1
अत्र च धात्वर्थतानवच्छेदकत्वेन विभागो विशेष्यः । तेन वृक्षं त्यजति ar इत्यादी वृक्षस्य नापादानत्वम् ।
यत्तु विभागावच्छिन्नक्रियायाः त्यजधात्वर्थतया विभागे विशिष्टक्रियाया जनकत्वाभावान्न तत्र तथेति । तदसत् । तथा सत्यधः संयोगाव
१ वछेदकफलयत्ननि; वछेदकत्वेन फलनिष्पादकत्वेन यत्ननिं इति पाठः । २ निष्पादनेनैवेति पाठः । ३ विभागे विभागावच्छिन्नक्रियाजन्यत्वाभावादिति
पाठ: ।
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वादाथसंग्रहः
[२ भागः च्छिन्नक्रियाया एव पतधात्वर्थतया वृक्षपर्णविभागे पर्णाधःसंयोगस्याजनकत्वादसंभवापत्तेः । तदुपलक्षितजन्यत्वं चोभयत्र समानमिति । ___ एवं च प्रामाद्गच्छतीत्यादौ गमनादिजन्यविभागाश्रयत्वेन प्रामादेरपादानत्वम् । 'ध्रुवमपायेऽपादानम्' इति पाणिनिसूत्रम् । अपाये विभागे ध्रुवं निश्चलं तद्विभागजनकक्रियाशून्यमिति तदर्थः । धावतोऽश्वात्पततीत्यादौ तु पञ्चमी नैतत्सूत्रेणानुशिष्टा तदर्थ वक्तव्यान्तरं विधेयम् । ___ वस्तुतस्तु विभागजनकत्वं यत्र क्रियायामन्वीयते तत्क्रियाशून्यत्वमर्थः । तेन धावतोऽश्वात्पततीत्यादौ न काप्यनुपपत्तिः। तत्र पतनक्रियायामेव पञ्चम्यर्थविभागजनकत्वान्वयेनाश्ववृत्तिधावनक्रियायां तदनन्वयादिति । __विभागे ध्रुवमवधिभूतमपादानमित्यर्थः । अवधित्वं च स्वरूपसंबन्धविशेष: प्रतीतिबलात् । तेन धावतोऽश्वात्पततीत्यादौ सक्रियाश्वादेरपादानत्वं नानुपपन्नम् । अत एव वृक्षपर्णयोः क्रियया पत्रस्य विभागेऽपि वृक्षस्यावधित्वोपपत्तिरिति तु कश्चित् ।
वृक्षाद्विभजत इत्यादौ तु विभागावधित्वमपादानत्वमवधित्वमवधिमत्त्वं वा स्वरूपासंबन्धरूपं पञ्चम्यर्थः । एवं च वृक्षाद्यवधिकविभागाश्रयः पर्णमित्यन्वयबोधः । न चैवं स्वस्माद्विभजत इत्यपि स्यादिति वाच्यम् । स्वप्रतियोगिकत्वविशिष्टसंयोगस्येव स्वावधिकत्वविशिष्टविभागाश्रयत्वस्य स्वस्मिन्नभावात् । इत्थं चापादानपदं पञ्चमी च नानार्थमेवेति । __ न चैवं परकीयस्पन्दजन्यविभागाश्रयत्वेन वृक्षात्पर्ण स्पन्दत इत्यपि स्यादिति वाच्यम् । परकीयक्रियेत्यत्र क्रियापदेन सकर्मकधात्वर्थस्य विवक्षितत्वात् । __ व्याघ्राद्विभेति शत्रोः परित्रायते इत्यादौ पञ्चमी नापादाने किं तु 'भीत्रार्थानां भयहेतुः' इति सूत्रेणानुशिष्टायाः पञ्चम्या हेतुत्वमर्थः । धातोयथायथं भयं भयाभावश्वार्थः । पञ्चम्यर्थश्च हेतुत्वं धात्वर्थे भये धात्वर्थतावच्छेदके च भयेऽन्वेति । आख्यातार्थश्चाश्रयत्वं । परित्राणानुकूलव्यापारश्च । इत्थं च हेतुपञ्चम्यैवोपपत्तौ पृथक्सूत्रप्रणयनं तस्यैव प्रपञ्चार्थमिति बोध्यम् । तथा च व्यावहेतुकभयाश्रयः शत्रुहेतुकभयाभावानुकूलव्यापारवानिति चान्वयधीः ।
१ संयोगावच्छिन्नक्रियात्वेनाजनकत्वादिति पाठः । २ प्रामादागच्छतीति पाठः । ३ बलात्कस्यापीति पाठः ।
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६ ग्रन्थः ]
पट्कारकविवेचनम् ।
एवं कूपादन्धं वारयतीत्यादौ पञ्चम्याः पतनं, द्वितीयाया धात्वर्थंकदेशप्रतिबन्धान्वितं वृत्तित्वं, धातोश्च प्रतिबन्धानुकूलव्यापारोऽर्थः । ( आख्यातस्य कृतिः) तथा चान्धवृत्तिकूपपतनप्रतिबन्धानुकूलव्यापारानुकूलकृतिमानिति वाक्यार्थस्तु न युक्तः, यत्र कूपे कस्यापि पतनमप्रसिद्धं तत्रासंभवात् । अत एव द्वितीयायाः पतनं पञ्चम्या धात्वर्थान्वयिवृत्तित्वं धातोश्चाभावानुकूलव्यापारोऽर्थः । तथा च कूपवृत्त्यन्धपतनाभावानुकूलव्यापारविषयकयत्नवानित्यर्थोऽपि न युक्तः, यदन्धस्य पतनमप्रसिद्धं तत्रासंभवात् । किं तु धातोरभावानुकूलव्यापारः, पञ्चम्या वृत्तित्वं, द्वितीयायाः प्रतियोगित्वमनुयोगित्वं वा धात्वर्थतावच्छेदकीभूताभावान्वितमर्थः । अभावश्च कूपादिसमभिव्याहारादिवशात्पतनादिना संवन्धेन बोध्यः । एवं च पतनादिसंबन्धेन कूपवृत्त्यन्धप्रतियोगिकाभावानुकूलव्यापारविपयकयत्नवानित्यन्वयधीः । एवमेतस्मात्सविषान्नादमुं मित्रं वारयतीत्यादौ यत्सविषान्नस्य यन्मित्रस्य भोजनमप्रसिद्धं तत्रापि भोजनादिसंबन्धेन सविपान्नवृत्तिमित्रप्रतियोगिकाभावानुकूलव्यापारविपयकयत्नवानित्यन्वयधीः ।
कूपादन्धमित्यत्र सविषान्नादमुं मित्रमित्यत्र च यथायथं धातोः पतनं भोजनमभावानुकूलव्यापारश्वार्थः । पञ्चम्याश्च यथायथं द्वितीयार्थकर्तृत्वान्वितद्वित्वविशिष्टं वृत्तित्वं कर्मत्वं चार्थः । द्वितीययोः कर्तृत्वमर्थः । यात्वर्थतावच्छेदकीभूते चाभावे धात्वर्थस्य पतनादेरधिकरणत्वेन द्वित्वावच्छिन्नस्य पञ्चम्यर्थवृत्तित्वादिद्वितीयार्थकर्तृकत्वोभयस्य च प्रतियोगित्वेनान्वयो व्युत्पत्तिवैचिच्यात् । एवं च पतनसामान्ये कूपवृत्तित्वान्धकर्तृकत्वोभयाभावानुकूलव्यापारविषयकयत्नवानित्याद्यस्य, भोजनसामान्ये सविषान्नकर्मकत्वमित्रकर्तृकत्वोभयाभावानुकूलव्यापारविषयकयत्नवानिति द्वितीयस्य बोधः । __ एवमेवाकाशं न पश्यति घट इत्यादावाकाशविषयकदर्शनस्य घटवृत्तिदर्शनस्य चाप्रसिद्धयां वक्ष्यमाणरीत्याऽन्वयबोधो द्रष्टव्य इति । तत्र द्वितीयया विषयित्वरूपं कर्मत्वं लक्षणया च घटवृत्तित्वं द्वित्वं च बो
१ धात्वर्थतावच्छेदकीभूतप्रति इति पाठः । २ धात्वर्थतावच्छेदकीभूताभावान्वयिवृत्तित्वमिति पाठः। ३ रात्पतनादिसंबन्धेनेति पाठः । ४ सहितमिति पाठः। ५ कर्तृकदर्शनस्येति पाठः । ६ धावपीति पाठः ।
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१८
वादार्थसंग्रहः
[२ भागः
ध्यते । धातुना चालौकिकभिन्नं जन्यं प्रत्यक्षं, तत्रैव द्वित्वावच्छिन्नद्वितीयार्थान्वितनबर्थस्यान्वयः । आख्यातस्य तादृशोभयाभावान्वितं निरूपकत्वमर्थः । तथा चौलौकिकभिन्नजन्यप्रत्यक्षसामान्यवृत्त्याकाशविषयित्वघटवृत्तित्वोभयाभावनिरूपको घट इत्यन्वयबोधः ।
नं चाकाशं न पश्यत्यभाव इत्यादौ समवायसंबन्धेनाभाववृत्तित्वाप्रसिद्धथा नोक्तक्रमेण समञ्जसमिति वाच्यम् , तत्र हि धातोनिरुक्तलौकिकप्रत्यक्षप्रतियोगित्वं समवायश्चार्थः । द्वितीयायाश्च विषयिप्रतियोगिकत्वमभावानुयोगित्वं त्रित्वं चार्थः । एकदेशे च विषयित्वे प्रकृत्यर्थस्याकाशादेर्निरूपकत्वेनान्वयः । तथा च समवायसंबन्धसामान्ये आकाशविषयिप्रतियोगिकत्वनिरुक्तलौकिकप्रत्यक्षप्रतियोगिकत्वाभावानुयोगिकत्वैतत्रित्वावच्छिन्नस्य योऽभावस्तन्निरूपकोऽभाव इत्यन्वयबोधः ।
केचित्तु तत्र धातोर्निरुक्तलौकिकप्रत्यक्षसमवायोऽर्थः । द्वितीयायाश्च विषयिप्रतियोगिकत्वमभावानुयोगिकत्वं चार्थः । विषयित्वे च एकदेशे प्रकृत्यर्थस्याकाशस्य निरूपकतयाऽन्वयः । तथा च निरुक्तंलौकिकप्रत्यक्षसमवाये आकाशविषयिप्रतियोगिकत्वाभावानुयोगिकत्वोभयत्वावच्छिनस्य योऽभावस्तन्निरूपकोऽभाव इत्यन्वयबोधः।
अनयैव दिशा अप्रसिद्धिस्थले बोधो द्रष्टव्य इत्यपि वदन्ति । हिमवतो गङ्गा प्रभवति इत्यादौ न पञ्चम्या हेतुत्वं धातुना च उत्पत्तिबर्बोध्यते । तथा सति 'जनिकर्तुः प्रकृतिः' इत्यत एव उपपत्तौ 'भुवः प्रभवः' इति सूत्रप्रणयनवैयर्थ्यात् । किं तु प्रकर्षेण भवनं प्रभवः प्रकाश: आद्यबहिःसंयोग इति यावत् । स एव धात्वर्थः । बहिःपदार्थः प्रकृते भूखण्डमेव । पञ्चम्यर्थश्च संयोगध्वंसाव्यवहितोत्तरवृत्तित्वमाख्यातार्थ आश्रयता । तथा च हिमालयसंयोगध्वंसाव्यवहितोत्तरक्षणवाद्यपृथिवीसंयोगाश्रयतावती ग वन्वयधीः । वैकुण्ठात् काशीतो वा गङ्गा प्रभवतीत्यप्रयोगात् अव्यवहितति आद्यति च । वैकुण्ठसंयोगध्वंसाव्यवहितोत्तरक्षणे भूसंबन्धस्य काशीसंयोगध्वंसाव्यवहितोत्तरक्षणे चाद्यस्य तस्याभावात् । वल्मीकापात्प्रभवति धनुःखण्डमाखण्डलस्ये
१ च लौकिकप्रत्यक्षसामान्येति पाठः । २ एतदादि अनयैवेत्यतः प्राक्तनो ग्रन्थः पुण्यपत्तनपुस्तके नास्ति। "
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६ ग्रन्थः ] षट्कारकविवेचनम् । त्यादावपि स एव धात्वर्थः । परंतु अत्र वल्मीकायोर्ध्वदेशो बहिःपदार्थ इति विशेषः । ___ कृष्णात्पराजयते शिशुपालः, अध्ययनात्पराजयते बालः, इत्यादौ च धातोरसहिष्णुता पञ्चम्याः कर्मत्वमाख्यातस्याश्रयत्वमर्थः । श्रीकृष्णं न सहते अध्ययनं न सहत इति तदर्थविवरणात् । असहिष्णुता च द्वेषविशेषोऽभिभवाशक्यत्वज्ञानमशक्यत्वज्ञानं वा । इत्थं च श्रीकृष्णविषयकद्वेषवान् श्रीकृष्णविषयकाभिभवाशक्यत्वज्ञानवान् वा इत्याद्यस्य अध्ययनविषयकाशक्यत्वज्ञानवानित्यन्यस्य बोधः ।
विप्राद्धनमादत्ते इत्यादौ पञ्चम्या यथेष्टविनियोगोऽर्थो न तु स्वत्वं चौराद्धनमादत्ते इत्यादौ चौरस्य स्वत्वाभावेन तदसंभवात् । धातोरपि यथेष्टविनियोगफलकस्वीकारोऽर्थो न तु स्वत्वजनकस्वीकारः, विप्राद्धनमादत्ते चौर इत्यादौ चौरस्य तदसंभवात् । पञ्चम्यर्थस्य विनियोगस्य चाव्यवाहतोत्तरत्वसंबन्धेन धात्वर्थतावच्छेदकविनियोगेऽन्वयः । अव्यवहितोत्तरत्वं च स्वसमानविषयकपुरुषान्तरीयविनियोगव्यवहितभिन्नत्वं, तेन शूद्रतः प्रतिगृह्य विप्रेण दत्तं धनमादत्तरि शूद्रादादत्ते इति न प्रयोगः । इत्थं च विप्रीययथेष्टविनियोगाव्यवहितोत्तरधनवृत्तियथेष्टविनियोगफलकस्वीकारवानित्यन्वयबोधः । ___ अधर्माज्जुगुप्सत इत्यत्र पञ्चम्याः कर्मत्वं धातोनिन्दार्थः । अधर्म निन्दतीत्यर्थः । अधर्माद्विरमतीत्यादौ धातोः करणानन्तरमकरणं पञ्चम्याः कर्मत्वमर्थः । स च करणेऽकरणेचान्वेति । अधर्मकृत्वा पुनर्न करोतीत्यर्थः । एवं धर्मात्प्रमाद्यतीत्यादौ पञ्चम्या विषयित्वं धातोरनवधानमाख्यातस्य चाश्रयत्वमर्थः । धर्मविषयकानवधानाश्रय इत्यन्वयधीः ।
उपाध्यायादन्तर्धत्ते शिष्य इत्यादौ धातोः स्वविषयकप्रत्यक्षविरोधिव्यापारः, पञ्चम्याः संबन्धित्वं धात्वर्थतावच्छेदकप्रत्यक्षान्वितम्, आख्यातस्य कृतिरर्थः । उपाध्यायसंबन्धिस्वविषयकप्रत्यक्षविरोधिव्यापारानुकूलकृतिमानिति चान्वयधीः । __ दण्डाद्धट: धूमादग्निमानित्यादौ पञ्चमी नापादाने क्रियायोगाभावात् । किंतु जनकत्वज्ञापकत्वरूपे हेतुत्वे जन्यत्वज्ञाप्यत्वरूपे वा हेतुमत्त्वे हेतावितिसूत्रेणानुशिष्टा । न चैवं जनिकर्तुः प्रकृतिरिति सूत्रं व्यर्थम् । काष्ठात्पचतीत्यादाविव दण्डाज्जायत इत्यादावपि उत्पत्तिरूपधात्वर्थनिरू
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वादार्थसंग्रहः
[२ भागः पितहेतुत्वार्थकपञ्चम्या हेताविति सूत्रेणैव संभवादिति वाच्यम् ! उत्पत्तेरहेतुकत्वेऽपि सावधिकत्वादुत्पत्तिनिरूपिततादृशस्वरूपसंबन्धस्य हेतुत्वादन्यत्वेन हेताविति सूत्रेण पञ्चम्या अलाभात् ॥
अधिकरणत्वविवेचनम् । अधिकरणत्वं च न*धर्मसंबन्ध:*संबन्धस्य संयोगादिरूपस्य द्विष्ठत्वात् बदरादेरपि कुण्डाधारतापत्तेः । नच कुण्डं न बदरधर्म इति वाच्यम् । तर्हि स्वधर्मसंबन्धोऽधिकरणत्वमिति पर्यवसितम् । स्वधर्मत्वं च स्वाधेयत्वम् । तच्च यदि स्वनिरूपिताधिकरणसंबन्धित्वं तदा अन्योन्याश्रयः । अन्यच दुर्वचम् ।
नापिउत्पत्तये स्थितये ज्ञप्तये चापेक्षणीयमधिकरणम्*उत्पत्तये अपेक्षणीयं च कार्यस्य समवायिकारणं, स्थितये घटादेर्भूतलादि, ज्ञप्तये च जात्यादेः समवायि, अभावसमवाययोः स्वरूपसंबन्धीति वाच्यम् । अपेक्षणीयत्वं हि न जनकत्वमतीन्द्रियजात्याधिकरणाव्याप्तेः ( तस्य लौकिकप्रत्यक्षाभावात्संनिक घटकत्वेनाजनकत्वात् ,) दण्डादेटाचविकरणतापत्तेश्च । नाप्यधिकरण, माननियात् ।
नाप-*तदिन्नत्वे सति तत्पतनप्रतिबन्धकसंयोगवन्मूर्तत्वं पतनाश्रयद्रव्यस्याधिकरणत्वम् मूर्तत्वेन विशेषणात् ब्रह्माण्डधारकसंयोगाश्रयेऽपीश्वरे नातिव्याप्तिः। पतनशून्यमूर्तस्यापि विलक्षणतत्संयोगवत्त्वमधिकरणत्वम् । अत एव पङ्कजकोरकान्तरोत्पन्नविनष्टभ्रेमरस्याप्यधिकरणे पतनाप्रसिद्धथा नाव्याप्तिः । गुणक्रियाजात्यादेश्च तत्समवायित्वमिति । अभावसमवायादीनां च तत्स्वरूपसंबन्धित्वमेवं परंपरासंबन्धेनापि निर्वाच्यमिति वाच्यम् । अननुगमात् । भूतले घट इत्यादौ उक्तरूपेण सप्तम्यर्थतायां गौरवादननुभवाच । .. किंतु प्रतियोगित्वानुयोगित्ववदाधेयत्वमधिकरणत्वं चविलक्षणप्रतीतिसाक्षिकः स्वरूपसंबन्धविशेषः । १ अभावादिति पाठः । २ यत्वमधिकरणत्वमिति पाठः। ३ योः स्वरूपमस्तीति; अभावसंबन्धीति च पाठः । ४ मक्षतम् इति पाठः । ५ भ्रमराधिकरणेऽपि तत्पतनेति
पाठः।
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६ ग्रन्थः ] षट्कारकविवेचनम् ।
स चातिरिक्तोऽनतिरिक्तो वेत्यन्यदेतत् । तत्रं गेहे चैत्रः पचतीत्यत्र पाकस्याधःसंतापनस्य साक्षाद्गहावृत्तित्वेऽपि कर्तृघटितपरंपराधिकरणत्वमाधेयत्वं वा पाकादिक्रियान्वितं सप्तम्यर्थः । स्थाल्यामोदनं पचतीत्यत्राध:संतापनस्य पाकस्य साक्षात्स्थालावृत्तित्वेऽपि कर्मघटितपरंपरयाधिकरणत्वमाधेयत्वं वा सप्तम्यर्थः पाकादावन्वेति । अनुभवबलेन तथैव व्युत्पत्तिरिति वृद्धाः । तदाहुः____ कर्तृकर्मव्यवहितामसाक्षाद्वारयन् क्रियाम् !
उपकुर्वन् क्रियाशक्तौ शास्त्रेऽधिकरणं स्मृतम् । इति । एवं च*कर्तृकर्मान्यतरद्वारा क्रियाश्रयत्वे सति तक्रियोपकारकत्वमधिकरणत्वम् इति ।
वस्तुतस्तु-*परंपरया क्रियाश्रयत्वमेवाधिकरणत्वम्*अत एव प्राङ्गणस्थेन पुंसा दीर्घदण्डादिना काष्ठादिचालनद्वारा गृहान्तर्वर्तिपाककरणे, कर्तृद्वारा क्रियानाश्रयत्वेऽपि गृहस्य, गृहे पचतीति प्रयोगः । न चैवं परंपरयति व्यर्थम्। अधःसंतापनं हि अधोवह्निसंयोगानुकूलकाष्ठवढ्यादिव्यापारस्तस्य च साक्षात्काष्ठवह्नयादिवृत्तित्वेऽपि काष्ठे वह्नौ वा पचतीति प्रयोगाभावात् । एवं पथि गच्छतीतिवत् स्वस्मिन् गच्छतीति प्रयोगाभावादपि च तत्पदामिति । क्रियानिरूपिताधिकरणत्वस्यैव सर्वत्र सप्तम्यर्थत्वे विना क्रियायोगं भूतले घट इत्यादि प्रयोगो न स्यादिति वाच्यम् । इयत्वादिति वैयाकरणाः ।
अधिकरणत्वमाधेयत्वं च सप्तम्यर्थः । स च यत्र क्रियान्वयी तत्र कारकव्यवहारः । अत एव भूतले घट इत्यादौ क्रियाशून्यवाक्यात्भूतलाधेया घट इति शाब्दबोधो भवत्येवेति न्यायविदः।
गृहे स्थाल्यामोदनं पचतीत्यत्र निरुक्तसंबन्धेन गेहाधिकरणकस्थाल्यधिकरणकौदनकर्मकपाकानुकूलकृतिमानित्यन्वयधीः । भूतले घट इत्यादो सप्तम्या अधिकरणत्वमर्थः, तत्र च प्रकृत्यर्थस्याश्रयत्वेन प्रथमान्तार्थस्य च निरूपकत्वेनान्वयः, भूतलनिष्ठाधिकरणतानिरूपको घट इत्यन्वयवोध इति प्राञ्चः ।
१ अत्र गेहे चैत्रः पचतीति पाठः। २ काष्ठेन वह्नौ इति पाठः । ३ गच्छती त्यप्रयोगादपि इति पाटः । ४ वेति पाठः।
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वादार्थसंग्रहः
[२ भागः
निरूपकत्वादेः संबन्धस्य प्रतियोगितावच्छेदकत्वाभावानमन्वयानुपपत्त्या आधेयत्वं सप्तम्यर्थः । तत्र च प्रकृत्यर्थस्य निरूपकतया प्रथमान्तार्थस्य चाधिकरणतयान्वये भूतलनिरूपिताधेयत्ववान् घट इत्यन्वयबोध इति नव्याः ।
चर्मणि द्वीपिनं हन्तीत्यादौ निमित्तसप्तमी । निमित्तत्वमुद्देश्यत्वम् । तञ्च फलत्वेन फलवत्त्वेन वा इच्छाविषयत्वम् । प्रथमे मशकनिवृत्तौ धूमं करोतीति । द्वितीये तु चर्मणि द्वीपिनं हन्तीत्यादि । चर्मादेः सिद्धत्वादिच्छाविषयत्वाभावेऽपि साध्यीभूतयथेष्टविनियोगरूपफलवत्त्वेनोद्देश्यत्वात् । अत्र च यथायथं तादृशेच्छा सप्तम्यर्थः । तस्याश्च धात्वर्थे प्रयोज्यत्वसंबन्धेनान्वयः । तथाच मशकनिवृत्तिविषयकेच्छाप्रयोज्यधूमकरणाश्रयः । चर्मविषयकयथेष्टविनियोगप्रकारकेच्छाप्रयोज्यद्वीपिकर्मकहननानुकूलकृतिमानिति च क्रमेणान्वयबोधः । अत्र च निमित्तात्कर्मयोग इत्यनुशासनात् यत्किञ्चित्कर्मप्रकारकबोधजनकधातुयोगो नियामकः । सकर्मकघातौ कर्मबोधकसमभिव्याहारेण कर्मप्रकारकबोधजनकता । यथा द्वीपिनं हन्तीत्यादौ । ___ अकर्मकधातौ च कर्मविशिष्टार्थशक्त्या । 'अविद्यारजनीक्षये यदुदेति' इत्यत्र उदयगिरिशिखरमारोहतीत्यर्थकरणात् कर्मविशिष्टबोधजनकत्वमविशिष्टम् । अत्र रजनीक्षयस्य सूर्योदयाजन्यत्वेऽपि निमित्तत्वं ज्ञानविषयत्वेनोद्देश्यत्वम् । तेन लोकानां रजनीक्षयज्ञानार्थ यदुदेतीत्यर्थः ।
शरदि पुष्प्यन्ति सप्तच्छदा इत्यादावुत्पत्तिरपि सप्तम्यर्थः, शरदुत्पत्तिकपुष्पाश्रयाः सप्तच्छदाः इति वाक्यार्थः । न च शरदुत्पत्तिकपुष्पाश्रये चम्पकादावपि तथा प्रयोगः स्यादिति वाच्यम् । सप्तच्छदस्य पुष्पाश्रयत्वे लब्धे समानवित्तिवेद्यतया सप्तच्छदवृत्तित्वस्यापि पुष्पेषु लाभात्तदवच्छेदेन शरदुत्पत्तिकत्वान्वयस्य व्युत्पत्तिसिद्धत्वात् । चम्पकादिपुष्पत्वावच्छेदेन शरदुत्पत्तिकत्वाभावेन तथा प्रयोगाभावात् । धातोर्वा सप्तच्छदीयपुष्पे लक्षणेत्यपि कश्चित्
सति सप्तम्याः सामानाधिकरण्यमर्थः । तच्च क्वचित्कालिकं, कचिदैशिकम् । तत्राद्यं समानकालीनत्वपर्यवसन्नं यथा गोषु दुह्यमानास्वागतः दुग्धास्वागत इत्यादौ । अत्र च समानकालीनत्वे सप्तम्यर्थे दोहनमात्रस्य १ प्रतियोगितानवच्छेदकत्वादिति पाठः। २ कर्मविशिष्टस्वार्थशक्त्येति पाठः ।
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६ ग्रन्थः ] षट्कारकविवेचनम् । न निरूपकत्वेनान्वयः, महिष्यादिदोहनसमानकालीने तथाऽप्रयोगात् । नापि गोदोहनस्य, धातुना गोदोहनत्वेनानुपस्थितेः । किं तु दण्डी पुरुषो गच्छतीत्यत्र यथा परंपरया पुरुषविशेषणतापन्नदण्डसमानकालीनत्वं गमने भासते तथा गोविशेषणकर्मताविशेषणतापन्नस्यैव दोहनस्य समानकालीनत्वमागमने भासते इति । इत्थं च तादृशदोहनसमानकालीनगमनानुकूलातीतकृतिमानिति आद्यस्य वाक्यार्थः ।
दुग्धास्वागत इत्यादौ तु न तथान्वयः । दोहनस्यातीतत्वेन बोधात् । किं तु बर्तमानध्वंसप्रतियोगिकृतिजन्यदोहनकर्मतापन्नासु गोष्वागत इति । वाक्यार्थः । गोविशेषणकर्मताविशेषणदोहनविशेषणकृतिविशेषणप्रतियोगित्वविशेषणतापन्नस्य वर्तमानध्वंसस्य समानकालीनत्वमागमने भासते । तथा च तादृशवर्तमानध्वंससमानकालीनागमनानुकूलकृतिमानिति वाक्यार्थः ।
गुणकर्मान्यत्वे सति सत्त्वादित्यादौ च देशिकं, तत्र हि गुणकर्मान्यत्वसामानाधिकरण्यस्य सत्त्वे बोधात् । यद्यपि ' यस्य च भावेन भावलक्षणम्' इति सूत्रे क्रिययोः सामानाधिकरण्ये सप्तमीविधानान्नामार्थयोः सामानाधिकरण्ये सप्तमी न युक्ता । नथापि गुणकान्यत्वे सति सत्वादित्यभियुक्तप्रयोगदर्शनात् सूत्रे भावपदं धर्मपरतया व्याख्याय तत्संगमनीयम् ।
यस्य च धर्मेण धर्मान्तरं निरक्तस्वसामानाधिकरण्येन प्रतिपाद्यते नत्र सप्तमीति सूत्रार्थः । यस्य क्रियया अन्यस्य क्रियान्तरं लक्ष्यत इति व्याख्यानं तु शाब्दिकानां प्रायिकमिति । एवमन्यत्राप्यूह्यम् । इति शब्दार्थसारमार्या भवानन्दसिद्धान्तवागीशविरचित
षद्कारकविवेचनं समाप्तम् ।
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१ गुणसमाधिकरणसत्त्वस्येति पाठः ।
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जयरामभट्टाचार्यविरचितः कारकवादार्थः ७.
