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तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगम-समन्वय [जैनागम मूलपाठ, संस्कृतच्छाया, भाषाटीका सहित]
समन्वय कर्ता. जैन धर्म दिवाकर उपाध्याय मुनि श्री आत्मारामजी महाराज (पंजाबी)
तत्वार्थ भाषाकारप्रोफेसर चन्द्रशेखर शास्त्री M.O. Ph. काव्य-साहित्य-तीर्थ-प्राचार्य, प्राच्यविद्यावारिधि, आयुर्वेदाचार्य, भूतपूर्व प्रोफेसर काशी हिंदू विश्वविद्यालय
प्रकाशकलाला शादीराम गोकुलचंद जौहरी
चांदनी चौक, देहली.
मद
मुद्रक
पं० सीताराम भार्गव, लक्ष्मी प्रेस, एस्प्लेनेड रोड, देहली. महावीर निर्वाण सम्वत् २४६१. । मूल्य सजिल्द ) सन् १९३४ ईस्वी.
बिना जिल्द)।
प्रथम पार ।
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लाला गोकलचन्द जी नाहर जौहरी
संक्षिप्त परिचय
- इस खानदान के पूर्वजों का मूल निवास स्थान लाहौर था यहां से इस खानदान के पूर्व पुरुष पूज्य लाला निधूमल जी देहली आये । तबही से यह खानदान देहली में ही निवास कर रहा है। तथा आज भी लाहौरी के नाम से प्रसिद्ध है । लाला निधूमल जी के पुत्र लाला सीधूमल जी नामक हुवे । आपके पुत्र जीतमल जो के बुधसिंह जी तथा चुन्नीलाल जी नामक दो पुत्र हुवे । लाला बुधसिंह जी के शादीराम जी नामक एक पुसुने
लाला शादीराम जी का सं० १८८५ में जन्म हुआ आपने छोटी उमर से ही अपने व्यापार में भाग लेना प्रारम्भ कर दिया था। आपने गोटे किनारी का काम शुरू किया . इस व्यापार में आपको बहुत लाभ हुआ। आपका सं० १९३८ में स्वर्गवास हुआ। आपके २ पुत्र लाला भैरोंप्रसाद जी व लाला गोकलचन्द जी हुवे, लाला भैरोंप्रसाद जी का जन्म सं० १९१७ में हुआ।
__ लाला गोकलचंद जी का जन्म सं० १९२४ में हुआ, आप स्थानकवासी समाज में बड़े प्रतिष्ठित सज्जन हैं। आपने सं० १९४६ में जवाहरात का व्यापार शुरू किया। इस . व्यापार में आपको काफी सफलता प्राप्त हुई। इस समय आपको फर्म पर जवाहरात तथा किराये व्याज का व्यवसाय होता है।
आपकी धार्मिक भावना बढ़ी चढ़ी है आपने कई धार्मिक कार्यो में सहायतायें . प्रदान की हैं। आपको सं० १९६२ में दिल्ली की जैन समाज ने जैन बारादरी का काम सुपुर्द किया। जिस समय यह काम सौंपा गया था, उस समय उस संस्था में १८) रु० मासिक
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[ २ ] की आमदनी थी, आपने अपनी बुद्धिमानी से भामदनी बढ़ाकर करीब १२००) महीना की करदी तथा देहली में बहुत विशाल स्थानक बनवाया इस स्थानक के लिये नापने किसी से भी चन्दा नहीं लिया। अब तक इस स्थानक में दो लाख रुपये लग चुके हैं, अभी मकान बन रहा है।
धार्मिक प्रम के साथ ही साथ आपका विद्यादान की तरफ विशेष लक्ष्य रहता है आपने सन् १९२० में महावीर जैन मिडिल स्कूल स्थापित किया। जो सन् १९२८ में हाई स्कूल हो गया । जिसका मासिक खर्च १२००) है । इस प्रकार आपके प्रयत्नों से महावीर जैन लाइब्ररी, महावीर जैन कन्या पाठशाला, महावीर जैन विद्यालय आदि सार्वजनिक संस्थायें स्थापित हुई। जिनसे देहली की जनता बहुत लाभ उठा रही है। ... आपने सोनीपत में वहां के स्थानकवासी भाईयों के लिये ११५००) २० में एक मकान खरीद कर स्थानक स्थापित किया।
महावीर जैन लाइब्ररी (महावीर भवन ) चांदनी चौक में सन् १९२४ में स्थापित की गई, पुस्तकालय में करीब ५००० पुस्तकें और हस्त लिखित ग्रन्थ हैं। ४०० वर्ष पहिले के हस्त लिखित शास्त्र हैं, और १०० साल तक के छापे के ग्रन्थ हैं । पुस्तकालय के व्यवस्थापक सर्व श्रीमान् लाला गोकलचन्द जी साहब की हार्दिक शुभ कामनाओं से इस १० वर्ष में बहुत उन्नति की है और आशा है कि आगामी को भी ऐसी ही उन्नति होती रहेगी।
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तत्त्वार्थ भाषाकार के दो शब्द
तन्वार्थसूत्र के सूत्रों की जैन आगम पाठों से तुलना करने वाले इस "तत्त्वार्थसूत्र जैनागमसमन्वय" ग्रन्थ को पाठकों के सम्मुख उपस्थित किया जाता है। पूज्य उपाध्याय जी महाराज का यह प्रयत्न अत्यन्त प्रशंसनीय है। क्योंकि आगम ग्रन्थों से तत्त्वार्थसूत्र के समन्वय करने का यह सौभाग्य सब से प्रथम आप को ही प्राप्त हुआ है। आशा है कि आप के इस प्रयत्न से स्थानक वासियों तथा श्वेताम्बरों में तत्त्वार्थसूत्र का अधिक परिशीलन और दिगाम्बरों में जैन भागमों के अध्ययन एवं स्वाध्याय का अच्छा प्रचार हो जावेगा। ___ इस ग्रन्थ में इस बात के लिये विशेष प्रयत्न किया गया है कि यह विद्यार्थियों और स्वाध्याय प्रेमी दोनों के लिये उपयोगी हो सके। अतएव इसको संस्कृत छाया में अत्यन्त सुगम सन्धियां ही दी गई हैं। प्रायः स्थल, बिना संधियों के ही रखे गये हैं।
मल ग्रन्थ में ऊपर तत्वार्थसूत्र के सत्रों को देकर उनके नीचे प्राकृत आगम प्रमाण दिये गये हैं । उनके नीचे ग्न पाठों की संस्कृत छाया, फिर उनकी भाषा टीका और अन्त में आवश्यक स्थानों पर सूत्र और आगम पाठों का समन्वय करने वाली संगति दी गई है।
जो भागम पाठ शीघ्रता के कारण मल ग्रन्थ में छपते समय नहीं दिये जा सके थे, उनको परिशिष्ट नं० १ में दिया गया है । परिशिष्ट नं० २ में मेरा लिखा हुआ, तत्वार्थ सूत्र भाषा है । इसमें तत्त्वार्थसूत्र के सूत्रों का अर्थ सरल हिन्दी भाषा में सत्रों के अंक दे २ कर इस प्रकार से लिखा गया है कि यह भी एक स्वतन्त्र ग्रंथ सा ही बन गया है । इसमें भाव खोलने वाले शब्द छोटे कोष्टक -()- में
और वाक्य पूरे करने वाले शब्द बड़े कोष्टक -[]- में दिये गये हैं। परिशिष्ट नं०३ में दिगम्बर सूत्र पाठ और श्वेताम्बर सूत्रपाठों का अंतर दिखवाया गया है ।
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इस ग्रंथ की विषानुक्रमणिका भी एक विशेषता है। सूत्रों की विषयानुक्रमणिका में प्रायः सूत्रों को ही देने की एक परिपाटी है। किंतु यहां प्रत्येक अध्याय का मोटे २ विषयों में विभाग करके वही विषय विषयानुक्रमणिका और परिशिष्ट नं० २ दोनों स्थान में दिये गये हैं । इससे एक बड़ा लाभ यह भी है कि प्रन्थ का विषय ( Analysis ) बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है।
अन्त में इतना निवेदन है कि इसमें कहीं मेरे प्रमादवश तथा कहीं प्रेस की कपा से प्रफ सम्बन्धो भूलें रह गई है। आशा है कि पाठक उनके लिये क्षमा करेंगे। इसके अतिरिक्त यदि कोई महानुभाव इस समन्वय के विषय में आगम पाठ संबंधी या और कोई विशेष सूचना दें तो उसका भी स्वागत किया जावेगा। इस प्रकार को त्रुटियों की सूचना मिलते रहने से उनको इस ग्रन्थ के अगले संस्करण में दूर करने का प्रयल किया जावेगा।
चन्द्रशेखर शास्त्री M. O. Ph.,
काव्य-साहित्य-तीर्थ-आचार्य, ता.१ नवम्बर सन् १९३४ ई.
प्राच्यविद्यावारिधि, आयुर्वेदाचार्य भूतपूर्व प्रोफेसर बनारस हिन्दू यूनीवर्सिटी.
देहली,
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प्रस्तावना प्रिय सुन पुरुषों ! इस अनादि संसार चक्र में परिभ्रमण करते हुए मात्मा को मनुष्य जन्म और आर्यत्व भाव की प्राप्ति हो जाने पर भी श्रुतिधर्म की माप्ति दुर्लभ ही है । इसके अतिरिक्त सम्यग्दर्शन की निर्भरता भी सम्यक श्रुत पर ही है । अतएव उक्त सर्व साधन मिल जाने पर भी सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिये सम्यक श्रुत का अध्ययन अवश्य करना चाहिये ।
अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि उक्त प्राप्ति के लिये अध्ययन करने योग्य कौन २ ग्रन्थ ऐसे हैं जिनको सम्यकश्रुत का प्रतिपादक कहा जाना चाहिये । इसके लिये यह उत्तर अत्यन्त युक्ति पूर्ण है कि जिन ग्रंथों के प्रणेता सर्वज्ञ अथवा सर्वज्ञ सदृश महानुभाव हैं वह भागम ही अध्ययन करने योग्य हैं । क्योंकि जिसका वक्ता प्राप्त (सर्वज्ञ) होता है वही भागम सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में कारण होता है।
यद्यपि सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति क्षायिक, तायोपशमिक अथवा औपत्रमिक भाव पर निर्भर है तथापि सम्यक श्रुत को उसकी उत्पत्ति में कारण माना गया है। अतएव सिद्ध हुमा कि सम्यक् श्रुत का अध्ययन अवश्य करना चाहिये । __ श्वेताम्बर-स्थानकवासी सम्पदाय के अनुसार सम्यक श्रुत का प्रतिपादन करने वाले ३२ श्रागम ही प्रमाणकोटि में माने जाते हैं, जो निम्न प्रकार हैं:
११ अङ्ग, १२ उपाङ्ग, ४ मूल, ४ छेद और ३२ वां आवश्यक सूत्र । ___ इनके अतिरिक्त इन आगमों के आधार से एवं इनके अविरुद्ध बने हुए ग्रंथों को न मानने में भी उक्त सम्प्रदाय आग्रहशील नहीं है।
उक्त शास्त्रों के विषय में विशेष परिचय प्राप्त करने के लिये इस विषय के जैन ऐतिहासिक ग्रंथ देखने चाहियें। .. - अनेक महानुभावों ने उक्त आगमों के आधार पर अनेक प्रकार के ग्रन्थों की रचना की है। जिनका अध्ययन जैन समाज में अत्यन्त आदर और पूज्य भाव से
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[च]
किया जा रहा है। इन लेखकों में से भी जिन महानुभावों ने श्रागमों में से श्रावश्यक विषयों का संग्रह कर जनता का परमोपकार किया है उनको अत्यन्त पूज्य दृष्ट से देखा जाता है और उनके ग्रंथ जैन समाज में अत्यन्त आदरणीय सम जाते हैं। वर्तमान ग्रंथ तत्त्वार्थसूत्र ( मोक्ष शास्त्र ) की गणना उन्हीं आदरणीय ग्रंथों में है । इस ग्रंथ में इसके रचयिता ने आगमों में से आवश्यक विषयों का संग्रह कर जनता का परमोपकार किया है । इसमें तत्त्वों का संग्रह समयोपयोगी तथा सूक्ष्म दृष्टि से किया गया है । इसके कर्ता ने आगमों की मूल भाषा अर्द्ध मागधी से विषयों का संग्रह कर उनको संस्कृत भाषा के सूत्रों में प्रगट किया है । इससे जान पड़ता है कि उस समय संस्कृत भाषा में सूत्र रूप में लिखने की प्रथा विद्वानों में आदर पाने लगी थी । सूत्रकार ने अपने ग्रंथ में जैन तत्त्वों का दिग्दर्शन विद्वानों के भावानुसार संस्कृत भाषा में किया । प्रायः विद्वानों का मत है कि तत्त्वार्थसूत्र के रचयिता का समय विक्रम की प्रथम शताब्दी है । संस्कृत भाषा उस समय विकसित हो रहो थी । जिस प्रकार इस ग्रंथ के कर्ता ने इस संग्रह में अपनी अनुपम प्रतिभा का परिचय दिया है, उसी प्रकार अनेक विद्वानों ने इसके ऊपर भिन्न २ टीकाओं की रचना करके जैन तत्त्वों का महत्व प्रगट किया है । और इस ग्रंथ को आगम के समान ही प्रमाण कोटि में स्थान देकर इसके महत्व को बहुत अधिक बढ़ा दिया है ।
पूज्यपाद उमास्वाति जी महाराज ने जैन तत्त्वों को आगमों से संग्रह कर जैन और जैनेतर जनता का बड़ा भारी उपकार किया है ।
यद्यपि इस सूत्र को संग्रह ही माना गया है, किन्तु यह ग्रन्थ सूत्रकार की काल्पनिक रचना नहीं है । कारण कि इस ग्रन्थ में जिन २ विषयों का संग्रह किया गया है उन सब का आगमों में स्पष्ट रूप से वर्णन है । अतः स्वाध्याय प्रेमियों को योग्य है कि वह भक्ति और श्रद्धा पूर्वक आगम तथा सूत्र दोनों का ही स्वाध्याय करें । जिससे भेद भाव मिटकर जैन समाज उन्नति के शिखर पर पहुँच जावे ।
अब रहा यह प्रश्न कि क्या यह ग्रन्थ वास्तव में संग्रह ग्रंथ है ? सो
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आगमों का स्वाध्याय करने वाले तो इस ग्रन्थ को आगमों से संग्रह किया हुआ मानते ही हैं । इसके अतिरिक्त आचार्यवर्य हेमचन्द्ररि ने अपने बनाये हुए 'सिद्धहेमशब्दानुशासन' नाम के व्याकरण में पूज्यपाद उमास्वाति जी महाराज को संग्रह कर्ताओं में उत्कृष्ट संग्रह कर्ता माना है । जैसा कि उन्होंने उक्त ग्रन्थ की स्वोपज्ञवृत्ति में कहा है ।
. उत्कृष्ट ऽनूपेन २। २। ३६ उस्कृष्टार्थादनूपाभ्यां युक्ताद्वितीया स्यात् । अनुसिद्धसेनं कवयः । उपोमास्वाति संग्रहोतारः ॥ ३॥
स्वोपज्ञ वृहद्वृत्ति में भी उक्त आचार्यवर्य ने उक्त सूत्र की व्याख्या में
"उत्कृष्ट ऽथें वर्तमानात् अनूपाभ्यां युक्ताद् गौणानाम्नो द्वितीया भवति । अनुसिद्धसेनं कवयः । अनुमल्लवादिनं तार्किकाः । उपोमास्वाति संगृहीतारः । उपजिनभद्रक्षमाश्रमण व्याख्यातारः । तस्मादन्ये हीना इत्यर्थः ॥ ३५॥" ____आचार्य हेमचन्द्र का समय विकम को १२ वीं शताब्दी सभी विद्वानों को मान्य है। आपके कथन से यह भलीप्रकार सिद्ध हो जाता है कि पूज्य पाद उमास्वाति संग्रह करने वालों में सबसे बढ़कर संग्रह करने वाले माने गये हैं। आगमों से संग्रह किया जाने से यह ग्रन्थ भी संग्रह ग्रंथ माना गया है।
अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि भगवान् उमास्वाति ने संग्रह किस रूप में किया है । सो इसका उत्तर यह है कि इस ग्रन्थ में दो प्रकार से संग्रह किया गया है। कहीं पर तो शब्दशः संग्रह है, अर्थात् आगम के शब्दों को संस्कृत रूप दे दिया गया है और कहीं पर अर्थसंग्रह है, अर्थात् आगम के अर्थ को लक्ष्य में रखकर सूत्र की रचना की गई है। कहीं २ पर आगम में आये हुए विस्तृत विषयों को संक्षेप रूप से वर्णन किया गया है।
'आगमों से किस प्रकार इस शास्त्र का उद्धार किया गया है ?' इस विषय को स्पष्ट करने के लिये ही वर्तमान ग्रन्थ विद्वत्समाज के सन्मुख रखा ना रहा है । इस का यह भी उद्देश्य है कि विद्वान् लोग आगमों के स्वाध्याय का लाभ उठा सकें।
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[ अ ]
इस ग्रंथ में सूत्रों का आगमों से समन्वय किया गया है। इसमें पहिले तत्त्वार्थ सूत्र का सूत्र, फिर श्रागम प्रमाण, उसके पश्चात् उस आगम पाठ की संस्कृत छाया और अंत में आगम पाठ की भाषा टीका दी गई है, जिससे पाठकवर्ग आगम और सूत्र के शब्द और अर्थों का भली प्रकार ज्ञान प्राप्त कर सकें
1
सूत्रों के सामान्य अर्थ इस ग्रंथ के अंत में परिशिष्ट नं० २ में दे दिये गये हैं ।
यहां यह बात ध्यान देने योग्य है कि इस ग्रन्थ में दिये हुए आगम प्रमाण आगमोद्धार समिति द्वारा मुद्रित हुए आगमों से दिये गये हैं ।
पाठकों के सन्मुख सूत्र के पाठ से आगमों के पाठ का यह समन्वय उपस्थित किया जाता है । यदि आगम ग्रंथ के कोई विद्वान समन्वय में कहीं त्रुटि समझें तो उसको स्वयं समन्वय कर पूर्ण पाठ से अवगत करने की कृपा करें । क्योंकि - 'सर्वारम्भाहि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः । '
यह ग्रन्थ इतना महत्त्वपूर्ण है कि प्रत्येक व्यक्ति के स्वाध्याय करने योग्य है । वास्तव में यह तत्वार्थसूत्र आगमग्रन्थों की कुंजी है । अतः जिन २ विद्यालयों, हाईस्कूलों और कालेजों में तत्त्वार्थसूत्र पाठ्यक्रम में नियत किया हुआ है उन २ संस्थाओं के अध्यक्षों को योग्य है कि वह सूत्रों के साथ ही साथ बालकों को आगम के समन्वय पाठों का भी अध्ययन करावें । जिससे उन बालकों को श्रागमों का भी भली भांति ज्ञान हो जावे ।
कुछ लोग यह शंका भी कर सकते हैं कि 'संभव है कि श्वेताम्बर आगमों में तस्वार्थसूत्र के इन सूत्रों की ही व्याख्या की गई हो ।' सो इस विषय में यह बात स्मरण रखने की है कि जैन इतिहास के अन्वेषण से यह बात सिद्ध हो चुकी है कि आगम ग्रन्थों का अस्तित्त्व उमास्वाति जी महाराज से भी पहिले था । इसके अतिरिक्त तस्वार्थसूत्र और जैन आगमों का अध्ययन करने से यह स्वयं ही प्रगट हो जावेगा कि कौन किस
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[ 9 ]
का अनुकरण है । अतएव सिद्ध हुआ कि भागमों का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिये, जिस से सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की प्राप्ति होने पर निर्वाणपद की प्राप्ति हो सके।
श्री श्री श्री १००८ आचार्यवर्य श्री पूज्य पाद मोतीराम जी महाराज, उनके शिष्य श्री श्री श्री १००८ गणावच्छेदक तथा स्थविर पद विभूषित श्री गणपति राय जी महाराज, उनके शिष्य श्री श्री श्री १०८ गणावच्छेदक श्री जयराम दास जी महाराज और उनके शिष्य श्री श्री श्री १०८ प्रवर्तक पद विभूषित श्री शालिग्राम जी महाराज की ही कपा से उन का शिष्य में इस महत्त्वपूर्ण कार्य को पूर्ण कर सका हूँ ।
गुरुचरणरज सेवीजैनमुनि-उपाध्याय-आत्माराम.
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अावश्यक सूचना पाठकों से सविनय निवेदन है कि सम्पादक जी की रुग्णावस्था के कारण प्रूफ आदि के ठीक न देखने से, कतिपय स्थलों में त्रुटियें रहगई हैं, अतः यदि सुज्ञ पाठकों द्वारा हमें सूचनाएं मिलती रहें तो हम द्वितीय संस्करण में ठीक करने की चेष्टा करेंगे । ____ तथा--यदि कोई आगमाभ्यासी आगम पाठों से और भी सुचारु रूप से समन्वय करने की कृपा करें, तो हमको सचित करदें जैसे कि--तत्त्वाथसूत्र के ५ अध्याय के २६ वाँ सूत्र, " एगत्तेण पुहत्तेण खंधाय परमाणु य(एकत्वेन पृथकत्वेन स्कन्धाश्चपरमाणावश्च ) उत्तराध्ययन सूत्र प्र० ३६ गाथा ११--इस पाठ से सम्बन्ध रखता है । इसी प्रकार की अन्य सूचनाओं से भी सूचित करें, ताकि उन पर आवश्यक ध्यान दिया जा सके । __ ग्रन्थ के अंतिम भाग में तत्त्वार्थ सूत्र भाषा के नाम से परिशिष्ट दिया गया है। उसमें तत्वार्थ के मूलसूत्रों का अर्थ किया गया है । परन्तु सत्वरतादि कारणों से अर्थ सम्बन्धी कतिपय स्थल संदिग्ध एवं अस्पष्ट से रह गये हैं । अतः वाचक महोदय उन २ स्थलों को सावधानी से पढ़ें । ___ समन्वयकर्ता ने जो दिगम्बर सूत्र पाठों के साथ समन्वय किया है, यह उनके अपने उदार भावों का संसूचक है । जिससे दिगम्बर विद्वान भी आगमों के स्वाध्याय से लाभ पठायें और परस्पर प्रेमभाव सम्पादन कर जैन धर्म का संगठित शक्ति से प्रचार करें । जिस से जनता जैनधर्म के तत्वों को भली भाँति धारण कर सके।
प्रकाशक.
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श्री तत्त्वार्थसूत्र जैनाऽऽगमसमन्वय विषयानुक्रमणिका
की
विषय
प्रथम अध्याय
मोक्ष मार्ग का वर्णन
सम्यग्दर्शन
तीन जन्म
पांच शरीर
सात तत्व
उनको जानने के साधन पांचों ज्ञान का वर्णन
तीन अज्ञान
सात नय
द्वितीय अध्याय
जीव के पांच भाव
नीव का लक्षण जीवों के भेद
इन्द्रियाँ
पांचों इन्द्रियाँ और उनके विषय षट्काय जीव
विग्रहगति
जीवों के वेद परिपूर्ण आयु वाले जीब
⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀
⠀⠀⠀⠀⠀ .⠀
सूत्र संख्या
१-३३
१
२-३
४
५-८
९-३०
३१-३२
३३
१-५३
१–७
८- ९
१०- १४
१५ – १८
१६-२१
२२–२४
२५–३०
३१–३५
३६-४३
५०-५२
५३
पृष्ठ ० जैना ऽऽगमसमन्वय
१
१
५
६
९
२६
२७
२८
२८
४१
४३
४५
४७
४८
४३
५३
५५
६४
દ્રુપ
पृष्ठ भाषा सूत्र
२४४
19
""
""
""
३४५
२४७
99
39
""
२४८
29
२४६
33
"2
२५०
39
२५१
२५२
39
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[ 7 ]
विषय
पृष्ठ त. जैना सूत्र संख्या ऽऽगम- -
- समन्वय
भाषा सूत्र
१-३६
६७
२५३
"
२५४
९-३२ ३३-३६ १-४२
२५६
.
"
तृतीय अध्याय सात नरक मध्यलोक का वर्णन जम्बूद्वीप अढाई द्वीप का वर्णन
चतुर्थ अध्याय चार प्रकार के देव देवों के इन्द्र आदि दश भेद देषों का काम सेवन देवों के आवान्तर भेद स्वर्ग और उनके ऊपर की रचना लौकान्तिक देव तियञ्च जीव देवों की आयु
पश्चम अध्याय
२५७ २५७
१०२ १०६
२५७
१८-२३ २४–२६
२५8
૨૮–કર
११२ ११२ १२३
१२-१५
१२७
१२
द्रव्यों के प्रदेश द्रव्यों का अवगाह जीव के छोटे बड़े शरीर को ग्रहण
करने का दृष्टान्त ... द्रव्यों का उपकार पुद्गल द्रव्य का वर्णन द्रव्य का लक्षण स्कन्धों के बन्ध का वर्णन द्रव्य का दूसरा पक्षण काल द्रव्य
१७-२२ २३-२८ २९-३२ ३३–३७ ३८ ३९-४०
१३७
१३१
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गुण का लक्षण पर्याय का लक्षण
विषय
षष्ठ अध्याय
व का वर्णन
साम्परायिक आस्रव के भेद
आस्रव के अधिकरण
जीवाधिकरण के १०८ भेद
अजीवाधिकरण
आठ कर्मों के आस्रव के कारण
सप्तम अध्याय
पांचों व्रत और उनकी भावनाएं
पांचों पापों के लक्षण
अणुव्रती श्रावक
व्रतों और शिलों के अतीचार दान का वर्णन
अष्टम अध्याय
अनुभाग बन्ध प्रदेश बन्ध
बंध के कारण
बंध का स्वरूप बंध के भेद
प्रकृतिबंध - आठों कर्मों की प्रकृतियां
स्थितिबन्ध
[ ड]
:::::
सूत्र संख्या
४१
४२
१-२७
१-४
५-६
6
'S
८
င်
१०- २७
१-३६
१-१२
१३-१९
२०-२२
२३–३७
३८-३६
१-२६
१
२
mr
३
४–१३
१४-२०
२१-२३
२४
पृष्ठ त० जैना ऽऽगमसमन्वय
१४०
99
१४१
= = =
१४२
१४५
१४६
१५७
19
१६३
१६५
१६७
१७७
१७६
23
"
१८०
"
१९४
१६६
१६७
पृष्ठ
भाषा सूत्र
35
22
35
""
23
२६४
""
ས
"
२६६
"
19
२६७
२६८
99
""
२६६
२७०
39
""
""
""
""
२७२
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________________
[6]
पृष्ट त० जना
प्रष्ट
विषय
सूत्र संख्या
ऽऽगम
समन्बय माषा सूत्र
पुण्य तथा पाप प्रकृतियां
२५-२६ १-४७
१९८ २००
२०१
८-१७
२०५
नवम अध्याय संवर का लक्षण संवर के कारण निर्जरा के कारण तीन गुप्तियां पांच समितियाँ दश धर्म बारह भावनाएं बाईस परीषह जय पांच प्रकार का चारित्र बारह प्रकार के तपों का वर्णन ध्यान का वर्णन चार प्रकार के आर्तध्यान चार प्रकार के रौद्रध्यान धर्म ध्यान के चार भेद चार प्रकार के शुक्ल ध्यान का वर्णन निर्जरा का परिमाण मुनियों के भेद
दशम अध्याय केवल ज्ञान का उत्पत्ति क्रम मोक्ष प्राप्ति क्रम ऊर्ध्व गमन का कारण
: :: :: :: :: :: :: :: :
१९-२६ २७-२६ ३०-३४
२१४ २१८
२१६
२२१
३७-४४
२२३
२२७
४६-४७
"
१-६
२७८
१
२३१
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[
ण ]
पृष्ट त० जना
प्रष्ट
सूत्र संख्या
ऽऽगमसमन्वय
भाषा सूत्र
२३५
२७८
विषय
विषय अलोक में न जाने का कारण सिद्धों के भेद परिशिष्ठ नं. १ परिशिष्ठ नं. २ परिशिष्ठ नं. ३
२३६
२३६. २४४
२७६
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शुभ-संवाद अतीव हर्ष के साथ, सूचित किया जाता है कि-विक्रमाब्द १६६१ कार्तिक शुक्ला चतुर्दशी-चातुर्मास्य समाप्ति के दिन महावीर भवन में, प्राकृत साहित्य
एवं जैनागमों के प्रतिष्ठा प्राप्त विद्वान् उपाध्याय जैनमुनि श्री आत्मारामजी महाराज (पंजाबी), श्री श्वेताम्बर स्थानक बासी जैन संघ देहली द्वारा
'जैन धर्म दिवाकर' पद से विभूषित किये गये हैं।
निवेदकशादीराम गोकुलचंद जौहरी
धन्यवाद [१] २५०) रु० के मूल्य की पुस्तकों के ग्राहक श्रीमान सेठ छोटेलाल जी
पहलावत, मलवर । [२] ५०० प्रति के कागज का मूल्य श्रीमान् लाला कुन्दनलाल जी पारख
सुपुत्र लाला शादीराम जी मालिक फर्म मानसिंह जी मोतीराम जी जौहरी मातीवाड़ा देहली ने दिया। शेष सम्पूर्ण व्यय श्री महावीर जैन भवन चांदनी चौक देहली के कोष में से दिया गया है।
- भवदीयगोकुलचंद नाहर।
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॥ नमोऽत्यु णं समणस्स मगवओ महावीरस्स ॥ जैनमुनि-उपाध्याय-श्रीमदात्माराम महाराज
संगृहीतः
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वयः।
am
प्रथमाध्यायः। सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि मोक्षमार्गः ।
__ तत्वार्थसूत्र अध्याय १, सूत्र १, नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुन्ति चरणगुणा । अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नस्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ॥
उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २८ गाथा ३० तिविधे सम्मे पण्णत्ते, तंजहा-नाणसम्मे दंसणसम्मे चरित्तसम्मे।
स्थानाङ्गसूत्र स्था० ३ उद्देश ४ सूत्र १६४. + सम्मदंसणे दुविहे पएणते, तं जहा-णिसग्गसम्मइंसणे चेव अभिगमसम्मइंसणे चेव । णिसग्गसम्मइंसणे दुविरे पएणते, तं जहा-पडिवाई चेव अपडिवाई चेव । अभिगमसम्मइंसणे दुविहे परणते, त जहा-पडिवाई चेव अपडिवाई चेव ।
स्थानाङ्ग सूत्र, स्थान २ उह०१सूत्र ७०.
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तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वयः
मोक्खमग्गगई तच्चं, सुणेह जिणभासियं ।
चउकारणसंजुत्तं, नाणदसणलक्खणं ॥ नाणं च दंसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा ।
___एस मग्गु त्ति पन्नत्तो, जिणेहिं वरदंसिहिं ॥ नाणं च दंसणं चेव, चरितं च तवो तहा । एयं मग्गमणुप्पत्ता, जीवा गच्छन्ति सोग्गई॥
उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २८ गाथा १-३
दुविहे नाणे पएणत्ते, तं जहा-पञ्चक्खे चेव परोक्खे चेव १ । पञ्चक्खे नाणे दुविहे पन्नत्ते, तं जहा- केवलनाणे चेव णोकेवलनाणे चेव २। केवलणाणे दुविहे पएणत्ते, तं जहा - भवत्थकेवलनाणे चेव सिद्धकेवलणाणे चेव ३ । भवत्थकेवलणाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-सजोगिभवत्थकेवलणाणे चेव, अजोगिभवत्थकेवलणाणे चेव ४ । सजोगिभवत्थकेवलणाणे दुविहे पएणते, तं जहा-पढमसमयसजोगिभवत्थकेवलणणे चेव, अपढमसमयसजोगिभवत्थकेवलणाणे चेव ५, अहवा चरिमसमयसजोगिभवत्थकेवलणाणे चेव अचरिमसमयसजोगिभवत्थकेवलणाणे चेव ६। एवं अजोगिमवत्थकेवलनाणेऽवि ७-८ । सिद्धकेवलणाणे दुविहे पएणत्ते, तं जहा-अणंतरसिद्धकेवलणाणे चेव परंपरसिद्धकेवलणाणे चेव ।। अणंतरसिद्धकेवलनाणे दुविहे पएणत्ते, तं जहा-एक्काणंतरसिद्धकेवलणाणे अणक्काणंतरसिद्धकेवलणाणे चेव १०। परंपरसिद्धकेवलणाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहाएक्कपरंपरसिद्धकेवलणाणे चेव अणेक्कपरंपरसिद्धकेवलणाणे व ११ । णोकेवलणाणे दुविहे पएणते, तं जहा-ओहिणाणे चेव मणपज्जवणाणे चेव १२ । ओहिणाणे दुविहे पएणत्ते, तं जहा-भवपञ्चइए चेव खोवसमिए चेव १३ । दोण्हं भवपञ्चइए पन्नत्ते, तं जहा - देवाणं चेव नेरइयाणं चेव १४ । दोण्हं खोवसमिए पएणत्ते, तं जहामणुस्साणं चेव पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं चेव १५ । मणपज्जवणाणे दुविहे पएणत्ते, तं जहा- उज्जुमति चेव विउलमति चेव १६ । परोक्खे णाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहाआभिणिबोहियणाणे चेव सुयनाणे चेव १७ । आभिणिबोहियणाणे दुविहे परणत्ते,
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प्रथमाध्याय:
[
३
छाया- नादर्शिनिनो ज्ञानं, ज्ञानेन विना न भवन्ति चारित्रगुणाः ।
अगुणिनो नास्ति मोक्षः, नास्त्यमोक्षस्य निर्वाणम् ॥ त्रिविधं सम्यग् प्रज्ञप्तं तद्यथा ज्ञानसम्यग् दर्शनसम्यक् चारित्रसम्यग् । मोक्षमार्गगति तथ्यां, शृणुत जिनभाषिताम् । चतुःकारणसंयुक्तां, ज्ञानदर्शनलक्षणाम् ॥ ज्ञानं च दर्शनं चैव, चारित्रं च तपस्तथा। एष मार्ग इति प्रज्ञप्स :, जिनैर्वरदर्शिभिः॥ ज्ञानं च दर्शनं चैव, चारित्रं च तपस्तथा ।
एतं मार्गमनुप्रासाः, जीवा गच्छन्ति सुगतिं॥ तं जहा-सुयनिस्सिए चेव असुयनिस्सिए चेव १८ । सुयनिस्सिए दुविहे पएणत्ते, तं जहाअत्थोग्गहे चेव बंजणोग्गहे चेव १६ । असुयनिस्सितेऽवि एमेव २० । सुयनाणे दुविहे पएणते, तं जहा - अंगपवि? चेव अंगबाहिरे चेव २१ । अंगबाहिरे दुविहे पएणत्ते, तं जहा - आवस्सए चेव आवस्सयवइरित्ते चेव २२ । आवस्सयवतिरित्ते दुविहे पएणते, तं जहा - कालिए चेव उक्कालिए चेव २३॥
___ स्थानाङ्गसूत्र० स्थान २, उद्दे० १ सूत्र ७१. दुविहे धम्मे पएणते, तं जहा - सुयधम्मे चेव चरित्तधम्मे चेव । सुयधम्मे दुविहे पएणते, तं जहा-सुत्तसुयधम्मे चेव अत्थसुयधम्मे चेव। चरित्तधम्मे दुविहे पएणत्ते, तं जहा - आगारचरित्तधम्मे चेव अणगारचरित्तधम्मे चेव ।
दुविहे संजमे पएणते,* तं जहा - सरागसंजमे चेव वीतरागसंजमे चेव । सरागसंजमे दुविहे पएणते, तं जहा - सुहुमसंपरायसरागसंजमे चेव बादरसंपरायसरागसंजमे चेव । सुहुमसंपरायसरागसंजमे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-पढमसमयसुहुमसंपरायसरागसंजमे चेव अपढमसमयसु० । अथवा चरमसमयसु० अचरिमसमयसु० । अहवा सुहुमसंपरायसरागसंजमे दुविहे पण्णते, त जहा - संकिलेसमाणए चेव विसुज्झमाणए चेव । बादर
* 'अणगारचरित्तधम्मे दुविहे परणत्ते,' इत्यपि पाठान्तरम् ।
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तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वयः
भाषाटीका-सम्यग्दर्शन के बिना सम्यग्ज्ञान होना असम्भव है, ज्ञान के बिना चारित्र के गुण प्रगट नहीं हो सकते, चारित्रगुण हीन का कर्मो से मोक्ष नहीं हो सकता और बिना कर्मो का मोक्ष ( छुटकारा ) हुए निर्वाण होना असम्भव है।
सम्यक् तीन प्रकार का कहा गया है । ज्ञानसम्यक् , दर्शनसम्यक् और चारित्रसम्यक।
जिनेन्द्र भगवान् की कही हुई वास्तविक मोक्ष मार्ग की गति को सुनो । वह गति निम्नलिखित चार कारणों से युक्त है और ज्ञान तथा दर्शन उसके लक्षण हैं।
लोकालोक को देखने वाले जिन भगवान् ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप यह चार कारण उस मोक्ष मार्ग के बतलाये हैं। ___ उन ज्ञान, दर्शन, चारित्र, और तप के मार्ग को प्राप्त करने वाले जीव उत्कृष्ट गति (मोक्ष) को प्राप्त करते हैं।
संपरायसरागसंजमे दुविहे पएणत्ते, तं जहा- पढमसमयबादर० अपढमसमयबादरसं०। अहवा चरिमसमय० अचरिमसमय० । अहवा बायरसंपरायसरागसंजमे दुविहे पएणते, तं जहा-पडिवाति चेव अपडिवाति चेव । वीयरागसंजमे दुविहे पएणत्ते, तं जहाउवसंतकसायवीयरागसंजमे चेव खीणकसायवीयरागसंजमे चेव । उवसंतकसायवीयरागसंजमे दुविहे पएणत्ते, तं जहा-पढमसमयउवसंतकसायवीतरागसंजमे चेव अपढमसमयउव० । अहवा चरिमसमय० अचरिमसमय० । खोणकसायवीवरागसंजमे दुविहे पएणत्ते, तं जहा- छउमत्थखीएकसायवीयरागसंजमे चेव केवलिखीणकसायवीयरागसंजमे चेव। छउमत्थखीणकसायवीयरागसंजमे दुविहे पएणत्ते, तं जहा-सयंबुद्धछउमत्थखीणकषाय. बुद्धबोहियछउमत्थ० । सयंबुद्धछउमत्थ० दुविहे पएणत्ते, तं जहा- पढमसमय० अपढमसमयः । अथवा चरिमसमय० अचरिमसमय० । केवलिखीणकसायवीतरागसंजमे दुविहे परणते, तं जहा-सजोगिकेवलिखीणकसाय. अजोगिकेवलिखीणकसायवीयराग० । सजोगिकेवलिखीणकसायसंजमे दुविहे पएणते, तं जहा- पढमसमय० अपढमसमय० । अहवा चरिमसमय० अचरिमसमय० । अजोगिकेवलिखीणकसाय० संजमे दुविहे पण्णते, तं जहा-पढमसमय० अपढमसमय० । अहवा चरिमसमय० अचरिमसमय० ॥
स्थानांगसूत्र स्थान २ उद्दे० १ सूत्र ७२.