नत्वा शंभोः पदाम्भोजं जयरामः समासतः । करोति कारकव्याख्यामिह संख्यावतां मुदे ॥ १॥.
कारकत्ववादः । तत्र कारकाणि कर्तृकर्मकरणसंप्रदानापादानाधिकरणानि षट् । तत्त्वं च न*क्रियानिमित्तत्वम्*। चैत्रस्य तण्डुलं पचतीत्यादौ संबन्धिनि चैत्रादावतिव्याप्तेः । अनुमतिप्रकाशनादिद्वारा संप्रदानादेरिव तण्डुलादिसं. पादनद्वारा संबन्धिनोऽपि पाकादिक्रियानिमित्तत्वात् । किंतु
क्रियान्वितविभक्त्यान्वितत्वम् । . अस्ति च कर्तृकर्मादौ क्रियान्विततिसुब्बिभक्त्यर्थान्वयः, न तूदाहृते संबन्धिनि । षष्ठयर्थसंबन्धस्य तण्डुलादिनामार्थान्विततया क्रियानन्वितत्वात् । चैत्रस्य पचतीत्यादावपि तण्डुलादिपदाथ्याहारेणैव बोधः, षष्ठयर्थसंबन्धस्य तण्डुलादिनामार्थेनैव क्रियायाः कर्मत्वादिनैव साकडूत्वात्परस्पराकाङ्क्षाविरहात् । ओदनस्य भोक्ता, चैत्रस्य पाक इत्यादौ कर्मत्वकर्तृत्वार्थिका षष्ठी कारकविभक्तिरेव । ' कर्तृकर्मणोः कृति' इत्यनेन तद्विधानात् । अत एव संबन्धस्य न कारकत्वं क्रियायोगाभावादिति शाब्दिकाः । अत एव 'गुरुविप्रतपस्विदुर्गतानां प्रतिकुर्वीत भिषक्स्वभेषजैः' इत्यादै, 'सा लक्ष्मीरुपकुरुते यया परेषाम् ' इत्यादौ च रोगे विपत्तौ चेत्यादिनामाध्याहारेणैव बोधः । यदि च विनाध्याहारं षष्टयर्थसंबन्धस्य क्रियायामन्वयः प्रामाणिकस्तदा क्रियान्वितकर्तृत्वकर्मत्वादिषट्रान्यतमान्वयित्वं कारकत्वं बोध्यम् । अत एव
चर्मणि द्वीपिनं हन्ति दन्तयोर्हन्ति कुञ्जरम् ।
केशेषु चमरी हन्ति सीनि पुष्कलको हतः॥ इत्यादौ निमित्तादेरपि न कारकत्वमित्येता उपपदविभक्तयो न तु कारकविभक्तयः।
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७ ग्रन्थः ]
कारकवादार्थः । गां दोग्धि पयः अजां ग्रामं नयतीत्यादौ गौणमुख्यकर्मद्वयमपि लक्ष्यम् । अत्र हि द्रवद्रव्यविभागानुकूलक्रियानुकूलव्यापारविशेषः कर्तृनिष्ठो दुहेग्र्थः । वायुर्वृक्षं पर्ण दोग्धीति वारणाय द्रवद्रव्येति देयम् । मेघो गगनं जलं दोग्धीति वारणाय विशेषेति । विशेषो हि दुहिधातुप्रयोगगम्यः । इत्थं च दवद्रव्येति न देयमित्यपि वदन्ति । संयोगानुकूलक्रियानुकूलव्यापागे नीबातोरर्थः ।
तत्राद्ये विभागे गामित्यस्य क्रियायां पय इत्यस्यान्वयानोवृत्तिविभागानुकूलपयोवृत्तिक्रियानुकूलव्यापारानुकूलकृतिमानिति वाक्यार्थः। द्वितीये श्राममित्यस्य संयोगेऽजामित्यस्य क्रियायामन्वयाग्रामवृत्तिसंयोगानुकूलाजावृत्तिक्रियानुकूलव्यापारानुकूलकृतिमानिति वाक्यार्थः । साक्षाद्धात्वर्थनावच्छेदकनिरुक्तक्रियाद्वयम्पफलान्वयिनान्वयिनोरजापयसोर्मुख्यकर्मत्व८ । तादशक्रियारूपफलावच्छेदकविभागसंयोगम्पफलदयान्वयिनान्वयिनोोग्रामयोगौणं कर्मत्वम् । उभयत्रापि धात्वान्वितविभक्तयान्वितत्वमस्ति । फलद्वयम्यापि धात्वर्थत्वात् । अत एवं कर्मद्वयसाकाङ्कफलबोकधातुत्वं द्विकर्मकत्वं सूपपादम् ।
यत्तु विभागानुकूलक्रिया दुहेरर्थः, संयोगानुकूलक्रिया नयतेपर्थः, नतु तदुभयानुकूलकर्तृव्यापारः । कर्मद्वयस्याप्येकत्र फले अन्वय इति । तन्न, पयोऽजयोः कर्मत्वानुपपत्ते:, परसमवेतत्वस्य क्रियायामभावात् । कर्मद्वयग्याप्येकत्र फलेऽन्वये च गौणमुख्यव्यवहागे न स्यात् । एतेन विभागाद्यनुकूला कर्तृगना चेव दुहादेगर्थ इत्यपाम्तम् , फलद्वयाप्रवेशे गौणमुख्यव्यवहागनुपपत्तेः ।
यदपि गामित्यस्यार्थों गोवृत्तित्वं पयस्येवान्वेतीति गौणं कर्म न लक्ष्यमिति तदपि न, गौ: पयो दुह्यते इत्यादौ गोः कर्मत्वस्य दुरुपपादत्वात् । अजां ग्राममित्यादौ ग्रामवृत्तित्वस्य प्रागजायामसत्त्वेनान्वयायोगात् । काशीतः प्रयागे नीयमानामनां काशी नयाति प्रयोगापत्तेश्च ।
कर्तृत्ववादः। तत्रतत्तत्क्रियानुकूलकृतिमत्त्वं तत्तक्रियाकर्तृत्वम् । काष्ठादौ पाकाद्यनुकूलव्यापारवत्त्वप्रतिसंधानेऽपि कर्तृपदाप्रयोगात् , ५ तञ्चति पाठः । २ यतावच्छेदकत्वात् ।
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२६
वादार्थसंग्रहः
[२ भागः कृताकृतविभागादिना सिद्धयत्नशक्तिकेन कृधातुना तृजन्तेन सिद्धस्य कर्तृपदस्य यत्नाश्रयबोधकत्वाच । अचेतने कर्तृपदप्रयोगस्तु गौणः । वृष्टिगुरुतरभारोत्तोलनादिक्रियाविषयकयत्नसत्त्वेऽपि तत्तक्रियाया अनिष्पत्तौ तत्तक्रियाकर्तृत्वाव्यवहाराद् विषयत्वं विहायानुकूलत्वमुपात्तम् । यदि च मत्तो भूतं न तु मया कृतमिति व्यपदेशान्नान्तरीयककृतिसाध्यस्य पिष्टमध्यस्थशर्कराभोजनस्य न कर्तृत्वं तदा विषयत्वमपि निवेश्यम् । तच्च साध्यत्वेन । तेन यागादिकृतेरुद्देश्यत्वेन स्वर्गादिविषयकत्वेऽपिन यागादिकर्तुः स्वर्गकर्तृत्वम् । अस्मदादिकर्तृकपाकादिकर्तृत्वमीश्वरस्येष्ठम् । तथा विवक्षायामीशः पचतीति प्रयोगोऽपीष्ट एव । नो चेत् कार्यत्वानवच्छिनजन्यतानिरूपितत्वमसाधारण(मनुकूल)त्वं निवेश्यमिति नैयायिकाः ।
वैयाकरणास्तु 'अनभिहिते कर्तरि' इत्यादावचेतनेऽपि कर्तृपदप्रयोगाक्रियाश्रयत्वमेव कर्तृत्वम्। कारककर्मादिपदवत्कृधातुरप्यत्र क्रियार्थक एव । आश्रयत्वमिह तत्तदाख्यातार्थद्वारा। तथा च ऋयगाद्यसमभिव्याहृताख्यातेन यद्धात्वान्वितयद्धर्मवत्त्वं बोध्यते तद्धात्वर्थनिरूपिततद्धर्मवत्त्वं तद्धात्वर्थकर्तृत्वम् * । यथा पचतीत्यादौ पाकानुकूलच्यापारवत्त्वम् , जानातीत्यादी ज्ञानाश्रयत्वम्, नश्यतीत्यादौ नाशप्रतियोगित्वम् इति । चैत्रण तण्डुलः पच्यते इत्यादौ पाकजन्यफलाश्रयत्ववारणाय यगाद्यसमभिव्याहृतेति । अत्र चैत्रादेः कर्तृत्वं तु पचतीत्याद्याख्यातबोध्यधर्ममादायैवेति बोध्यम् । धात्वान्वितद्वितीयाद्यर्थकर्मत्वकरणत्वादिवारणायाख्यातेनेति । जानातीत्याद्याख्यातार्थ आश्रयत्वम् , न पाककर्तृत्वम् , हन्तीत्यादौ हिंसाश्रयत्वम्, न गमनकर्तृत्वमित्येतत्संपत्तये यत्तदिति धात्वर्थविशेषणम् । यदि च काष्ठं पचति, स्थाली पचतीत्यादिप्रयोगवशात्करणादीनां कर्तृत्वमिष्टम्, पच्यत ओदनः स्वयमेवेत्यादौ कर्मकर्तरि कर्मणोऽपि तदिष्टम्
ओदनः स्वं पचतीत्यप्रयोगस्त्वसाधुत्वादिति किमाख्यातपदेनेति विभाव्यते तदा कर्मत्वविशिष्टस्य कर्तृरूपतावारणाय तदुपादेयम् । नहि कर्मत्वादेः कर्तृत्वरूपत्वे 'अनभिहिते कर्तरि ' इत्यनुशासनार्थः संगच्छत इत्याहुः।
यत्तु 'स्वतन्त्रः कर्ता' इति पाणिनिसूत्रात्कारकान्तराप्रयोज्यत्वे सति १ विष्टीति पाठः । २ इहाख्यातार्थः । ३ । कर्तृकर्मणोपि। ४ स्वयं पच; स्वं पचतीति प्रयोगस्तु साधुः।
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७ ग्रन्थः ]
कारकवादार्थः । कारकान्तरप्रयोजकत्वं कर्तृत्वम् * सत्यन्तेन पुरुषादिजन्यसंयोगरूपन्यापारवत्त्वरूपतत्प्रयोज्यत्ववतः कुठारादेर्युदासः इति तन्न, ईश्वरप्रयोज्यानां जीवानां कर्तृत्वानापत्तः । दण्डजन्यसंयोगरूपव्यापारवति कुलालादावव्याप्तिश्चेति दिक् ।
कर्मत्ववादः। अथ किं कर्मत्वं ? न *करणव्यापार्यत्वम् । तद्धि करणजन्यव्यापारवत्त्वं दात्रेण धान्यं लुनातीत्यादौ हस्तादिकरणव्यापार्ये दावादावतिव्याप्तम् । नापि *परसमवेतक्रियाजन्यफलशालित्वम् * गमिपत्योः कर्मत्वस्य पूर्वस्मिन्देश, त्यजेश्वोत्तरस्मिन्देशे, स्पन्देः पूर्वपरयोः प्रसङ्गात् । नदी वर्धत इत्यादी वृद्धरवयवोपचयरूपायाः परंपरया फलस्य तीरप्राप्रिरूपस्याश्रय तीरे कर्मत्वापत्तश्चेति चेत्, अत्र वदन्ति
धात्वर्थतावच्छेदकफलशालित्वं कर्मत्वम् । तादृशं च फलं गमेः संयोगस्त्यजेविभागः पतेरधःसंयोगस्तदवच्छिन्ने स्पन्दे तेषां शक्तेः, स्पन्दमात्रे तेषां शक्तौ पर्यायतापत्तेः, स्पन्देव॒ध्धातोश्च न फलावच्छिन्नव्यापार शक्तिरिति न कोऽपि दोषः । फलावच्छिन्नव्यापारबोधकत्वादेव च धातूनां सकर्मकत्वव्यवहारो मुख्यः । जानातीत्यादीनां तु नामाान्वितोद्देश्यत्वातिरिक्तविषयत्वरूपविभक्त्यर्थान्वय्यर्थकत्वं गौणं सकर्मकत्वम् । घटं जानातीत्यादितो घटविषयिताशालिज्ञानाश्रयत्ववानिति बोधात । तादृशथातुयोग एव च कर्मप्रत्ययः । अत एवाभुजानेऽपि भोजनाय यतते इति प्रयोगात् यतधात्वर्थे नामान्वितस्य चतुर्यर्थोद्देश्यत्वस्यैवान्वयात् न यतेः सकर्मकत्वं, न वा भोजनं यतते इति प्रयोगः। _ 'भूमि प्रयाति विहगो विजहाति महीरुहं नतु स्वात्मानम्' इतिप्रयोगात स्वस्य धात्वर्थतावच्छेदकसंयोगविभागरूपफलशालित्वेपि कर्मत्वाभावात् परसमंवतक्रियाजन्यत्वमपि धात्वर्थतावच्छेदकफले निवेश्यम्। न चैवमपि मल्लो मल्लं गच्छतीत्यादौ उभयकर्मजसंयोगरूपफलस्य तादृशत्वात्स्वकर्तृकक्रियाकर्मत्वरूपव्यवहारः स्वस्मिन् स्यादिति वाच्यम्। परसमवेतयक्रियाजन्यतादृशफलशालित्वं यत्र तत्र तक्रियाकर्मत्वस्य स्वीकागत । इत्थं च द्वितीयादेः क्रियान्वयि परसमवेतत्वमप्यर्थः । परत्वं स्वप्रकृत्यर्थापेक्षया सुपा, स्वार्थफलान्वय्यपेक्षया कर्माख्यातेन च बोध्यते ।
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वादार्थसंग्रहः . [२ भागः तथा च भूमि प्रयातीत्यतो भूमिभिन्नसमवेत-भूमिवृत्तिसंयोगजनक-स्पन्दानुकूलकृतिमानित्यन्वयबोधः । भूमिर्गम्यत इत्यादौ कर्माख्यातस्थले फलं परसमवेतत्वं चाख्यातार्थः । भूमिपदार्थस्य परत्वे विशेषणत्वेन, फलं प्रति विशेष्यत्वेन चान्वयः । तथा च भूमिभिन्नसमवेतक्रियाजन्यफलशालिनी भूमिरिति । एवं च स्वभिन्नसमवेतं स्ववृत्तिसंयोगजनकं यन्मल्लान्तरवृत्तिगमनं तदनुकूलकृतिमत्त्वस्य स्वस्मिन्नभावादेव न मल्लः स्त्रं गच्छतीति प्रयोगः । ___ नन्वत्र परत्वे स्वप्रकृत्याद्यर्थस्यान्वयितावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वेन प्रतियोगितामात्रेण वान्वयः। नाद्यः, पृथ्वी प्रयातिखग इत्यादौ अनन्त्रयापत्तेः । खगस्य पृथ्वीत्वावच्छिन्नभिन्नत्वाभावात्। न द्वितीयः, स्वात्मन्यपि स्वघंटोभयभेदस्य सत्त्वात् स्वं प्रयातीत्यापत्तेरिति चेन्न, द्वितीयादार्थफले यध्यक्तेरन्वयस्तद्व्यक्तित्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वसंबन्धेन प्रकृत्यर्थस्य कर्माख्यातार्थफलान्वयिनश्च परत्वेऽन्वयात् । इत्थं च पृथ्वी प्रयातीत्यादौ यत्पृथिवीव्यक्तिवृत्तिसंयोगजनकत्वं प्रयाणस्य तव्यक्तिभिन्नत्वं विहगेस्तीति न दोषः।
परे तुपृथिवीं प्रयातीत्यादौ पृथिवीपदं कर्मीभूततत्तत्पृथिवीव्यक्तिपरमेवमन्यत्र कर्मवाचकं सामान्यपदं लक्षणया विशेषपरम् । इत्थं चान्वयितावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वव्युत्पत्तेर्न भङ्ग इत्याहुः । .