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प्रथमाध्यायः
[ ५
तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ॥
त. सू. १०१, सू०२ तहियाणं तु भावाणं, सब्भावे उवएसणं । भावेणं सद्दहन्तस्स, सम्मतं तं वियाहियं ॥
उत्तरा० अ० २८ गाथा १५ छाया- तथ्यानां तु भावानां, सद्भाव उपदेशनम् ।
भावेन श्रद्दधतः सम्यक्त्वं तद् व्याख्यातम् ॥ भाषा टीका-वास्तविक भावों के अस्तित्व के उपदेश देने तथा उसी भाव से उसका श्रद्धान करने को सम्यक्त्व कहा गया है।
संगति-जीव, अजीव आदि तत्त्वों के उसी स्वरूप का उपदेश देना जो वास्तविक है और जिसका जैन शास्त्रों में वर्णन किया गया है। इसके अतिरिक्त जिस रूप से उसको जानकर उनका उपदेश किया जाता है उसी भाव से उनमें श्रद्धान रखना सम्यग्दर्शन है। तन्निसर्गादधिगमाद्वा॥
त० सू० अ० १, सू०३ सम्मइसणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-णिसग्गसम्महसणे चेव अभिगमसम्मदसणे चेव ॥
स्थानाङ्ग सूत्र स्थान २, उहेश १, सूत्र ७० छाया- सम्यग्दर्शनं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-निसर्गसम्यग्दर्शनं चैव
___ अभिगमसम्यग्दर्शनं चैव ॥ भाषा टीका-वह सम्यग्दर्शन दो प्रकार का होता है, एक निसर्ग सम्यग्दर्शन दूसरा अभिगम सम्यग्दर्शन।
संगति-निसर्ग शब्द का अर्थ स्वभाव है, और अभिगम शब्द का अर्थ ज्ञान है। जो सम्यग्दर्शन पिछले भव अथवा उत्तम संस्कार आदि के स्वभाव से स्वयं ही मात्मा में प्रगट हो उसे निसर्ग सम्यग्दर्शन कहते हैं, किन्तु जो सम्यग्दर्शन भाचार्य,
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तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
गुरु, उत्तम उपदेश देने वाले आदि के द्वारा ज्ञान प्राप्त करके हो उसे अभिगम अथवा अधिगम सम्यग्दर्शन कहते हैं। जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ॥
अ०१, सू०४ नव सम्भावपयत्था पएणत्ते, तं जहा-जीवा अजीवा पुण्णं पावो आसवो संवरो निजरा बंधो मोक्खो स्थानाङ्ग स्थान १, सूत्र ६६५ छाया- नव सद्भावपदार्थाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा जीवा : अजीवा : पुण्यं
पाप : आस्रव : संवरः निर्जरा बन्ध : मोक्षः॥ भाषा टीका-सद्भाव पदार्थ नौ प्रकार के बतलाये गये हैं, और वह इस प्रकार हैं-जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष ।
संगति- 'तत्त्व' शब्द का मूल 'तत्' है । जिसका अर्थ वह होता है । अतएव 'तत् पना' अथवा 'वह पना' 'तत्त्व' है। दूसरे शब्दों में तत्त्व शब्द का अर्थ सद्भाव अथवा अस्तित्व है । संक्षेप से सात तत्त्व रूप से वर्णन किये जाने में यह तत्त्व कहलाते हैं और विशेष रूप से वर्णन करने में यह पदार्थ कहलाते हैं। उस समय आस्रव और बन्ध से पाप और पुण्य प्रथक कर लिये जाते हैं। संक्षेप विविक्षा में पाप और पुण्य का आस्रव और बन्ध में अन्तर्भाव कर दिया गया है। स्थानाङ्ग में विस्तृत कथन होने से नौ पदार्थों का वर्णन किया गया है। किन्तु सूत्रों में संग्रह नय के आश्रित होकर ही संक्षेप से कथन किया गया है। अत: यहां सात तत्वों का वर्णन है। नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यासः॥
अ०१, सू०५ जत्थ य ज जाणेज्जा निक्खेवं निक्खिवे निरवसेसं । जत्थवि अ न जाणेजा चउक्कगं निक्खिवे तत्थ ॥
आवस्सयं चउव्विहं पण्णत्ते, तं जहा-नामावस्सयं ठवणावस्सयं दव्वावस्सयं भावावस्सयं ॥ अनुयोगद्वार सूत्र, सूत्र ८
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छाया
प्रथमाध्यायः
यत्र च यं जानीयात् निक्षेपं निक्षिपेत् निरवशेषं । यत्रापि च न जानीयात् चतुष्कं निक्षिपेत् तत्र ॥ आवश्यकं चतुर्विधं प्रज्ञ, तद्यथा - नामावश्यकं, स्थापनावश्यकं, द्रव्यावश्यकं, भावावश्यकं ।
भाषा टीका - जिसका ज्ञान हो उसको पूर्ण रूप से निक्षेप के रूप में रक्खे । किन्तु यदि किसी वस्तु का ज्ञान न हो तो उसको भी निम्नलिखित चार प्रकार से वर्णन करे - - आवश्यक चार प्रकार के कहे गये हैं- नामावश्यक, स्थापनावश्यक, द्रव्यावश्यक और भावावश्यक ।
[ ७
संगति - निक्षेप 'रखने ' अथवा ' उपस्थित करने' को कहते हैं। जैन शास्त्रों में वस्तु तस्व को शब्दों में रखने, उपस्थित करने अथवा वर्णन करने के चार ढंग बतलाये गये हैं । जिन्हें निक्षेप कहते हैं । अनुयोग द्वार सूत्र का इतना विशेष कथन है कि जिसको जाने उसका भी निक्षेप रूप में वर्णन करे और जिसको न जाने उसको जितना भी समझे कम से कम उतने का अवश्य चार निक्षेप रूप में वर्णन करे । क्यों कि इस प्रकार वस्तुतत्त्व अच्छा समझ में आ जाता है ।
प्रमाणनयैरधिगमः ॥
दव्वाण सव्वभावा, सव्वपमाणेहिं जस्स उवलद्वा सव्वाहिं नयविहीहिं, वित्थाररुइ ति नायव्वो ।
छाया
अ० १, सू० ६
।
उत्तराध्ययन अ० २८ गा० २४
द्रव्याणां सर्वेभावाः, सर्वप्रमाणैर्यस्योपलब्द्धाः । सर्वैर्नयविधिभिः विस्ताररुचिरिति ज्ञातव्य: ।।
भाषा टीका - जिसको द्रव्यों के सब भाव सब प्रमाणों और सब नयों से प्राप्त (ज्ञात) हो चुके हैं, [उसको ] विस्तार रुचि जानना चाहिये ।
संगति - सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय तथा जीव आदि सात तत्वों को चारों निक्षेपों के अतिरिक्त प्रमाण और नय भी जान सकते हैं । किन्तु प्रमाण में समग्र कथन
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- ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वयः
होता है और नयों में विशेष कथन होता है। एक २ नय में एक २ अपेक्षा से बहुत विशेष कथन किया जाता है। अत: प्रमाण से विचार करने के उपरान्त विस्तार से विचार करने के लिये नयों के सब भेदों से विचार करे। क्योंकि प्रमाण वस्तु के सर्वदेश का सामान्य वर्णन करता है और नय वस्तु के एक देश का विशेष वर्णन करती है।
___ अब रत्नत्रय तथा सात तत्वों पर विचार करने का एक और प्रकार बतलाते हैं - निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानतः॥
अ०१, सू०७ निह से पुरिसे कारण कहिं केसु कालं कइविहं ॥
अनुयोगद्वार सूत्र सू० १५१ छाया- निर्देशः पुरुषः कारणं कुत्र केषु काल : कतिविधं ।
भाषा टीका-निर्देश, पुरुष, कारण, कहाँ (किस स्थान में ), किनमें, काल, कितनी प्रकार का।
संगति-सूत्र में निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान का वर्णन है, अनुयोगद्वार सूत्र में पृष्ठ २९४ में इस विषय का बहुत अधिक विस्तार से वर्णन किया गया है, यहां तो केवल थोड़े से नाम छांट लिये गये हैं, किन्तु तो भी इनमें और उनमें विशेष भेद नहीं है। निर्देश तो दोनों में है ही, स्वामित्व और पुरुष में, साधन और कारण में, अधिकरण और कहाँ में, स्थिति और काल में तथा विधान और कितनी प्रकार में कोई विशेष अन्तर न होकर केवल शाब्दिक अंतर है। वो भी अनुयोग के द्वार वाक्यों में 'किनमें ' शब्द अधिक है। क्योंकि आगम में विशेष कथन और सूत्र में सूक्ष्मकथन होता है। सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहुत्वैश्च ॥
अ० १, सू०० से किं तं अणुगमे ? नवविहे पण्णत्ते, तं जहा-संतपयपरूवणया १ दव्वपमाणं च २ खित्त ३ फुसणा य ४ कालो य ५ अंतरं ६ भाग ७ भाव ८ अप्पाबहुँ चेव । अनुयोग द्वार सू० ८०
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प्रथमाध्याय:
छाया- अथ किं तत् अनुगम:? नवविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-सत्पदप्ररूपणता
द्रव्यप्रमाणं च क्षेत्रं स्पर्शनं च कालश्च अन्तरं भागः भाव:
अल्पबहुत्वं चैव । प्रश्न-अनुगम (ज्ञान होने का प्रकार) क्या है ? उत्तर- वह नौ प्रकार का कहा गया है
सत्पदप्ररूपणता, द्रव्यप्रमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाग, भाव
और अल्पबहुत्व । संगति-सत् और सत्पदप्ररूपणता में भेद नहीं है । द्रव्यप्रमाण और संख्या भी प्रथक् भाव वाले नहीं हैं। तत्वार्थसूत्र के शेष पद आगम में वैसे के वैसे ही हैं। अगम वाक्य में भाग अधिक है, जिसका सूत्रकार ने संक्षेप से वर्णन करने के कारण द्रव्य प्रमाण के साथ संख्या में अन्तर्भाव किया है । इस प्रकार आगम तथा सूत्र दोनों में कुछ भी भेद नहीं है। मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम् ॥
भ०१ सूत्र पंचविहे णाणे पण्णत्ते, तं जहा-आभिणिबोहियणणे सुयनाणे ओहिणाणे मणपज्जवणाणे केवलणाणे ॥
स्थानांगसूत्र स्थान : उद्दे० ३ सू० ४६३
अनुयोगद्वार सूत्र १
नन्दिसूत्र १
भगवतीसूत्र शतक ८ उद्देश २ सूत्र ३१८ छाया- पञ्चविधं ज्ञानं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-आभिनिबोधिकज्ञानं श्रुतज्ञानं
अवधिज्ञानं मनःपर्ययज्ञानं केवलज्ञानम् ॥ भाषा टीका-ज्ञान पांच प्रकार का कहा गया है-श्राभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुत ज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यय ज्ञान और केवलज्ञान ।
संगति- इस आगम वाक्य तथा सूत्र में मतिज्ञान के अतिरिक्त और कोई अन्तर नहीं है । सो यह अन्तर भी कुछ अन्तर नहीं है । क्योंकि तत्वार्थसूत्र के इसी
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१० ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
अध्याय के तेरहवें सूत्र में मति का नाम अभिनिबोध भी माना गया है । अतएव अभिनिबोध सम्बन्धी ज्ञान स्वभाव से ही आभिनिबोधिक ज्ञान हुआ ।
तत्प्रमाणे ।
अ० १ सू० १०
आद्ये परोक्षम् ।
अ० १ सू० ११
प्रत्यक्षमन्यत् ।
अ० १ सू० १२
से किं तं जीवगुणप्पमाणे १, तिविहे पण्णत्ते, तं जहागाणगुणप्पमाणे दंसण गुणप्पमाणे - चरित्तगुणप्पमाणे ।
अनुयोगद्वारसूत्र १४४
दुविहे नाणे पण्णत्तं तं जहा - पच्चक्खे चैव परोक्खे चैव १, पच्चक्खे नाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - केवलणाणे चेव गोकेवलणाणे चेव २, गोकेवलणाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहाओहिणाणे चेव मणपज्जवणाणे चेव, परोक्खे गाणे दुविहे पण, तं जहा - आभिणिबोहियणाणे चेव, सुयणाणे चेव ।
छाया
स्थानांगसूत्र स्थान २ उद्दे० १ सू० ७१. अथ किं तत् जीवगुणप्रमाणम् ? त्रिविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा – ज्ञानगुणप्रमाणं दर्शनगुणप्रमाणं चारित्रगुणप्रमाणम् ॥ द्विविधं ज्ञानं प्रज्ञप्तं, तद्यथा— प्रत्यक्षं चैव परोक्षञ्चैव । प्रत्यक्षं ज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा - - केवलज्ञानञ्चैव नोकेवलज्ञानञ्चैव । नोकेवलज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा— अवधिज्ञानं चैव मनःपर्ययज्ञानञ्चैव । परोक्षं ज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा - श्रभिनिबोधिकज्ञानं चैव श्रुतज्ञानं चैव ॥
प्रश्न - जीव का गुण प्रमाण क्या है ?
उत्तर - वह तीन प्रकार का है, ज्ञानगुणप्रमाण, दर्शन गुणप्रमाण, और चारित्र - गुणप्रमाण ।
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प्रथमाध्याय:
[ ११
ज्ञान दो प्रकार का कहा गया है-प्रत्यक्ष और परोक्ष ।।
प्रत्यक्ष ज्ञान भी दो प्रकार का कहा गया है केवल ज्ञान और नोकेवलज्ञान । नोकेवलज्ञान भी दो प्रकार है-अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान ।
परोक्षज्ञान दो प्रकार का कहा गया है-श्राभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान ।
संगति-सूत्रकार की अपेक्षा आगमों में सदा ही विस्तार से वर्णन किया गया है । सूत्रकार केवल ज्ञान को ही प्रमाण मानते हैं। किन्तु आगम ने ज्ञान, दर्शन और चारित्र तीनों को ही प्रथक २ प्रमाण माना है। अनेकान्त नय को मानने वाले जैनधर्म की यह कैसी उत्तम सुन्दरता है। प्रमाण रूप में ज्ञान के भेदों में आगम और सूत्र में कुछ भी अन्तर नहीं है । आगम में एक सुन्दरता विशेष है, वह हैं प्रत्यक्ष के दो भेद-केवलज्ञान
और नोकेवलज्ञान । क्योंकि जैन शास्त्र के अनुसार निश्चय नय से तो केवलज्ञान ही प्रत्यक्ष हो सकता है । अवधि और मनः पर्ययज्ञान वास्तव में नोकेवलज्ञान ही हैं । अतः यह निश्चयनय से नहीं, वरन् सद्भूत व्यवहार नय से प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। प्रत्यक्ष के क्षेत्र को विधर्मियों की दृष्टि से सदा बढ़ाने की आवश्यकता पड़ती रहो । यहां तक कि कालान्तर में परोक्षज्ञान मति ज्ञान के एक रूप को भी व्यवहारनय से संव्यवहारिक प्रत्यक्ष कह कर मानना पड़ा । अतः यहां सूत्रकार और आगम में कुछ भी अन्तर नहीं है। "मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध
इत्यनान्तरम्" ॥ ईहाअपोहवीमंसामग्गणा य गवेसणा। सन्ना सई मई पन्ना सव्वं आभिणिकोहिअं॥
नन्दिसूत्र प्रकरण मतिज्ञानगाथा ८० छाया- ईहाऽयोहविमर्शमार्गणाः च गवेषणा ।
संज्ञा स्मृतिः मतिः प्रज्ञा सर्व आभिनिबोधिकम् ॥ भाषा टीका-ईहा, अपोह, विमर्श, मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, स्मृति, मति, और प्रज्ञा यह सब आभिनिबोधिक ज्ञान ही हैं।
संगति-आगम वाक्य और सूत्र में मति, स्मृति, संज्ञा, और अभिनिबोध तो दोनों
१. १३.
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१२]
तत्वार्थ सूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
जगह मिलते हैं । श्रागम के शेष वाक्यों का स्वरूप एक प्रकार के विचार करने का है। क्यों कि ' ईहनमीहा' जानने की विशेष इच्छा करना ईहा, विशेष तलाश करना अपोह, विशेष विचारना विमर्श तथा विशेष तलाश करना मार्गणा कहलाता है। किसी वस्तु के ऊपर ' चिन्तनम् ' चिन्ता करना - विचार करना चिन्ता कहलाता है। अतएव जान पड़ता है कि सूत्रकार ने चिंता पद से उपरोक्त सब शब्दों को प्रगट किया है। आगमवाक्य में विशेष कथन होने के कारण प्रज्ञा शब्द अधिक है, किन्तु वह भी मति का ही पर्याय वाची है।
'तदिन्द्रियाऽनिन्द्रियनिमित्तम्
॥”
१. १४.
से किं तं पच्चक्खं ? पच्चक्खं दुविहं पण्णत्तं तं जहा - इन्दियपच्चक्खं नोइन्दियपच्चक्खं च ।
"
66
नन्दसूत्र ३, अनुयोगद्वार १४४,
छाया- अथ किं तत् प्रत्यक्षं १ प्रत्यक्षं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा - इन्द्रियप्रत्यक्षं नोइन्द्रियप्रत्यक्षश्च ॥
प्रश्न - वह प्रत्यक्ष क्या है ?
उत्तर- वह प्रत्यक्ष दो प्रकार का है - इन्द्रियप्रत्यक्ष और नोइन्द्रियप्रत्यक्ष ।
संगति - सूत्र में मतिज्ञान के उत्पन्न होने के कारण बतलाये गये हैं कि वह मतिज्ञान इन्द्रिय (पांच) और अनिन्द्रिय ( मन ) से उत्पन्न होता है । फिर यही है कारण मतिज्ञान के ३३६ भेदों में गिन लिये गये हैं । आगम ने कारण विविक्षा न देकर भेदविविक्षा से वही कथन किया है । यह ऊपर दिखला दिया गया है कि मतिज्ञान को (सांव्यवहारिक ) प्रत्यक्ष भी कहा जाने लगा था ।
" अवग्रहेहावायधारणाः ॥ "
१. १५.
से किं तं सुनिस्सिमं ? चउव्विहं पण्णत्तं तं जहा
35
उग्गह १ हा २ वा ३ धारणा ४
नन्दसूत्र २७
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प्रथमाध्याय:
छाया- अथ किं तत् श्रुतनिःसृतम् ? चतुर्विधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-अवग्रह :
ईहा अवायः धारणा। भाषा टीका-वह श्रुत निःसृत क्या है ? वह चार प्रकार का कहा गया हैअवग्रह, ईहा, अवाय, और धारणा ।
संगति—यहां इन चारों का ज्ञान होने की अपेक्षा से मतिज्ञान को श्रुतनिःसृत अर्थात् सुन कर निकला हुआ अथवा शास्त्र सुन कर जाना हुआ माना गया है। "बहुबहुविधक्षिप्रानिःसृतानुक्तध्रुवाणां सेतराणाम्”। ___छव्विहा उग्गहमती पण्णत्ता, तं जहा-खिप्पमोगिरहति बहुमोगिण्हति बहुविधमोगिण्हतिधुवमोगिएहति अणिस्सियमोगिण्हइ असंदिद्धमोगिण्हइ । छव्विहा ईहामती पण्णत्ता, तं जहाखिप्पमोहति बहुमीहति जाव असंदिद्धमीहति । छविधा अवायमतो पण्णत्ता, तं जहा-खिप्पमवेति जाव असंदिद्धं अवेति। छविधा धारणा पण्णता, तं जहा-बहुं धारेइ पोराणं धारेति दुद्धरं धारेति अणिस्सितं धारेति असंदिद्धं धारेति ।
" स्थानांग स्थान ६, सूत्र ५१० जं बहु बहुविह खिप्पा अणिस्सिय निच्छिय धुवे यर विभिन्ना, पुणरोग्गहादओ तो तं छत्तीसत्तिसयभेदं ।।
इयि भासयारेण, छाया- षड्विधा अवग्रहमतिः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-क्षिप्रमवगृह्णाति बहुमव
गृह्णाति बहुविधमवगृह्णाति ध्रुवमवगृह्णाति अनिःसृतमवगृह्णाति असंदिग्धमवगृह्णाति । षड्विधा ईहामतिः प्रज्ञप्ता,तद्यथा-क्षिप्रमीहति बहुमीहति यावदसंदिग्धमीहति । षड्विधा अवायमतिः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-क्षिप्रमवैति यावदसंदिग्धमवैति । षड्विधा धारणा प्रज्ञप्ता,
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१४ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वयः
तद्यथा-बहुं धारयति बहुविधं धारयति पुराणं धारयति दुर्द्धरं धारयति अनिश्रितं धारयति असंदिग्धं धारयति । यत् बहुबहुविधक्षिप्रानिश्रितनिश्चितध्रुवेतरविभिन्ना । यत्पुनरवग्रहादयोऽतस्तत्पत्रिंशदधिकत्रिशतभेदं ॥
इति भाष्यकारेण. भाषा टीका-अवग्रह मति ज्ञान छै प्रकार का होता है-क्षिप्र, बहुविध, ध्रुव, अनिःसृत और असंदिग्ध । इसी प्रकार ईहामति के भी छै भेद होते हैं । अवायमति के भी यही छै भेद हैं और धारणा के निम्नलिखित छै भेद हैं-बहु, बहुविध, पुराण, दुर्द्धर, अनिःश्रित और असंदिग्ध । अवग्रह आदि के इन छै भेदों के अतिरिक्त छै इनके उनटे भेद भी हैं-बहु का अल्प, बहुविध का एकविध, क्षिप्र का अक्षिप्र, अनिःसृत का निःसृत, निश्चित का अनिश्चित तथा ध्रुव का अध्रुव । इन सब भेदों को जोड़ने से मतिज्ञान के ३३६ भेद होते हैं। ऐसा भाष्यकार ने कहा है।
संगति–उपरोक्त भेदों में धारणा के भेदों में क्षिप्र तथा ध्रुव के स्थान में पुराण और दुर्द्धर आता है । भाष्यकार के भेदों में अनुक्त के स्थान में निश्चित आता है। किन्तु यह भेद कोई बड़ा भेद नहीं है। मतिज्ञान से बाहिर न यह हैं न वह हैं। मुख्य बात मतिज्ञान के भेद सम्बन्धी है, जिसके विषय में आगम और तत्त्वार्थसूत्र दोनों एक मत हैं। अतएव इसमें कुछ भी भेद नहीं समझना चाहिये।
"अर्थस्य" ॥
से किं तं अत्थुग्गहे ? अत्थुग्गहे छव्विहे पण्णत्ते, तं जहासोइन्दियअत्युगहे, चक्खिदियअत्थुग्गहे, घाणिंदियअत्युग्गहे, जिभिदियअत्युग्गहे, फासिंदिय अत्युग्गहे, नोइन्दिय अत्थुग्गहे।
नन्दिसूत्र ३०. छाया- अथ किं सः अर्थावग्रहः? अर्थावग्रहः षड्विधः प्रज्ञप्तस्तद्यथा
श्रोत्रेन्द्रियार्थावग्रहः, चक्षुरिन्द्रियार्थावग्रहः, घ्राणेन्द्रियार्थावग्रहः, जिह्व
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[ १५
न्द्रियार्थावग्रहः, स्पर्शनेन्द्रियार्थावग्रहः, नोइन्द्रियार्थावग्रहः ।।
प्रश्न – अर्थावग्रह क्या है । उत्तर - अर्थावग्रह छै प्रकार का कहा गया है -कर्ण इन्द्रिय अर्थावग्रह, चक्षु इन्द्रिय अर्थावग्रह, नासिका इन्द्रिय अर्थावग्रह, रसना इन्द्रिय अर्थावग्रह, स्पर्शन इन्द्रिय अर्थावग्रह और नो इन्द्रिय ( मन ) अर्थावग्रह |
प्रथमाध्याय :
संगति - मतिज्ञान के उपरोक्त सब भेद 'अर्थ' अथवा प्रगटरूप पदार्थ के हैं। सूत्र में अर्थ को प्ररूप पदार्थ और व्यञ्जन को अप्रगट रूप पदार्थ कहा गया है। इस सूत्र में प्रगट रूप पदार्थ का उपसंहार किया गया है । अस्तु, प्रगट रूप पदार्थ के भेदों का विस्तार निम्नलिखित है ।
मतिज्ञान के अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा यह चार भेद हैं । फिर प्रत्येक के बहु बहुविध आदि के भेद से बारह २ भेद हैं, जो बारह को चार से गुणा देने से अड़तालीस हुए। इनमें से प्रत्येक भेद का ज्ञान पांचों इन्द्रिय और मन की अपेक्षा छ २ प्रकार से होता है । अस्तु अड़तालीस को छै में गुरणा देने से २८८ भेद प्रगट रूप (अर्थ) मतिज्ञान के हुए। अगले सूत्रों में बतलाया जावेगा कि अप्रगट रूप पदार्थ के ४८ भेद होते हैं । जिनको २८८ में जोड़ने से मतिज्ञान के कुल भेद ३३६ होते हैं ।
66
""
व्यञ्जनस्यावग्रहः ॥
१. १८
चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् " ॥
" न
१. १8
सुय निस्सिए दुबिहे पणत्ते, तं जहा - अत्थोग्गहे चेव बंजणोवग्गहे चेव ॥
स्थानांग स्थान २ उद्देश १ सूत्र ७१.
से किं तं बंजरगुग्गहे ? बंजरगुग्गहे चउव्विहे पणणत्ते, तं जहा
"
“ सोइन्दियबंजरगुग्गहे, घाणिंदियबंजरगुग्गहे, जिब्भिदियबंजरगुग्गहे,
फासिंदियबंजरगुग्गहे सेतं बंजरग्गहे ॥
नन्दिसूत्र सूत्र २६.
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तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वयः
छाया
श्रुतनिस्त्रितः द्विविधः प्रज्ञप्तस्तद्यथा-अर्थावग्रहश्चैव व्यञ्जनावग्रहश्चैव । अथ किं सः व्यञ्जनावग्रहः १ व्यञ्जनावग्रहश्चतुर्विधः प्रज्ञप्तस्तद्यथाश्रोत्रेन्द्रियव्यञ्जनावग्रहः, घ्राणेन्द्रियव्यञ्जनावग्रहः, जिव्हेन्द्रिय
व्यञ्जनावग्रहः, स्पर्शनेन्द्रियव्यञ्जनावग्रहः, सोऽयं व्यञ्जनावग्रहः ॥ भाषा टीका-शास्त्र के अनुसार वह ज्ञान दो प्रकार का होता है - अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह।
प्रश्न-व्यञ्जनावग्रह क्या है ?
उत्तर-व्यञ्जनावग्रह चार प्रकार का होता है- कर्ण इन्द्रिय व्यञ्जनावग्रह, घ्राण इन्द्रिय व्यञ्जनावग्रह, रसना इन्द्रिय व्यञ्जनावग्रह, स्पर्शन इन्द्रिय व्यञ्जनावग्रह । यह व्यञ्जनावग्रह है।
संगति-इस सूत्र में बताया गया है कि यद्यपि अर्थ (प्रगट रूप पदार्थ) के अवग्रह ईहा, अवाय और धारणा चार भेद होते हैं, किन्तु अप्रगट रूप पदार्थ का केवल अवग्रह ही होता है। अन्य ईहा आदि नहीं होते । अप्रगट रूप पदार्थ की दूसरी विशेषता यह होती है कि यह पांचों इन्द्रियों और छटे मन सभी से नहीं होता, वरन् चक्षु के अतिरिक्त केवल चार इन्द्रियों से ही होता है। व्यञ्जनावग्रह में चक्षु और मन से काम लेना नहीं पड़ता। अस्तु व्यञ्जनावग्रह बहुविध आदि के भेद से बारह प्रकार का होता है। उनमें से प्रत्येक भेद का ज्ञान चार इन्द्रियों (स्पर्शन-रसन-प्राण और कर्ण) से हो सकता है। अतः बारह को चार से गुणा देने पर अप्रगट रूप पदार्थ (व्यञ्जन) के अड़तालीस भेद हुए। जिनको प्रगट रूप पदार्थ के २८८ भेदों में जोड़ने से मत्तिज्ञान के कुल ३३६ भेद होते हैं। "श्रुतं मतिपूर्वं द्वयनेकद्वादशभेदम् ॥”
१. २०. मईपुव्वं जेण सुअं न मई सुअपुग्विा ॥
नन्दि० सूत्र २४. सुयनाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-अंगपविढे चेव अंग बाहिरे चेव ॥
स्थानांग स्था० २, उद्देश १, सू० ७१.
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[ १७
से किं तं अंगपविद्धं ? दुवालसविहं पण्णत्तं तं जहाआयारो १ सुयगडे २ ठाणं ३ समवाओ ४ विवाहपण्णत्ती ५ नायाधम्मकहाओ ६ उवासगदसाओ ७ अंतगडदसा अणुत्तरोववाइअदसाओ ६ पण्हावागरणाई १० विवाग दिट्टिवाओ १२ ॥
८
११
प्रथमाध्याय :
छाया- मतिपूर्वं येन श्रुतं न मति: श्रुतपूर्विका ।
नन्दि० सूत्र ४४.
श्रुतज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा - अङ्गप्रविष्ठश्चैव श्रङ्गबाह्यश्चैव ॥
किं तदङ्गप्रविष्टं १ द्वादशविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा - आचाराङ्गः १ सूत्रकृताङ्गः २ स्थानांगः ३ समवायाङ्गः ४ व्याख्याप्रज्ञप्त्यंगः ५ ज्ञातृधर्मकथाङ्गः ६ उपासकदशाङ्गः ७ अन्त्कृद्दशाङ्गः ८ अनुत्तरोपपादिकदशांङ्गः ९ प्रश्नव्याकरणाङ्गः १० विपाकश्रुताङ्गः ११ दृष्टिवादाङ्गः १२ ॥
भाषा टीका - श्रुत ज्ञान मतिपूर्वक होता है। मविज्ञान श्रुतज्ञान पूर्वक नहीं होता ।
--
श्रुतज्ञान दो प्रकार का कहा गया है - अङ्ग प्रविष्ठ और अङ्गबाह्य ।
प्रश्न - अङ्गप्रविष्ठ क्या है ?
ज्ञाताधर्मकथांग, ७.
उत्तर- वह बारह प्रकार का है- १. आचारांग, २. सूत्रकृतांग, ३. स्थानांग, ४. समवायांग, ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग, ६. उपाशक दशांग, ८. अन्तकृत् दशांग, 8. अनुन्तरोपपादिकदशांग, १०. प्रश्नव्याकरणांग, ११. विपाकश्रुतांग, और १२ दृष्टिवादांग हैं।
अङ्ग बाह्य में कालिक आदि अनेक भेद तथा आवश्यक के छै भेद वर्णन किये
गये हैं।
संगति – यहां सूत्रकार और श्रागमप्रमाण में तनिक भी भेद नहीं है ।
""
भवप्रत्यत्यो ऽवधिर्देवनारकाणाम् ॥”
१. २१
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१८ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वयः
दोण्हं भवपच्चइए पएणते तं जहा-देवाणं चेव नेरइयाणं चेव ।
___ स्थानांग स्थान २, उद्देश १, सूत्र ७१. से किं तं भवपच्चइअं? दुण्हं, तं जहा-देवाण य नेइरयाण य॥
नन्दि० सूत्र ७. छाया- द्वयोः भवप्रत्ययिकः प्रज्ञप्तस्तद्यथा-देवानां चैव नारकाणां चैव ।।
भाषा टीका-भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान दो के ही होता है-देवों के और नारकियों के। "क्षयोपशमनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम् ॥"
१. २२. से किं तं खाओवसमिअं ? खाओवसमिश्र दुण्हं, तं जहामणूसाण य पंचिंदियतिरिक्खजोणियाण य । को हेऊ खाओवसमिअं ? खाओवसमियं तयावरणिजाणं कम्माणं उदिण्णाणं खएणं अणुदिण्णाणं उवसमेणं ओहिनाणं समुपजइ ॥
नन्दिसूत्र सूत्र - दोण्हं खोवसमिए पण्णत्ते, तं जहा-मणुस्साणं चेव पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं थे।
स्थानांग स्था० २, उद्दे० १ सूत्र ७१. छविहे ओहिनाणे पण्णत्ते, तं जहा- अणुगामिए, अणागुगामिते, वड्ढमाणते, हीयमाणते, पडिवाती अपडिवाती ॥
स्थानांग स्थान ६ सूत्र ५२६. छाया- अथ किं तत्क्षायोपशमिकं ? क्षायोपशमिकं द्वयोः, तद्यथा
मनुष्याणाश्च पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाश्च । को हेतु : क्षायोपशमिकं ? क्षायोपशमिकं तदावरणीयानां कर्मणाम् उदीर्णानां क्षयेण अनुदीर्णानामुपशमेनावधिज्ञानं समुपद्यते ।
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प्रथमाध्याय:
[ १६
द्वयोः क्षायोपशमिकः प्रज्ञप्तस्तद्यथा-मनुष्याणाश्च पन्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाश्चैव । पड्विधमवधिज्ञानं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-अनुगामिकः, अननुगामिक :,
वर्द्ध मान :, हीयमान :, प्रतिपाती, अप्रतिपाती, प्रश्न-क्षायोपशमिक अवधिज्ञान क्या होता है ? उत्तर-क्षायोपशमिक दो के ही होता है-मनुष्यों के और तिर्यश्चों के। प्रश्न-यह क्षायोपशमिक किस कारण से कहलाता है ?
उत्तर-पके हुए अवधिज्ञानावरणीय कर्म के क्षय से और विपाक को प्राप्त न होने वाले अवधिज्ञानावरणीय कर्म के उपशम से क्षायोपशमिक अवधिज्ञान उत्पन्न होता है ।
क्षायोपशमिक अवधिज्ञान दो के ही होता है-मनुष्यों के तथा पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों के।
यह अवधिज्ञान छै *प्रकार का होता है-अनुमामिक, अननुगामिक, वर्द्धमान, हीयमान्, प्रतिपाती और अप्रतिपाती।
संगति-आगम बिलकुल स्पष्ट है, उसमें विशेष कथन है । सूत्र में तो सूक्ष्म कथन हुआ ही करता है। "ऋजुविपुलमती मनःपर्ययः॥"
१. २३. मणपजवणाणे दुविहे पएणत्ते, तं जहा-उज्जुमति चेव विउलमति चेव ॥
स्थानांगसूत्र स्थान २ उद्दे० १, सू०७५. छाया- मन:पर्ययज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा - अजुमतिश्चैव विपुल
मतिश्चैव। भाषा टीका-मन:पर्यय ज्ञान दो प्रकार का होता है-ऋजुमती और विपुलमति ।
"विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः॥”
१. २४. * पन्नवणासूत्र पद ३३वें में अवस्थित और अनवस्थित भेद भी आते हैं।
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२० ]
तत्त्वार्थ सूत्र जैनाऽऽगमसमन्वय :
उज्जुमईणं अणंते अांतपए लिए बंधे जाणइ पासइ ते चैव विउलमई, अब्भहियतराए विउलतराए विसुद्वतराए वितिमिरतराए जाइ पासइ, इत्यादि ॥
छाया-
दिसूत्र सूत्र १८.
ऋजुमति : अनन्तान अनन्तप्रदेशकान स्कन्धान जानाति पश्यति तांश्चैव विपुलमति:, अभ्यधिकतरं विपुलतरं विशुद्धतरं वितिमि - रतरं जानाति पश्यति, इत्यादि ।
भाषा टीका - ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान अनन्तप्रदेश वाले अनन्त स्कन्धों को जानता और देखता है । विपुलमति भी उन सबको जानता और देखता है। किन्तु यह उससे बड़े, अधिक, विशुद्धतर तथा अधिक निर्मल को जानता और देखता है ।
।
संगति — सूत्रकार का कथन है कि विपुलमति मन:पर्ययज्ञान ऋजुमति की अपेक्षा अधिक विशुद्ध है तथा अप्रतिपाती होता है । चरित्र से न गिरने को अप्रतिपाती कहते हैं । अर्थात् विपुलमति मन:पर्यय ज्ञान प्राप्त करने पर उपशम श्रेणि न बांधकर क्षपक श्रेणि पर चढ़ता है और क्रमशः चार घातिया कर्मों को नष्ट कर मोक्ष प्राप्त करता है । सारांश यह है कि विपुलमति मन:पर्यय ज्ञान वाला चारित्र से कभी नहीं गिर सकता । अतएव उसको अप्रतिपाती कहा है। जब कि ऋजुमति मन:पर्यय ज्ञान वाले की चारित्र से गिरने की आशंका हो सकती है। आगम में इन दोनों में विशुद्धि का ही भेद माना है । प्रतिपात से वह सहमत नहीं है। जान पड़ता है कि अप्रतिपाती सिद्धान्त मतान्तर सिद्धान्त है ।
“विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्यो ऽवधिमनःपर्यययोः।”
१. २५.