यत्तु परसमवेतत्वं नार्थः किंतु अन्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वं क्रियान्वयि द्वितीयार्थः।तथा च भूमिवृत्तिसंयोगजनक-भूमिनिष्ठान्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदक-प्रयाणानुकूलकृतिमानित्यर्थः । स्ववृत्तिक्रियायाः स्वनिष्ठान्योन्याभावप्रतियोगितानवच्छेदकत्वान्न स्वं प्रयातीति प्रयोग इति । तन्न, एवमपि येन मल्लेन मल्लान्तरं न गतं सोऽपि मल्लो मल्लं गच्छतीति प्रयोगापत्तेः । मल्लान्तरनिष्ठभेदप्रतियोगितावच्छेदिकायास्तन्मल्लवृत्तिक्रियायास्तन्मल्लवृत्तिभूमिसंयोगजनकत्वात् । यन्मल्लव्यक्तेः फलान्वयस्तस्या एवान्योन्याभावेऽन्वयोक्तौ ( दोषवारणे तु) तब्यक्तित्वादेः प्रकारत्वे (शक्त्यानन्त्यम् । कथंचित्) कर्मवाचकपदस्य तद्व्यक्तित्वावच्छिन्नलक्षणास्वीकारे युगपद्वृत्तिद्वयविरोधप्रसङ्गः ।
ननु नान्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वं क्रियान्वयि द्वितीयार्थः १ पृथिवीत्वावच्छिन्नत्वात्। २ खगघटोभयेति पाठः । ३ कर्मत्ववत्तदिति पाठः ।
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७ ग्रन्थः]
कारकवादार्थः ।
२९
न वा परसमवेतत्वम्, कर्मवाचकपदार्थतावच्छेदकावच्छिन्नान्वितद्वितीयार्थसमतत्वत्वरूपसामान्यधर्नावच्छिन्नतत्तत्कर्मसमवेतत्वनिष्ठप्रतियोगिताकाभावात्मक-स्वप्रतियोगिकाभाव-संबन्धेन कर्मवाचकपदार्थान्वितद्वितीयार्थसमवेतत्वस्य धात्वर्थक्रियायामन्वयस्वीकारान् । सामान्यरूपेण विशेषाभावानेभ्युपगमेऽपि यब्यक्तेर्द्वितीयार्थसमवेतत्वेऽन्वयस्तव्यक्तिसमवेतत्वत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावात्मकस्वप्रतियोगिकाभावसंबन्धेन कर्मवाचकपदार्थान्वितद्वितीयार्थसमवेतत्वस्य धात्वर्थक्रियायामन्वयस्वीकारादेव न विहगः स्वं प्रयातीति प्रयोगः । ईदृशसंबन्धनान्वयबोधस्य काप्यदृष्टचरत्वेऽपि प्रकृते गत्यन्तरविरहेण स्वीकारात् । अत एव च न कर्मवाचकपदस्य तत्तव्यक्तित्वेन तत्तव्यक्तिबोधकतया सामान्यरूपेण. बोधकतया च युगपट्टत्तिद्वयविरोध इति चेन्न, नव्यनये क्रियाया अव्याप्यवृत्तितया तनिष्ठतदाश्रयद्रव्यसमवेतत्वस्यापि अव्याप्यवृत्तित्वात् , मल्लः स्वं गच्छतीनि प्रयोगप्रसङ्गस्य दुर्वारत्वापत्तेः । एतेन *तत्तक्रियानधिकरणत्वे सति तत्तक्रियावच्छेदकफलशालित्वं तत्तक्रियाकर्मत्वं द्वितीयादेरपि तत्तत्कियानधिकरणत्वमर्थ इत्यपास्तम । शत्यानन्त्यापत्तेश्च ।
यत्तु क्रियान्वयि परसमवेतत्वमपेक्ष्य कन्वयि परत्वमेव लाघवात्कर्मप्रत्ययार्थ इति । तन्न, द्वितीयार्थफलपरसमवेतत्वयोरेकान्वयित्वे लाघवान्, ग्रामो गमेः कर्म न तु चैत्र इत्यादौ फलपरसमवेतक्रियाजन्यत्वघटितस्यैव कर्मपदार्थतया तस्यैव कर्मप्रत्ययार्थत्वान , गम्यते ग्रामः स्वयमेवेत्यादौ परत्वान्वयिविरहाचेति दिक् ।
अथैवमपि पतेरधःसंयोगावच्छिन्नस्पन्दार्थकतया धात्वर्थतावच्छेदकफलशालिनो भूतलादेः कर्मत्वे वृक्षात्पर्ण भूतलं पततीति प्रयोगः स्यादिति चेन् , तथा विवक्षायां भवत्येव । अत एव द्वितीया श्रिता-' इति सूत्रे पतितशब्दयोगे द्वितीयासमासविधानं तदुदाहरणं च नरकं पतितो नरकपतित इति साधु संगच्छते । कचित्सतम्यपि साधुः । यथा भूमौ पतति, ग्रामे गच्छतीत्यादौ ।
परे तु भूतलादेः कर्मत्वेऽपि न द्वितीया । यत्र फलस्य संबन्ध्याकाला तत्रैव तत्स्वीकारात् । अत्र तु फलम्याधोदेशवृत्तितया उपस्थितेने संब
१ नेति नास्ति । २ फलत्वे इति पाठः ।
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वादार्थसंग्रहः
[२ भागः न्ध्याकाडा । यद्वा कर्तृभिन्नान्वयिफलावच्छिन्नव्यापारबोधकस्यैव धातो: सकर्मकत्वं गम्यादेः, न तु पततेः । अधःसंयोगरूपफलस्य पर्णान्वितत्वात् । अध इत्यस्य संबन्धिसाकाङ्कतया संबन्धित्वेन पर्णस्यैवान्वयात् । भूतलं हि पर्णस्याधः न तु भूतलस्येति न भूतलं पतीति प्रयोग इति । अथ कथं वृक्षात्पर्णमधः पतति इति प्रयोग इति चेत् , भ्रमात् अत्यधोविवक्षया वा । गतं तिरश्चीनमनूरुसारथेः इत्यत्र व्यक्तिविशेषस्याधो धाम पततीत्यथोत् न दोष इत्याहुः । __ यत्तु त्यजिगम्यादेः स्पन्दाद्यात्मकव्यापारमात्रे शक्तिः, फलस्य द्वितीयादिलभ्यत्वात् । अत एव ग्रामं त्यजति गच्छतीत्यनयोनैकार्थता त्यजिगम्योोंगे द्वितीयादिना विभागसंयोगयोर्बोधनात् । त्यविभागावच्छिनस्पन्दशाब्दत्वस्य, गमेः संयोगावच्छिन्नस्पन्दशाब्दत्वस्य कार्यतावच्छेदकत्वात् । अत एव गमनं त्याग इत्यनयोरपि नैकार्थता । उक्तकार्यकारणभावानुरोधेनात्रापि त्यजिगम्योविभागसंयोगावच्छिन्नस्पन्दे लक्षणाङ्गीकारात् । विभागाद्यवच्छिन्नस्पन्दशाब्दत्वं च विभागादिस्पन्दोभयवैशिष्टयावगाहिशाब्दत्वम् । तेन चैत्रेण ग्रामस्त्यज्यते इत्यादिवाक्यजन्यस्पन्दविविशेषणकविभागादिविशेष्यकशाब्दबोधसंग्रहः । इत्थंच *परसमवेततत्तद्धात्वान्वितफलविशेषशालित्वं तत्तद्धात्वर्थकर्मत्वम् । तेन त्यजादेनोंत्तरदेशादौ कर्मत्वमिति । तन्न, विभागाद्यवच्छिन्नस्पन्दशाब्दत्वस्य जन्यतावच्छेदकत्वे तादृशस्पन्दे शक्तेर्दुर्वारत्वात् । परेषामितरान्विते शक्तिग्रहे इतरांशवद्विभागाद्यंशस्य त्यागस्तु न युक्तः, त्यागगमनयोरेकार्थतावारणाय तत्फलविशिष्टस्पन्दे शक्तिसिद्धेः, विनापि तल्लक्षणातिसंधानं तथा प्रतीतेरिति दिक् । ___ एवं ददातेर्मूल्यग्रहणं विना स्वस्वत्वध्वंसपरस्वत्वजनकत्यागः, यजते. देवतोद्देश्यकस्वस्वत्वध्वसंफलकत्यागः, जुहोतेस्तादृशाग्निप्रक्षेपश्चार्थः । अत एव ऋत्विजां तादृशत्यागाभावेऽपि होतृत्वम् । अग्निप्रक्षेपश्च अग्निसंयोगानुकूलक्रियानुकूलघृतादिवृत्तिनोदनादिव्यापारः । न चैवमग्नौ जुहोतीत्यादौ सप्तम्यर्थस्याग्निसंयोगेऽन्वये निराकाङ्कतापत्तिगिनि वाच्यम् । तत्र संयोगानुकूलक्रियानुकूलव्यापारस्यैव धात्वर्थत्वात् । न च तथाप्यनेः कर्मत्वापत्तिः । संयोगस्य धात्वर्थतावच्छेदकतावच्छेदकतया तद्वतोऽग्नेः कर्म
१ यद्वा कर्मभिन्नेति पाठः । २ पर्णभूतलस्येति पाठः । ३ शाब्दोभयेति पाठः । ४ नुसंधानमिति पाठः।
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७ ग्रन्थः ]
कारकवादार्थः ।
३१
त्वाभावात् । क्रियाया एव धात्वर्थतावच्छेदकतया तच्छालिनो घृतस्यैव कर्मत्वात् । द्वितीयार्थश्च वृत्तित्वं तच्च धात्वर्थतावच्छेदकेऽन्वेति ।
2
इत्थं च विप्राय गां ददाति, विष्णुं यजते, घृतं जुहोतीत्यादौ मूल्यग्रहणं विना विप्रोद्देश्यकगोवृत्तिस्वस्वत्वध्वंस पर स्वत्वफलक त्यागानुकूलकृतिमान्, विष्णूद्देश्यकस्वस्वत्वध्वंसफलक त्यागानुकूलकृतिमान्, वृतवृत्त्यग्निसंयोगावच्छिन्नक्रियानुकूलव्यापारानुकूलकृतिमानित्यन्वयबोधः । विष्णोरुदेश्यत्वसंबन्धेन स्वस्वत्वध्वंस फलवत्त्वात्कर्मत्वम् ।
एवं मूल्यग्रहणप्रयुक्तस्वस्वत्वध्वंस पर स्वत्व जनकस्त्यागो विक्रयः । मूल्यदानप्रयुक्तस्त्रस्वत्वोत्पादकस्वीकारः क्रयः । दत्तद्रव्यस्य स्वस्वत्वजनकस्त्रीकारः प्रतिग्रहः । तथा च गां विक्रीणाति क्रीणाति प्रतिगृह्णातीत्यादौ गोवृत्तिमूल्यग्रहणप्रयुक्तस्वस्वत्वध्वंसपरस्वत्व जनकत्यागानुकूलकृतिमान्, गोवृत्तिमूल्यदानप्रयुक्तस्व स्वत्वानुकूलस्त्रीकारानुकूलकृतिमान, गोवृत्तित्तद्रव्यस्वस्वत्वजनकस्वीकारवानिति क्रमेणान्वयधीरिति संप्रदायः ।
इदमत्रावधेयम् । दानस्य परस्वत्वजनकत्वे तत एव विक्रयवारणे मूल्यग्रहणं विनेति व्यर्थम् । अथ- प्रतिग्रह एव स्वीकारविशेषतया स्वत्वहेतुः । अस्वामिके स्वीकारस्य स्वत्वहेतुत्वकल्पनात् । अत एव ' याजनाध्यापनप्रतिग्रहैर्ब्राह्मणो धनमर्जयेत्' इत्यादिकं साधु संगच्छते । अन्यथा प्रतिग्रहवैफल्यापत्तेः । दानं तु स्वस्वत्वध्वंसमात्रं जनयत्परस्वत्वप्रयोजकमितिमतम् । तथापि पूर्वोक्तलक्षणमसम्यक् तदुपादानेऽप्युपेक्षायामतिव्याप्तेः । तस्या अपि स्वस्वत्वध्वंसद्वारा परस्वत्वप्रयोजकत्वात् । तद्वारणाय त्यागे वैजात्योपादानस्यावश्यकत्वात् ।
वस्तुतो दूरस्थपात्रमुद्दिश्य त्यक्तद्रव्यस्य प्रतिग्रहात्प्रागस्वामिकस्यानुद्देश्येन पुरुषेण प्रतिग्रहात्स्वत्वं स्यात् । अन्योद्देश्यकत्यागादेः प्रतिबन्धकत्वे तु गौरवम् । न च तादृशत्यागो दानाभास एव ससंप्रदानको हि त्यागो दानं, संप्रदानं च ददस्वेत्यनुमतिप्रकाशनद्वारा दानक्रियाहेतुत्वेन, न च असन्निहितस्य तत्त्वमिति, न ततो दातुः स्वत्वनाश इति वाच्यम् ।
तीर्थे संकल्पितं द्रव्यं यदन्यत्र प्रदीयते । दाता तीर्थफलं मुझे प्रतिग्राही न दोषभाक् ॥
१ ध्वंसजनक " २ "दत्तद्रव्यस्वस्वत्वजनकस्वीं ।
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वादार्थसंग्रहः
[२ भागः
मनसा पात्रमुद्दिश्य भूमौ तोयं विनिक्षिपेत् । विद्यते सागरस्यान्तो दानस्यान्तो न विद्यते ॥ इत्यादिवाक्यात्तादृशस्य दानत्वसिद्धेः । तस्माद्दानमेव परस्वत्वजनकम्। प्रतिग्रहप्रागभावस्यापेक्षणीयत्वान्न प्रतिग्रहवैफल्यम् । अत एव यस्मै दत्तं तस्य प्रतिग्रहेण दातुः स्वत्वनिवृत्तिः ।
अस्तु वा दत्तद्रव्यस्वीकारत्वरूपप्रतिग्रहत्वेन स्वीकर्तव्यद्रव्यदानत्वेन वेति विनिगमकाभावात् दानं स्वस्वत्वध्वंसद्वारा परस्वत्वजनके प्रतिग्रहश्च स्वस्वत्वजनकः । उभयथापि मूल्यग्रहणं विनेति व्यर्थम् । विक्रयस्य परस्वत्वजनकत्वे मानाभावात् । न च विक्रीतद्रव्यस्वीकारत्वं क्रयत्वमित्यत्रापि विनिगमनाविरहः ।
मूल्यदानपूर्वकस्वीकारस्यैव क्रयत्वात् विक्रयत्वस्य गौरवेणानिवेशात् । किंच स्वस्वत्वध्वंसजनकेत्यपि व्यर्थम, अव्यावर्तकत्वात् । अपि चाग्निप्रक्षेपो होम इत्यप्ययुक्तम, देवतोद्देश्यकस्वस्वत्वध्वंसफलकत्यागो यागः स एव प्रक्षेपावच्छिन्नो होमः' इति वाचस्पतिमिश्राद्युक्तेः, 'याग एव विशिष्टदेशप्रक्षेपोपहितो होमः' इति विवेकोक्तेश्च । अस्तु च ऋत्विजा त्यागाद्यजमानस्वत्वध्वंसः, अनुमतदासत्यागाद्विदेशस्थस्वामिस्वत्वध्वंसवन्।
वस्तुतस्तु दानत्वयागत्वहोमत्वादयो मानसप्रत्यक्षगम्या जातिविशेषाः । न च श्राद्धस्य पित्रपेक्षया यागत्वं, ब्राह्मणापेक्षया दानत्वमिति विवेकोक्तेस्तयोः सांकर्यान्न जातित्वमिति वाच्यं, श्राद्धस्य गौणतदुभयरूपत्वात् । वस्तुतः श्राद्धस्य यागत्वमेव, उद्देश्यपित्रादिस्वत्वाजनकत्वात । ब्राह्मणस्य स्वत्वमपि न सार्वत्रिकम् , ब्राह्मणाभावेऽपि श्राद्धोक्तेः । 'पिण्डांस्तु गोजविप्रेभ्यः ' इत्यादिनान्यत्रापि तत्प्रतिपत्तेः ।
विष्णुं यजते इत्यादौ द्वितीयार्थोऽप्युद्देश्यत्वम् । तत्त्वं च तस्येदमित्यारोपज्ञानविषयत्वम् । देवतायाः स्वत्वोपगमे तु यागत्वं दानत्वव्याप्यं, होमत्वं यागत्वव्याप्यमिति सिद्धम् । देवपूजादिकमपि याग एवेति कृतमप्रकृतेन ।
अत एव संसृष्टिस्थलेऽसाधारणस्वत्वनाशोत्तरं साधारणस्वत्वोत्पादान ५ तस्याप्रतिग्रहे न दातुरिति पाठः । २ 'रत्वरूपक्रयत्वेन स्वीकर्तव्यद्रव्यविक्रयत्वेन वा क्रयत्वमित्यत्रापीति पाठः । ३ इत्युक्तमिति पाटः । ४ अनेकस्वामिकत्वरूपसंसं इति पाठः । ५ पादानात् ।
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७ ग्रन्थः ]
कारकवादार्थः ।
तत्र सकलेविशेषणसहितदानलक्षणातिव्याप्तिरित्यपास्तम्, दानत्वजातेस्तत्राभावात् । परमात्रस्वत्वानुकूलत्व विशेषणात् संसृष्टिनिरास इत्यन्ये । तत्र न स्वत्वनाशः किंतु परस्वत्वोत्पत्तिमात्रम् । स्वत्ववति स्वत्वोत्पत्तिस्तंत्रच्छाया उत्तेजकत्वात् । स्वस्वत्वध्वंसपूर्वकत्व विशेषणादेव तन्नि
३३
इत्यन्ये । परे दृष्टविशेष जनकत्व विशेषणात्तव्यावृत्तिरित्यप्याहुः । एतेन विनिमये विक्रयादिलक्षणातिव्याप्तिरित्यपास्तम् । विक्रयत्वादेर्जातित्वात् । मूल्यातिरिक्तद्रव्यग्रहणप्रयुक्तस्वस्वत्वध्वंस पर स्वत्वानुकूलत्यागी विनिमय इत्यन्ये ।
किमत्र स्वत्वमिति चेत् । अत्र प्राञ्चः - यथेष्टविनियोज्यत्वं स्वत्वम् । तच शास्त्रानिषिद्धविनियोगोपायो यः कयप्रतिग्रहादिस्तद्विषयत्वम् । तच्च न बहिरिन्द्रियवेद्यम् । प्रतिग्रहादेर्मानसज्ञानविशेषरूपस्य बहिरिन्द्रियायो - ग्यत्वादित्याहुः ।
नव्यास्तु - प्रतिग्रहादिनाशोत्तरमपि स्वत्वव्यवहाराद्दानादितः स्वत्वं नश्यति प्रतिग्रहादितच स्वत्वमुत्पद्यते इत्यादिप्रत्ययव्यवहारप्रामाण्यानुगेधान् स्वत्वमतिरिक्त एव पदार्थः । तच्च स्वत्वं दानादितो नश्यति, प्रतिग्रहादितश्च जायते । तच बहिरिन्द्रिययोग्यं, स्वं पश्यामीति प्रतीतेः । नदीययथेष्टविनियोज्यत्वज्ञानस्य तदीयस्वत्वसाक्षात्कारहेतुत्वान्न यथेष्ट - विनियोगाद्यज्ञानदशायां स्वत्वसाक्षात्कारापत्तिः ।
वस्तुतस्तदीययथेष्टविनियोज्यत्वे तदीयस्वत्वव्यभिचारित्वग्रहदशायां त
स्वत्वसाक्षात्कारानुदयान तदीयस्वत्वसाक्षात्कारं प्रति तदीयस्वत्वयाप्यतदीययथेष्टविनियोज्यत्ववदिदमित्याकारकज्ञानस्य हेतुत्वं वाच्यम् । तथा च स्वत्वस्यानुमितिरेव न तु साक्षात्कारः । स्वत्वे लौकिकविप्रयताकल्पने लौकिकविपयिताशालितत्साक्षात्कारे तादृग्विशेषदर्शनस्य हेतुत्वकल्पनेच गौरवात् । स्वं पश्यामीत्यनुव्यवसायस्तु सुरभि चन्दनं पश्यामीत्यादिवद्विशेषणांशेऽलौकिकविषयत्वावगाही । न चायोग्यत्वकल्पने लौकिकसाक्षात्कारे स्वत्वस्य प्रतिबन्धकत्वकल्पने गौरवमिति वात्र्यम्, तस्यायोग्यत्वकल्पने लौकिकविषयताविरहादेव तत्प्रत्यक्षवारणसंभवात् । योग्यत्वे तद्गोचरलौकिकप्रत्यक्षसामग्र्यास्तगोचरानुमित्यादौ प्रतिबन्धकत्वकल्पने गौरवादित्याहुरित्यलमतिविस्तरेण ।
१ लत्वविशेषणरहि । २ नव स्वस्वत्ववति परस्वत्वानुपपत्तिस्त ं ।
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वादार्थसंग्रहः
[२ भागः तश्च कर्म त्रिविधम्-प्राप्यं, विकार्य, निर्वयं च ।
तत्र संयोगादिरूपक्रियाजन्यफलशालि प्राप्यम् । यथा-ग्रामं गच्छती. त्यादौ ग्रामादिः ।
यल्लब्धसत्ताकमेवावस्थान्तरमापद्यते तद्विकार्यम् । यथा-काष्ठं भस्म करोति, सुवर्ण कुण्डलं करोतीत्यादौ यथा काष्ठादिः, काष्ठादिपदलक्ष्यस्य काष्ठावयवादेः सत एव भस्मादिसंबन्धरूपावस्थान्तरप्राप्तेः । .
यत्तु क्रिया यत्कर्मनाशकं फलं जनयति तद्विकार्यम् । यथा-काष्ठं लुनातीत्यत्र काष्ठमिति तन्न, काष्ठपदलक्ष्यस्य काष्ठावयवस्य कर्मतया क्रियायास्तन्नाशकत्वाभावात् । अत्र हि काष्ठपदस्य काष्ठावयवो लुनातेरारम्भकसंयोगप्रतिद्वन्द्विविभागहेतुक्रियानुकूलः कुठारादिव्यापारोऽर्थः । तथा च काष्ठावयववृत्त्यारम्भकसंयोगप्रतिद्वन्द्विविभागजनकक्रियानूकूलव्यापारानुकूलकृतिमानित्यन्वयर्धारिति काष्ठावयवस्य प्राप्यकर्मतैवावस्थान्तरप्राप्त्यभावान्न विकार्यता । तण्डुलं पचतीत्यादौ तण्डुलपदलक्ष्यस्तण्डुलावयवः पच्यर्थों रूपादिपरावृत्त्यवच्छिन्नो विक्लित्त्यवच्छिन्नो वा तेजस्संयोगः । तथाच धात्वर्थजन्यफलशालित्वात्सतोऽवस्थान्तरप्राप्तेश्च उभयवि. धकर्मत्वं तण्डुलावयवस्येष्टम् । असंकीर्णस्थानमुक्तमेक्त्यदोषः । ।
यस्त्रियया निष्पद्यते तन्निवर्त्यम् । यथा-घटं कटं वा करोतीत्यादौ घटादि । अत्र कृषः फलावच्छिन्नव्यापारबोधकत्वाभावाद्गौणकर्मत्वम् । तच्च साध्यताख्यकृतिविषयत्वम् । अत एव वीरणं करोतीत्यादिर्न प्रयोगः ! वीरणादावुपादानताख्यकृतिविषयताया एवं सत्वात् ।
यत्तु कटादिपदस्य कटाद्यवयवे निरूढलक्षणा । तत्र विना लक्षणां कटादेगौंणकर्मत्वसंभवेऽपि कारकत्वासंभवात् , निरूढलक्षणाया मुख्यप्रयोगापवादकत्वाञ्च न वीरणं करोतीति मुख्यप्रयोग इति । तन्न, घटं जानाति अतमित्यादौ घटादेरिव कटादेरपि गौणकारकत्वसंभवात् ।
स्तोकं पचतीत्यादौ क्रियाविशेषणपदोत्तरद्वितीया विशेषणविभक्तिवत् प्रयोगसाधुत्वाय नामार्थधात्वर्थयोरभेदान्वयस्वीकारेणाभेदस्य संसगैत्वात् । तदस्वीकारे तु विशेषणविभक्तिवदस्तु साऽभेदार्थिका । तस्याः कारकत्वाभावस्तु क्रियान्वितकर्तृत्वाद्यन्वितत्वाभावादिति दिक् ।।
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७ ग्रन्थः ]
कारकवादार्थः ।
३५
करणत्ववादः। करणत्वं कारकान्तरेऽचरितार्थत्वे सति क्रियाहेतुत्वम् ।
कारकान्तरनिष्ठव्यापारद्वारा क्रियाहेतुत्वाभावः सत्यन्तार्थः । कर्तृकारके आरम्भकसंयोगप्रतिद्वन्द्विविभागानुकूलकुठारादिक्रियाया एवं छिदादिधात्वर्थतया कर्तुः कुठारादिकरणनिष्ठव्यापारद्वारा छिदादिहेतुत्वान्नातिप्रसङ्गः । कर्मणस्तु तादृशक्रियाहेतुत्वविरहादेव नातिप्रसङ्गः । अधिकरणमपि कर्तृकर्मान्यतरव्यापारद्वारा क्रियाहेतुः । चैत्रो गृहे स्थाल्यामोदनं पचतीत्यादौ गृहस्थाल्याद्यधिकरणं कर्तृकर्मसंयोगद्वारा पाकादिक्रियासाधनम् । संप्रदानं स्वानुमतिप्रकाशनेन कर्तुरिच्छाद्वारा दाननिमित्तम् । अपादानं पतनप्रतिबन्धकसंयोगनाशकपत्रादिविभागद्वारा पतनादिनिमित्तमिति नातिप्रसङ्गः ।
न चैवं कुठारादिकरणस्यापि कर्तृनिष्ठव्यापारसापेक्षत्वादसंभवः । कारकान्तरनिष्ठव्यापारसंबन्धावच्छिन्नजनकत्वाभावस्य सत्यन्तार्थतया कुटागदिक्रियारूपच्छिदिक्रियायां कुठारस्य तादात्म्यसंबन्धेन हेतुतया कर्तृनिष्ठव्यापारसंबन्धेनाहेतुत्वात् । न च कुठारादिव्यापारादावतिव्याप्तिरिति वाच्यम् , तस्यापि एतन्मते लक्ष्यत्वात् । अत एव *फलायोगव्यवच्छिन्नं कारणं करणम् इति वदन्ति ।
वस्तुतस्तु *व्यापारवत्त्वे सति कारणं करणम्* । न चैवं कार्यमाने ज्ञानादौ चादृष्टस्य मनोयोगस्य च व्यापारस्य सत्त्वादात्मनोऽपि करणत्वापत्तिः, इष्टत्वात् । उपधेयसंकरेऽपि कर्तृत्वकरणत्वलक्षणोपाधेरसंकरात् व्यवहारभेदोपपत्तेः । इत्थं चानुमितौ व्याप्तिज्ञानं करणम् , परामर्शस्य व्यापारत्वात् । चाक्षुषादौ चक्षुरादि, तत्संयोगस्य व्यापारत्वात् । श्रावणज्ञाने श्रोत्रमनःसंयोगस्य व्यापारत्वान्न तु शब्दस्य, शब्दाभावप्रत्यक्षे तस्य व्यभिचारात् ।
परे तु * फलानुकूलकर्तृव्यापारवत्त्वम् * अस्ति च कुठारादेः छिदानुकूलकर्तृसंयोगादिमत्त्वम् । न च गृहस्थाल्याद्यधिकरणस्यापि कर्तृव्यापारवत्त्वात्करणत्वापत्तिरिष्टत्वात् । स्थाल्यानं साधयतीत्यादिप्रयोगात् । गवा दानं साधयति, ब्राह्मणेन दानं साधयतीत्यादिप्रयोगात् तत्रापि तदिष्टम् ।
१ संबन्धावच्छिन्नक्रि । २ दव्याप्तिः । ३ कर्तृकुठाराभिघातेऽति ।
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वादार्थसंग्रहः
[२ भागः चैत्र आत्मना चैत्रेण वा पचतीत्यप्रयोगात् , कर्तुः शरीरस्य च वारणाय द्रव्यसमवायिभिन्नात् क्रियानुकूल कृतिमतो भिन्नत्वेन विशेष्यम् । कृतिमत्त्वं समवायेनावच्छेदकतया च । तेन शरीरस्यापि व्युदासः । भिन्नादित्यन्तेन हस्तादिसंग्रहः, हस्तादिना छिनत्तीति प्रयोगात् । व्यापारवत्त्वं च जनकतया । तेन व्याप्तिस्मृत्यादिसाधारण्यमित्याहुः ।
अत्र परशुना छिनत्तीत्यादौ निरुक्तकरणत्वं तृतीयार्थः । आश्रयत्वेन प्रकृत्यान्वितस्य तस्य धात्वर्थे निरूपकत्वेनान्वयः । तथा च परशुनिष्ठकरणतानिरूपकच्छिदानुकूलकृतिमानिति वाक्यार्थ इति प्राञ्चः ।
नव्यास्तु परशुना छिनत्ति न दात्रेणेत्यादौ नत्रर्थान्वयानुरोधेन निरुक्तकरणत्वनिरूपितं जन्यत्वमेव तृतीयार्थः । तस्य च निरूपितत्वेन प्रकृत्यान्वितस्य आश्रयतया धात्वर्थेनान्वयः । इत्थं च परशुनिरूपितं जन्यत्वं दात्रनिरूपितजन्यत्वाभावश्च छिदायामन्तीत्याहुः ।
जटाभिस्तापस इत्यादौ तृतीयोपलक्षणे । तत्त्वं च *अतब्यावृत्त्यनवच्छेदकत्वे सत्यतळ्यावृत्तिसामानाधिकरण्यम* । अस्ति च जटायामतापसव्यावृत्त्यनवच्छेदकत्वं शमादिमत्त्वस्यैव तदन्यूनानतिरिक्तवृत्तितया तदवच्छेदकत्वात् । शमादिना तापस इतित्वपप्रयोगः । विवक्षातस्तथा प्रयोगस्येष्टत्वे तु विशेषणोपलक्षणसाधारणवैशिष्टयमेव तृतीयार्थः। . ___ अक्ष्णा काणः, पादेन खज: इत्यादौ 'येनाङ्गविकारः' इत्यनेन तृतीया, येनाङ्गेन विकारो हानिराधिक्यं वा तदङ्गबोधका त्ततीयेति सूत्रार्थः । एवं चात्र तृतीयाया वृत्तित्वमर्थः । तच्च व्युत्पत्तिवैचित्र्यात्काणादिपदार्थस्यैकदेशे विकारेऽन्वेति । काणत्वं बहिरवच्छेदेन चक्षुःशून्यगोलकवत्त्वम् । जातमात्रान्धस्याकाणत्वे तु चक्षुष्मद्गोलकवत्त्वे सतीति वाच्यम् । यदि च बहिरवच्छेदेन चक्षुःसत्त्वेऽपि उपघातादेव न चाक्षुषं तदोपहतगोलकवत्त्वं काणत्वमक्षिपदं चक्षुष्मद्गोलकपरम् । एवं च चक्षुष्मगोलकवृत्ति यच्चक्षुःशून्यत्वमुपघातो वा तद्विशिष्टगोलकवानिति अक्षणा काण इत्यस्यार्थः ।