• इड्ढीपत्त अपमत्त संजय सम्मदिट्ठि पज्जतग संखेज्जवासाउ कम्मभूमि गब्भवक्कंति मणुस्साणं मणपज्जवनाणं समुप्पज्जइ ।
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प्रथमाध्यायः
[ २१
तं समासओ चउव्विहं पण्णत्तं, तं जहा-दव्वमो खित्तमओ कालो भावओ इत्यादिकम् ॥
नन्दिसूत्र मनःपर्ययज्ञानाधिकार. छाया- ऋद्धिमाप्ताप्रमत्तसंयतसम्यग्दृष्टिपर्याप्तकसंख्येयवर्षायुष्ककर्मभूमिक
गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याणां मनःपर्ययज्ञानं समुत्पद्यते । तत्समासतश्चतुर्विधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-द्रव्यत : क्षेत्रत : कालतः
भावत : इत्यादिकम् ॥ भाषा टीका-मनःपर्यय ज्ञान केवल उन जीवों के ही होता है जो गर्भज मनुष्य हों, उनमें भी कर्म भूमि के हों, उनमें भी संख्यात वर्ष की आयु वाले हों-असंख्यात वर्ष की भायु वाले नहीं ; फिर उनमें भी पर्याप्तक हों अपर्यापक न हों, उनमें भी सम्यग्दृष्टि हों, फिर उनमें भी सप्तम गुणस्थान अप्रमत्तसंयत वाले हों, और फिर उनमें भी ऋद्धिप्राप्त हों।
संक्षेप से मनःपर्यय ज्ञान चार प्रकार से होता है-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से इत्यादि।
संगति - सूत्र में बतलाया गया है कि अवधि और मनःपर्यय ज्ञान में क्या भेद है। मनःपर्यय ज्ञान अवधिज्ञान की अपेक्षा अधिक विशुद्ध होता है। अवधिज्ञान का क्षेत्र तीन लोक हैं, जब कि मनःपर्यय ज्ञान का क्षेत्र केवल मध्यलोक, उसमें भी अदाई द्वीप
और उसमें भी वह कर्मभूमियां हैं जहां केवल चौथा काल या उसकी सन्धि हो । अवधिज्ञान के स्वामी चारों गतियों में हैं, किन्तु मनःपर्यय ज्ञान के स्वामी ऊपर आगम वाक्य के अनुसार बहुत थोड़े होते हैं । अवधि ज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान के विषय में भी बड़ा भेद है जैसा कि अगले सूत्रों से प्रगट होगा। आगम में यह सब बातें बड़े विस्तार से आई हैं। यह सम्भव नहीं हो सका कि इन सब बातों को दिखलाने वाले छोटे वाक्य उद्धृत किये जाते । किन्तु यह अवश्य है कि आगम और सूत्र दोनों में इस विषय पर मत भेद नहीं है।
-- "मतिश्रुतयोनिबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु,”
२१५.
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२२ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वयः
....... तत्थ दव्वओणं आभिणिबोहियणाणी आएसेणंसव्वाई दव्वाइं जाणइ न पासइ, खेत्तओणं आभिणिबोहियणाणी आएसेणं सव्वं खेत्तं जाणइ न पासइ, कालोणं आभिणिबोहियणाणी आएसेणं सव्वकालं जाणइ न पासइ, भावओणं आभिणिबोहियणाणी आएसेणं सव्वे भावे जाणइ न पासइ ।
नन्दिसूत्र सूत्र ३७. से समासओ चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा-दव्वओ खित्तो कालओ भावो । तत्थ दव्वओणं सुअणाणी उवउत्ते सव्वदवाइं नाणइ पासइ, खित्तओणं सुअणाणी उवउत्ते सव्वं खेत्तं जाणइ पासइ, कालोणं सुअणाणी उवउत्ते सव्वं कालं जाणइ पासइ, भावओणं सुअणाणी उवउत्ते सव्वे भावे जाणइ पासइ।
नन्दिसूत्र सूत्र ५८. छाया- तत्र द्रव्यत: आभिनिबोधिकज्ञानी आदेशेन सर्वाणि द्रव्याणि जानाति
न पश्यति । क्षेत्रत : आभिनिबोधिकज्ञानी आदेशेन सर्व क्षेत्रं जानाति न पश्यति । कालत : आभिनिबोधिक ज्ञानी आदेशेन सर्व कालं जानाति न पश्यति, भावतः आभिनिबोधिकज्ञानी आदेशेन सर्वाणि भावानि जानाति न पश्यति ।। अथ समासतश्चतुर्विध : प्रज्ञप्तस्तद्यथा - द्रव्यत: क्षेत्रतः कालत : भावतः। तत्र द्रव्यत : श्रुतज्ञानी उपयुक्त : सर्वव्याणि जानाति पश्यति, क्षेत्रत : श्रुतज्ञानी उपयुक्तः सर्व क्षेत्रं जानाति पश्यति, कालतः श्रुतज्ञानी उपयुक्तः सर्व कालं जानाति पश्यति, भावत:
श्रुतज्ञानी उपयुक्त : सर्वाणि भावानि जानाति पश्यति । भाषा टीका-द्रव्य की अपेक्षा मतिज्ञान वाला आदेश से सब द्रब्यों को जानता है किन्तु देखता नहीं । क्षेत्र की अपेक्षा मतिज्ञान वाला आदेश से सब क्षेत्र को जानता
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[ २३
है किन्तु देखता नहीं । काल की अपेक्षा मतिज्ञान वाला आदेश से सभी काल को जानता है किन्तु देखता नहीं । भाव की अपेक्षा मतिज्ञान वाला आदेश से सब भावों को जानता है, किन्तु देखता नहीं ।
प्रथमाध्याय:
श्रुतज्ञान संक्षेप से चार प्रकार से होता है - द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भावसे । द्रव्य की अपेक्षा उपयोग युक्त श्रुतज्ञानी सब द्रव्यों को जानता और देखता है । क्षेत्र की अपेक्षा उपयोग युक्त श्रुतज्ञानी सब क्षेत्र को जानता और देखता है । काल की अपेक्षा उपयोग युक्त श्रुतज्ञानी सब काल को जानता और देखता है । भाव की अपेक्षा उपयोग युक्त श्रुतज्ञानी सब भावों को जानता और
देखता है ।
संगति - आगम में उसी बात को विस्तार से कहा गया है, जिसको सूत्र में संक्षेप से कहा है । सूत्र कहता है कि मति तथा श्रुत ज्ञान के विषयों का निबन्ध द्रव्य की थोड़ी पर्यायों में है, अर्थात् मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान जानते तो सब द्रव्यों को हैं किन्तु उनकी सब पर्यायों को नहीं जानते, वरन् थोड़ी पर्यायों को जानते हैं ।
“ रूपिष्ववधेः ।
छाया
""
१.२७.
ओहिनाणी जहन्ने अांताई रूविदव्वाइं जाणइ पासइ । उक्कोसेणं सव्वाई रूविदवाई जाणइ पासइ ।
नन्दिसूत्र सूत्र १६
अवधिज्ञानी जघन्येन अनन्तानि रूपिद्रव्याणि जानाति पश्यति । उत्कर्षेण सर्वाणि रूपिद्रव्याणि जानाति पश्यति ।
भाषा टीका – अवधिज्ञानी जघन्य रूप से अनन्त रूपी द्रव्यों को जानता और देखता है । उत्कृष्ट रूप से वह सभी रूपी द्रव्यों को जानता और देखता है ।
संगति – अवधिज्ञान केवल रूपी द्रव्य को ही जानता है, अरूपी द्रव्यों को नहीं जान सकता। रूपी द्रव्यों में अवधिज्ञान अधिक से अधिक परमाणु तक को जान तथा देख सकता है।
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२४ ]
तत्वार्थ सूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
'तदनन्तभागे मन:पर्ययस्य । ”
१.२८.
सव्वत्थोवा मणपज्जवणाणपज्जवा । श्रहिणाणपज्जवा अ
छाया
(6
तगुणा इत्यादि ।
भगवती सूत्र शत० ८ उद्देश २ सूत्र ३२३., सर्वस्तोकाः मनःपर्ययज्ञानपर्यवा: । अवधिज्ञानपर्यवा: अनन्तगुणा : इत्यादि ।
-
भाषा टीका - मन:पर्यय ज्ञान की पर्याय सब से कम होती हैं । किन्तु अवधिज्ञान की पर्याय उससे अनन्त गुणी होती हैं ।
संगति - जिस द्रव्य को अवधिज्ञान जानता है । मन:पर्यय ज्ञान उससे भी अनन्त भाग सूक्ष्म पदार्थ को जानता है ।
छाया
""
""
सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य ।
१.२९
अह सव्वदव्वपरिणाम
तं समास चउव्विहं भावविण्णत्तिकरणमणंतं, सासयमप्पडिवाई एगविहं केवलं गाणं ।
नन्दि० सूत्र २२.
अथ सर्वद्रव्यपरिणामभावविज्ञप्ति
तत्समासतश्चतुर्विधं करणमनन्तं, शाश्वतमप्रतिपाती एकविधं केवलं ज्ञानम् ।
भाषा टीका - संक्षेप से वह चार प्रकार का होता है - केवल ज्ञान सब द्रव्यों के परिणाम और भावों को बतलाने का कारण है, अनन्त है, निरन्तर रहता है, अप्रतिपाती है अर्थात् इसको प्राप्त करके गिर नहीं सकते । इस प्रकार केवल ज्ञान एक प्रकार का होता है ।
संगति – सारांश यह है कि केवल ज्ञान सब द्रव्यों की सब पर्यायों को जानता है।
-
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प्रथमाध्यायः
[
२५
“एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्व्यः।”
- १. ३०. जे णाणी ते अत्थेगतिया दुणाणी अत्थेगतिया तिणाणी, अत्यंगतिया चउणाणी अत्यंगतिया एगणाणी । जे दुणाणी ते नियमा आभिणिबोहियणाणी सुयणाणी य, जे तिणाणी ते
आभिणिबोहियणाणी सुतणाणी ओहिणाणी य, अहवा आभिणिबोहियणाणी सुयणाणी मणपज्जवणाणी य, जे चउणाणी ते नियमा आभिणिबोहियणाणी सुतणाणी ओहिणाणी मणपजवणाणी य, जे एगणाणी ते नियमा केवलणाणी।
जीवाभि० प्रतिपत्ति १ सूत्र ४१. छाया- ये ज्ञानिन : ते सन्त्येककाः द्विज्ञानिन: सन्त्येककाः त्रिज्ञानिन :
सन्त्येककाः चतु निन: सन्त्येकका : एकज्ञानिनः । ये विज्ञानिन: ते नियमात् आभिनिबोधिकज्ञानी श्रुतज्ञानी च, ये त्रिज्ञानिनस्ते
आभिनिबोधिकज्ञानी श्रुतज्ञानी अवधिज्ञानी च, अथवा आभिनिबोधिकज्ञानी श्रुतज्ञानी मन:पर्ययज्ञानी च, ये चतुर्सानिनस्ते नियमात् प्राभिनिबोधिकज्ञानी श्रुतज्ञानी अवधिज्ञानी मनःपर्ययज्ञानी
च, ये एकज्ञानिनस्ते नियमात् केवलज्ञानी। भाषा टीका- ज्ञानियों में किन्हीं के दो ज्ञान होते हैं, किन्हीं के तीन ज्ञान होते हैं, किन्हीं के चार ज्ञान होते हैं और किन्हों के केवल एक ज्ञान ही होता है। दो ज्ञान वालों के मति और श्रुति होते हैं। तीन ज्ञान वालों के मति, श्रुति और अवधि होते हैं अथवा मति, श्रुति और मनःपर्यय ज्ञान होते हैं । चार ज्ञान वालों के मति, अति, अवधि और मनःपर्यय ज्ञान होते हैं। एक ज्ञान वालों के केवल ज्ञान ही होता है।
संगति-एक आत्मा में एक समय कम से कम एक और अधिक से अधिक चार ज्ञान तक हो सकते हैं। पांचों कभी एक आत्मा में एक साथ नहीं हो सकते ।
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२६ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वयः
“मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च ॥ "सदसतोरविशेषाद् यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् ॥
अणाणपरिणामेणं भंते कतिविधे पण्णत्ते? गोयमा! तिविहे पएणत्ते, तं जहा-मइअणाण परिणामे, सुयप्रणाण परिणामे, विभंगणाणपरिणामे ॥
प्रज्ञापना पद १३ ज्ञानपरिणामविषय
स्थानांग सूत्र स्थान ३. उद्दश्य ३ सूत्र २८७ से किं तं मिच्छासुयं? जं इमं अण्णाणिएहिं मिच्छादिट्ठिएहिं सच्छंदबुद्धिमइ विगप्पियं, इत्यादि।
नन्दि० सूत्र ४२. अविसेसिया मई मइनाणं च मइअन्नाणं च इत्यादि ।
नन्दि सूत्र २५. छाया- प्रज्ञानपरिणाम : भदन्त ! कतिविधः प्रशप्त : ? गौतम! त्रिविध :
प्रज्ञप्तस्तद्यथा-मत्यज्ञानपरिणामः श्रुताज्ञानपरिणामः, विभंगज्ञानपरिणामः। अथ किं तन्मिथ्याश्रुतं ? यदिदं अज्ञानिभिः मिथ्यादृष्टिभि : स्वच्छन्दबुद्धिमतिविकल्पितम् ।।
अविशेषिका मति : मतिज्ञानं मत्यज्ञानश्च इत्यादि । प्रश्न- भगवन् अज्ञान परिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ?
उत्तर- गौतम ! वह तीन प्रकार का कहा गया है-मति अज्ञान अथवा कुमति, श्रुताज्ञान अथवा कुश्रुत, तथा विभंग ज्ञान अथवा कुअवधि ।
प्रश्न-वह मिथ्याश्रुत क्या है ?
उत्तर- स्वच्छन्द बुद्धि वाले मज्ञानी मिथ्यादृष्टियों के बनाये हुए शास्त्र को मिथ्याश्रत कहते हैं।
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प्रथमाध्यायः
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२७
सामान्य रूप से मति मतिज्ञान भी होता है और अज्ञान भी होता है।
संगति -मति, श्रुत और अवधि ज्ञान तो होते ही हैं, अज्ञान भी होते हैं । इनके अज्ञान होने का कारण सूत्र में शराबी का उदाहरण देकर स्पष्ट किया है । जिस प्रकार शराबी मद्य पीकर अच्छे या बुरे के ज्ञान से शून्य होकर माता तथा पत्नी को समान समझता है उसी प्रकार अज्ञानी के मति, श्रुत अथवा अवधि यदि पंचाग्नि आदि तप के कारण प्रगट हो भी जावें तो वह कुमति, कुश्रुत और विभंग कहलाते हैं । आगम में इसका विस्तार से वर्णन किया गया है और सूत्र में इसी को कुछ अक्षरों में ही समाप्त कर दिया गया है।
"नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्द
समभिरूढैवम्भूताः नयाः॥ सत्तमूलणया पण्णत्ता, तं जहा - णेगमे, संगहे, ववहारे, उज्जुसूए, सदे, समभिरूढे, एवंभूए।
अनुयोगद्वार १३६.
स्थानांग स्थान ७ सूत्र ५५२ छाया- सप्तमूलनया: प्रजाप्तास्तद्यथा - नैगम:, संग्रह :, व्यवहारः,
ऋजुसूत्रः, शब्दः, समभिरुढ :, एवंभूतः । भाषा टीका - मूल नय सात कही गई हैं -नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत ।
संगति - यहां आगम और सूत्र के शब्द प्राय : मिलते जुलते हैं।
इति श्री जैनमुनि-उपाध्याय-श्रीमदात्माराम महाराज-संग्रहीते
तत्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वये प्रथमाध्यायः समाप्तः॥१॥
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द्वितीयाऽध्यायः "औपशमिकक्षायिको भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च ॥”
अध्याय २. सूत्र १. छविधे भावे पण्णत्ते, तं जहा-ओदइए उपसमिते खत्तिते खतोवसमिते पारिणामिते सन्निवाइए।
स्थानांग स्थान ६, सूत्र ५३७. छाया- षड्विधः भावः प्रशप्तस्तद्यथा-औदयिका, औपशमिकः, क्षायिकः,
___ क्षायोपशमिकः, पारिणामिकः, सन्निपातिकः ॥ भाषा टीका-भाव छै प्रकार के होते हैं - औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक और सन्निपातिक।
संगति - सूत्र में पांच भाव होते हुए भी आगम में छै भाव विशेष कथन की अपेक्षा से हैं। “द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदा यथाक्रमम्”॥
“सम्यक्त्वचारित्रे ॥” "ज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च ॥" "ज्ञानाज्ञानदर्शनलब्धयश्चतुस्त्रित्रिपञ्चभेदाः
सम्यक्त्वचारित्रसंयमाऽसंयमाश्च ॥”
२.
३.
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द्वितीयाध्यायः
[
२९
“गतिकषायलिङ्गमिथ्यादर्शनाज्ञानासंयतासिद्धलेश्याश्चतुश्चतुस्त्र्येकैकैकैकषड्भेदाः॥"
___२. ६. "जीवभव्याभव्यत्वानि च ॥”
से किं तं उदइए ? दुविहे पण्णत्ते, तं जहा- उदइए म उदयनिप्फरणे अ । से किं तं उदइए ? अट्ठण्डं कम्मपयडीणं उदएणं, से तं उदइए । से किं तं उदयनिप्फन्ने? दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-जीवोदयनिप्फन्ने अ अजीवोदयनिप्फन्ने अ । से किं तं जीवोदयनिप्फन्ने? अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा-णेरइए तिरिक्खजोणिए मणुस्से देवे पुढविकाइए जाव तसकाइए कोहकसाई जाव लोहकसाई इत्थीवेदए पुरिसवेदए णपुंसगवेदए करहलेसे जाव सुक्कलेसे मिच्छादिट्ठो अविरए असरणी अण्णाणी आहारए छउमत्थे सजोगी संसारत्थे असिद्धे, से तं जीवोदयनिप्फन्ने । से किं तं अजीवोदयनिप्फन्ने ? अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा- उरालिअं वा सरीरं उरालिअसरीरपोगपरिणामिअं वा दव्वं, वेउब्वियं वा सरीरं वेउव्वियसरीरपोगपरिणामिअं वा दव्वं, एवं आहारगं सरीरं तेअगं सरीरं कम्मगसरीरं च भाणिअव्वं, पोगपरिणामिए बण्णे गंधे रसे फासे, से तं अजीवोदयनिप्फरणे । से तं उदयनिप्फरणे, से तं उदइए ।
से किं तं उवसमिए ? दुविहे पण्णत्ते, तं जहा- उवसमे
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३० ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
अ उवसमनिप्फणे अ । से किं तं उवसमे? मोहणिजस्स कम्मरस उवसमेणं, से तं उवसमे । से किं तं उवसमनिप्फरणे ? अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा - उवसंतकोहे जाव उवसंतलोभे उवसंतपेज्जे उवसंतदोसे उवसंतदंसणमोहणिज्जे उवसंतमोहणिज्जे उवसमिआ सम्मत्तलद्धी उवसमिआ चरित्तलद्धी उवसंतकसायछउमत्थवीयरागे, से तं उवसमनिप्फरणे । से तं उपसमिए ।
से किं तं खइए ? दुविहे पण्णत्ते तं जहा-खइए अ खयनिप्फरणे अ । से किं तं खइए? अटण्हं कम्मपयडीणं खए णं, से तं खइए । से किं तं खयनिप्फरणे? अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा- उप्पण्णणाणदसणधरे अरहा जिणे केवली खीणआभिणिबोहियणाणावरणे खीणसुअणाणावरणे खीणोहिणाणावरणे खीणमणपजवणाणावरणे खीणकेवलणाणावरणे अणावरणे निरावरणे खीणावरणे णाणावरणिज्जकम्मविप्पमुक्के; केवलदंसी सव्वदंसी खीणनिद्दे खीणनिहानिदे खीणपयले खीणपयलापयले खीणथीणगिद्धी खीणचक्खुदंसणावरणे खीणअचक्खुदंसणावरणे खीणोहिदसणावरणे खीणकेवलदंसणावरणे अणावरणे निरावरणे खीणावरणे दरिसणावरणिज्जकम्मविप्पमुक; खीणसायावेअणिजे खीणअसायावेअणिजे अवेअणे निव्वेअणे खीणवेअणे सुभासुभवेअणिजकम्मविप्पमुक्के खीणकोहे जाव खीणलोहे खीणपेजे खीणदोसे खीणदंसणमोहणिजे खीणचरित्तमोहणिजे अमोहे निम्मोहे खीणमोहे मोह
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द्वितीयाध्याय :
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णिजकम्मविप्पमुक्के; खीणणेरइआउए खीणतिरक्खजोणिआउए खीणमणुस्साउए खीणदेवाउए अणाउए निराउए खीणाउए आउकम्मविप्पमुक्के; गइजाइसरीरंगोवंगबंधणसंघयण संठाणअणेगबोंदिविंदसंघायविप्पमुक्के खीणसुभनामे खीणअसुभणामे अणामे निण्णामे खीणनामे सुभासुभणामकम्मविप्पमुक्के; खीणउच्चागोए खीणणीआगोए अगोए निग्गोए खीणगोए उच्चणीयगोत्तकम्मविप्पमुक्के; खीणदाणंतराए खीणलाभंतराए खीणभोगंतराए खीणउवभोगंतराए खीणविरियंतराए अणंतराए णिरंतराए खीणंतराए अंतरायकम्मविप्पमुक्के; सिद्ध बुद्धे मुत्ते परिणिव्वुए अंतगडे सव्वदुक्खप्पहीणे, सेतं खयनिप्फएणे, से तं खइए। ___से किं तं खओवसमिए? दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-खओवसमिए य खोवसमनिप्फणणे य । से किं तं खोवसमे ? घउण्हं घाइकम्माणं खओवसमेणं, तं जहा-णाणावरणिज्जस्स दंसणावरणिजस्स मोहणिज्जस्स अंतरायस्स खओवसमेणं, से तं खोवसमे । से किं तं खोवसमनिप्फरणे ? अणेगविहे पएणत्ते, तं जहा-खोवसमिआ आभिणिबोहिअ-णाणलद्धी जाव खओवसमिया मणपजवणाणलद्धी खओवसमिआ मइअण्णाणलद्धी खओवसमिया सुअ-अण्णाणलद्धी खोवसमिआ विभंगणाणलद्धीखोवसमिआ चक्खुदंसणलद्धी अचक्खुदंसणलद्धी ओहिदंसणलद्धी एवं सम्मदंसणलद्धी मिच्छादंसणलद्धी सम्ममिच्छा
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३२ ]
तत्त्वाथ सूत्रजैनाऽऽगमसमन्वयः
दसणलद्धी खोवसमिआ सामाइअचरित्तलद्धी एवं छेदोवठ्ठावणलद्धी परिहारविसुद्धिअलद्धी सुहुमसंपरायचरित्तलद्धी एवं चरित्ताचरित्तलद्धी खओवसमिआ दाणलद्धी एवं लाभ० भोग० उपभोगलद्धी खोवसमिआ वीरिअलद्धी एवं पंडिअवीरिअलद्धी बालवीरिअलद्धीबालपंडिअवीरिअलद्धी खोवसमिआ सोइन्दियलद्धी जाव खओवसमिआ फासिंदियलद्धी खोवसमिए आयारंगधरे एवं सुअगडंगधरे ठाणंगधरे समवायंगधरे विवाहपण्णत्तिघरे नायाधम्मकहा० उवासगदसा० अंतगडदसा० अणुत्तरोववाइअदसा० पाहावागरणधरे विवागसुअधरे खोवसमिए दिठिवायधरे खोवसमिए णवपुव्वी खोवसमिए जाव चउद्दसपुव्वी खओसमिए गणी खओवसमिए वायए, से तं खोवसमनिप्फएणे । से तं खोवसमिए ।
से किं तं पारिणामिए ? दुविहे पएणत्ते, तं जहा-साइपारिणामिए अ अणाइपारिणामिए अ। से किं तं साइपारिणामिए ? अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा
जुएणसुरा जुगणगुलो जुगणघयं जुगणतंदुला चेव । अब्भा य अन्भरुक्खा संझा गंधव्वणगरा य ॥२४॥
उक्कावाया दिसादाहा गज्जियं विज्जणिग्घाया जवया जक्खादित्ता धूमिआ महिआ रयुग्घाया चंदोवरागा सूरोवरागा चंदपरिवेसा सूरपरिवेसा पडिचंदा पडिसूरा इन्दधणू उदगमच्छा कविहसिया अमोहा वासा वासधरा गामा णगरा घरा पव्वता
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द्वितीयाध्यायः
[ ३३
पायाला भवणा निरया रयणप्पहा सकरप्पहा वालुअप्पहा पंकप्पहा धूमप्पहा तमप्पहा तमतमप्पहा सोहम्मे जाव अच्चुए गेवेज्जे अणुत्तरे ईसिप्पभाए परमाणुपोग्गले दुपएसिए जाव अणंतपएसिए, से तं साइपरिणामिए । से किं तं अणाइपरिखामिए ? धम्मस्थिकाए अधम्मत्थिकाए आगासस्थिकाए जीवस्थिकाए पुग्गलत्थिकाए अद्धासमए लोए अलोए भवसिद्धिा अभवसिद्धिा , से सं अणाइपरिणामिए । से तं परिणामिए ।
अनुयोगद्वार सूत्र पटभाषाधिकार । छाया- अथ किं सः औदयिकः ? द्विविधः प्रज्ञप्तस्तद्यथा-औदयिकश्च
उदयनिष्पन्नश्च । अथ किं सः औदयिकः ? अष्टानां कर्मप्रकृतीनां उदयेन अथ सः औदयिकः । अथ किं सः उदयनिष्पन्नः१ द्विविधः प्रज्ञप्तस्तद्यथा-जीवोदयनिष्पन्नश्च अजीवोदयनिष्पन्नश्च । अथ किं सः जीवोदयनिष्पन्नः ? अनेकविधः प्रज्ञप्तस्तद्यथा-नैरयिकः तिर्यग्योनिकः मनुष्यः देवः पृथ्वीकायिकः यावत् त्रसकायिकः क्रोधकषायी यावत् लोभकषायी स्त्रीवेदकः पुरुषवेदकानपुंसकवेदकः कृष्णलेश्यः यावत् शुक्ललेश्यः मिथ्यादृष्टिः अविरतः असंज्ञी अज्ञानी आहारकः छद्यस्थः सयोगी संसारस्थोऽसिद्धः। अथ सः जीवोदयनिष्पन्नः । अथ किं सः अजीवोदयनिष्पन्नः १ अनेकविधः प्रज्ञप्तस्तद्यथा-औदारिक वा शरीरं श्रौदारिकशरीरप्रयोगपरिणामिकं वा द्रव्यं, वैक्रियिक वा शरीरं वैक्रियिकशरीरप्रयोगपरिपामिकं वा द्रव्यं, आहारकं शरीरं तैजसं शरीरं कार्माणशरीरं च भणितव्यम्, प्रयोगपरिणामिकः वर्णः गन्धः रसः स्पर्शः, अथ सः अजीवोदयनिष्पन्नः । अथ सः उदयनिष्पन्नः, अथ सः औदयिका।
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३४ ]
तत्त्वार्थसूत्र जैनाऽऽगमसमन्वय :
अथ किं सः औपशमिकः ९ द्विविधः प्रज्ञप्तस्तद्यथा - उपशमश्च उपशमनिष्पन्नश्च । अथ किं सः उपशमः १ मोहनीयस्य कर्मणः उपशमः, अथ सः उपशमः । अथ किं सः उपशमनिष्पन्नः १ अनेकविधः प्रज्ञप्तस्तद्यथा-उपशान्तक्रोधः यावत् उपशान्तलोभः उपशान्तप्रेम उपशान्तदोषः उपशान्तदर्शनमोहनीयः उपशान्तमोहनीयः उपशमिका सम्यक्त्वलब्धिः उपशमिका चारित्रलब्धिः उपशान्तकषाय छयस्थवीतरागः, अथ स उपशमनिष्पन्नः । अथ सः उपशमिकः ।
अथ किं सः क्षायिकः १ द्विविधः प्रशप्तस्तद्यथा - क्षायिकश्च क्षयनिष्पन्नश्च । अथ किं सः क्षायिकः ? श्रष्टानां कर्मप्रकृतीनां क्षयः, अथ सः क्षायिकः । अथ किं सः क्षयनिष्पन्नः ? अनेकविधः प्रज्ञप्तस्तद्यथा – उत्पन्नज्ञानदर्शनधरः श्रर्हज्जिनः केवली क्षीणाभिनिबोधिकज्ञानावरणः क्षीरणश्रुतज्ञानावरणः क्षीरणावधिज्ञानावरण: क्षीणमनःपर्ययज्ञानावरणः क्षीणकेवलज्ञानावरणः अनावरणः निरावरणः क्षीणावरणः ज्ञानावरणीयकर्मविप्रमुक्तः; केवलदर्शी सर्वदर्शी, क्षीणनिद्रः क्षीण निद्रानिद्रः क्षीणप्रचलः क्षीणप्रचलाप्रचलः क्षीणस्त्यानगृद्धी, क्षीणचक्षुदर्शनावरणः क्षणाचक्षुदर्शनावरणः क्षीणाऽवधिदर्शनावरणः क्षीणकेवलदर्शनावरण: अनावरण: निरावरणः दर्शनावरणीय कर्मविप्रमुक्तः; क्षोणसातावेदनीयः क्षीणासातावेदनीयः श्रवेदनः निर्वेदनः क्षीणवेदनः शुभाशुभवेदनीयकर्मविप्रमुक्तः; क्षीणक्रोधः यावत् क्षीणलोभः क्षीण - प्रेम क्षीणदोषः क्षीणदर्शनमोहनीयः क्षीणचारित्र मोहनीयः श्रमोहः निर्मोह: क्षीणमोहः मोहनीय कर्मविप्रमुक्तः; क्षीण नैरयिकायुष्कः क्षीण तिर्यग्योनिकायुष्क क्षीणमनुष्यायुष्कः क्षीण देवायुष्कः अनायुक: निरायुकः क्षीणायुकः श्रायुकर्मविप्रमुक्तः; गतिजातिशरीरां गोपाङ्गबंधन संघातन संहननसंस्थानानेकशरीर - (बोंदि)
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प्रथमाध्यायः
[ ३५
निर्नामः क्षीणनामः शुभाशुभनामकर्मविप्रमुक्तः, क्षीणोच्चगोत्रः क्षीणनीचगोत्रः अगोत्रः निर्गोत्रः क्षीणगोत्रः उच्चनीचगोत्रकर्मविप्रमुक्तः; क्षीणदानान्तरायः क्षीणलाभान्तरायः क्षीणभोगान्तरायः क्षोणोपभोगान्तरायः क्षीणवीर्यान्तरायः अनन्तरायः निरन्तरायः क्षीणान्तरायः अन्तरायकर्मविप्रमुक्तः; सिद्धः बुद्धः मुक्तः परिनिर्वृतः अन्तकृत् सर्वदुःखपहीणः, अथ सः क्षयनिष्पन्नः। अथ सः क्षायिकः ।
अथ किं सः क्षायोपशमिकः? द्विविधः प्रज्ञप्तस्तद्यथा-क्षायोपशमिकश्च क्षायोपशमनिष्पन्नश्च । अथ किं सः क्षयोपशमः ? चतुणी घातिकर्मणां क्षयोपशमः, तद्यथा-ज्ञानावरणीयस्य दर्शनावरणीयस्य मोहनीयस्य अन्तरायस्य क्षयोपशमः, अथसः क्षयोपशमः । अथ किं सः क्षयोपशमनिष्पनः । अनेकविधः प्रजप्तस्तद्यथा -क्षयोपशमिका आभिनिबोधिकज्ञानलब्धिः यावत् क्षयोपशमिका मनःपर्ययज्ञानलब्धिः क्षयोपशमिका मत्यज्ञानलब्धिः क्षयोपशमिका श्रुताज्ञानलब्धिः क्षयोपशमिका विभंगज्ञानलब्धिः क्षयोपशमिका चक्षुदर्शनलब्धिः अचक्षुदर्शनलब्धिः अवधिदर्शनलब्धिः एवं सम्यग्दर्शनलब्धिः मिथ्यादर्शनलब्धिः सम्यमिथ्यादर्शनलब्धिः क्षयोपशमिका सामायिकचारित्रलब्धिः एवं छेदोपस्थापनालब्धिः परिहारविशुद्धिकलब्धिः सूक्ष्मसाम्परायचारित्रलब्धिः एवं चरित्राचरित्रलब्धिः क्षयोपशमिका दानलब्धिः एवं लाभ० भोग० उपभोगलब्धिः क्षयोपशमिका वीर्यलब्धिः एवं पंडितवीर्यलब्धिः बालवीर्यलन्धिः बालपण्डितवीर्यलब्धिः क्षयोपशमिकाश्रोत्रंद्रियलब्धिः यावत् क्षयोपशमिका स्पर्शनेन्द्रियलब्धिः क्षयोपशमिकः आचाराङ्गधरः एवं सूत्रकृतांगधरः स्थानाधरः समवायाधरः व्याख्याप्रज्ञप्तिधरः ज्ञाताधर्मकथाधरः उपासकदशा
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तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
धर : अन्तकृदशाङ्गधर : अनुत्तरोपपातिकदशाङ्गधरः प्रश्नव्याकरणागधर विपाकश्रुतघर : क्षयोपशमिक : दृष्टिवादधर : क्षयोपशमिक : नवपूर्वी यावत् क्षयोपशमिक : चतुर्दशपूर्वी प्रयोपशमिक गणिः क्षयोपशमिक : वोचक :, अथ स : क्षयोपशमनिष्पन्न :, अथ सक्षयोपशमिक ।
अथ किं स : पारिवामिक : १ द्विविधः प्रज्ञप्तस्तद्यथा-सादिपारिणामिकश्च अनादिपारिणामिकश्च। अथ किं स: सादिपारिणामिकः ? अनेकविधः प्रज्ञप्तस्तद्यथा - जीर्णसुरा जीर्णगुड : जीर्णघृतं जीर्णतंदुलाश्चैव । अभ्राणि च अभ्रवृक्षा : सन्ध्या गन्धर्वनगराणि च । उल्कापाता : दिग्दाहा : गर्जिसविद्यु निर्घाता : यूपका : यक्षादीप्तकानि धूमिका महिका रज उद्घात : चन्द्रोपरागा : सूर्योपरागा : चन्द्रपरिवेषाः सूर्यपरिवेषा : प्रतिचन्द्र : प्रतिसूर्य : इन्द्रधनु : उदकमत्स्याः [इन्द्रधनु : खण्डानि] कपिहसितानि अमोघा वर्षा : वर्षधराः ग्रामा : नगराः गृहाणि पर्वताः पाताला : भूवनानि नारका : रत्नप्रभा शर्करप्रभा बालुकप्रभा पङ्कप्रभा धूमप्रभा तमःप्रभा तमःतमःप्रभा सौधर्मः यावत् अच्युत : वैयक : अनुत्तर : ईपित्मागभारा परमाणुपुदगल : द्विप्रदेशिक : यावत् अनन्तप्रदेशिक :, अथ स: सादिपारिणामिक : । अथ किस : अनादिपारिणामिक : १ धर्मास्तिकायः अधर्मास्तिकायः आकाशास्तिकायः जीवास्तिकाय: पुदगलास्तिकायः अद्धासमयः लोक : अलोक : भव्यसिद्धिका
अथ स : अनादिपारिणामिक ः। अथ स : पारिणामिक : । भाषा टीका-औदयिक किसे कहते हैं ? वह दो प्रकार का होता है - औदयिक और उदयनिष्पन्न । औदयिक किसे कहते हैं ? आठों कर्मों की प्रकृतियों के उदय से मोदयिक भाव होता है। उदयनिष्पन्न किसे कहते हैं ? वह दो प्रकार का होता है -
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द्वितीयाध्यायः
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जीवोदय निष्पन्न तथा अजीवोदय निष्पन्न । जीवोदय निष्पन्न किसे कहते हैं? वह अनेक प्रकार का कहा गया है - नारकी, तिर्यच मनुष्य, देव, पृथ्वी कायिक से लगाकर त्रस काय तक, क्रोधकषाय वाले से लगाकर लोभ कषाय वाले तक, स्त्री वेद वाले, पुरुषवेद वाले, नपुंसक वेद वाले, कृष्णलेश्या वाले से लगाकर शुक्ललेश्या वाले तक, मिथ्यादृष्टि, अविरत, असंज्ञी, अज्ञानी, श्राहारक, छद्मस्थ, सयोगी, संसारी और असिद्ध । इसको जीवोदय निष्पन्न कहते हैं। अजीवोदय निष्पन्न किसे कहते हैं ? वह अनेक प्रकार का होता है - औदारिक शरीर अथवा औदारिक शरीर के प्रयोग के परिणाम वाला द्रव्य, वैक्रियिक शरीर अथवा वैक्रियिकशरीर के प्रयोग के परिणाम वाला द्रव्य, इसी प्रकार आहारक शरीर, तेजस शरीर और कार्माण शरीर भी अजीवोदय निष्पन्न हैं। प्रयोग के परिणाम वाले वर्ण, गंध, रस और स्पर्श भी अजीवोदय निष्पन्न हैं । यह उदय निष्पन्न है । इस प्रकार औदयिक भाव का वर्णन किया गया ।
औपशमिक किसे कहते हैं ? वह दो प्रकार का कहा गया है - उपशम और उपशम निष्पन्न । उपशम किसे कहते हैं ? मोहनीय कर्म के उपशम (दबजाने) को उपशम कहते हैं। उपशम निष्पन्न किसे कहते हैं ? वह अनेक प्रकार का कहा गया है । उपशान्त क्रोध से लगाकर उपशान्त लोभ तक, उपशान्त राग, उपशान्त दोष (दुष), उपशान्त दर्शनमोहनीय, उपशान्त मोहनीय, उपशमिक सम्यक्त्वलब्धि, उपशमिक चारित्रलब्धि और उपशान्तकषाय छद्यस्थ वीतराग । इसको उपशम निष्पन्न कहते हैं। इस प्रकार उपशमिक भाव का वर्णन किया गया।
सायिक किसे कहते हैं ? वह दो प्रकार का होता है.- क्षायिक और क्षयनिष्पन्न । क्षायिक किसे कहते हैं ? आठों कर्म प्रकृतियों के क्षय को क्षायिक कहते हैं । क्षयनिष्पन्न किसे कहते हैं ? वह अनेक प्रकार का है - उत्पन्न हुए ज्ञान और दर्शन के धारक, अर्हन्तजिन, केवली, मतिज्ञानावरणीय को नष्ट करने वाले, श्रुतज्ञानावरणीय को नष्ट करने वाले, अवधिज्ञानावरणीय को नष्ट करने वाले, मनःपर्ययज्ञानावरणीय को नष्ट करने वाले, केवलज्ञानावरणीय को नष्ट करने वाले, केवलदर्शी, सर्वदर्शी; निद्रादर्शनावरणीय को नष्ट करने वाले, निद्रानिद्रा को नष्ट करने वाले, प्रचलादर्शनावरणीय को नष्ट करने वाले, प्रचलाप्रचला को नष्ट करने वाले, स्त्यानगृद्धि को नष्ट करने वाले, चक्षुदर्शनावरणीय को नष्ट करने वाले, अचक्षुदर्शनावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय को नष्ट करने वाले, केवल