एवं खञ्जत्वं संस्थानविशेषशून्यपदवत्त्वम् । तथाच पदवृत्ति यत्तथाविघसंस्थानशून्यत्वं तद्विशिष्टपदवानिति पादेन खञ्ज इत्यस्यार्थः । मुखेन त्रिलोचन इत्यत्र बहुव्रीहिः । तथाच मुखवृतिलोचनत्रयवानित्यर्थः ।।
१ न प्रयोगः । २ जातप्रसन्नान्धस्य; जातप्रसवान्धस्य ।
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७ ग्रन्धः ]
कारकवादार्थः ।
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परे तु अक्षणा काण इत्यादावभेद तृतीया । तथा च तादृशगोलका - भिन्नं यचक्षुः शुन्यमुपहतं वा तद्वानिति वाक्यार्थः । एवं मुखेन त्रिलोचन इत्यत्र त्रिलोचनपत्रं लोचनत्रयविशिष्टवत्परम् । तथा च मुखाभिन्नलोचनविशिष्टवानित्यर्थ इत्याहुः ।
नकुलमित्यादहेतुत्वे तृतीया । क्रियान्वयिनिरुक्तकरणत्वार्थिका तृतीया : कर्तृकरणयोस्तृतीया' इत्यनेन विहिता । ' हेतौ ' इति सूत्रेण तु नामार्थेऽप्यन्वितहेतुत्वार्थिकेति विशेषः ।
पुत्रेण सहागतः पितेत्यत्र तृतीयायाः कर्तृत्वमर्थः । सहशब्दसमभिव्याहृतक्रिया सहशब्दार्थः । एककालीनत्वसंबन्धेन तस्याः समभिव्याहृतक्रियायामन्वयः । तथा च पुत्रकर्तृकागमनसमानकालीनागमनकर्तेत्यर्थः । शिष्येण सह गुरुर्ब्रह्मणः पुत्रेण सह पिता सुन्दर, इत्यादौ सहार्थो ब्राह्मण्यादि समानकालीनत्वसंवन्धेन ब्राह्मणत्वादिपदार्थैकदेशेऽन्वेति । परे तु सहार्थः साहित्यमेकधर्ममात्रं, तृतीयार्थी वृत्तित्वं संख्यामात्रं वा, तथा च शिष्यवृत्तिसाहित्यवान्गुरुर्ब्राह्मण इत्यादिबध इत्याहुः । केनापि सुपुत्रेण सिंही स्वपिति निर्भयम् । सदैव दृशभिः पुत्रैर्भारं वहति गर्दभी ।
इत्यादौ पुत्रेषु भारवहनकर्तृत्वाभावेऽपि सहप्रयोगे विद्यमानेत्यस्याध्याहान् विद्यमानत्वं साहित्यं सहशब्दार्थः । तथाच समानकालीनत्वसंबन्धेन दशपुत्रवृत्तिविद्यमानत्वविशिष्टविद्यमानत्वाश्रयः इत्याकारकान्वयवोचः । ॐ एवं विधानसहायें तृतीयेति शाब्दिकाः ।
वाचनीयत्र गार्ग्यः प्रकृत्याभिरूप इत्यादौ तृतीयाया अमेदोऽर्थः । तथा च धान्याभिन्नधनवान्, गोत्राभिन्नगर्ग कुलोत्पन्नः, साहजिकाभिन्नरमणीयतावानित्यर्थः । प्रकृतिपदस्य साहजिकार्थत्वादभिरुपपदस्य रमणीयतावदर्थकत्वादिति दिक् ॥
संप्रदानत्ववादः ।
' कर्मणा यमभिप्रैति स संप्रदानम् ' इति पाणिनिसूत्रम् । तत्क्रियाकरणीभूतेन तत्क्रियाकर्मणा यमभिप्रैति [ तत्क्रियातत्क्रियाप्रयोजनकेच्छान्यतर ] फलभागित्वेनोद्देश्यीकरोति स संप्रदानमिति सूत्रवाक्यार्थः । करणीभूत कर्मजन्य फलभागित्वेनोद्देश्यत्वं संप्रदानत्वम् । इति फलितम् । ग्रामं गच्छतीत्यादौ गमनकर्मग्रामजन्यसुखभागित्वे
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३८
[ २ भाग:
नोद्देश्यस्य चैत्रादेस्तत्क्रियायां संप्रदानत्वाभावात्तद्वारणाय करणीभूतेति । गमनक्रियाया ग्रामस्याकरणत्वान्न दोषः । दानादौ देयादिकं करणमिति प्रकृतसंगतिः ।
वादार्थसंग्रहः
पितृस्वर्गोद्देशेन कृतगोदानस्थले दानजन्यफलभागित्वेनैव पितो - द्देश्यः, नतु गोजन्यफलभागित्वेनेति न पित्रादेः संप्रदानत्वम् । अत एव पित्रे गां ददातीति न प्रयोगः । यदि चादृष्टद्वारा गोजन्यत्वं फले दत्ता गौः पितुः स्वर्गमुत्पादयिष्यतीति चाभिसंधिस्तदा फले कर्मजन्यत्वमदृष्टाद्वारकं ग्राह्यम् । अत एव न स्वस्मिन्स्वकर्तृकदानसंप्रदानत्वापत्तिः, न वा चैत्रत्राय गां ददातीति प्रयोगप्रसङ्गः ।
वस्तुतो धात्वर्थतावच्छेदकत्वेन फलं विशेष्यम् । पितुः स्वर्गादिकं न तथेत्यदोषः । इत्थं च विप्राय गां ददातीत्यत्र संबन्धित्वेन परेच्छाविषयत्वं चतुर्थ्यर्थः । चैत्राय चैत्रो ग्रामं गच्छतीत्यादिवारणाय परेति । स च धात्वर्थतावच्छेदकफलेऽन्वेति । वृत्तित्वं द्वितीयार्थः । तथा च विप्रसंबन्धित्वेन परेच्छाविषयगोवृत्तिस्वस्वत्वध्वं सपूर्वकपरस्वत्वानुकूलत्यागानुकूलकृतिमानित्यन्वयधीः ।
यत्तु अत्र जन्यफलप्रकारकेच्छापूर्वकत्वं क्रियान्वयि चतुर्थ्यर्थः । व्युत्पत्तिवैचित्र्याच तदेकदेशे जन्यत्वे कर्मणो गवादेर्निरूपकत्वसंबन्धेनान्वयः । तथा च विप्रविषयको निरूपित] जन्यफलप्रकारकेच्छापूकगोवृत्ति स्वस्वत्वध्वंसपरस्वत्वानुकूलत्यागानुकूलकृतिमानित्यन्वयधीरिति नन्न, गोजन्यफलस्य प्रकृते स्वत्वरूपतया विप्रविषयिका या गोजन्यफलप्रकारकेच्छा तत्पूर्वकत्वस्य दानेऽसंभवात् तादृशेच्छाया एव दानत्वात्, गौरवाञ्चेति दिक् ।
एवं वृक्षायोदकमासिश्चतीत्यादौ संयोगावच्छिन्नद्रवद्रव्यक्रियावच्छिव्यापारो धात्वर्थः । वृत्तित्वेच्छाविषयत्वं चतुर्थ्यर्थः । स च धात्वर्थतावच्छेदकतावच्छेदके संयोगेऽन्वेति । वृत्तित्वरूपद्वितीयाथोंऽपि तादृशद्रवद्रव्यक्रियायाम् । एवं च वृक्षवृत्तित्वेनेच्छाविषयसंयोगानुकूलोदकवृत्तिद्रवद्रव्यक्रियानुकूलव्यापारानुकूलकृतिमानित्यन्वयधीरितिं । अत्र क्रियान्तस्य धात्वर्थत्वे वृक्षस्य कर्मत्वं स्यात् । न तु जलस्य । क्रियाया वृक्षापेक्षयैव परसमवेतत्वात् । न चैवं पयसा वृक्षमा
१ गोवृत्तिपरेति पाठः । २ निरूपितत्वेनेति पाठः ।
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७ ग्रन्थः ]
कारकवादार्थः ।
३९
सिञ्चतीति न स्यात् , धात्वर्थताऽवच्छेदकक्रियाया वृक्षावृत्तित्वादिति वाच्यम् । अत्र क्रियान्तस्य धात्वर्थतया धात्वर्थतावच्छेदकद्रवद्रव्यसंयोगस्य वृक्षवृत्तित्वात् । द्रवद्रव्यसंयोग एवात्र धात्वर्थ इति तु न युक्तम् । तर्हि फलावच्छिन्नव्यापाराबोधकत्वाद्धातोरकर्मकत्वं, धात्वर्थतावच्छेदकफलशालित्वाभावाद्वक्षादेरकर्मत्वं च स्यात् ।
अत्राजां ग्रामं नयतीतिवहिकर्मकत्वं स्यादिति नाशङ्कनीयम् । क्रि. यान्तार्थत्वे [धात्वर्थतावच्छेदक] फलद्वयाभावात् , तादृशक्रियानुकूलव्यापारार्थत्वे च क्रियाया मेव द्वितीयार्थवृत्तित्वान्वयात् । क्रियावच्छेदकसंयोगे तु वृक्षायेत्यादिचतुर्थ्यर्थस्योद्देश्यत्वस्यैवान्वयो न द्वितीयार्थस्य, व्युत्पत्तिवैचित्र्यात् । चतुर्थीसमभिव्याहतस्यैव सिचधातोस्तादृशव्यापारार्थत्वात् । अत एवाजां ग्रामं नयतीत्यत्र ग्रामस्य न संप्रदानत्वम् । अत्र हि संयोगावच्छिन्नक्रियानुकूलव्यापारः प्रेरणादिर्धात्वर्थः, द्वितीयार्थो वृत्तित्वम् । संयोगे तु ग्रामपदोत्तरद्वितीयार्थः क्रियायामजापदो. त्तरद्वितीयार्थोऽन्वेति । तथैव व्युत्पत्तेः । तादृशफलभागित्वेन ग्रामादेरनुदेश्यत्वान्न संप्रदानता । तथोद्देश्यत्वविवक्षायां प्रामायाजां नयतीति भवत्येवेति दिक् ।
परे तु *त्यज्यमानद्रव्यस्वत्वभागित्वेनोद्देश्यत्वं संप्रदानत्वम् * । त्यागोऽत्र विलक्षणो ग्राह्यः । तेन विक्रयादौ क्रेत्रादेर्न संप्रदानत्वम् । कर्मणा दानकर्मणा यमभिप्रेति स संप्रदानमिति 'कर्मणा ' इत्यादिसूत्रार्थः । अत एव संप्रदीयतेऽस्मै इति संप्रदानसंज्ञान्वथैव । श्राद्धादौ पित्रादेर्न स्वत्वभागित्वेनोद्देश्यत्वं किंतु प्रीतिभागितयेति संप्रदानत्वाभावेन संप्रदानचतुर्थ्यसंभवात् 'नमः स्वस्ति' इत्यादिना सूत्रान्तरेण तत्र चतुर्थी ।___ एवं वृक्षायोदकमासिञ्चतीत्यादौ वृक्षादौ संप्रदानप्रयोगो गौणः चतुर्थीप्राप्त्यर्थः । अत एव शत्रवेऽत्रं मुञ्चति, मित्राय दूतं प्रेषयतीत्यादौ धात्वर्थातवच्छेदकफलभागित्वेनोद्देश्यत्वाभावेऽपि चतुर्थी । विभागानुकूलक्रियानुकूलव्यापारो मोचनम् । संयोगानुकूलक्रियानुकूलव्यापारः प्रेषणमिति धात्वर्थतावच्छेदकक्रियावच्छेदकसंयोगविभागरूपफलशालित्वेन शत्रुमित्रयोरनुद्देश्यत्वम् । इत्थं चोदकादिजन्यफलपल्लवाद्यस्त्रा
१ क्रियारूपफलजन्यफलशा'; क्रियारूफलशा।
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४०
वादार्थसंग्रहः
[२ भागः दिजन्यदुःखादिदूतजन्यवार्ताज्ञानादि फलशालित्वेनोद्देश्यत्वमेव गौणं वृक्षायेत्यादिचतुर्थीत्रयार्थः ।
न च गुरुप्रीत्युद्देशेन गुरुपुत्राय दत्ते गुरवे ददातीति स्यात् , तथा विवक्षायामिष्टत्वात् । अत एव रजकसंबन्धित्वस्य तात्पर्यविषयत्वे रजकस्य वस्त्रं ददातीति प्रयोगः । वस्त्रजन्यफलभागित्वेनोद्देश्यत्वस्य तत्त्वे तु रजकाय वस्त्रं ददातीति भवितव्यम् ।
न चैवं श्राद्धादावपि पित्रादेः प्रीतिभागित्वेनोद्देश्यत्वात् संप्रदानचतुर्यैवोपपत्तेः 'नमः स्वस्ति ' इत्यादि सूत्रान्तरं व्यर्थम् । यत्किंचिनिया( कर्म )जन्यफलभागित्वेनोद्देश्यत्वस्यैव गौणसंप्रदानत्वरूपतया नमःपदार्थादेः क्रियात्वाभावेन पृथक्सूत्रप्रणयनात् ।
नारदाय रोचते कलहः, वैश्याय शतं धारयतीत्यादौ तु न नारदादेः संप्रदानता किंतु 'रुच्यर्थानां प्रीयमाणः', 'धारेरुत्तमर्णः ' इति सूत्राभ्यां संबन्धमात्रे चतुर्थी । तथा च चतुर्थ्या संबन्धो धातुना रुचिराख्यातेन विषयता बोध्यत इति नारदस्य रुचिविषयः कलह इत्याद्यस्य; पुनर्दानमङ्गीकृत्य द्रव्यग्रहणं धारणं, वैश्यस्य शतकर्मकतादृशग्रहणाश्रय इत्यन्त्यस्यार्थः ।
संप्रदानस्य कारकत्वं धात्वर्थतावच्छेदकफलनिष्पादकत्वेन ददस्वेत्यनुमतिप्रकाशनेन दातुरिच्छामुत्पाद्य दानसंपादनेन वेत्याहुः। ___ परे तु *त्यागजन्यस्वत्वजनकस्वीकारवत्त्वं संप्रदानत्वम् । श्राद्धादौ पित्रोदन स्वीकारः । रुद्राय गां ददातीत्यादावपि गौणसंप्रदानत्वमुद्देश्यत्वरूपमित्याहुः।
अपादानत्ववादः। परकीयक्रियाजन्यविभागाश्रयत्वमपादानत्वम् । वृक्षात्पर्ण पततीत्यादौ पर्णादेरपादानत्ववारणाय परकीयेति । अत्र पञ्चम्या विभागजनकत्वमन्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वं चार्थः । विभागेऽन्योन्याभावे चाधिकरणत्वेन वृक्षोऽन्वेति । तथा च वृक्षवृत्तिविभागजनकवृक्षवृत्त्यन्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकपतनाश्रयः पर्णमिति वाक्यार्थः। तथा च 'ध्रुवमपायेऽपादानम् ' इति पाणिनिसूत्रम् । अपाये विभागे ध्रुवं निश्चलं प्रकृतपञ्चम्यर्थविभागजनकत्वा
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७ ग्रन्थः ]
कारकवादार्थः । न्वयिक्रियाशून्यमिति नदर्थः । तेन धावतोऽश्वात्पततीत्यादावश्वादेः पुरुपनिष्ठविभागहेतुक्रियावत्वेऽपि प्रकृतपञ्चम्यर्थविभागजनकत्वान्वयिनी या पतनक्रिया तच्छ्रन्यत्वमव्याहतम् । स्पन्दजन्यविभागाश्रयत्वेन वृआदेरपादानत्वे वृक्षात्पर्ण स्पन्दत इत्यपि स्यादतः क्रियेति सकर्मकबात्वर्थपरम् । ___ व्याघ्राद्विभेतीत्यादौ पञ्चमी नापादानवे, किंतु हेतुत्व इत्यग्रे वक्यते । धात्वर्थतानवच्छेदकत्वेन विभागो विशेष्यः । तेन वृक्षं त्यजति ग्वग इत्यादौ वृक्षस्य नापादानत्वम् ।
यत्तु विभागावच्छिन्नक्रियायास्त्यजधात्वर्थतया विभागे विभागविशिप्रक्रियाजन्यत्वाभावात्र दोष इति तन्न । तर्हि अधःसंयोगावच्छिन्नक्रियाया एव पतत्यर्थतया वृक्षपर्णविभागेऽधःसंयोगविशिष्टक्रियाया अजनकत्वादसंभवापत्तेः । विभागे फलोपलक्षितव्यापारजन्यत्वमुभयत्र तुल्यमिति दिक् ।
वृक्षाद्विभजत इत्यादौ विभागावधित्वमपादानत्वम्, अवधित्वं स्वरूपसंवन्धरूपं पञ्चम्यर्थः । अपाये विभागे ध्रुवम् अवधिभूतमपादानमित्यपि पाणिनिसूत्रार्थः । तथा च वृक्षनिष्ठावधितानिरूपकविभागाश्रयः पर्णमित्युक्तवाक्यार्थः । न चैवं स्वस्माद्विभजत इत्यपि स्यात् । म्वप्रतियोगिकत्वविशिष्टसंयोगस्येव स्वावधिकत्वविशिष्टविभागस्यापि म्वस्मिन्नभावान् । इत्थं चापादानपदं पञ्चमी च नानार्थमेवेति बोध्यम् । धावतोऽश्वात्पततीत्यादावपि अवधित्वमेव पञ्चम्यर्थ इत्यपि कश्चित् ।
व्याघ्राद्विभेति, शत्रोः परित्रायत इत्यादौ पञ्चमी नापादाने किंतु 'भीत्रार्थानां भयहेतुः' इति सूत्रेणानुशिष्टा हेतुत्वार्थिका । धातोश्च यथायथं भयं भयाभावश्वार्थः । पश्चम्यर्थहेतुत्वं धात्वर्थे भये धात्वर्थतावच्छेदके च भयेऽन्वेति । आश्रयत्वं व्यापारश्च यथायथमाख्यातार्थः । तथा च व्यावहेतुकभयाश्रय इत्याद्यस्य शत्रुहेतुकभयाभावानुकूलव्यापाग्वानित्यन्त्यस्यार्थः । इत्थं च हेतुपञ्चम्यैवोपपत्तौ पृथक्सूत्रं प्रपञ्चार्थमिति बोध्यम् ।
एवं कूपादन्धं वारयात्यादौ पञ्चम्या अधःसंयोगानुकूलक्रियारूपं पतनं; द्वितीयाया थात्वर्थव्यापारान्वितं वृत्तित्वम्, धातो: विरोधिव्यापारोऽर्थः । तथा चान्धवृत्ति-कूपादिनिष्ठाधःसंयोगानुकूलक्रि
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४२
वादार्थसंग्रहः
[ २ भाग:
या
- विरोधिव्यापारविषयक कृतिमानिति वाक्यार्थः संपद्यते । स न युक्तः । यत्र हि क्षणावस्थायिनि खण्डकूपे परमाण्वादेरधः संयोगो मानाभावेनासिद्धः तत्रासंभवात् । अत एव द्वितीयायाः पतनं पञ्चम्या धात्वर्थतावच्छेदकाभावान्वयि वृत्तित्वं धातोरभावानुकूलव्यापारोऽर्थः । तथा च क्रूपवृत्त्यन्धपतनाभावानुकूलव्यापारविषयकयत्नवानित्यन्वयोऽप्यपास्त: । यदन्धस्य पतनमप्रसिद्धं तत्रासंभवात् । किंतु धातोरभावानुकूलव्यापारः पञ्चम्या वृत्तित्वं द्वितीयायाः प्रतियोगित्वमनुयोगित्वं वा धात्वर्थतावच्छेदकीभूताभावान्वितमर्थः । अभावश्च कूपादि समभिव्याहारात्पतनादिना तज्जन्याधः संयोगादिना वा संबन्धेन बोध्यः । तथाच पतनादिसंबन्धेन क्रूपवृत्त्यन्धप्रतियोगि काभावानुकूलव्यापारविषयक यत्नवानिति वाक्यार्थः । एवमेतस्मात्सविषादन्नादिदं मित्रं वारयतीत्यादौ यत्सविपान्नस्य यन्मित्रस्य च भोजनमप्रसिद्धं तत्रापि भोजनसंबन्धेन सविषान्नवृत्तिमित्रप्रतियोगका भावानुकूलव्यापार विषयक कृतिमानित्यन्वयधीः ।
परे तु कूपादन्धं वारयतीत्यत्र सविषादन्नादिदं मित्रमित्यत्र च धातोः पतनमाद्ये, द्वितीये भोजनम् ; अभावानुकूलव्यापारश्चोभयत्रार्थः । पञ्चम्या अवच्छिन्नत्वमाद्ये द्वितीये कर्मत्वमुभयत्र द्वित्वं चार्थः । द्वितीयायाश्च कर्तृत्वमर्थः । धात्वर्थतावच्छेदकीभूताभावे धात्वर्थपतनादेरधिकरणत्वेन, द्वित्वावच्छिन्नस्य पञ्चम्यर्थद्विर्तायार्थकर्तृत्वोभयस्य च प्रतियोगित्वेनान्वयो व्युत्पत्तिवैचित्र्यात् । तथाच पतनसामान्ये यः कूपावच्छिन्नत्वान्धकर्तृत्वोभयप्रतियोगिकाभावस्तदनुकूलव्यापारविषयकयत्नवानिति आद्यस्य, यः
भोजनसामान्ये सविषान्नकर्मत्वमित्रकर्तृत्वोभयप्रतियोगिकाभावस्तदनुकूलव्यापारविषयक यत्नवानिति द्वितीयस्यार्थः ।
आकाशं न पश्यति घटत्रो वेत्यादौ द्वितीयया विषयित्वं लक्षया घटादिवृत्तित्वं द्वित्वं च बोध्यते । धातुना लौकिकविषयित्वावच्छिन्नचाक्षुषप्रत्यक्षम् । तथा च लौकिकचाक्षुषप्रत्यक्षसामान्ये य आकाशविषयित्वघटादिवृत्तित्वोभयाभावः तत्प्रतियोगिनिरूपको घट इत्यर्थः । आकाशविषयकचाक्षुषोपनीतभानेऽपि लौकिकविषयित्वावच्छेदेनाकाशविषयित्वचैत्रवृत्तित्वाभयाभावसत्त्वान्न दोषः । एवमन्यत्राप्रसिद्धिस्थले बोध्यमित्याहुः ।
हिमवतो गङ्गा प्रभवतीत्यादौ पञ्चम्या हेतुत्वं धातोरुत्पत्तिरर्थं इति न
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७ ग्रन्थः ]
कारकबादार्थः ।
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युक्तम् । तर्हि — जनिकर्तुः-' इत्यत एवोपपत्तौ 'भुवः प्रभवः' इति सूत्रवैयर्थ्यप्रसङ्गात् । किंतु प्रकर्षेण भवनं प्रकाश: आद्यबहिःसंयोगरूपो चात्वर्थः । बहिःपदार्थः प्रकृते भूखण्डम् । पञ्चम्यर्थः संयोगध्वंसाव्यवहिनोत्तरक्षणवृत्तित्वम् । आख्यातार्थ आश्रयत्वम् । तथा च हिमालयसंयोगध्वंमाव्यवहितोत्तरक्षणवृत्त्याद्यपृथिवीसंयोगाश्रयत्ववती गनेत्यर्थः । वैकुण्ठाकाशीतो वा गङ्गा प्रभवतीत्यप्रयोगादव्यवहितेति, आद्येति च । वैकुण्ठसंयोगध्वंसाव्यवहितोत्तरक्षणे भूसंबन्धस्य काशीसंयोगध्वंसाव्यवहितोत्तरक्षणे आद्यस्य तस्याभावाददोषः । 'वल्मीकापात्प्रभवति धनुःखण्डमाखण्डलस्य ' इत्यादावप्येवमेव । तत्र बहिःपदार्थो वल्मीकाग्रोवदेश इति विशेषः ।
कृष्णात्पराजयते शिशुपाल: अध्ययनात्पराजयते बाल इत्यादौ धातोरसहिष्णुता, पञ्चम्याः कर्मत्वमाख्यातस्याश्रयत्वमर्थः । श्रीकृष्णं न सहते, अध्ययनं न सहते इतिविवरणात् । असहिष्णुता च द्वेषः, अभिभवाशक्यत्वज्ञानम, अशक्यत्वज्ञानं वा । तथा च श्रीकृष्णविषयकाभिभवाशक्यत्वज्ञानवान् शिशुपाल: कृष्णविषयकद्वेषवान् वेत्याद्यस्य, अध्ययनविषयकाशक्यत्वज्ञानवान् बाल इत्यन्त्यस्यार्थः ।
विप्राद्धनमादत्ते इत्यादौ पञ्चम्या यथेष्टविनियोगोऽर्थो नतु स्वत्वं चौराद्धनमादत्ते इत्यादौ चौरस्य म्वत्वाभावेन तदसंभवात् । धातोरपि यथेष्टविनियोगफलकस्वीकारोऽर्थो न तु म्वत्वजनकस्वीकारः । विप्राद्धनमादत्ते चौर इत्यादौ चौरम्य तदसंभवात् । पञ्चम्यर्थश्च विनियोगोऽव्यवहितोत्तरत्वसंबन्धेन धात्वर्थतावच्छेदके विनियोगेऽन्वेति । अव्यवहितोत्तरत्वं च म्वसमानविषयकपुरूषान्तरीयविनियोगव्यवहितभिन्नत्वम् । तेन शूद्रतः प्रतिग्रहीत्रा विप्रेण दत्तं धनमादातरि शूद्रादादत्त इति न प्रयोगः । इत्थं च विप्रीययथेष्टविनियोगाव्यवहितोत्तरधनवृत्तियथेष्टविनियोगफलकम्वीकारवानित्यर्थः । ___ अधर्माज्जुगुप्सत इत्यत्र पञ्चम्याः कर्मत्वं धातोनिन्दार्थः । तथाचाधर्म निन्दतीत्यर्थः । अधर्माद्विरमतीत्यत्र धातोः करणानन्तरमकरणं पञ्चम्याः कर्मत्वमर्थः । स च करणेऽकरणे चान्वेति । तथा चाधर्म कृत्वा पुनर्न करोतीत्यर्थः । धर्मात्प्रमाद्यतीत्यादौ पञ्चम्या विषयत्वं धातोरनवधानमाख्यातस्याश्रयत्वमर्थः । धर्मविषयकावधानाभावाश्रय इति वाक्यार्थः ।
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वादार्थसंग्रहः
[२ भागः
उपाध्यायादन्तर्धत्ते शिष्य इत्यादौ धातोः स्वविषयकप्रत्यक्षविरोधिव्यापारः पञ्चम्याः संबन्धित्वं धात्वर्थतावच्छेदकप्रत्यक्षान्वितमाख्यातस्य कृतिरर्थः । तथाचोपाध्यायसंबन्धिस्वविषयकप्रत्यक्षविरोधिव्यापारानुकूलकृतिमाञ्छिष्य इति वाक्यार्थः ।। ___ दण्डाद्धटः, धूमावह्निमानित्यादौ तु पञ्चमी नापादाने, क्रियायोगाभावात् । किंतु जनकत्वज्ञापकत्वरूपे हेतुत्वे जन्यत्वज्ञाप्यत्वरूपे हेतुमत्त्वे वा 'हेतौ ' इति सूत्रेणानुशिष्टा । नचैवं · जनिकर्तुः । इति सूत्रं व्यर्थम् , काष्ठात्पर्यतीत्यत्रेव दण्डाज्जायत इत्यादावप्युत्पत्तिनिरूपितहेतुत्वार्थकपञ्चम्याः ‘हेतौ ' इति सूत्रेणैव संभवादिति वाच्यम् । उत्पत्तेरहेतुकत्वेऽपि सावधिकत्वव्यवहारादुत्पत्तिरूपधात्वर्थनिरूपितस्वरूपसंबन्धस्य हेतुत्वानात्मकतया हेतौ ' इति सूत्रेण तदर्थकपञ्चम्या असंभवादिति ॥
अधिकरणत्ववादः। अधिकरणत्वं च न *धर्मसंबन्धः* संयोगादिरूपसंबन्धस्य द्विष्ठतया बदरादेरपि कुण्डाद्याधारतापत्तेः । न च स्वधर्मसंबन्धोऽधिकरणत्वं कुण्डादिकं च न बदरादिधर्म इति वाच्यम् । स्वधर्मत्वस्य स्वायत्वरूपतया स्वाधेयत्वस्य च स्वनिष्ठाधिकरणतानिरूपकत्वरूपत्वेनान्योन्याश्रयप्रसङ्गात् ।
नापि *उत्पत्तये स्थितये ज्ञप्तये चापेक्षणीयमधिकरणम्* उत्पत्तयेऽपेक्षणीयं कार्यस्य समवायिकारणं, स्थितये घटादर्भूतलादि, ज्ञप्तये जात्यादेः समवायि समवायादेः स्वरूपसबन्धीति वाच्यम् । अपेक्षणीयत्वस्य कारणत्वरूपत्वेऽसमवायिकारणादावतिव्याप्तेः । समवायिकारणत्वं तु घटत्वादिशंर्घटादौ न संभवति ।
नापि *तद्भिन्नत्वे सति तत्पतनप्रतिबन्धकसंयोगवन्मूर्तत्वं पतनवन्मूर्ताधिकरणत्वम्* ब्रह्माण्डादिधारकसंयोगाश्रयेश्वरवारणाय मूर्तत्वमुपात्तम् । मूर्तमात्रस्य विलक्षणतत्संयोगादिमत्त्वं वा । तेन कस्यचित्यतनाप्रसिद्धावपि नाव्याप्तिः । गुणादेस्तत्समवायित्वं समवायादेस्तत्स्वरूपसंबन्धित्वम् । एवं रक्तः पट इत्यादौ परम्परासंबन्धेनापि वक्तव्यम्-इति वाच्यम्। अननुगमात् । सप्तम्या नानार्थत्वे चान्याय्यत्वात् ।
१ ज्ञप्तये इति पाठः।
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७ ग्रन्थः ]
कारकवादार्थः ।
किंतु प्रतियोगित्वादिवत्
अधिकरणत्वमेधिकरणमितिप्रतीतिसाक्षिकं
स्वरूपसंबन्धरूपमतिरिक्तं वेत्यन्यदेतत् । एवमाधेयत्वमपि वात्र्यम् । इत्थं च गृहे स्थाल्यामोदनं पचतीत्यादौ पच्यर्थः अधःसंतापनमबोवह्निसंयोगानुकूलकाष्ठवह्नयादेर्व्यापार इत्येके । पच्यर्थो विक्तित्त्व - च्छिन्नाभितण्डुलादिसंयोग एव पाकजं रूपमित्यादिव्यवहारादित्यन्ये । उभयथापि गेहाद: साक्षात्तदधिकरणत्वाभावात् कर्तृकर्मान्यतरद्वारा क्रियाश्रयत्वरूपं क्रियाधिकरणत्वं सप्तम्यर्थः । तदाहु:
•
४५.
कर्तृकर्मव्यवहितमसाक्षाद्धारयत्क्रियाम् । उपकुर्वत्क्रियासिद्धौ शास्त्रेऽधिकरणं स्मृतम् ॥
वस्तुतः परं परया क्रियाश्रयत्वमात्रं सप्तम्यर्थः । अत एव प्राङ्गणस्थेन दीर्घदण्डादिना काष्ठादिचालनद्वारा गृहमध्ये पाककरणे गृहस्य कर्तृद्वारा क्रियानाश्रयत्वेऽपि गृहे पचतीति प्रयोगः । वह्निचैत्रादेः साक्षात्पाकगमनादिक्रियाश्रयत्वेऽपि वह्नौ पचति चैत्रे गच्छतीत्याद्यप्रयोगात्परंपरयेत्युक्तम् । न चैवं कियाश्रयत्वस्यैव सप्तम्यर्थत्वे क्रियायोगेन विना भूतले वट इत्यादिप्रयोगो न स्यादिति वाच्यम् । इष्टत्वात् । नहि क्रियारहितं वाक्यमस्तीति शाब्दिकाः ।
वस्तुतोऽधिकरणत्वमात्रमाधेयत्वमात्रं वा सप्तम्यर्थः । क्रियांशस्य व्यर्थ - वात् । स च यत्र क्रियायामन्वेति तत्र कारकत्वव्यवहारः । अत एव भूतले घट इति ( क्रियाशून्य ) वाक्याच्छाब्दबोध इति नैयायिकाः । अत्र भूतलनिष्ठाधिकरणतानिरूपको घट इत्यन्वयबोधः । निष्ठत्वं निरूपकत्वं च संसर्ग इति प्राञ्चः । एवं सति निरूपकत्वसंबन्धस्य प्रतियोगितानवच्छेदकत्वात् भूतले न घट इत्यादौ नञर्थान्वयासंभवाद् [ आधेयत्वं सप्तम्यर्थः । तत्र च प्रकृत्यर्थस्य निरूपकतया प्रथमान्तार्थस्याधिकरणतया चान्वये ] भूतलनिरूपिताधेयत्वाश्रयो घट इत्यन्वयवोधः । निरूपितत्वमाश्रयत्वं च संसर्ग इति नव्या: ।
निमित्तसप्तम्यर्थो निमित्तत्वम् । तच्चोद्देश्यत्वं फलत्वेन फलवत्त्वेन चेच्छाविषयत्वरूपम् । तत्राद्यं मशकनिवृत्तौ धूमं करोतीत्यादौ मश१ मनुगताकार ; अधिकरणाकार । २ त्रापिती पाठ: । ३ अन्यलभ्यत्वात् ।
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वादार्थसंग्रहः
[२ भागः कनिवृत्त्यादेः फलत्वात् । 'चर्मणि द्वीपिनं हन्ति' इत्यादौ चर्मादेः सिद्धतया स्वत्वरूपफलवत्त्वेनैवेच्छाविषयत्वात् । तच प्रयोज्यत्वेन धात्वर्थेऽन्वेति । तथाच मशकनिवृत्तिविषयकेच्छाप्रयोज्यधूमकरणाश्रयः, चर्मविषयकस्वत्वप्रकारेच्छाप्रयोज्यद्वीपिकर्मकहननानुकूलकृतिमानिति च क्रमेण वाक्यार्थः । एवं 'सीम्नि पुष्कलको हतः' इत्यादावपि 'पुष्कलको गन्धमृगः सीमा तस्याण्डकोशकः' इति कोशात् । सा च 'निमित्तात्कर्मयोगे' इत्यनुशासनाद्यत्किंचित्कर्मप्रकारकबोधजनकधातुयोगे प्रयुज्यते । तादृशबोधजनकता च सकर्मकस्य धातोः कर्मबोधकपदयोगेन । यथा द्वीपिनं हन्तीत्यादौ । अकर्मकस्य तु कर्मविशिष्टस्वार्थशत्तया । यथाऽविद्यारजनीक्षये यदुदेतीत्यादौ उदेतीत्यस्योदयगिरिशिखरमारोहतीत्यर्थात् । अत्र रजनीक्षयस्य सूर्योदयाजन्यत्वेऽपि निमित्तत्वं ज्ञानविषयत्वेनोद्देश्यतया। तेन लोकानां रजनीक्षयज्ञानार्थमुदेतीत्यर्थ इत्येके । एतहीपवृत्तियावद्रविरश्मिसंसर्गाभावविशिष्टस्य कालस्य रजनीत्वात् , सूर्योदये तद्रश्म्युत्पादेन तत्प्रागभावनाशे विशिष्टकालनाशाद्रजनीक्षयेच्छाप्रयोज्यत्वं सूर्योदयेऽक्षतमित्यन्ये ।
शरदि पुष्प्यन्ति सप्तच्छदा इत्यत्रोत्पत्तिरपि सप्तम्यर्थः । शरदुत्पत्तिकपुष्पाश्रयाः सप्तच्छदा इति वाक्यार्थः । न च शरदुत्पत्तिकपुष्पाश्रये चम्पकादावपि तथा प्रयोगः स्यादिति वाच्यम् । सप्तच्छदस्य पुष्पाश्रयत्वे लब्धे तुल्यवित्तिवेद्यतया पुष्पेष्वपि सप्तच्छदवृत्तित्वलाभात्तदवच्छेदेन शरदुत्पत्तिकत्वस्य व्युत्पत्तिसिद्धत्वात् , चम्पकादिपुष्पत्वावच्छेदेन शरदुत्पत्तिकत्वाभावेन तथाप्रयोगाभावात् । धातोरेव वा सप्तच्छदीयपुष्पत्वेन लक्षणेति केचिदिति दिक् । । __ सतिसप्तम्याः सामानाधिकरण्यमर्थः । गुणकर्मान्यत्वे सति सत्त्वादित्यतो गुणकर्मान्यत्वसमानाधिकरणसत्त्वबोधात् । तच कचित्कालिकं, कचिद्देशिकम् । तत्राद्यं समानकालीनत्वपर्यवसन्नम् । यथा गोषु दुह्यमानास्वागतो दुग्धास्वागत इत्यादौ । अत्र सप्तम्यर्थे समानकालीनत्वे न दोहनमात्रस्य निरूपकत्वेनान्वयः, महिष्यादिदोहनसमानकालीने तथाप्रयोगाभावात् । नापि गोदोहनस्य गोदोहनत्वेन धातोरनुपस्थितेः । किंतु दण्डी पुरुषो गच्छतीत्यत्र यथा परंपरया पुरुषविशेषणतापनदण्डसमानकालीनत्वं गमने भासते, तथा गोविशेषणकर्मताविशेषण
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७ ग्रन्थः ]
कारकवादार्थः। तापन्नस्य दोहनस्य। इत्थं च तादृशगोदोहनसमानकालीनाततिागमनानुकूलकृतिमानिति धीः ।
दुग्धास्वागत इत्यादौ तु न तथान्वयः । आगमनकाले दोहनस्यातीततया दोहनकालीनत्वस्यागमने बाधात् । किंतु वर्तमानध्वंसप्रतियोगिदोहनकर्मतापन्नासु गोष्विति दुग्धासु गोष्वित्यन्तार्थः । तादृशगोदोहनविशेषणप्रतियोगित्वविशेषणध्वंसस्य समानकालीनत्वमागमने भासते । तथाच तादृशक्तेमानध्वंसकालीनागमनानुकूलकृतिमानिति द्वितीयवाक्यार्थः । एवं गोषु धोक्ष्यमाणास्वागत इत्यादावपि तादृशप्रतियोगित्वविशेषणप्रागभावस्य समानकालीनत्वं भासते । न च सप्तम्यर्थे समानकालीनत्वे प्रकृत्यर्थस्य गोरनन्वयापत्तिः । तादृशगोदोहनकर्मत्वविशिष्टाया गोः स्वविशेषणकर्मत्वविशेषणदोहनाद्याश्रयत्वसंबन्धेन कालेऽन्वयात् । __ इदं तु बोध्यम्। 'यस्य च भावेन भावलक्षणम्' इति सूत्रस्य यस्य क्रियया क्रियान्तरं लक्ष्यते इति व्याख्यानात क्रिययोः सामानाधिकरण्ये सप्तमी तत्सूत्रेणानुशिष्टेति गुणकर्माऽन्यत्वे सति सत्त्वादित्यादौ यद्यपि सप्तमी न युक्ता तथापि गुणकर्मान्यत्वे सति सत्त्वादित्याभियुक्तप्रयोगदर्शनात सूत्रतद्वयाख्यानयोर्भावक्रियापदे धर्मपरे । तथा च यस्य धर्मेण धर्मान्तरं निरुक्तस्वसामानाधिकरण्येन प्रतिपाद्यते तत्र सप्तमीति सूत्रार्थ इत्यदोषः ।। इति श्रीमहामहोपाध्यायजयरामन्यायपञ्चाननभट्टाचार्यविरचितः
कारकवादार्थः समाप्तः।
१ गोदोहनध्वंसेति पाठः । २ दोहनीयास्वेति पाठः ।
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श्रीजयरामभट्टाचार्यप्रणीतः
समासवादः ८
न्यायपञ्चाननः श्रीमाञ्जयरामः सतां मुदे । समासतत्त्वमाचष्टे विवुधानां सुधोपमम् ॥ १॥
समासत्ववादः। तत्र समासत्वं
विभक्तिशून्यपूर्वपदकनामसमुदायत्वम् । अत्र विभक्तिशून्यपूर्वपदकत्वं विभक्तिशून्यपूर्वपदयटितशाब्दबोधप्रयोजकानुपूर्वीमत्त्वम् । तेन न घट इत्यादौ नातिव्याप्तिः । घटो नेत्याद्यानुपूर्वीज्ञानत्वेनैव शाब्दबोधहेतुत्वात् । अघट इत्यादौ समासतापन्नस्य नञस्तु पूर्ववर्तित्वेनैव शाब्दबोधप्रयोजकत्वं समासानुशासनबलाढुटः अ इत्यादेरबोधकत्वाञ्च । 'श्रुतेरिवार्थ स्मृतिरन्वगच्छन् , इत्यादी श्रतेरथ स्मृतिरिवेति योजनयैव बोधः । तेन 'इवार्थम् ' इत्यादौ नातिव्याप्तिः । 'आराद्ब्रह्मविदामशेषविषयब्रह्मैक्यमुद्दीपयन्' इत्यादौ ब्रह्मैक्यमुद्दीपयन्नारादुज्जम्भते इति योजनयैव बोधस्तेन 'आराद्ब्रह्म' इत्यत्र नातिव्याप्तिः। _ 'दधि मधुरमस्ति' इत्यादौ भावनाद्यन्वये प्रथमाद्यन्तपदज्ञानजन्योपस्थितेः प्रयोजकत्वेन लुप्तविभक्तेः सत्त्वाददोषः । नीलोत्पलंमित्यादिसमासे तु विभक्तिर्व्यर्था । नहि राजपुरुष इत्यादौ लुप्तषष्ठयादिस्मृत्या शाब्दबोधः । षष्ठीलोपमजानतोऽपि बोधात् । न वा बहुव्रीहौ यत्पदगर्भविग्रहवाक्यस्मृत्या शाब्दबोधः, तत्पदाभावात् । किंचैवं तत्पुरुषादित: कर्मधारयस्य ज्यायस्त्वं न स्यात् । लुप्तषष्ठयादिस्मत्या स्मरणाङ्गीकारे लक्षणाविरहात् । समासादौ विभक्तिलोपाभिधानं तु विभक्तिं विनापि तत्र प्रातिपदिकस्य साधुत्वाय । नीलोत्पलधवखदिरादिसमुदायोत्तरं विभक्तिस्त्वर्थवदादिसूत्रेऽर्थवत्त्वस्य स्वघटकपदवृत्त्यार्थबोधकत्वरूपत्वात् ।
१ समासतः । २ नीलोत्पलेत्यादि ।
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८ ग्रन्थः ]
समासवादः।
४९
अत एव वाक्यं न समासता प्राप्नोति । नित्य एव समासः । कण्ठेकाल, उरसिलोमेत्यादिकमपि समासप्रकृत्यन्तरमेवेत्येके । तन्न । कण्ठेकाल उरसिलोमेत्यादेः प्रकृत्यन्तरत्वं समुदाये शक्तिमङ्गीकृत्य न वा । आये गौरवम् । नामसमुदायत्वं च व्याहन्येत । अत एव नान्त्यः प्रातिपदिकत्वस्यार्थबोचकत्वस्य चानुपपत्तेः । एकारान्तकण्ठेइतिशब्दस्य काप्यनुपपत्तेः । तस्माद्वाक्यमेव कचिद्विकल्पेन कचिन्नित्यमेव समासतां प्राप्नोतीति सविभक्तिकनामसमुदायस्यैव समासत्वम् । नचैवं देवानित्यादिसमुदायस्यापि वारणायार्थवदादिसूत्रेऽप्रत्यय इत्यस्य प्रत्ययतदन्तान्यपरत्वेऽपि प्रत्ययपदस्य विभक्तिपरतया कृत्तद्धितप्रत्ययान्तयोरस्तु संग्रहः । नीलोत्पलादिसमासस्य लुप्रविभक्त्यन्तस्य प्रातिपदिकत्वं कृदादिसूत्रेणैव विधेयमिति तत्सूत्रम्वार्थवदादिमूत्रप्रपञ्चत्वं मिश्रायुक्तं विरुध्येत । अप्रत्यय इत्यस्य कृत्तद्धितसमासेतरप्रत्ययान्तभिन्नपरत्वज्ञापकतया कृदादिसूत्रप्रपञ्चत्वसंभवादित्यन्ये । एतन्मते च प्रागुक्तलक्षणमसंभवाति चेन्न । आनुशामनिकलोपाभावविशिष्टान्यत्वम्य नियतानुसंधानविषयत्वस्य च विभक्तिविशेषणत्वात् । कण्ठेकाल इत्यादी विभक्तिर्नानुशासनिकलोपाभावविशिष्टान्या, नीलोत्पलमित्यादौ च विभक्तिर्न नियतानुसंधानविषयः साधुत्वमात्रार्थत्वात् , इत्यदोपः । परेतु अलुक्समासातिरिक्तसमासे विभक्तेरसत्त्वादन्त्यविशेषणं न देयमित्याहुः ।
*संकेतविशेषसंवन्धन समासपदवत्वमेव समासत्वम् इत्यपरे ।
*विभत्तयन्तविभक्तिमन्नामसमुदायत्वम्* इति तु यथानीलदण्डादित्याद्यनुकरणसाधारणम् । नच नीलदण्डादित्यत्र नीलदण्डादिपदे तत्पदसमभिव्याहृते लक्षणा । एकदेशे दण्डादित्यादिपदेऽभेदान्वयात्कर्मधारयत्वमिष्टं विभक्तेरप्यनुकरणे नामत्वादिति वाच्यम् । प्रकृतिवदनुकरणमित्यनुशासनेन निरर्थकसमुदायोत्तरमपि विभक्तिसंभवे नीलदण्डादितिपदे तुल्याधिकरणत्वाभावेन कर्मधारयत्वाभावाल्लक्षणयैकदेशेऽभेदान्वयानौचित्यात् । चरमपदे तत्तदानुपूर्वीविशिष्टे लक्षणाया (अ)युक्तत्वात् । विवरणऽप्येवम् । तस्याप्यनुकरणविशेषत्वादित्यास्ता विस्तरः ।
अत्रेदं तत्त्वम् । यथा नीलदण्डादित्याद्यनुकरणे विशेषलक्षणायोगात् १ नुपलब्धेरिति पाठः । २ व्यस्तवाक्यवारणाय विभक्त्यन्त मिति । सरूपैकशेषवारणाय विभक्तिमदिति। ३ तत्तत्सम । ४ णेनाभिन्नत्वादिति ।
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वादार्थसंग्रहः
५०
[ २ भाग:
समासत्वानङ्गीकारः । परंतु तादृशसमुदायेऽतिप्रसङ्गदानं पूर्वलक्षणेऽपि समानम् । विभक्तिशून्यपूर्वपदकेत्यत्र पदे स्वार्थतात्पर्यकत्वनिवेशेन तद्वारणं चात्रापि विभक्तिमन्नामसमुदायेत्यत्र विभक्तिमन्नाग्निस्वार्थबोधतात्पर्यकत्वनिवेशेन तुल्यम् । तस्माल्लघुत्वात्स्वार्थबोधतात्पर्यकत्वघटितं द्वितीयमेव लक्षणमुपादेयमिति ।
यत्तु विभत्तयन्तत्वज्ञाने समासत्वज्ञानं समासत्वज्ञाने च विभक्त्यन्तत्वज्ञानमित्यन्योन्याश्रयाद्विभक्त्यन्तत्वघटित समासलक्षणं न. साध्विति तन्न । विभक्त्यन्तत्वघटितसमासत्वज्ञाने विभक्त्यन्तज्ञानापेक्षायामपि विभक्त्यन्तत्वज्ञाने तद्घटितसमासत्वज्ञानानपेक्षणात् । तत्र संकेतविशेषसंबन्धेन समासेतिसंज्ञावत्त्वरूपसमासत्वज्ञानस्यैवापेक्षितत्वात् ।
तत्र समासाः षट् । कर्मधारयद्विगुतत्पुरुपबहुव्रीहिद्वन्द्वाव्ययीभावभेदात् ।
कर्मधारयः ।
कर्मधारयत्वं च
समास प्रयुक्तलक्षणाशून्यतुल्याधिकरणनामद्वयघटितसामसत्वम् ।
नीलोत्पलमित्यादौ नीलपदे निरूढलक्षणायाः समासाप्रयुक्ततया नीलोत्पलपदयोस्तुल्याधिकरणत्वाच लक्षणसंगतिः । चित्रगू राजपुरुष इत्यादौ समासप्रयुक्तलक्षणासत्त्वात्, नीलघटयोरभेदः कण्ठेकाल इत्यादौ तुल्याधिकरणपद्द्द्वयाभावान्नातिव्याप्तिः । तुल्याधिकरणत्वस्याभेदसंसर्गकबोधतात्पर्यकत्वस्य नीलघटयोरभेद इत्यादावभावान्नीलस्याभेदेन घेटान्वितत्वे षष्ठ्यर्थेऽन्वयासंभवाद्भेद् इत्यस्य निराकाङ्क्षत्त्वापाताश्च । मस्ति चेदं नीलोत्पलं कृष्णसर्प इत्यादौ नीलादिपदस्य नीलवदादिलाक्षणिकतयाऽभेदान्वयबोधात् ।
अत्र वाक्यमेव समासतां प्राप्नोतीति मते नीलोत्पलमित्यादयो विकल्पसमासा: नीलमुत्पलमित्यादिविग्रहसत्त्वात् । उपकुम्भं कुम्भकार: कृष्णसर्पः इत्यादयो नित्यसमासाः । अविग्रहोऽस्वपदविग्रहो वा नित्यसमास इत्यभियुक्तस्मरणात् ।
अस्पदविग्रह इत्यस्य स्वघटकयावत्पदघटितविग्रहकान्य इत्यर्थः ।
१ घटान्वितस्येति पाठः । २ अभेदबोधादिति पाठः ।
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८ ग्रन्थः ]
समासवादः। चित्रागौर्यस्येति विग्रहेऽधिकस्य यस्येतिभागस्य निवेशेऽपि स्वघटकयावत्पदघटितत्वस्य सत्त्वाद्वहुव्रीहर्नित्यसमासत्वव्युदासः ।
कचिदसमासो यथा रामो जामदग्न्यः, अर्जुनः कार्तवीर्यः, उत्पलं नीलमित्यादाविति बोध्यम् ।।
छिन्नप्ररूढो वृक्ष इत्यत्र छिदेगरम्भकसंयोगविरोधिविभागजनकक्रिया, क्तप्रत्ययस्य फलाश्रयो, वृक्षपदम्य तदवयवोऽर्थः । विभागस्योभयकर्मजत्वेऽवयवद्वयस्यैव परसमवेतक्रियाजन्यफलशालित्वात्कर्मत्वम् । अन्यतरकर्मजत्वे निश्चलावयवस्यैकस्यैवेति बोध्यम् । तादृशक्रियानुकूलदानादिव्यापारश्छिदेरर्थः । धात्वर्थतावच्छेदकक्रियाशालितया च सक्रियावयवस्यैव कर्मत्वमित्यन्ये । प्रोपहितरुहेवृक्षाद्युत्पत्तिः । तस्याश्रयोऽर्थः । तथाच तादृशक्रियाजन्यफलाश्रयाभिन्नो वृक्षाात्पत्तिमान वृक्षाद्यवयव इति वाक्यार्थः । कृष्टमदीकृत इत्यत्र कृपविलेखनं मृदवयवविभागहेतुक्रियाजनकलाङ्गलादिव्यापारोऽर्थः । 'कृष विलेखने' इत्यनुशासनात् । क्तप्रत्ययस्य फलाश्रयः। मदी काष्ठविशेषनिर्मिता मदितिख्याता । तया कृतस्तद्व्यापाराधीनसंयोगाश्रयः । कृञो व्यापारार्थत्वात् । तथाच तादृशलालादिव्यापारजन्यफलाश्रयाभिन्नो मदीव्यापाराधीनसंयोगाश्रयः इति वाक्यार्थः । अत्र आदौ छिन्नः पश्चात्प्ररूढ इत्यादिपाठक्रमो विवक्षितः । 'आदिकर्मणि क्तः, इत्यनुशासनात् । तेन प्ररोहोत्तरं छेदनमात्रे न तथा प्रयोग इति बोध्यम् ।
मुखचन्द्र इत्यत्र चन्द्रपदस्यालादकत्वादिधर्मवति सारोपलक्षणया तुल्याधिकरणत्वात्कर्मधारयः । नन्विदमयुक्तम् । 'आह्लादयति मुखेन्दुर्जगदिदमम(तु)लद्युतिः सुतनोः' इत्यादाविन्दुपदेनाह्लादकत्वाद्युक्तौ पौनरुक्त्यापत्तेः । नच नात्र सारोपलक्षणया रूपकं, मयूरव्यंसकादिसमासोपगमे हि तथा, प्रकृते तु इन्दुरिव मुखमित्युपमितसमासोऽस्त्विति वाच्यम् । ' उपमितं व्याघ्रादिभिः सामान्याप्रयोगे' इत्यनुशासनात्सामान्यधर्माप्रयोग एव तत्समासात् ।।
आलंकारिकैरपि सामान्यधर्मप्रयोगे सत्युपमाबाधकसत्त्वात्सारोपलक्षणाप्रयुक्तो रूपकालंकार इष्यते । यतः उपमितसमासे धर्मवाचकोभयलुप्रोपमैव हि तैरुदाहृता न तु वाचकमात्रलुप्तोपमा। किंचैवम् 'पादा
१ अत्र क्तस्येति पाठः। २ विलक्षणमृदवयवति पाठः ।
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५२
वादार्थसंग्रहः
[ २ भाग:
म्बुजं भवतु वो विजयाय मञ्जुमञ्जीरशिञ्जितमनोहरमम्बिकायाः' इत्यादौ पूर्वपदार्थप्रधानव्यान्नादिसमासेनोपमा, मञ्जीरशिञ्जितस्य पाद एवं संभवात् 'यस्यानिशं दिविषदश्चरणारविन्दमुत्तंसयन्त्यमितभक्तिभरावनम्राः’ इत्यादावुत्तरपदार्थप्रधानमयूरव्यंसकादिसमासेन रूपकमेव, उत्तंसनस्यारविन्द एव संभवादिति व्यवस्था सर्वैरङ्गीकृता नसंभवति, तथासत्यरविन्दादिपदार्थस्यारुण्यादिगुणविशिष्टस्य प्राधान्यायोगेन मयूरव्यंसकादिसमासेऽपि व्याघ्रादिसमास इव पूर्वपदार्थचरणस्यैव प्राधान्यापत्त्योत्तंसनानुगुण्यविरह तौल्यापत्तेः । गुणजातिविशिष्टयोर्जातिविशिष्टप्राधान्यस्य नीलोत्पलादौ व्यवस्थितेः । उत्तरपदार्थप्राधान्येऽपि चरणवृत्त्यारुव्यादिगुणस्योत्तंसनानुगुणत्वाभावाच्चोत्तंसनपदस्यापि सोत्कण्ठश्रवणे साध्यवसानलक्षणास्वीकारात्सुतरां तथेति चेत् । भैवम् । इन्द्रादिपदस्येन्द्वादिवृत्तिधर्मवत्त्वेन तत्तद्धर्भवति लक्षणया पौनरुक्त्यायोगात् । धर्मत्वेनोक्तधर्मस्यैव लाभः । अन्यथा चन्द्रवन्मुखमाह्लादकमित्यादावपि पौनरुक्त्यापत्तेः ।
किंचेत्यादिकमपि मन्दम् | योगरूढिभ्यामिव लक्षणाव्यञ्जनाभ्यां चरणारविन्दमित्यादितश्चरणाभिन्नारविन्दवृत्तिधर्मवद्रविन्दमित्याकारकबोध एव वाक्यपर्यवसानात् । [' कस्त्वं भोः कथयामि ' इत्यादौ ' मध्नामि कौरवशतम् ' इत्यादौ च व्यङ्गचार्थमादायैव शाब्दबोधविश्रामात् । ]