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३८ ]
तत्त्वार्थसूत्रजनाऽऽगमसमन्वयः
दर्शनावरणीय को नष्ट करने वाले, आवरणरहित, आवरण को निकालने वाले, इस प्रकार दर्शनावरणीय कर्म से सब प्रकार छूटे हुए; साता वेदनीय को नष्ट करने वाले, असाता वेदनीय को नष्ट करने वाले, वेदना रहित, वेदना को दूर करने वाले, वेदना को नष्ट करने वाले, शुभ और अशुभ वेदनीय फर्म से सब प्रकार छूटे हुए; क्रोध मान, माया लोभ को नष्ट करने वाले, प्रम (राग) को नष्ट करने वाले, दोष को दूर करने वाले, दर्शन मोहनीय को नष्ट करने वाले, चारित्रमोहनीय को नष्ट करने वाले, मोह रहित, मोह को दूर करने वाले, मोह को नष्ट करने वाले इस प्रकार मोहनीय कर्म से सब प्रकार छूटे हुए; नरक आयु को नष्ट करने वाले, तियेच आयु को नष्ट करने वाले, मनुष्य आयु को नष्ट करने वाले, देव आयु को नष्ट करने करने वाले, आयु कर्म रहित, आयु कर्म को दूर करने वाले, इस प्रकार आयु कर्म से सब प्रकार छूटे हुए; गति, जाति, शरीर, अङ्गोपाङ्ग, बन्धन, संघात, संस्थान और अनेक शरीरों के समूह के संघात से छूटे हुए, शुभ नाम कर्म को नष्ट करने वाले, अशुभ नाम कर्म को नष्ट करने वाले, नाम कर्म रहित, नाम कर्म को दूर करने वाले, नाम कर्म को नष्ट करने वाले और इस प्रकार शुभ तथा अशुभ नाम कर्म से छूटे हुए; उच्च गोत्र कर्म को नष्ट करने वाले, नीच गोत्र कर्म को नष्ट करने वाले, गोत्र रहित, गोत्र कर्म को दूर करने वाले, गोत्र कर्म को नष्ट करने वाले, और इस प्रकार उच्च तथा नीच गोत्र कर्म से सब प्रकार छूटे हुए; दानान्तराय को नष्ट करने वाले, लाभान्तराय को नष्ट करने वाले, भोगान्तराय को नष्ट करने वाले, उपभोगान्तराय को नष्ट करने वाले, वीर्यान्तराय कर्म को नष्ट करने वाले, अन्तराय कर्म रहित, अन्तराय कर्म को दूर करने वाले, अन्तरायकर्म को नष्ट करने वाले इस प्रकार अन्तराय कर्म से सब प्रकार छूटे हुए; सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, निर्वाण प्राप्त, कर्मों का अन्त करने वाले, सब प्रकार के दुःखों से सर्वथा मुक्त भाव को क्षय निष्पन्न कहते हैं, इस प्रकार क्षायिकभाव का वर्णन किया गया।
क्षायोपशमिक भाव किसे कहते हैं ? वह दो प्रकार का होता है-क्षायोपशमिक और क्षयनिष्पन्न । क्षयोपशम किसे कहते हैं ? चार घातिया कर्मो के क्षयोपशम होने को क्षायोपशमिक कहते हैं । वह इस प्रकार हैं-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय का क्षयोपशम क्षयोपशम कहलाता है। क्षयोपशम निष्पन्न किसे कहते हैं ? वह अनेक प्रकार का कहा गया है-क्षयोपशमिक मतिज्ञान लब्धि से लगाकर क्षयोपशम मनःपर्यय ज्ञान लब्धि तक, क्षयोपशमिक मत्यज्ञान लब्धि, क्षयोपशम श्रुताज्ञानलब्धि, क्षयोपशमिक
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द्वितीयाध्याय :
विभंगज्ञानलब्धि; क्षयोपशमिक चक्षुदर्शनलब्धि, अचक्षुदर्शनलब्धि, अवधिदर्शनलब्धि, सम्यग्दर्शनलब्धि, मिथ्यादर्शनलब्धि, सम्यक्मिध्यादर्शनलब्धि, सामायिकचारित्रलब्धि, छेदोपस्थापनालब्धि, परिहारविशुद्धिकलब्धि, सूक्ष्मसाम्परायचारित्रलब्धि, चारित्राचारित्रलब्धि; क्षयोपशमिक दानलब्धि, लाभलब्धि, भोगलब्धि, उपभोगलब्धि, क्षयोपशमिक वीर्यलब्धि, इसी प्रकार पंडितवीर्यलब्धि, बालवीर्यलब्धि, बालपंडितवीर्यलब्धि; क्षयोपशमिक कर्णेन्द्रियलब्धि से लगाकर क्षयोपशमिक स्पर्शनेन्द्रियलब्धि तक; क्षयोपशमिक आचारांगधारी, इसी प्रकार सूत्रकृतांगधारी, स्थानांगधारी, समवायांगधारी, व्याख्याप्रज्ञप्तिधारी, ज्ञाताधर्मकथांगधारी, उपासकदशांगधारी, अन्तकृद्दशांगधारी, अनुत्तरोपपातिकदशांगधारी, प्रश्नव्याकरणांगधारी, विपाकश्रुतधारी, क्षयोपशमिक दृष्टिवादधारी, क्षयोपशमिक नवपूर्व से लगाकर क्षयोपशमिक चतुर्दश पूर्व तक धारण करने वाले, क्षयोपशमिक गणि और क्षयोपशमिक वाचक । यह क्षयोपशम निष्पन्न है। इस प्रकार क्षयोपशमिक भाव का वर्णन हुआ।
पारिणामिक भाव किसे कहते हैं ? वह दो प्रकार का होता है-सादि पारिणामिक और अनादि पारिणामिक । सादि पारिणामिक किसे कहते हैं ? वह अनेक प्रकार का बतलाया गया है -पुरानी शराब, पुराना गुड़, पुराना घी और पुराने चावल, बादल, अभ्रवृक्ष (झाड़ के आकार में परिणमित बादल), सन्ध्या, गन्धर्वो के नगर, उल्कापात, दिशाओं का जलना, गरजती हुई बिजली का शब्द, शुक्लपक्ष के प्रथम तीन दिन में सन्ध्या समय सूर्य की प्रभा तथा चन्द्रमा की प्रभा का एकत्र होना (यूपक), एक ही दिशा में थोड़े थोड़े अन्तर से बिजली की सी चमक का दिखाई देना-भूत प्रत आदि का चमत्कार (यक्षादीप्तक), धुंए के समान दूर से धुंधला दिखाई देने वाला पदार्थ कुहरा (धूमिका ), पाला (महिका), धूल के उड़ने के कारण उत्पन्न हुआ अन्धकार
आंधी (रज उद्घात), चन्द्र ग्रहण, सूर्य ग्रहण, चन्द्रमा के आसपास का मण्डल (चन्द्रपरिवेष), सूर्य के आस पास का मण्डल (सूर्यपरिवेष ), चन्द्रमा के सामने दूसरे चन्द्रमा का दिखलाई देना-चन्द्रमा की परछाई या प्रतिबिम्ब (प्रतिचन्द्र), सूर्य के सामने दूसरे सूर्य का दिखलाई देना-सूर्य की परिछाई या प्रतिविम्ब (प्रतिसूर्य), इन्द्र धनुष, इन्द्रधनुष के टुकड़े, आकाश में अकस्मात् दिखाई देने वाली भयङ्कर ज्वाला (कपिहसित), बिना बादलों की बिजली (अमोघ); भरत आदि क्षेत्र. भरत आदि
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४०]
तत्वार्थ सूत्र जैनाऽऽगमसमन्वय :
क्षेत्रों की मर्यादा बांधने वाले कुलाचल पर्वत ( वर्षधर पर्वत ) ग्राम, नगर, घर, पर्वत, पाताल, लोक, नारकी, रत्नप्रभा, शर्करप्रभा, बालुकाप्रभा, पङ्कप्रभा, धूमप्रभा, तमप्रभा, तमतम प्रभा, सौधर्मस्वर्ग से लगाकर अच्युत स्वर्ग तक, ग्रैवेयक, अनुत्तर, सिद्धशिला ( ईषत्प्रागभार), पुद्गल परमाणु, दो प्रदेश वाले से लगाकर अनन्तप्रदेश वाले तक । इन सबको सादि पारिणामिक कहते हैं । अनादिपारिणामिक किसे कहते हैं ? धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, श्रद्धा समय, लोक, लोक, भव्यत्व, और अभव्यत्व | यह अनादि पारिणामिक भाव । इस प्रकार पारिणामिक भाव का वर्णन किया गया ।
संगति - सूत्र में और आगम में दोनों ही स्थानों पर भावों का अपनी २ अपेक्षा दृष्टि से बड़ा सुन्दर वर्णन किया गया है। सूत्र में भावों को केवल जीव द्रव्य की अपेक्षा से लिया गया है । किन्तु आगम में अजीव द्रव्यों की अपेक्षा का भी ध्यान रक्खा गया है । औपशमिक, क्षायिक, और क्षायोपशमिक केवल जीव के ही हो सकते हैं। तीनों का वर्णन जीव की ही अपेक्षा से किया गया है। श्रदायिक तथा पारिणामिक में जीव और अजीव दोनों ही अपेक्षाओं की गुंजायश होने के कारण दोनों अपेक्षादृष्टियों से वर्णन किया गया है ।
गम के औपशमिक भाव के वर्णन में जितने विशेष भेद दिखलाये हैं सूत्र में सम्यक्त्व तथा चारित्र उनका ही विस्तार हैं, जो कि विस्तार दृष्टि वाले आगम की सुन्दरता का ही कारण है ।
क्षायिक भाव का वर्णन आगम में सिद्धों की अपेक्षा से किया गया है । क्योंकि परम सिद्ध भगवान् ही उत्कृष्ट क्षायिक भाव के धारक हो सकते हैं। आगम में आरम्भ में अर्हन्त भगवान् को भी क्षायिक भाव का धारक माना है और इसी मत का वर्णन सूत्र में किया गया है । अत: इस वर्णन में भी विशेष कथन ही है।
क्षयोपशम केवल कर्मों की सर्वघाती प्रकृतियों का 'हुआ करता है । सर्वघाती प्रकृतियां केवल घातिया कर्मों की कहलाती हैं । अतः आगम तथा सूत्र दोनों ने चारों घातिया कर्मों के क्षयोपशम को ही क्षायोपशमिक भाव माना है । श्रगम में उन भेदों के अवान्तर भेदों का भी वर्णन करके विषय को विस्तार पूर्वक लिखा है ।
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द्वितीयाध्यायः
[ ४१
औदयिक भाव के वर्णन में आगम के जीवोदय निष्पन्न में से जीव की अपेक्षा कथन करते हुए सूत्र ने संक्षेप से इक्कीस भेदों का वर्णन किया है। अन्तर केवल इतना है कि सूत्र के अज्ञान के स्थान में आगश्र ने अज्ञानी और छद्मस्थ को विशेष दृष्टि से प्रथक् २ माना है । असंयत को अविरत नाम दिया गया है। इनके अतिरिक्त आगम में छै काय, असंज्ञी, आहारक, सयोगी और संसारी को भी प्रथक् भेद माना है जो केवल विस्तृत वर्णन की अपेक्षा से है। तात्विक अंतर सूत्र का आगम से इस विषय में भी नहीं है।
अजीवोदय निष्पन्न का वर्णन करते हुए आगम ने पांचों शरीर, उनकी पर्याय तथा उनमें रहने वाले स्पर्श रस, गंध और वर्ण का वर्णन भी किया है जो जीव की अपेक्षा न होने के कारण सूत्रकार ने नहीं लिया है।
परिणामिक भाव के वर्णन में आगम ने पांचों अजीव द्रव्य, उनकी अनेक विविध पर्यायें तथा उन सब के रहने के स्थानों का वर्णन करते हुए अन्त में जीव के भव्यत्व और अभव्यत्व का वर्णन किया है। अत: इन पांचों भावों के वर्णन में भी सूत्र और आगम में अन्तर नहीं कहा जा सकता। सूत्रकार ने सुखबोध के लिये केवल जोव के ही पारिणामिक भावों का आगम से ग्रहण किया है।
"उपयोगो लक्षणम्
उवमोगलक्खणे जीवे ।
भगवती सूत्र शत० २, उद्देश्य १०. जीवो उवओगलक्खणो।
उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २८, गाथा १०. छाया- उपयोगलक्षण; जीवः ।
जीव : उपयोगलक्षण । भाषा टीका-जीव का लक्षण उपयोग है। संगति-आगम तथा सूत्र के शब्दों में कितना शब्द साम्य है।
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४२ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वयः
“सद्विविधोऽष्टचतुर्भेदः।” कतिविहे णं भंते! उवओगे पण्णत्ते? गोयमा! दुविहे उवमओगे पण्णत्ते, तं जहा -सागारोवओगे, अणगारोवओगे य ॥१॥ सागारोवोगे णं भंते! कतिविहे पणते ? गोयमा! अट्ठविहे पण्णत्ते।
प्रज्ञापना सूत्र पद २६ अणगारोवोगे णं भंते! कतिविहे पण्णते? गोयमा ! चउविहे पण्णत्ते।
प्रज्ञापना सूत्र पद २६ छाया- कतिविधः भदन्त ! उपयोगः प्रज्ञप्तः १ गौतम ! द्विविधः
उपयोगः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- साकारोपयोगः, अनाकारोपयोगश्च । साकारोपयोगः भदन्त कतिविधः प्रज्ञप्तः ? मौतम! अष्टविधः प्रज्ञप्तः? अनाकारोपयोगः भदन्त ! कतिविधः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! चतुर्विधः
प्रज्ञप्तः। प्रश्न-भगवन् ! उपयोग कितने प्रकार का बतलाया गया है ?
उत्तर – गौतम ! उपयोग दो प्रकार का बतलाया गया है- साकारोपयोग और अनाकारोपयोग।
प्रश्न - भगवन् ! साकारोपयोग कितने प्रकार का कहा गया है ? उत्तर – गौतम ! वह आठ प्रकार का कहा गया है। प्रश्न - भगवन् ! अनारोपयोग कितने प्रकार का कहा गया है ? उत्तर – गौतम ! वह चार प्रकार का कहा गया है।
संगति – यहां भी सूत्र और आगम बिलकुल एक ही बात को बतला रहे हैं। आठ प्रकार का सकारोपयोग पांच ज्ञान तथा तीन अज्ञान रूप है और चार प्रकार का अनाकारोपयोग चार प्रकार का दर्शन है।
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द्वितीयाध्यायः
[ ४३
“संसारिणो मुक्ताश्च ॥"
२. १०. दुविहा सव्वजीवा पएणत्ता, तं जहा-सिद्धा चेव असिद्धा चेव।
स्थानांग स्थान २ उद्दे० १ सूत्र, १०१. संसारसमावन्नगा चेव असंसारसमावन्नगा चेव ॥
स्थानांग स्थान २, उद्दे० १, सूत्र ५७ छाया- द्विविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सिद्धाश्चैव असिद्धाश्चैव ।
संसारसमापनकाश्चैवासंसारसमापनकाश्चैव ॥ भाषा टीका - सब प्रकार के जीव दो प्रकार के होते हैं - सिद्ध और प्रसिद्ध, अथवा संसारी और असंसारी।
संगति - सिद्ध और मुक्त तथा प्रसिद्ध और संसारी का शाब्दिक अन्तर बिलकुल स्पष्ट है। “समनस्काऽमनस्काः ॥"
२, ११. दुविहा नेरइया पगणता, तं जहा - सन्नी चेव प्रसन्नी चेव, एवं पंचेदिया सव्वे विगलिंदियवजा जाव वाणमंतरा वेमाणिया।
__स्थानाङ्ग स्थान २ उद्दे०१ सूत्र ७६ छाया- द्विविधौ नैरयिको प्रज्ञप्तौ, तद्यथा - संज्ञी चैव अंसज्ञी चैव । एवं
पञ्चेन्द्रियाः सर्वे विकलेन्द्रियवाः यावत् व्यन्तराः वैमानिकाः। भाषा टीका - नारकी दो प्रकार के होते हैं - संञी और असंही। इसी प्रकार विकलेन्द्रिय के अतिरिक्त व्यन्तर और वैमानिक तक सभी पंचेन्द्रियों के संज्ञी और असंज्ञी भेद होते हैं।
संगति - जिनके मन हो उनको समनस्क अथवा संज्ञी कहते हैं और जिनके मन न हो उनको अमनस्क अथवा असंज्ञी कहते हैं । इस विषय में सूत्रकार और आगम का केवल शाब्दिक भेद है । एक इन्द्रिय से लगाकर चौइन्द्रिय सक के जीव बिना मन वाले
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४४ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
ममनस्क अथवा असंज्ञी ही होते हैं । अतएव उनमें संज्ञी असंज्ञी की भेद कल्पना नहीं होती। पंचेन्द्रियों में सभी गतियों में यह दोनों भेद होते हैं । सारांश यह है कि संसारी जीवों के भी दो भेद हैं । समनस्क और अमनस्क अथवा संज्ञी और असंझी।
"संसारिणस्त्रसस्थावराः।"
संसारसमावन्नगा तसे चेव थावरा चेव।
स्थानाङ्ग स्थान २ उद्देश्य १ सूत्र ५७ छाया- संसारसमापनकाः साश्चैव स्थावराश्चैव ।
भाषा टीका - संसारी जीवों के दो भेद होते हैं - त्रस और स्थावर । संगति – यहां पागम वाक्य और सूत्र के अक्षर लगभग एक से ही हैं । “पथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावरा।"
२. १३ पंच थावरा काया पण्णत्ता, सं जहा-इंदे थावरकाए (पुढवीथावरकाए) बंभेथावरकाए (आजथावरकाए) सिप्पे थावरकाए (तेऊ थावरकाए) संमती थावरकाए (वाजथावरकाए) पाचावच्थावरकाए (वणस्सइथावरकाए)।
___स्थानाङ्ग स्थान ५ उद्देश्य १ सूत्र ३६४ छाया- पञ्च स्थावराः कायाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - पृथिवीस्थावरकायः
अप्स्थावरकायः तेजःस्थावरकाय : वायुस्थावरकायः वन
स्पतिस्थावरकाय:। ___ भाषा टीका- उनमें से भी स्थावर कायों के पांच भेद होते हैं -पृथिवी स्थावर काय, जल स्थावरकाय, अग्नि स्थावरकाय, वायु स्थावरकाय, और वनस्पति स्थावरकाय। "द्वीन्द्रियादयस्त्रसाः।"
-२, १४.
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[ ४५
से किं तं ओराला तसा पाणा ? चउव्विहा पण्णत्ता, जहा - बेइंदिया तेइंदिया चउरिंदिया पंचेंदिया |
छाया
प्रश्न -
- वह बड़े त्रसजीव कौन से होते हैं ?
उत्तर - वह चार प्रकार के कहे गये हैं - द्वीन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ।
द्वितीयाध्यायः
जीवाभिगम प्रतिपत्ति १ सूत्र २७
अथ किं ते उदाराः साः प्राणिनः १ चतुर्विधाः प्रज्ञप्तास्तद्यथाद्वीन्द्रियाः, श्रीन्द्रियाः, चतुरिन्द्रियाः पञ्चेन्द्रियाः ।
""
-
२. १५
कति णं भंते! इंदिया पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचेदिया
पण्णत्ता ।
पञ्चेन्द्रियाणि । "
प्रज्ञापना सूत्र १५ इन्द्रियपद उद्दे० १ सू० १९१ छाया— कति भदन्त ! इन्द्रियाणि प्रज्ञप्तानि । गौतम ! पञ्चेन्द्रियाणि प्रप्तानि ।
छाया
प्रश्न
-भगवन् ! इन्द्रियां कितनी बतलाई गई हैं ?