व्यञ्जनानङ्गीकर्तृन्यायादिमते तु जातिविशिष्टप्राधान्यानियमात्पादाभिन्नमम्बुजसदृशं चरणाभिन्नमरविन्दवृत्तिधर्मव[त्पादाभिन्नमम्बुजवृत्तिधव]दित्युभयत्र बोधः । उत्तंसनपद्स्य सोत्कण्ठश्रवणे लक्षणया लक्ष्यार्थस्य शाब्दमुख्यार्थाभेदाध्यवसायविरहस्य च स्वीकारान्न दोषः । अभेदाध्यवसायस्तु मानस एवेति तत्तदलंकारव्यपदेशः ।
उच्छृङ्खलास्तु मुखचन्द्र इत्यादौ चन्द्रादिपदे न लक्षणा । रसविशेषवासनाजन्यबोधे बाधधियो विरोधित्वाभावात् शाब्दधीस्तुल्याधिकरणत्वं चाभेदबोधकत्वाद्वाक्याप्रामाण्यं चेष्टमित्याहुः ।
अत्राह्मणोऽसुरोऽघट इत्यत्र नञः क्रमेण सदृशो विरोधी भिन्नश्च सर्वत्र ब्राह्मणादिपदस्य ब्राह्मणादिप्रतियोगिकोऽर्थः । ब्राह्मणादिप्रतियोगिकाभिन्नसादृश्यादेराश्रयो वाक्यार्थः । ब्राह्मणसदृशः, सुरविरोधी,
१ अरविन्दत्वादिजातेरिवारुण्यादीति पाठः । २ लक्ष्यार्थे इति पाठः ।
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८ अन्यः ]
समासवादः।
घटान्य इत्यादौ पदार्थैकदेशेऽप्यभेदान्वयस्य व्युत्पन्नत्वात् । अस्तु वा ब्राह्मणपदस्य सादृश्यादिसंबन्धेन ब्राह्मणसंबन्ध्यर्थः । ब्राह्मणसंबन्ध्यभिन्नसदशादिर्वाक्यार्थः । एतेनैकदेशेऽभेदबोधकत्वेन तुल्याधिकग्णत्वे चित्रगुरित्यादी गोपदलक्ष्यगोस्वामिनः एकदेशे गवि चित्राभेदान्वय इति मते तत्रापि तुल्याधिकग्णत्वं स्यादित्यपास्तम् । __ शाब्दिकान्तु अब्राह्मण इत्यादेरारोपितो ब्राह्मण इत्यादिग्थों ब्राह्मणभिन्नादिस्तु फलितार्थः । सर्वनामकार्यायोत्तरपदार्थप्राधान्यादन्यथातिसर्व इत्यादाविवातस्मिन्नित्यादौ सर्वनामकार्य न स्यादित्याहुः । [ब्राह्मणभिन्नादे: शाब्दबोधविषयत्वे पूर्वपदार्थप्राधान्यवदतस्मिन्नस इत्यादावपि पूर्वपदार्थस्यैव प्राधान्यापत्त्या सर्वनामकार्य न स्यादित्यर्थः । नचैवमतिसर्व इत्यादावपि उत्तरपदार्थप्राधान्ये सर्वनामकार्य स्यादितिवाच्यम् । तत्रानन्यगत्या पूर्वपदार्थप्राधान्यादिति ।]
एतन्मते ब्राह्मणपदस्य ब्राह्मणारोपविषये लक्षणा । नञ्पदं तात्पर्यग्राहकमिति तु युक्तम् । न च व्याघ्रादिसमासे पुरुषव्याघ्र इत्यादौ, अब्राह्मण इत्यादौ शस्त्रीव श्यामा शस्त्रीश्यामा, घनश्याम इत्यादौ च समासप्रयुक्तलक्षणासत्त्वात्कर्मधाग्यलक्षणाव्याप्रिः । समासप्रयुक्तलअणाव्याप्यसमासविभाजकोपाधिशून्यत्वस्य वाच्यत्वात् । कण्ठेकाल इत्यादौ निर्मक्षिकमित्यादौ च लक्षणाविरहेऽपि न क्षतिः । बहुत्रीह्यव्ययीभावयोस्तुल्याधिकरणत्वाभावादेवानतिप्रसङ्गात् । यदि चातिसर्व इत्यादी तत्पुरुषेऽपि न लक्षणा तदा *कर्मधारयव्यवहारविषयत्वमेव* लक्षणं बोध्यम् ।
परे तु*विग्रहे समासे च ययोः पदयोस्तुल्याधिकरणत्वंतदुभयपदघटितसमासत्वं कर्मधारयत्वम्* । राज्ञः पुरुष इत्यादिविग्रहे तुल्याधिकरणपदद्वयविरहानातिव्याप्तिः। *विग्रहसमासयोरन्यतरत्र ययोरतुल्याधिकरणत्वं तदुभयभिन्नपदद्वयघटितसमासत्वं वा तत्त्वम् । एतेन कृष्णसर्प इत्यादौ विग्रहासत्त्वेऽपि न क्षतिः । नच शस्त्रीश्यामेत्यादावव्याप्तिः । स्वपदविग्रहस्यैवात्र विग्रहत्वेन निवेशादिति । शस्त्री चासौ श्यामा चेत्येवात्र विग्रहवाक्यमित्यन्य इत्याहुः ॥ १ ॥
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५४
वादार्थसंग्रहः
द्विगुः । संज्ञाविषयान्यत्वे सति संख्यावाचकपूर्वपदकतुत्याधिकरणसमासो द्विगुः । .
[ - २ भागः
सत्यन्तोपादानात्पञ्चाम्राः, पञ्चकन्या इत्यादिकर्मधारयन्युदासः । पञ्चानामाम्राणां समाहार इत्यर्थे तु पञ्चान्रीति द्विगुरेव । तथाच पञ्चकन्यमित्यपि । नीलोत्पलमित्यादेश्व व्युदासाय सङ्घयेत्यादि । पञ्चभर्तेत्यादिव्युदासाय तुल्याधिकरणेति । विग्रहे तुल्याधिकरणत्वाभावातद्व्युदासः ।
अयं च कर्मधारयबाधकोऽपत्येऽणादिभिन्नस्वरादितद्धितार्थेऽभिधेये, तद्धितसामान्यस्यैव चार्थे विषये, परत उत्तरपदे, समाहारे चाभिधेये विधीयते ।
तद्धितार्थेऽभिधेये यथा - पञ्चसु कपालेषु संस्कृत: पञ्चकपाल इति, अत्र समासस्य संस्कृतोऽर्थः । कपालपदस्यैव वा कपालसंस्कृतोऽर्थः । तत्र व्युत्पत्तिवैचित्र्यादभेदेनैकदेशे कपाले पञ्चाभेदान्वयात्पञ्चाभिन्नकपालसंस्कृत इति शाब्दधीः । तद्धितार्थस्य समासादिनाऽभिधानादुक्तार्थत्वान्न तद्धितप्रत्ययः ।
6
तद्धितार्थे विषये यथा - पञ्चसु ब्राह्मणेषु साधुः पञ्चब्राह्मण्यः, पञ्चानां गर्गाणां भूतपूर्वो गौः पञ्चगर्गरूप्यः, पञ्चानां नापितानामपत्यं पाञ्चनापितिः, द्वाभ्यां नौभ्या क्रीतो द्विनौरित्यादि । अत्र समासेन तद्धितार्थानभिधानात्तद्धितप्रत्ययः तत्र साधुः ' इति यः । अपत्येऽर्थे इञ् । पञ्चब्राह्मणनिरूपितसाधुत्ववान्, पञ्चगर्गातीतस्वत्ववान्, पञ्चनापितापत्यम्, द्विनौक्रीत इत्यन्वयधीः । [ द्विनौरित्यत्र ठनो लोपविधानाल्लुप्ततद्धितस्मरणादेव क्रीतार्थबोध: । ]
परत उत्तरपदे यथा - पञ्चगवधनमित्यादयः । अत्र पञ्च गावो धनं यस्येतिविग्रहेऽन्तर्वर्तिद्विगुमाश्रित्य राजादित्वादन्प्रत्ययः । समुदायस्तु बहुत्रीहिः । पञ्चगवाभिन्नधनसंबन्धीत्यन्वयधीः ।
समाहारे यथा - पञ्चाना गवां समाहारः पञ्चगवं, चतुर्णां पथा समाहारश्चतुष्पथम् पश्वानां फलाना समाहारः पञ्चफली । अत्र पात्रादिभिन्नादन्तद्विगुत्वादीप्रत्ययः । तदुक्तमू
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८ ग्रन्थः ]
समासबादः।
अपात्रादिरदन्तो यः स्यादन्तो वा द्विगुः स्त्रियाम् ।
अन्नन्तश्च समाहारो नदादिषु निगद्यते ॥ १॥ इति । पात्रादेस्तु नपुंसकत्वमेव । द्विपात्रं, त्रिपात्रं, त्रिभुवनं, चतुर्युगमित्यादि.। रुयादन्तस्यान्नन्तस्य द्विगोवैकल्पिकं नदादित्वम् । यथापञ्चखवी पञ्चखलं, पञ्चतक्षी पञ्चतक्षमित्यादि । अत्र समाहारः समासस्य शत्तया, फलादिपदस्यैव वा फलादिसमाहारो लक्षणयार्थः । एकदेशेऽपि फलादौ पञ्चादेरभेदान्वयो व्युत्पत्तिवैचित्र्यात् । समाहारश्च बुद्धिविशेषविषयत्वम् । तथाच पञ्चाभिन्नफलादिसमाहारः, समाहारविशिष्टाः पञ्चाभिन्नफलादय इति वाऽन्वयधीरित्यग्रे विवेचयिष्यते।
तत्पुरुषः । समासप्रयुक्तलक्षणाशून्योत्तरनामपदकत्वे सति लुप्तद्वितीयादिविभक्तिकपूर्वनामपदकसमासत्वं तत्पुरुषत्वम् । पञ्चफलीत्यादिवारणाय सत्यन्तम् । नीलोत्पलादिवारणाय लुप्तेत्यादि न चानयोस्तत्पुरुषत्वमिष्टं मुख्यतत्पुरुपत्वस्याभावात् । तत्पुरुषसंज्ञाविधानं तु अब्राह्मण इत्यादौ नकारलोपाद्यथै गौणम् । अब्राह्मणमित्याद्यव्ययीभाववारणाय पूर्वेति। न च न विवादोऽविवाद इत्यत्राव्याप्तिः । विरोध्यर्थकनञाऽसुर इत्यादाविवाविवादोऽनुपपत्तिरित्यादौ कर्मधारयस्वीकारेण मुख्यतपुरुपानङ्गीकारात् । न च नमोऽव्ययत्वेन तेनाव्ययीभाव एव युक्तः । यथा निरो गताद्यर्थे इत्यनुशासनान्निरो निर्गमनबोधकत्व एव निःकौशाम्बिरित्यादौ तत्पुरुषः, अत्यन्ताभावतद्वतोर्बोधकत्वे तु निष्कौशाम्बि निक्षिकं निर्विनमित्यादावव्ययीभावः, तथा नञोऽत्यन्ताभावतद्वतोर्बोधकत्वे एवाव्ययीभावः' विवादस्याभावोऽविवादमित्यत्र अघटं भूतलमिति नञ्दीधित्युक्तेश्च । अत्यन्ताभावतद्वदन्यबोधकत्वे तु कर्मधारयोऽब्राह्मणोऽसुरोऽविवाद इत्यादावित्यदोषात् ।
अत्यन्ताभावाद्यर्थकनापि विकल्पेन कर्मधारय इत्यन्ये । वस्तुतस्तु *तत्पुरुषपरिभाषाविषयत्वं तत्पुरुषत्वं* बोध्यम् ।
१ अब्राह्मण इत्यादिवारणाय पूर्वेति; सुरसं दधि पइयेतिवारणाय पूर्वेतीति च पाटः । २ मित्यत्र नदीधित्युक्ते च; दीधित्युक्तं च इति पाठौ ।
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वादार्थसंग्रहः
[ २ भागः
एतेनापिप्पल्यादावुत्तरपदे समासप्रयुक्तलक्षणासत्त्वात् , अवादयः क्रुष्टाद्यर्थे तृतीयया, पर्यादयो ग्लानाद्यथें चतुर्थ्या, प्रादयो गताद्यर्थे प्रथमया इत्याद्यनुशासनाद् , अवक्रुष्ट्र कोकिलया अवकोकिलं वनं, परिग्लानोऽध्ययनाय पर्यध्ययनः, प्रगत आचार्यः प्राचार्य इत्यादौ च लुप्तद्वितीयादिविभक्तिकपूर्वपदकत्वाभावादव्याप्तिरित्यपास्तम् । एषु तत्पुरुषत्वं गौणमित्यन्ये ।
राजपुरुष इत्यादौ, ग्रामगत इत्यादौ च राजादिपदे राजसंबन्धिनि प्रामादिपदे च प्रामादिकर्मकादौ लक्षणा । राजसंबन्ध्यभिन्नः पुरुषः, ग्रामकर्मकाभिन्नगमनाश्रय इति चान्वयधीः । शोभनराजपुरुष इत्यादौ च राजपदे शोभनराजसंबन्धिनि लक्षणा । शोभनपदं तात्पर्यग्राहकं नातो राजपदस्य राजसंबन्धिनि लक्षणायामेकदेशे राज्ञि शोभनान्वयानुपपत्तिः । अत्रैकदेशेऽप्यभेदान्वयश्चित्रगुरित्यादाविव व्युत्पत्तिवैचित्र्यादित्यन्ये ।
एतेन राजा पुरुषो ग्रामो गमनमित्यादावन्वयाबोधात् , नामार्थयो - मार्थधात्वर्थयोश्च भेदेनान्वयस्याव्युत्पन्नतया राजादेः स्वत्वादिसंबन्धेन, पुरुषादौ ग्रामादेश्च कर्मत्वादिसंबन्धेन गमनादावन्वयासंभवाद्राजपुरुष इत्यादिसमुदायस्य राजसंबन्धवत्पुरुषादौ शक्तिः । इत्थं च राज्ञः पुरुष इत्यादिविग्रहसमानार्थतापीत्यपास्तम् ।
किंचैवं निषादस्थपति याजयेदित्यत्र निषादानां स्थपतिरिति न षष्ठीसमासो लक्षणासत्त्वात्किंतु कर्मधारयस्तत्र लक्षणाविरहादिति सिद्धान्तो व्याहन्येत । तव मते षष्ठीसमासेऽपि लक्षणाविरहात्।
अथ शक्तितज्ज्ञानहेतुतयोरिव लक्षणातज्ज्ञानहेतुतयोरपि क्लृप्तत्वात्षष्ठीसमास एव युक्तः । तथा सति निषादानां स्थपतेर्लब्धविद्यत्रैवर्णिकस्य याजनसंभवे निषादस्य नापूर्वविद्याप्रयुक्तिकल्पनै न वा स्त्रीशूद्रौ नाधीयातामिति निषेधसंकोचः । लाघवाभावेऽपि वेदस्य मुख्यत्वसंभवे न गौणत्वमितिवत् , वेदे कर्मधारयसंभवे नान्यसमास इति षष्ठीसमासे शक्तावपि न सिद्धान्तव्याघात इति चेन्न । वैदिकशाब्दबोधस्य शक्तिज्ञानमूलकत्वे लाघवस्य सिद्धान्तबीजत्वात् । शक्यसंबन्धज्ञानस्य विना शक्तिज्ञानमसंभवात्तन्मूलकत्वे गौरवात् । केषांचिच्छक्यसंबन्धज्ञानादपि १ मितिचेत् ; मितिन्नेति पाटः ।
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८ ग्रन्थः ]
समासवादः। शाब्दबोध इति चेदस्तु तथापि न्यायनिर्णीततात्पर्यकानां लक्षणाज्ञानाकल्पनलाघवस्य निष्प्रत्यूहत्वात् ।
इत्थं च लाघवात्कर्मधारयप्रवृत्तावपूर्वविद्याप्रयुक्तिकल्पनादिगौरवं फलमुखत्वान्न दोषाय । 'स्त्री शूद्रौ नाधीयाताम्' इत्यत्राधिपूर्वधातोनिषादीयतत्तदध्ययनेतराध्ययनपरत्वं न तु शूद्रपदस्य निषादेतरशूद्रपरत्वम् । निषादस्य वेदान्तराध्ययनप्रसङ्गादिति बोध्यम् ।
पुरुषोत्तम इत्यत्रापि षष्ठीसमासः । अत्र निर्धारणाभावान 'न निर्धारणे' इत्यनेन षष्ठीसमासनिषेधः । नच पुरुषसमुदायादेकदेशस्येश्वरस्योत्तमत्वेन पृथक्करणान्निर्धारणमस्त्येवेति वाच्यम् । समासवाक्यादन्यतो निर्धारणप्रयोजकरूपोपस्थितावेव समासनिषेधात् । नराणां क्षत्रियः शूरतमः इत्यर्थे नरक्षत्रियः शूरतम इत्यप्रयोगात् । नरशूर इति प्रयोगस्त्विष्ट एव । नच नाथः सृजतीत्यादौ तस्मै (नम) इत्यनेन तत्प्रयोजकरूपोपस्थितिः, विधेयस्यैव तत्प्रयोजकत्वात् । तत्पदार्थस्य तु विशेष्यत्वेनादोषात् ।
एतेन पुरुषोत्तमपदस्य श्रीकृष्णत्वविशिष्टे रूढतया तत्प्रयोजकरूपोपस्थितिरित्यपास्तम् । कृष्णत्वविशिष्टस्य योगार्थविशेष्यत्वात् । पुरुषाणामुत्तमः कृष्ण इत्यत्र तु कृष्णस्य विधेयत्वे निर्धारणोपगमात् । पुरुषेभ्य उत्तम इत्यतः स्वेतरपुरुषावृत्त्युत्तमत्वाश्रय इत्येवं योगादनतिप्रसङ्गे रूढिविरहाच । एतेन योगार्थस्यैव विशेष्यत्वेऽपि न क्षतिः।
अथ विधेयस्यैव निर्धारणप्रयोजकत्वे किं बीजमितिचेदाकर्णय । गवां कृष्णा संपन्नक्षारत्यादौ निर्धारणषष्ठयास्तादात्म्यं कृष्णापद-संपन्नक्षीरापदयोस्तत्तद्भिन्नं चार्थः। तथाच गोतादात्म्यवती कृष्णा संपन्नक्षीरा । गोतादात्म्यवती कृष्णान्या संपन्नक्षीरान्येति वाक्यार्थः । संपन्नक्षीगतदन्ययोश्च विधेयत्व एवोद्देश्यतावच्छेदकावच्छेदेनान्वयात् । पशूनां कृष्णा संपन्नक्षीरा, गवामियं संपन्नक्षीरेति न प्रयोग इति ।[संपन्नक्षीरासंपन्नक्षीरकृष्णगोद्वयघटितगोसमूहबोधकगोपदघटितस्य एतासां गवां कृष्णा संपन्नक्षीरोति वाक्यस्य योग्यत्ववारणायावच्छेदकावच्छेदेन भावान्वयस्वीकारो बोथ्यः ।
१ नाथ: सृजत्यवति यो जगदेकपुत्रप्रीत्या ततः परमनिर्वृतिमादधाति । तस्मै नमः सहजदीर्घकृपानुबन्धलब्धत्रितत्वतनवे पुरुषोत्तमाय ॥ इति लीलावतीकृतः ।
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५८ वादार्थसंग्रहः
[२ भागः एतेन षष्ट्यास्तादात्म्यमेवार्थः । तथाच गोतादात्म्यवत्कृष्णत्वावच्छे. देन संपन्नक्षीराया गोतादात्म्यवत्संपन्नक्षीरात्वावच्छेदेन च कृष्णाया अन्वयाद्वां सास्नावती संपन्नक्षीरा पशूनां कृष्णा संपन्नीरत्याद्यप्रयोग इत्यपास्तम् । विधेयतावच्छेदकावच्छेदेनोद्देश्यान्वयस्यादृष्टचरत्वात् । _नचास्तु संपन्नक्षीरादेरेवोद्देश्यत्वम् । पूर्वोपात्तत्वाभावात् । क्षत्रियाणां कर्णः प्रचुरं ददातीत्यत्रासंभवाच । धर्मिण्याख्यातस्य लक्षणायाम युद्देश्यत्वेन बोधायोगात्। ददाति सुन्दरः इत्यतो दाता सुन्दर इत्यबोधात् । नच पचति गच्छतीत्यतः पक्ता गच्छाति बोधस्य वैयाकरणैः स्वीकारानैवं, प्रथमांतपदोपस्थाप्य एवान्वयस्य नैयायिकैः स्वीकारात् । तथैव काव्यादौ प्रयोगदर्शनात् । जलेषु स्नेहवत् शीतस्पर्शवदिति प्रयोगापत्तेश्च । नच जलतादात्म्यवत्स्नेहवत्त्वेन न व्याप्यता तर्हि क्षत्रियाणां कर्ण इत्यस्याप्यनापत्तेः । तस्मात्कर्णपदस्य कर्णतदन्यौं ददातीत्यस्य दानकृतितदभावावर्थ इति पूर्ववदेवान्वयबोधः ।
परे तु गोसमुदायादेकदेशस्य कृष्णायाः पृथक्करणं कृष्णेतरगोभेदानुमापकत्वं तस्त्वरूपयोग्यतानिर्धारणम्। तचेकृष्णेतरगोभेदव्याप्यत्वं कृष्णेतरगवावृत्तित्वपर्यवसितं षष्ट्यर्थः. संपन्नक्षीगत्वे एकदेशे व्युत्पत्तिवैचित्र्यादन्वेति । कृष्णेतरगोभेदव्याप्यत्वकृष्णेतरगोभिन्नत्वमेव वा पृथक्करणं संपन्नक्षीरायामवच्छेदकावच्छेदेनान्वेति । तेन पदार्थेषु द्रव्यं गुणकर्मात्यत्वविशिष्टसत्तावत् पदार्थेषु जातिमत्सत्तावदित्यादिकं सूपपादम् । षष्ठयास्तादात्म्यार्थकतयावच्छेदकावच्छेदेन भावान्वयस्यापि स्वीकारात् । घटेषु कृष्णा संपन्नक्षीरा गोषु कृष्णाशुक्लान्यतरा संपन्नक्षीरेत्यादेयुदासः । एतल्लाभायैव तत्तद्भिनवृत्तिधर्मवत्परं समुदायपदमित्याहुः ।
[षष्ठयास्तादात्म्यार्थकतया समुदायतादात्म्यवनिर्धार्यतावच्छेदकावच्छेदेन निर्धारणप्रयोजकरूपान्वयलाभाय, निर्धार्येतरसमुदायावृत्तिरूपनिझुर्येतरसमुदायभेदानुमितिस्वरूपयोग्यत्वरूपपृथक्करणरूपनिर्धारणस्य लिङ्गविधया इतरभेदानुमितिरूपनिर्धारणप्रयोजके पदाथैकदेशेऽन्वयलाभाय च निर्धार्यतदितरवृत्तिधर्मवत्परसमुदायपदोपादानम् । प्रागुक्तान्वयलाभयोः किं प्रयोजनमिति चेत्-पार्थिवानां स्नेहवत् शीतस्पर्शवजलानां स्नेहवच्छीतस्पर्शवदित्यनयोरयोग्यत्वसंपादनमेव । समुदायतादात्म्यवनिर्धार्यतावच्छेदकावच्छेदेन निर्धारणप्रयोजकरूपभावान्वयस्वीकारस्य तु गवां कृष्णाशुक्लान्यतरा संपन्नक्षीरेत्यस्यायोग्यत्वसंपादनमित्याहुः।]
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८ ग्रन्थः ]
समासवादः। यत्तु यस्मानिर्धार्यते, यश्च निर्धारणहेतुः, यश्चैकदेशो निर्धार्यते एतत्रितयसंनिधावेव निर्धारणे षष्ठी तत्रैव समासनिषेध इति तन्न । तथा सति नग्शूरः क्षत्रिय इत्यस्याप्यनुपपत्तेः । (पुरुषपदस्य कृष्णत्वविशिष्टे रूढिसत्त्वे पुरुषोत्तम इत्यस्याप्यनापत्तेश्च ।)पुरुषोत्तम इत्यस्य योगेन स्वेतरपुरुपावृत्त्युत्तमत्वविशिष्टार्थकतयानतिप्रसङ्गात्लेक्लयौगिकत्वमेवेत्यन्ये । नच पुरुपश्चासावुत्तमश्चेति कर्मधाग्योऽस्तु तद्युत्तमपुरुषप्रयोगापत्तेः । जातिवाचकयोगे गुणक्रियावाचकस्य पूर्वोपात्तत्वनियमात् । नीलोत्पलमित्यादौ तथा व्यवस्थितेः । अन्यत्र त्वनियमः । यथा खञकुब्जः कुटजखञ्ज इत्यादौ ।
यत्तु पुरुषेषूत्तम इति सप्तमीसमास एवात्रेति तन्न । तथा सति सप्तमीसमासेन नग्क्षत्रियः शूरतम इत्यादिप्रयोगापत्तेः । न चेष्टापत्तिः । न निर्धारण इति निषेधवैयापत्तेः । निर्धारणे तादृशप्रयोगस्यासाधुत्वज्ञापकतयैव तत्सार्थकत्वात् ।
परे तु सप्तमीसमास एवायं स्वरभेदनियामकषष्ठीसमासनिषेधकत्वेन निषेधसाफल्यमित्याहुः । पञ्चमीसमासोऽत्रेत्यन्ये ।।
अथ बहुव्रीहिः। नियमतःसमासप्रयुक्तलाक्षणिकोत्तरपदकसमासो बहुव्रीहिः । अत्र संख्यावाचकपूर्वपदकान्यत्वे सतीति विशेषणं देयम् । तेन पञ्चफलीत्यादिद्विगौ नातिव्याप्तिः । गजपुरुष इत्यादिवारणायोत्तरेति । नच कण्ठेकाल इत्यत्राव्याप्तिः, कालपदे लक्षणायाः समासाप्रयुक्तत्वादिति वाच्यम् । कालरूपप्रकारेण लक्षणाया अतत्वेऽपि कालसंबन्धित्वेन लक्षणायास्तत्वात् । [इदमुपलक्षणम् । कण्ठावच्छेदेन कालरूपविशिष्ट प्रकृते कालपदस्य लाक्षणिकतया तादृशलक्षणाया: समासप्रयुक्तत्वमव्याहतमेवेति बोध्यम् ।] वस्तुतो न देयमेव समासप्रयुक्तेति व्यर्थत्वात् ।
नन्वेवमपि स्थिरमन्युरित्यादिवस्थिरमत्सर इत्यादिप्रयोगात्तत्राव्याप्तिः । नचात्र कर्मधारयः । स्वरभेदार्थमपि बहुव्रीहेः स्वीकारात् । नच मत्सरपदस्य शुक्लादिपदवगुणिनि लक्षणा । ' गुणिलिङ्गास्तु तद्वति'
१ 'जातिविशिष्टवाचकस्य गुणक्रियाविशिष्टवाचकयोगे जातिविशिष्टप्राधान्यनियमात्' इति पाठः।
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६०
वादार्थसंग्रहः
[ २ भाग:
इत्यत्र तद्वति शुक्लादिमतीत्यर्थात् । गुणिनि शुक्लादिपद संकेतग्रहस्य गुणसंकेतग्रहप्रयोज्यतया वटादिपदस्य ग्रामादाविव शुक्लादिपदस्य गुणिनि शक्त्यभावो मत्सरपदस्य तु मिथोनिरपेक्षग्रहशक्तिग्रहकयोद्वेषतद्वतो - ईयोरपि शक्तत्वात् ' मत्सरोऽन्यशुभद्वेषे तद्वत्कृपणयोस्त्रिषु ' इति नामार्थमध्यपाठाच्च । तेन मत्सरपदस्यापि मत्सरशब्दार्थपरामर्शकतत्पदघटिततद्वत्पदेन शक्तिग्रहेऽपि न क्षतिः । मिश्रा अप्येवमिति चेन्न । श्रुतिसि - द्धसुखविशेषशक्तिकस्वःपदस्य निरूढलक्षणया नाकादिपर्यायत्ववन्मत्सरपदस्यापि निरूढलक्षणया नानार्थमध्यपठितत्वसंभवात् । कालादिपदवन्मत्सरपदस्य मत्सर संबन्धित्वेन लक्षणा निष्प्रत्यूहेत्यपि बोध्यम् ।
1
/
स चान्यपदार्थप्रधानः । विग्रहवाक्याद्यत्पदार्थे यत्प्रतियोगिक संबन्धाश्रयत्वं भासते तत्पदार्थवृत्तिसंबन्धप्रतियोगिनि तत्र लक्षणास्वीकागत् । तथाहि-चित्रा गौर्यस्येतिविग्रहवाक्याच्चित्राभिन्ना गौचैत्रादिस्वत्वाश्रय इत्यन्वयबोधाश्चित्रगुरित्यादिसमासे गोपदे चित्रगोवृत्तिस्वत्वप्र• तियोगिनि लक्षणा | चित्रपदं तात्पर्यग्राहकम् ।। गोपदे गोस्वामिनि ल क्षणा । एकदेशे गवि चित्राभेदान्वयो व्युत्पत्तिवैचित्र्यादित्यन्ये । गोप दादिना शक्त्या गवादि:, लक्षणया स्वाम्यादिर्बोध्यते । एकपदार्थयोश्चात्र परस्परमन्वयो व्युत्पत्तिवैचित्र्यादित्यपरे । चित्रापदं चित्रास्वामिपरम् | गोपदं गोस्वामिपरम् । चित्रास्वामी गोस्वामीति बोधः । चित्रात्वेन गोत्वेन चैकस्यैव भानम् । व्यक्तिवचनानामिति न्यायादिति नातिप्रसङ्गइति तु तादृशबोधस्यानानुभविकत्वात्, शोभनचित्रगुरित्यादित्रिपदबहुत्रीहावसंभवाञ्च न युक्तम् । अत्र हि चित्रापदस्य चित्रास्वामिनि लक्षणायां शोभनान्वयानुपपत्तिः । शोभनपदस्यापि शोभनस्वामिनि लक्षणायामत्यन्तमनुभवविरोध इति बोध्यम् ।
आरूढो वानरो यमित्यत्र आरुहेरूर्ध्वदेशावच्छिन्नसंयोनुकूला क्रिया, तस्याश्रयो, द्वितीयाया आधेयत्वमर्थः । तथाच वृक्षवृत्त्युपरिदेशावच्छिन्नसंयोगानुकूलक्रियाश्रयो वानर इत्यन्वयधीः । आरूढवानर इति समासे तु आरोहणकर्तृवानरसंबन्धी वृक्ष इत्यन्वयधीः । संबन्धः स्वकर्तृकारोहणकर्मत्वम् ।
चैत्रेण दत्तं धनं यस्मै इत्यत्र तु चैत्रकर्तृकयत्संप्रदानकदानकर्म धनमित्यन्वधीः । चैत्रदत्तधन इति समासे चैत्रपदस्य चैत्रकर्तृकपरत्वा
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८ ग्रन्थः ]
समासवादः ।
६१
चैत्रकर्तृकंदानकर्मधनसंबन्धी मैत्र इति बोधः । संबन्धः स्वकर्मकदानसंप्रदानत्वम् । एवमन्यत्रापि । एप समानाधिकरणबहुव्रीहिः ।
/
व्यधिकरणबहुव्रीहिस्तु चक्रपाणिरित्यादौ । चक्रं पाणौ यस्येति विग्रहवाक्याद्यत्संबन्धिपाणिवृत्ति चक्रमित्यन्वयधीः । समासात्तु चक्रयुक्तपाणिसंबन्धीति धीः ।
तद्गुणातद्गुणसंविज्ञानभेदादपि बहुव्रीहेद्वैविध्यम् । तत्राद्यो भूवादयो धातवः, चैत्रादीन्भोजयेत्यादौ । भूवाऽऽदिः प्रथमपठितो येषां ते, चैत्र आदि: प्रधानो येषामिति विग्रहवाक्याद्भवाभिन्नः प्रथमपठितो यत्संबन्धी, चैत्राभिन्नः प्रधानो यत्संबन्धीत्यादिधीः । समासात्तु भूवाभिन्नप्रथमपठितसंबन्धी, चैत्राभिन्नप्रधानसंबन्धीति धीः, संबन्धः स्वपाठप्राथम्यस्य स्वनिष्ठप्राधान्यस्य च अवधित्वम् । अत्र भूवाभिन्नप्रथमपठितसंबन्धित्वचैत्राभिन्नप्रधानसंबन्धित्वादिना आदिपदे लक्षणा, लक्ष्यतावच्छेदकस्यापि भूवादेर्विशेष्यान्वयिधात्वादिनाऽन्वयात्तद्गुणत्वम्, लक्षणाया अजहत्स्वा श्रत्वं च बोध्यम् ।
परे तु लम्बकर्णमानयेत्यादौ कर्णादेरप्रधानत्वेन भानस्यानुभवि - कत्वादस्तूक्ता रीतिः । भूवादय इत्यादौ तु गणपठितत्वनिमत्रितत्वादिनैव लक्षणा प्राधान्येनैव शक्यलक्ष्ययोर्विधेयान्वयानुभवात् । काकेभ्यो दधि रक्ष्यतामित्यादाविव । तद्गुणत्वं तु लम्बकर्णभूवादिसाधारणं लौक्षणिकपइतत्समभिव्याहृतपदान्यतरशक्ययोर्लक्ष्यान्वयिनाऽन्वयमात्रादेवेत्याहुः ।
अन्त्यः चित्रगुमानयेत्यादौ । अत्र चित्रगवस्वामित्वादिना गवादिपदे लक्षणायां गवादेरन्वयप्रवेशेऽपि न विशेष्यान्वयिनान्वयो लम्बकर्णमानयेत्यादावन्वय इत्यत्र शब्दस्वाभाव्यमेव तत्रमिति दिक् ।
क्वचित्प्रथमान्तविग्रहवाक्योऽपि बहुव्रीहिः । यथा सह पुत्रेणागतः सपुत्रकः, सह लोम्ना वर्तते सलोमकः । ' सहैव दशभिः पुत्रैर्भारं वहति गर्दभी' इत्यत्र न समासोऽनभिधानात् ।
एवं केशेषु केशेषु गृहीत्वा प्रवृत्तं युद्धं केशाकेशि । दण्डैश्च दण्डैश्व प्रहृत्य प्रवृत्तं युद्धं दण्डादण्डीत्यादिरिति दिक् ।
१ शक्यलक्ष्ययोः विशेष्यान्वय्यन्वयमात्रा देवेत्याहुरिति पाठः ।
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वादार्थसंग्रहः
[२ भागः यत्र विग्रहवाक्येऽन्यपदार्थः प्रधानः सोऽपि तथा । यथा दक्षिणस्याः पूर्वस्याश्च, दिशो यदन्तरालं सा दक्षिणपूर्वा दिक् । दक्षिणादिक्संबन्धिनी पूर्वदिक्संबन्धिनीत्यन्वयधीः । द्वौ वा त्रयो वा द्वित्रा इत्यादिकमपि बहुव्रीहिभेदः। वस्तुतो द्वित्रास्तिष्ठन्तीत्यादितो द्वौ वा त्रयो वा तिष्ठन्तीति न संशयः । शब्दस्य तत्रासामर्थ्यात् । द्वौ त्रयस्तिष्ठन्तीति च न निश्चयः, द्वयोः सत्त्वे भ्रमत्वापातादिति द्विव्यन्यतरे सन्तीति बोधः। एवं च द्विस्त्रिो (?) परिमाणमेषामिति विग्रहवाक्ये द्वित्वत्रित्वान्यतरविशिष्टे, द्वित्रा इति समासे च द्वित्वत्रित्वान्यतरसंख्याविशिष्टे लक्षणा। [अनोत्तरत्र च परिमाणशब्दः संख्याबोधको बोध्यः।]एवं च पञ्च षड्वा परिमाणमेषां पञ्चषा इत्यादावपीति । अन्यपदार्थप्राधान्यमिति दिक् ॥४॥
__ अथ द्वन्द्वः। इन्द्रव्यवहारविषयत्वं इन्द्रत्वम् । परस्परानन्वितसमस्यमाननिखिलपदार्थबोधकसमासत्वं वा तत्त्वम्। धवखदिरावित्यादौ खदिरादिपदस्य धवखदिरादिसाहित्याश्रये लक्षणा । धवखदिरादिपदशक्तिभ्यां वा परस्परानन्वितधवखदिरादिबोधकत्वाल्लक्षणसंगतिः । तथाहि-खदिरादिपदे धवखदिरादिसाहित्याश्रये लक्षणा । धवत्वेन खदिरत्वेन चोपस्थितौ धवखदिरादिवृत्तिद्वित्वबोधो न स्यात् । किंतु धवद्वयखदिरद्वयबोधः स्यात् । विभक्तेः प्रकृत्यर्थतावच्छेदकव्याप्यसंख्याबोधकत्वव्युत्पत्तेः । अन्यथा घटावित्यादितो घटपटादिवृत्तिद्वित्वबोधापत्तेः । साहित्यं चैकक्रियान्वयित्वम् । धवखदिरादिद्वयमात्रविशेष्यकबुद्धिविशेष्यत्वं वा । तद्व्याप्तं च न धवादिमात्रगतद्वित्वमित्यदोषः ।
न च तादृशसाहित्याश्रये द्वन्द्वस्य शक्तिरस्तु, अन्यलभ्ये शक्तेरयोगादिति मीसांसकाः । धवत्वखदिरत्वादिनैव बोधः । अन्वयानुपपत्त्यभावाल्लक्षणानुपपत्तेः । सुपा प्रकृत्यर्थतावच्छेदकत्वेन प्रकृत्यर्थतावच्छेदकस्य तिडा च स्वार्थान्वयित्वस्य वा व्याप्या संख्या बोध्यते इति धवखदिरा
१ यत्र समासघटकान्यपदार्थः सोऽपि तथेति पाठः । २ समासे च द्विन्यन्यतरत्वेन लक्षणा इति पाठः।
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८ ग्रन्थः ]
दिवृत्तिद्वित्वमेव तथा व प्रकृत्यर्थत्वात् । क्रियहित्यलक्षणां
दोन हंसश्च
समासवादः ।
६३
एव चैत्रो मैत्रश्च गच्छतः इत्यादावपि वृत्तिद्वित्वबोधः । [ वस्तुतः सुपा प्रकृतिगत् । व संख्या बोध्यत इति नियमस्तेन (न) धवद्वयवृत्तिद्वित्ववा रति ध्येयम् । ] नचाव्यवहितपूर्वपदस्यैव प्रकृतित्वात्प्रकृत्यर्थान्वितस्वार्थबोधकत्वाच्च प्रत्ययानां खदिरादिपदार्थ एव विभक्त्यर्थान्वयसंभवो न धवादिपदार्थे [ अन्यथा राजपुरुषमानयेत्यादितो राजानमानयेत्यादिबोधापत्तेः ] इति वाच्यम् । अव्ययीभावस्य पूर्वपदार्थप्राधान्यात्पूर्वपदस्यैव प्रकृतित्ववत् द्वन्द्वस्य पदार्थद्वयप्राधान्यात्पदद्वयस्यैव प्रकृतित्वात्फलबलात्तथैव कल्पनादिति । [ विभक्तिमात्रेण स्वार्थान्वयित्वव्याप्यसंख्या बोध्यते । प्रथमाया अपि पुंस्त्वाद्यर्थकत्वादित्यपि केचित् । ]
+
सच द्वन्द्वो द्विविधः - इतरेतरयोगसमाहारभेदात् । यत्रावयवार्थप्राधान्यं तत्रेतरेतरयोगः । प्राधान्यं विभक्त्यर्थान्वयित्वम् । अत एव द्विवचनबहुवचने तत्र । यथा धवखदिरौ धवखदिरपलाशा इत्यादौ ।
यत्र संहतिः प्रधानं तत्र समाहारः । संहतिः साहित्यम् । साहित्यस्यैकत्वादेकवचनमेव । तत्र नपुंसकलिङ्गता चानुशासनात् । यथा हस्त्यश्वं, पाणिपादमित्यादौ । हस्तिनोऽश्वस्य च साहित्यमित्याकारिका चान्वयधीः । इत्थं च हस्त्यश्वमानयेत्यादौ साहित्ये सामानाधिकरण्यसंबन्धेन कर्मत्वान्वय इति प्राञ्चः ।
नव्यास्तु हस्त्यश्वमित्यादौ हस्त्यश्रमे शक्तिभ्यामेव हस्त्यश्ववोधके न तु साहित्ये लक्षणा । एकवचनं त्वनुशासनबलात् । समाहारस नदीसंज्ञावत्पारिभाषिकी । अत एव हस्त्यश्वं द्रव्यमित्यादौ विना द्रव्यपदे लक्षणामन्वयबोधः । यदिच हस्त्यश्वं प्रमेयमित्यादौ समाहारबोधोऽनुभवसिद्धस्तदा तत्र लक्षणेत्याहुः ।
+
यत्तु यत्र समुच्चयार्थकचकारेण प्राधान्येन क्रियासंबन्धो विवक्षितो धवांश्छिन्धि खदिरांश्चच्छिन्धि पलाशांश्चच्छिन्धीत्यादौ. च छिदाक्रियाभेदः, यत्र वाया पयार्यकचकारेण प्रधान पे कुम्भादिपदं तो धवं छिन्धि साम-क्षीरकर्म चेत्यादौ यत्र च सपुत्रो 'नामार्थधात्वर्थरत्रस्यैकक्रियान्वयिते नत्वान् विनैव तदन्वयस्तत्र द्वन्द्वाभावः हि साहित्यलक्षणायामेव ति तुल्यवदेकक्रियान्वयित्वस्य साहित्यस्योक्ते
ल
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६४
वादार्थसंग्रहः
[ २ भाग:
स्वभावात् । अत एव चार्थे द्वन्द्व इत्यत्र चार्थः समुच्चयान्वाचयेतरो गृह्यते । अन्वाचयः समाहार इतरेतरयोगवा दिय इत्यर्थचतुष्टयस्य चार्थत्वात्। समाहारः साहित्रन्वय तरेतरयं वा त्र्यहेत्यविशिष्टः । तं यत्कर्तव्यं तद्नया सहेतो द्वित्रप पत्न्याः सहत्वं नतु साहित्यम् । पत्न्याः कथंचिदनुमतिद्वारैवोपयोगेन व्यापारे साम्याभावादिति । तन्न ।
चैत्रमैत्रौ स्थितिगतिमन्तावित्यादियथासंख्यस्थले एकक्रियान्वयित्वाभावेऽपि द्वन्द्वात् । नच तुल्यवत्सजातीयविजातीयविधेयान्वयित्वं सा - हित्यं वाच्यम् । तादृशसाहित्यलक्षणाया मानाभावात् । उक्तेषु क्रियाभेदविवक्षया प्रधानगुणभावविवक्षया विशेषणत्वविवक्षया च द्वन्द्वाकरणसंभवात् ।
एतेन विभिन्नदेशकालावच्छेदेन धवखदिरादीनां छिदायां धवखदिरौ छिन्धीत्याद्यप्रयोगात्, एकदेशकालावच्छेदेनैकक्रियान्वयित्वरूपसाहित्यावच्छिन्ने खदिरादिपदे लक्षणावैश्य कीत्यपास्तम् । तत्र कालभेदविवक्षया द्वन्द्वाकरणसंभवात् । विभिन्नदेशकालावच्छेदेन छिदायामपि धवखदिरौ छिन्नावित्यादौ द्वन्द्वाचेति दिक् ।
पर्याययोर्घटकलशावित्यादिद्वन्द्ववारणाय पदार्थतावच्छेदकभेदस्यैव द्वन्द्वनियामकत्वात् नीलघटयोरैक्यं, शिवरामयोरभेदः, इत्यादौ न द्वन्द्वानुपपत्तिः । नचैवं घंटच घटचेत्यादौ द्वन्द्वासंभवे तदपवादकसरूपैकशेषानुपपत्तिः द्वन्द्वविषय एव तत्प्रवृत्तेरिति वाच्यम् । घटावित्यादौ सरूपैकशेषानङ्गीकारादेकेनापि घटनानाथापनसंभवात्सकृदुचरित इति नियमाभावात् । अन्यथा पचन्तीत्यादावप्येकशेषापत्तेः । [ गङ्गायां घोषमत्स्यावित्याद्यनुरोधेन युगपदृत्तिद्वयविरोधस्याप्यनङ्गीकारात् ] एकेनापि हरिपदेन सिंहत्वविष्णुत्वाभ्यां बोधसंभवाद्धरी इत्यादावपि नैकशेषः । हरिहरी इत्यादिद्वन्द्वाभावस्तु पदासारूप्यस्यापि द्वन्द्वनियामकत्वात् ।
क्षणानुपपत्तः यत्वाभावादेवेत्यर्थः । २ तेन स्वर्गकामो यजेतेत्यादौ न द्विव च स्वार्थान्ववचनविरोध इति भावः । बोध्यते पाठः । ४ घटाकि } ५ ' हरी इत्यादावेव तद कृदुचरित इत्यादिनियमाभावन । एकेनापि हरिपदेन सिंहत्वविष्णुः । २ सम्म प्रसंभवात् नात्राप्येकशेषः । अन्यथा पचन्तीत्यादौ सर्वथैकशेषापत्तेः '
पाठ: ।
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८ ग्रन्थः ]
समासवादः ।
६५
नचैवमेकत्वे च एकत्वानि चैकत्वानि, गुणौ च क्रिये च गुणक्रियाः, गुणक्रियाश्च गुणक्रिये च गुणक्रिया इत्यादावेकशेषो गुणदीधितिकाव्यप्रकाशायुक्त विरुध्येत । इष्टत्वात् । हंसी च हंसश्च हंसावित्यादौ लिङ्गभेदे एकशेषस्त्वनुशासनबलादिति शाब्दिकाः ।
वस्तुतः 'सरूपाणामेकशेप एकविभक्तौ' इतिसूत्रमेकविभक्तौ वचनभेदे एकशेपविधायकतया सार्थकम् । नच सविभक्तिकस्य द्वन्द्वो निर्विभक्तिकस्य चैकशेप इति नेदं युक्तम् । द्वन्द्वविषयेऽप्रवृत्तौ द्वन्द्वापवादकत्वायोगात् । प्रातिपदिकोत्तरं विभक्तेरावश्यकत्वेन निर्विभक्तिकप्रातिपदिकद्वयासंभवात्र अन्यथा द्वन्द्वादिसमासोऽपि निर्विभक्तिकस्यैव स्यात् । पन्थानावित्यादावदन्तत्वाभावादेकशेपे समासत्वाभावेऽपि विभक्तिलोपस्तद्धितान्त इवेति दीधितिविद्योतने विस्तरः ॥ ५ ॥
अथाव्ययीभावः ।
नियमतः पूर्वपदार्थविशेष्यकबोधजनकसमासत्वमव्ययीभावत्वम् ।
अत्राह्मणोऽपिप्पलीत्यादिवारणाय नियमत इति । उपकुम्भं, निर्मक्षिकमित्यादौ कुम्भादिपदस्य कुम्भादिसंवन्धिनि लक्षणया कुम्भादिसंबन्धि समीपं, मक्षिकादिप्रतियोगिकोऽभाव इत्यादिधीः । चन्द्र इव मुखं, भूतलं न घट् इत्यादाविवाद्यर्थे चन्द्रादेर्भेदेनाप्यन्वयान्, अव्ययनिपातातिरिक्तप्रातिपदिकार्थ एव तादृशप्रातिपदिकार्थस्याभेदेनान्वयात् कुम्भादिपदवाच्यस्यैव सामीप्यादी भेदेनान्वय इति तु नव्याः ।
नचोन्मत्तगङ्गमित्यादावन्यपदार्थप्रधानेऽव्याप्तिः । अव्ययीभावानुशिष्टनपुंसकलिङ्गत्वार्थ संज्ञाविषये बहुव्रीहौ गौणाव्ययीभावत्वस्वीकारात् । संज्ञान्यविषये तु उन्मत्तगङ्गो देश इत्येव भवति । मध्येगङ्गमित्यादौ मध्यादिशब्दे दन्तत्वं निपात्यते । गङ्गासंबन्धि मध्यमित्याद्यन्वयधीः ॥ ६ ॥
"
उपपदसमासः ।
कुम्भकारः क्षीरपायी खड्डाशायी इत्याद्युपपदसमासे कुम्भादिपदं लक्षया कुम्भविषयक - क्षीरकर्मक- खड्डाधिकरणकादिपरम् । नामार्थधात्वर्थयोभेदेनान्वयस्याव्युत्पन्नत्वात् ॥
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वादार्थसंग्रहः
[२ भागः एकशेषः । .विरुकशेषे पितरावित्यादौ लुप्तमातृपदस्मरणान्मातृत्वपितृत्वाभ्या जनकशरीरत्वेन. पितृपदलक्षणया वा मातापित्रोरन्वयधीः । पितृपदं शक्त्या पितुर्लक्षणया मातुर्बोषकमित्यन्ये । एवं श्वशुरावित्यादावपि पतिपत्नीजनकशरीरत्वादिना प्रातिस्विकरूपेण बोधः।।
सरूपैकशेषे दम्पतीपूजाप्रकरणे ब्राह्मणावानयेत्यादौ ब्राह्मणीपदस्मरणाद्राह्मणत्वब्राह्मणीत्वाभ्यां ब्राह्मणत्वेनैव वा स्त्रीपुंब्राह्मणयोर्बोधः । पुंस्त्वमयोग्यत्वास्त्रियां नान्वेति । विभक्तिरेव वा (शक्त्या) पुंस्त्वस्य लक्षगया स्त्रीत्वस्यापि बोधिका । ब्राह्मणपदमेव वा शक्त्या ब्राह्मणत्वेन लक्षणया ब्राह्मणीत्वेन बोधकम् । एवं हंसावित्यादावपि । शिवौ नमस्कुर्यादित्यादौ शिवपदं लक्षणया शिवदुर्गान्यतरत्वेन किंवा शक्त्या शिवत्वेन लक्षणया दुर्गात्वेनैव बोधकम् । एवमन्यदप्यूह्यमिति ॥ इति श्रीमहामहोपाध्यायजयरामन्यायपञ्चाननभट्टाचार्य
विरचितः समासवादः समाप्तः। .
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श्रीगणेशाय नमः।
एवकारवादः ९
एवकारस्त्रिविधः विशेष्यसंगतः, विशेषणसंगतः, क्रियासंगतश्चेति । -
अत्र विशेष्यसंगतस्य एवकारस्यान्ययोगव्यवच्छेदोऽर्थः । पार्थ एव धनुर्धर इत्यादौ विशेषणे धनुर्धरे पार्थान्ययोगव्यवच्छेदबोधात् धनुर्धरपदस्योत्कृष्टधनुर्धरे लाक्षणिकत्वात् । तथैव तात्पर्यात् । पार्थान्यस्य योगतादात्म्यम् । विशेपणसंगतस्यैवकारस्यायोगव्यवच्छेदोऽर्थः । शङ्खः पाण्डुर एवेत्यादौ विशेष्ये शङ्के पाण्डुरत्यायोगव्यवच्छेदबोधात् । क्रियासंगतस्यैवकारस्य चात्यन्तायोगव्यवच्छेदोऽर्थः । संभवाभिप्रायके नीलं सगेज भवत्येवेत्यादौ अन्वयितावच्छेदकसरोजत्वसामानाधिकरण्येन सरोजे नीलभवनकर्तृत्वात्यन्तायोगव्यवच्छेदवोधादिति संप्रदायः ।
तन्नति दीधितिकृतः। तथाहि नात्यन्तायोगव्यवच्छेदोऽर्थः । स ह्यात्यन्तिकस्यायोगस्य व्यवच्छेदः, आत्यन्तिको व्यवच्छेदो वा । नाद्यः आत्यन्तिकत्वस्यान्वयितावच्छेदकव्यापकत्वरूपतया सरोजत्वव्यापकस्य नीलभवनकर्तृत्वायोगस्याप्रसिद्धत्वेन तद्व्यवच्छेदासंभवात् । न द्वितीयः सरोजनिष्ठनीलभवनकर्तृत्वायोगव्यवच्छेदस्याप्यप्रसिद्धत्वात् । अथायोगे आत्यन्तिकत्वव्यवच्छेदः, सरोजनिष्ठनीलभवनकर्तृत्वायोगे सरोजत्वव्यापकत्वस्य द्रव्यत्वादी प्रसिद्धस्य व्यवच्छेदवोधसंभवादिति चेन्न, सरोजविशेषणत्वेनोपस्थितस्य सरोजत्वस्यात्यन्तिकत्वेऽन्यासंभवात् । न च सरोजपदं सरोजत्वे लाक्षणिक, तथा च नान्यविशेषणत्वेनोपस्थितिरित वाच्यम् । ईदृशबोधस्य नीलभवनकर्तृत्वायोगव्यवच्छेदः किंचित्सरोजनिष्ठ इत्यत्रैव पर्यवसानात् । तत्सरोजत्वसामानाधिकरण्येन नीलभवनकर्तृत्वायोगव्यवच्छेद एवास्तु कृतमत्यन्तायोगव्यवच्छेदस्वीकारेण ।। __ अयोगव्यवच्छेदोऽपि नार्थः, शङ्खः पाण्डुर एवेत्यादौ पाण्डुरत्वादेः पाण्डुरादिविशेषणत्वेनोपस्थितस्यायोगेऽन्वयासंभवेन तदयोगव्यवच्छेदबोधादेरसंभवात् । न च पाण्डुरादिपदं पाण्डुरत्वादौ लाक्षणिकमिति वाच्यं, तथा सति शङ्खः पाण्डुरत्वमेवेति प्रयोगापत्तिः, पाण्डुर एवेत्यादिवदत्रापि पाण्डुरत्वायोगव्यवच्छेदबोधसंभवात् ।
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६८
वादार्थसंग्रहः तस्मादन्ययोगव्यवच्छेदमात्रमेवकारार्थः । शङ्खः पाण्डुर एवेत्यादावपि शङ्ख तत्त्वावच्छेदेन पाण्डुरान्ययोगव्यवच्छेदसंभवात् । नीलं सरोजं भवत्येवेत्यादावपि तिङो धर्मिणि लक्षणया नालभवनकर्जन्ययोगव्यवच्छेदस्य सरोजत्वसामानाधिकरण्येन बोधे बाधकाभावः । ज्ञानमथै गृह्णात्येवेत्यादावपि तिङो धर्मिणि लक्षणया ज्ञानत्वावच्छेदेनार्थग्राहकान्ययोगव्यवच्छेदबोधः।।
न च सरोजादौ नीलभवनकर्तृत्वाद्ययोगव्यवच्छेदबोधोऽस्तु धर्मिणि लक्षणा वृथेति वाच्यम् । एकपदे शक्तिद्वयकल्पनायां गौरवात् । न चैवार्थत्रैविध्यप्रसिद्धिविरोध इति वाच्यम् । तस्य नियुक्तिकत्वेनानुपादेयत्वात् ।
न चान्ययोगव्यवच्छेदस्य क्वचिदन्वयितावच्छेदकावच्छेदेन क्वचिसामानाधिकरण्येनान्वये किं नियामकमिति वाच्यम् । नियमपरवाक्यस्यावच्छेदकावच्छेदेन तदन्वये, संभवपरवाक्यस्य सामानाधिकरण्येन तदन्वये नियामकत्वात् ।
अत्रैवकारशक्योऽन्ययोगव्यवच्छेदो विलक्षणप्रतियोगितयाऽन्ययोगविशिष्टव्यवच्छेदरूपो बोध्यः । विलक्षणेत्युपादानात्पार्थान्ययोगगगनोभयत्वावच्छिन्नव्यवच्छेदस्य मनुष्ये सत्त्वेऽपि पार्थ एव मनुष्य इत्यादेन प्रसङ्गः।
यद्यप्ययं सामान्यतोऽन्ययोगघटितः शक्यस्तथाऽपि तात्पर्यवशात्पार्थ एव धनुर्धर इत्यादौ तादात्म्यरूपयोगघटित उपस्थाप्यते । अन्यत्र समवेतत्वादियोगघटितः । तथा हि-पुधिव्यामेव गन्ध इत्यादौ पृथिव्यन्यसमवेतत्काभाववान्पृथिवीसमवेतत्ववांश्च गन्ध इति बोधः । अन्यथा सप्तम्युपस्थापितसमवेतत्वमनन्वितं स्यात् । पृथिवीपदार्थस्य सप्तम्यर्थैवकारयोरप्यन्वयो व्युत्पत्तिवैचित्र्यात् । एवं चैत्रस्यैवेदं धनमित्यादौ चैत्रान्यस्वत्वाभाववत् चैत्रस्वत्ववच्चेदं धनमिति बोधः । मैत्रस्यैवायं भ्रातेत्यादौ मैत्रान्यभ्रातृत्वव्यवच्छेदबोधो लक्षणयैव, अन्यभ्रातृत्वादेरन्यसंबन्धत्वाभावेन तव्यवच्छेदस्यैवकाराशक्यत्वादित्यायुह्यम् । कचिदेकदेशान्वयस्वीकारात् . अन्ययोगव्यवच्छेदैकदेशेऽन्यत्वे पार्थादेः पदार्थस्यान्वयो निष्कलङ्कः । अधिकमस्मत्कृतपदार्थमालाप्रकाशे, इत्यलमतिविस्तरेण ॥
इत्येवकारवादः संपूर्णः।
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'गुजराती' मुद्रणालयस्थानि क्रय्यसंस्कृतपुस्तकानि।
श्रीमद्भगवद्गीता Bhagavat-Geeta with 7 commentaires १ प्रथमो गुच्छ:-आनन्दगिरिकृतटीकासंवलितशांकरभाष्य
जयतीर्थविरचितटीकासंवलितानन्दतीर्थीय (माध्व ) भाष्यरामानुजभाष्य-पुरुषोत्तमजीप्रकाशितामृततरङ्गिणी-नीलकण्ठीसमेता । मञ्जुलैरायसाक्षरैर्मुदिता । पृष्टान्यष्टशतपरिमितानि सुचिक्कणानि । मूल्यम् रू.... ... ... ... ६-०-०
श्रीमद्भगवद्गीता Bhagavat-Geeta with 8 other
commentaries २ द्वितीयो गुच्छः। प्रथमषटकम्-निम्बार्कमतानुयायिश्रीकेशवकाश्मीरिभट्टाचार्यपादप्रणीता- तत्त्वप्रकाशिका ' श्रीमधुसूदनसरस्वतीकृता-'गूढार्थदीपिका' श्रीशङ्करानन्दप्रणीता-'तात्पर्यबोधिनी'श्रीधरस्वामिकृता-'सुबोधिनी' श्रीसदानन्दविरचित:-' भावप्रकाशः' श्रीधनपतिसूरिविर. चिता-'भाष्योत्कर्षदीपिका' दैवज्ञपण्डितश्रीसूर्यविरचिता'परमार्थप्रपा' पूर्णप्रज्ञमतानुसारिश्रीराघवेन्द्रकृतः-'अर्थ. संग्रहः' इत्येताभिर्व्याख्याभिः सहितायाः श्रीमद्भगवद्गीतायाः प्रथमादिषडध्यायात्मकं प्रथमं खण्डम् । अत्र श्लोकाः स्थूलतमाक्षरैष्टीकाश्च स्थूलाक्षरैर्मुद्रिताः, वृद्धा मा क्लेशिषतेति । पत्रसंख्या सार्धपञ्चशतानि । मूल्यम् रू. ... ... ३ -१२-. द्वितीयो गुच्छः। द्वितीयं षट्कम् । षष्ठादिद्वादशाध्यायान्तम् । तत्त्वप्रकाशिकायष्टटीकोपेतम् । मूल्यम् रू. ... २-१२-.
Uttara-Geeta with a commentary ३ उत्तरगीता-गौडपादीयदीपिकाख्यव्याख्यायुता । भगवत्पा
दश्रीशंकराचार्याणां परमगुरुभिः श्रीशुकाचार्याणां च शिष्यैः श्रीगौडपादाचार्यैः प्रणीतेयं व्याख्येत्येतावत्कथनमलमस्या महिमानमवगमयितुम् । मू. रू.
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श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम् Valmiki Ramayana with 3 well-known
commentaries Bal Kanda ४ बालकाण्डम्-सर्वतन्त्रस्वतन्त्रप्रतिभेन शब्देन्दुशेखरादिना
नानिबन्धप्रणेत्रा श्रीमन्नागेशभट्टेन स्वशिष्यस्य सतो जीविकाप्रदातुः शृङ्गवेरपुराधीशस्य वीरमणे: श्रीरामराजस्य नाम्ना प्रणीतया रामायणतिलकाख्यया टीकया, पण्डितश्रीवंशीधरशिवसहायाभ्यां प्रणीतया रामायणशिरोमण्याख्यया टीकया, . श्रीगोविन्दराजप्रणीतया भूषणाख्यया टीकया च सह मुद्रयितुमारब्धमस्माभिः श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम् । तच्च षद्धिः खण्डै: समापयिष्यामः । तत्रेदं प्रथम खण्डम् । मूल्यम् रू. ... ३-०- .
Ayodhya Kanda अयोध्याकाण्डम् । द्वितीयखण्डम्-उर्ध्वनिर्दिष्टटीकात्रयोपेतम् । मूल्यम् रू. ... ... ... ... ५-०-० Stotra-muktahar containing 256 Stotras
मुक्ताहार:-अस्मिन् २५६ स्तोत्राणि संगृहीतानि । यद्यपि सन्ति भूरीणि स्तोत्रपुस्तकानि मुद्रितानि भूरिभिस्तथापि न तेष्वियतां स्तोत्ररत्नानां संग्रहः । अस्माभिः पूर्वममुद्रितानां स्तोत्राणां पुस्तकानि काश्यादिक्षेत्रेभ्यो भूयसा प्रयासेन द्रविणव्ययेन च समासाद्य तेभ्यश्च प्रसादगुणयुक्तानि स्तोत्राणि संकलय्य संशोध्य च तानि भाविकजनानां कृतेऽत्र समावेशितानि तदाशास्महे श्रद्धावन्तो जनाः सफलयिष्यन्ति प्रयत्नमस्माकममुमिति । मूल्यम् रू. ... ... ... ० -८- .
Samskar Mayukha ६ संस्कारमयूखः-मीमांसकनीलकण्ठभट्टसुतशंकरभट्टकृतः।मू. रू. ०-१२-०
Manu Smriti • मनुस्मृतिः-कुल्लूकभकृतटीकया, ग्रन्थान्तरेषु मनुनाम्नोल्लिखितैरिदानींतनमनुस्मृतिपुस्तकेष्वनुपलभ्यमानैः श्लोकः, पद्यानां वर्णानुक्रमकोशेव, विषयानुक्रमेण च सहिता । सूक्ष्मेक्षिकया संशोधिता च । मू. रू. ... ... ... ... १-८-०
Vidura-Niti with a commentary विदुरनीतिः-संस्कृतटीकोपेता नीतिशास्त्राभ्यासिनां विद्यार्थिनामतीवोपयोगिनी । मू. रू. ... ... ... ... ० -४-०
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Vedanta Rahasya २ वेदान्तरहस्यम्-वेदान्तवागीशभट्टाचार्यविरचितम् । अत्रा
द्वैतमतसिद्धान्तो निरूपितः । उपपत्तिश्च प्रदर्शिता । भाषाऽतिसरला प्रौढा च । मूल्यम् रू. ... ...
Vishishtadvaita-Mata=Vijaya-Vada १० विशिष्टाद्वैतमतविजयवादः-नरहरिपण्डितकृतः । अत्र
विशिष्टाद्वैतमते परेषामाक्षेपानिराकृत्य विशिष्टाद्वैत एवोपनिषदां तात्पर्य व्यवस्थापितम् । मूल्यम् रू. ... ... ... . -१-० Kumar Sambhav with 3 known .
commentaries ११ कुमारसंभवं महाकाव्यम-कविवरश्रीकालिदासविरचित
मिदं सप्तमसर्गपर्यन्तं मल्लिनाथकृतसंजीविन्या चारित्र्यवर्धनकृतशिशुहितैषिण्या च संवलितं तत आसमाप्ति सीतारामकृतसंजीविन्याऽलंकृतं सुललितैरायसाक्षरैर्मुद्रितमतीव दर्शनीयमस्ति ।
मूल्यम् रू. ... ... ... Raghuvamsba Mallinatba's commentary १२ रघुवंशमहाकाव्यम्-श्रीकालिदासकृतम् । मल्लिनाथकृतसंजीविन्याख्यटीकासहितम् । मू. रू. ... ... ... ०-१०-०
कारिकावली Karikavalee with Siddhanta-Mukta.
vali and other notes १३ सिद्धान्तमुक्तावलीसहिता-न्यायवैशेषिकदर्शनयोयुत्पित्सूनां
कृते प्रणीतेषु प्रकरणग्रन्थेषु सिद्धान्तमुक्तावलीसमुद्भासिता कारिकावली मूर्धाभिषिक्तेत्यत्र न विदुषां वैमत्यं किंतु तत्र दीधितिकृदुपसृतया विवेकसरण्या संक्षेपतः सूक्ष्मतमानामानामुपनिबद्धतया प्रायः खिद्यन्ति नव्याइछात्राः, इति तेषामुपकारायास्माभिः प्रायः सर्वेषु विषमस्थलेष्वतिविस्तृतां सरलां सुबोधां च टिप्पनी पण्डित--जीवरामशास्त्रभिः कारयित्वा तया सहेयं दृढतरेषु सुचिक्कणेषु पत्रेषु स्थूलाक्षरैर्मुद्रिता। सार्धशताभ्यधिकपत्रयुतामपीमां सर्वसौलभ्यायाल्पीयसा मूल्येन वितरामः । मूल्यम् रू. ... ... ... Vaisbesbika Darshana with
several commentaries १४ वैशेषिकदर्शनम्-श्रीशंकरमिश्रकृत-वैशेषिकसूत्रोप
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________________ (4) स्कार-जयनारायणतर्कपश्चाननभट्टाचार्यप्रणीत-विकृति-. चन्द्रकान्तभट्टाचार्यप्रणीत-भाग्यसहितम् / मू. रू. Vadartha Samgraba 15 वादार्थसंग्रहः (प्रथमो भागः)-अत्र शेषकृष्णकृतं स्फोटतत्त्वनिरूपणं, श्रीकृष्णमौनिकृता स्फोटचन्द्रिका, गोडबोलेकृतः प्रातिपदिकसंज्ञावादः, वाक्यवादः, हरियशोमिश्रकृता वाक्यदीपिकेति पञ्च ग्रन्थाः संकलिताः। पण्डितानां प्रौढच्छात्राणां च बहुतरमुपकारकः / मू.रू. ... ... . Maha Bhagavata 16 महाभागवतम्-देवीपुराणम् / अस्मिन् भगवत्या ब्रह्मस्वरूपिण्या महाकाल्या दाक्षायणी-गङ्गा-पार्वती-श्रीकृष्णेत्यवतारचतुटयचरितानि, महाकाल्या मूलस्थानं च प्रधानतयोपवर्णितानि / प्रसङ्गादामचरितं स्कन्दचरितं पाण्डवचरितं गणेशोत्पत्तिर्गङ्गावतरणं भगवतीगीता ललितासहस्रनाम शिवसहस्रनामादयश्च विषया निरूपिताः / सार्धपञ्चसाहस्रीसंहितेयम् मू. ... 2 -0.. Taittiriya Upanishat 17 तैत्तिरीयोपनिषत्-श्रीमच्छंकरभगवत्पादकृतभाष्येणानन्द. गिरिकृतटीकायुतेन तैत्तिरीयविद्याप्रकाशेन च सहिता। ... 1-0-0 18 चन्द्रालोकः-वैद्यनाथपायगुण्डेकृतरमाख्यटीकासहितः। ... 0 -8-0 19 अन्त्येष्टिदीपिका-सामगानाम् ... ... . ... .-12-0 20 गोभिलीयगृहकर्मप्रकाशिका-सामवेदीयषोडशसंस्कारनित्याहिकसमेता ... ... ... ... 3-8-0 'गुजराती' मुद्रणालयाधिपतिः। - कोट सासून बिल्डिंग-मुंबई