उत्तर - गौतम ! इन्द्रियां पांच बतलाई गई हैं।
""
द्विविधानि । "
२. १६
कइविहा णं भंते! इंदिया पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- दव्विंदिया य भावव्विंदिया य ।
प्रज्ञापना पद १५ उद्देश्य १ कतिविधानि भदन्त ! इन्द्रियाणि प्राप्तोनि १ गौतम ! द्विविधानि तद्यथा - द्रव्येन्द्रियाणि च भावेन्द्रियाणि च ।
प्रश्न
-
- भगवन् ! इन्द्रियां कितने प्रकार की बतलाई गई हैं ?.
उत्तर - गौतम ! इन्द्रियां दो प्रकार की बतलाई गई हैं- द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय ।
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४६ ]
तत्त्वार्थ सूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
संगति - इन सभी आगम वाक्यों और सूत्रों के अक्षर प्राय: मिलते हैं ।
—
66
' निर्वृत्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम् । "
२. १७.
भंते! इंदियउवाच पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे
कएविहे इंदियउवच पण ।
कवि णं भंते! इन्दियणिवत्तणा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा इन्दियशिवत्तणा पण्णत्ता ।
प्रज्ञापना उ० २ पद १५.
छाया - कतिविधः भदन्त ! इन्द्रियोपचयः प्रज्ञप्तः १ गौतम ! पंचविधः इन्द्रियोपचयः प्रज्ञप्तः ।
कतिविधा भदन्त ! इन्द्रियनिर्वतना प्रज्ञप्ता ? गौतम! पञ्चविधा इन्द्रियनिर्वतना प्रज्ञप्ता ।
प्रश्न
• भगवन् ! इन्द्रियोपचय कितने प्रकार का कहा गया है ?
उत्तर
- गौतम ! इन्द्रियोपचय पांच प्रकार का कहा गया है।
प्रश्न --
- भगवन् ! इन्द्रिय निर्वतना कितने प्रकार की कही गई है ? उत्तर - गौतम ! इन्द्रिय निर्वतना पांच प्रकार की कही गई है। संगति
- सूत्र में द्रव्येन्द्रियों के दो भेद माने हैं - निर्वृति और उपकरण । श्रागम वाक्य में उपकरण को ही इन्द्रियोपचय कहा गया है।
55
66
लब्ध्युपयोगो भावेन्द्रियम् ।
२, १८.
कतिविहा गां भंते ! इन्दियलद्धी पण्णत्ता ? गोयमा ! पंच
विहा इन्दियलद्वी पण्णत्ता ।
प्रज्ञापना उ० २, इन्द्रियपद १५. कतिविहा गं भंते! इन्दिय उवउगद्धा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा इन्दियउवगद्धा पण्णत्ता ।
प्रज्ञापना उ० २. इन्दियपद १५.
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द्वितीयाध्यायः
[ ४.
छाया- कतिविधा भदन्त इन्द्रियलन्धिः प्रजमा ? गौतम! पंचविधा इन्द्रिय
लब्धिः प्रज्ञप्ता। कतिविधः भदन्त इन्दियोपयोगः प्रज्ञप्तः ? गौतम! पञ्चविधः
इन्द्रियोपयोगः प्रज्ञप्तः। प्रश्न-भगवन् ! इन्द्रिय लब्धि कितने प्रकार की बतलाई गई है ? उत्तर-गौतम ! इन्द्रियलब्धि पांच प्रकार की बतलाई गई है । प्रश्न-भगवन् ! इन्द्रियोपयोग कितने प्रकार का बतलाया गया है ? उत्तर-गौतम ! इन्द्रियोपयोग पांच प्रकार का बतलाया गया है। संगति-भावेन्द्रिय के दो भेद होते हैं-लब्धि और उपयोग। "स्पर्शनरसनघ्राणाचक्षुः श्रोत्राणि।" " स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दास्तदर्थाः :”
२. २०. सोइन्दिए चक्खिदिए घाणिदिए जिभिदिए फासिदिए ।
प्रज्ञापना इन्दिय पद १५ पंच इन्दियत्था पण्णत्ता, तं जहा-सोइन्दियत्थे जाव फासिंदियत्थे।
स्थानाङ्ग स्थान ५ उद्देश्य ३ सूत्र ४४३ छाया- श्रोत्रेन्द्रियश्चक्षुरिन्द्रियः घाणेन्द्रियः जिव्हेन्द्रियः स्पर्शनेन्द्रियः ।
पञ्चेन्द्रियार्थाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा- श्रोत्रेन्द्रियार्थः यावत् स्पर्शने
न्द्रियार्थः। भाषा टीका - (इन्द्रियां पांच होती हैं) कर्ण इन्द्रिय, नेत्र इन्द्रिय, घ्राण इन्द्रिय, जिव्हा इन्द्रिय और स्पर्शन इन्द्रिय । - पांचों इन्द्रियों के विषय भी पांच हो हाते हैं- शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श। संगति – दोनों सूत्र और आगम वाक्य के अक्षरों में कुछ अन्तर नहीं है।
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तत्त्वार्थसूत्रजनाऽऽगमसमन्वय:
" श्रुतमनिन्द्रियस्य ।”
२. २१ सुणेइत्ति सुभं ।
___ नन्दि सूत्र २४. छाया- शृणोतीति श्रुतं । भाषा टीका-जिसको सुना जावे उसे श्रुत कहते हैं।
संगति - व्यवहार पक्ष में सुनने योग्य पदार्थ को बिना मन के पूर्ण उपयोग के ग्रहण नहीं किया जा सकता है। अतः श्रुत ज्ञान केबल मन के विषय द्वारा ही ग्रहण किया जा सकता है। "वनस्पत्यन्तानामेकम् ।"
२. २२. से किं तं एगिदियसंसारसमावन्नजीवपण्णवणा ? एगिदियसंसारसमावण्णजीवपण्णवण्णा पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा - पुढवीकाइया, आउकाइया तेउकाइया वाउकाइया वणस्सइकाइया ।
प्रज्ञापना प्रथम पद। छाया- अथ किं सा एकेन्द्रियसंसारसमापनजीवप्रज्ञापना ? एकेन्द्रिय
संसारसमापनजीवप्रज्ञापना पश्चविधा प्रज्ञप्ता, तपथा-पथिवी
कायिका अप्कायिका तेजःकायिका वायुकायिका वनस्पतिकायिका। प्रश्न - एकेन्द्रिय संसारी जीव किन्हें कहते हैं ?
उत्तर- वह पांच प्रकार के होते हैं - पृथिवी काषिक, जल कायिक, अग्नि कायिक, वायु कायिक और वनस्पति कायिक ।
“कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि।”
२. २३.
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द्वितीयाध्यायः
[
४६
किमिया-पिपीलिया-भमरा-मणुस्स इत्यादि ।
प्रज्ञापना प्रथम पद। छाया- कृमिका - पिपीलिका - भ्रमरो - मनुष्यः इत्यादि ।
भाषा टीका - कीड़ा, (लट अथवा चावलों का कीड़ा), चींटी, भौंरा और मनुष्य आदि । संगति – इनके एक २ इन्द्रिय अधिक होती है। 'संझिनः समनस्काः ।'
२. २४. जस्स णं अस्थि ईहा अवोहो मग्गणा गवेसगा चिंता वीमंसा से णं असरणीति लब्भइ । जस्स णं नत्थि ईहा अवोहो मग्गणा गवेसगा चिंता वीमंसा से णं असन्नीति लब्भइ।.
नन्दिसूत्र सूत्र ४० छाया- यस्य अस्ति ईहा अपोहो मार्गणा गवेषणा चिंता विमर्शः अथ
संज्ञीति लभ्यते । यस्य नास्ति ईहा अपोहो मार्गणा गवेषणा चिन्ता
विमर्शः अथ असंज्ञीति लभ्यते । भाषा टीका-जिसमें ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा, चिन्ता और विमर्श करने की योग्यता हो उसे संज्ञी कहते हैं। जिसमें ईहा, अपोह, मार्गण, गवेषणा, चिन्ता और विमर्श की योग्यता न हो उसे असंज्ञी कहते हैं। ___ संगति - ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा, चिन्ता और विमर्श करने की योग्यता को ही मन कहते हैं । अतः मन सहित अथवा समनस्क को संज्ञी और मन रहित अथवा अमनस्क को असंज्ञी कहते हैं।
'विग्रहगतौ कर्मयोगः।' कम्मासरीरकायप्पओगे।
प्रज्ञापना पद १६.
२. २५
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५० ]
तत्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
छाया
कार्माणशरीरकायप्रयोगः ।
भाषा टीका - ( विग्रह गति में ) कार्माण शरीर के काय का प्रयोग होता है ।
1
संगति - दूसरा शरीर ग्रहण करने के लिये की जाने वाली गति को विग्रह गति कहते हैं । जिस प्रकार चारों गतियों में से मनुष्य तिर्यश्च गति में श्रदारिक शरीर तथा देव नरक गति में वैक्रियिक शरीर साथ रहता है, उसी प्रकार विग्रह गति में कार्माण शरीर का ही काय बनता है और उसी का प्रयोग जीव करता है ।
66
अनुश्रेणिः गतिः । "
छाया
२. २६
परमाणुपोग्गलाणं भंते! किं अणुसेढीं गती पवत्तति विसेटिं गती पवत्तत्ति ? गोयमा ! अणुसेढीं गती पवत्तति नो विसेटिं गती पवत्तति ? दुपए सियाणं भंते! खंधाणं असेढीं गती पवत्तति विसेढीं गती पवत्तति एवं चेव, एवं जाव अतपएसि याणं खंधाणं । नेरइयाणं भंते! किं अणुसेढीं गती पवत्तति एवं विसेढीं गती पवत्तति एवं चेव एवं जाव वेमाणियाणं ।
व्याख्याप्रज्ञप्ति शतक २५, उ० ३ सू० ७३०. परमाणुपुद्गलानां भदन्त ! किं अनुश्रेणिं गतिः प्रवर्तते विश्रेणिं गतिः प्रवर्तते ? गौतम! अनुश्रेणिं गतिः प्रवर्तते नो विश्रेणिं गतिः प्रवर्तते । द्विप्रदेशिकानां भदन्त ! स्कन्धानां अणुश्रेणिं गतिः प्रवर्तते विश्रेणिं गतिः प्रवर्तते एवं चैव, एवं यावत् अनन्तप्रदेशिकानां स्कन्धानाम्। नेरयिकाणां भदन्त, किं अनुश्रेणिं गतिः प्रवर्तते एवं विश्रेणिः गतिः प्रवर्तते एवं चैव, एवं यावत् वैमानिकानाम् । - भगवन् ! परमाणु और पुद्गलों की गति अनुश्रण होती हैं अथवा विश्रेणि (श्रेणि विरुद्ध) होती है ?
प्रश्न -
उत्तर - गौतम ! उनकी गति अनुश्रेणि ही होती है विश्रेणि नहीं होती ।
प्रश्न -
- भगवन् ! दो प्रदेश बाले पुद्गल स्कन्धों की गति अनुश्रेणि होती है। थवा विरिण ?
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द्वितीयाध्यायः
[ ५१
उत्तर - ऐसी ही अनुश्रेणि होती है । और इसी प्रकार अनन्त प्रदेश वाले स्कन्धों तक को भी अनुश्रेणि गति ही होती है।
प्रश्न - भगवन् ! नारकियों की गति अनुश्रेणि होती है, अथवा विश्रेणि । ___ उत्तर - इसी प्रकार अनुश्रेणि गति होती है। और इसी प्रकार वैमानिकों तक की भी अनुश्रेणि गति होती है।
संगति - आगम का कथन विशेष हुआ करता है । अतः इनमें जीव और पुद्गल दोनों को ही गति का वर्णन किया गया है। "अविग्रहा जीवस्य ।”
२, २७. उज्जूसेढीपडिवन्ने अफुसमाणगई उड्ढं एकसमएणं अविगहेणं गंता सागारोवउत्ते सिन्झिहिइ।
औपपातिक सूत्र सिद्धाधिकार सू० ४३ छाया- ऋजुभेणिप्रतिपन्नः अस्पृशद्गतिः उद्ध्वं एकसमयेन अविग्रहेण
गत्वा साकारोपयुक्तः सिध्यति। आकाश प्रदेशों की सरल पंक्ति को प्राप्त होकर, गति करते हुए भी किसी का स्पर्श न करते हुए बिना मोड़ा लिये हुए साकार उपयोग युक्त एक समय में ऊपर को जाकर सिद्ध हो जाता है।
संगति-गम वाक्य का मी सूत्र के समान यही आशय है कि सिद्धमान् जीव की गति मोड़े रहित (एक समय वाली) होती है। “विग्रहवती च संसारिणः प्राक् चतुर्थ्यः ।”
२, २८. णेरइयाणं उक्कोसेणं तिसमतीतेणं विग्गहेणं उववज्जति एगिदिवजं जाव वेमाणियाणं ।
. स्थानांग स्थान ३ उद्दे० ४ सूत्र, २२५.
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५२ ]
तत्त्वार्थसूत्रजनाऽऽगमसमन्वय :
कइसमइएणं विग्गहेणं उववज्जति ? गोयमा! एगसमइएण वा दिसमइएण वा तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गहेणं उववजन्ति ।
व्याख्याप्रज्ञप्ति शतक ३४ उ० १ सू० ८५१. छाया- नेरइकानां उत्कृष्टेन त्रिसमयेन विग्रहेण उत्पद्यन्ते एकेन्द्रियवयं
यावत् वैमानिकानाम् । कतिसमयेन विग्रहेण उत्पद्यन्ते ? गौतम ! एकसमयेन वा द्विसमयेन
वा त्रिसमयेन वा चतुःसमयेन वा विग्रहेण उत्पद्यन्ते । भाषा टीका- नारकी लोग अधिक से अधिक तीन समय विग्रह गति में लेकर उत्पन्न होते हैं।
प्रश्न – विग्रह गति में कितना समय लेकर उत्पन्न होते हैं ?
उत्तर - गौतम ! एक समय, दो समय, तीन समय अथवा चार समय में मोड़ा लेकर उत्पन्न होते हैं।
__संगति – सूत्र और आगम वाक्य में बात एक ही कही है, केवल कहने का ढंग मिन्न है। 'एकसमयाऽविग्रहा॥'
२, २९. एगसमइयो विग्गहो नत्थि ।
व्याख्याप्रज्ञप्ति शत० ३४, सू० ८५१. छाया- एक समयकः विग्रहो नास्ति । भाषा टीका - एक समय वाले को मोड़ा लेना नहीं पड़ता।
संगति-सिद्ध एक समय में ही मोक्ष जाते हैं । अतः उनकी गति सीधी होती है और सस गति में मोड़ा नहीं होता। 'एकं द्वौ त्रीन्वाऽनाहारकः ॥'
२,३०.
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[ ५३
अणाहारे णं भंते! अणाहार एत्ति पुच्छा ? गोयमा ! अणाहारए दुविहे पण, तं जहा - छउमत्थअनाहारए, केवलणागोयमा ! अजहराणमनुकोसेणं तिरिणसमया ।
हारए,
छाया
द्वितीयाध्याय :
प्रश्न
-
- भगवन् ! अनाहार किसे कहते हैं ?
उत्तर – अनाहारक दो प्रकार के कहे गये हैं, छद्मस्थ अनाहारक और केवली अनाहारक । अधिक से अधिक तीन समय तक यह जीव अनाहारक रह सकता है ।
च्र्छनाः
प्रज्ञापना पद १८, द्वार ९४.
अनाहारः भदन्तः अनाहारः इति पृच्छा ! गौतम ! अनाहारकः द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- - छद्मस्थानाहारकः केवल्यनाहारकः । ..अजघन्यानुक्रोशेण त्रिसमया ।
छाया
सम्मूर्छनगर्भोपपादाज्जन्म ।
भवन्तिया
अंडया पोतया जराउया
२, ३१.
उत्तराध्ययन ३६ गाथा ११७
"समुच्छिया
'उववाइया । दशवैकालिक अध्याय ४ प्रसाधिकार
सम्मू
[ गर्भव्युत्क्रान्तिकाः ] अंडजाः पोतजाः जरायुजाः
• श्रपपादिकाः ।
भाषा टीका - गर्भज (अंडज, पोतम और जरायुज) सम्मूर्छन और औपपादिक
जन्म होते हैं।
सचित्तशीतसंवृताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनयः
२, ३२.
कइविहाय भंते! जोणी परणत्ता ? गोयमा ! तिविहा जोणी पण्णता, तं जहा - सीया जोगी, उसिणा जोगी सीओसिया
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५. ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वयः
जोणी । तिविहा जोणी पण्णत्ता, तं जहा-सचित्ता जोणी, अचित्ता जोखी, मीसिया जोणी। तिविहा जोणी पण्णत्ता, तं जहा - संवुडा जोणी, वियडा जोणी, संयुडवियडा जोणी ।
प्रज्ञापना योनिपद ६. छाया- कतिविधा भदन्त ! योनिः प्रज्ञप्ता ? गोतम ! त्रिविधा योनिः प्रज्ञप्ता
तद्यथा-शीता योनिः, उष्णा योनिः, शीतोष्णा योनिः । त्रिविधा योनिः प्रज्ञता, तद्यथा - सचित्ता योनिः, अचित्ता योनिः, मिश्राः योनिः । त्रिविधा योनिः प्रज्ञप्ता, तद्यथा - संवृता योनिः, विवृता
योनिः, संतृतविठ्ठता योनिः। प्रश्न - भगवन् ! योनियां कितने प्रकार की कहीं गई हैं?
उत्तर - गौतम! योनि तीन प्रकार की कही गई है - शीत योनि, उष्ण योनि, और शीतोष्ण योनि । तीन प्रकार की योनि कही गई हैं - सचित्त योनि, अचित्त योनि और मिश्र योनि । तीन प्रकार की योनि कही गई हैं- संवृत योनि, विवृत योनि, भौर संवृतविवृत योनि ।
"जरायुजाण्डजपोतानां गर्भः।
अंडया पोतया जराउया।
दशवकालिक अध्याय ४. गम्भवक्कंतियाय ।
प्रज्ञापना १पद. छाया- अण्डजाः पोतजाः जरायुजाः, गर्भव्युत्क्रान्तिका च। भाषा टीका- अण्डज, पोतज और जरायुज गर्भ जन्म वाले होते हैं।
“देवनारकाणामुपपादः॥
२,३४.
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द्वितीयाध्यायः
[ ५५
दोण्हं उववाए पएणत्ते देवाणं चेव नेरइयाणं चेव ।
स्थानांग स्थान २ रहे० ३, सूत्र ८५. छाया- द्वयोः उपपादः प्रज्ञप्तः-देवानां चैव नेरयिकानां चैव । भाषा टीका - उपपाद जन्म दो के होता है - देवों के और नारकियों के । संगति – उपरोक्त सूत्रों का आगमवाक्य से केवल शाब्दिक भेद है। “शेषाणां सम्मूर्छनम् ॥
२, ३५. संमुच्छिमाय इत्यादि ।
प्रज्ञापना पद १.
सूत्रकृतांग द्वितीय श्रुत स्कन्ध, तृतीयाध्ययन. छाया- सम्मूर्च्छनानि च । इत्यादि । भाषा टीका - (गर्भ तथा उपपाद जन्म वालों से शेष जीव) सम्मूर्छन होते हैं। संगति-आगमवाक्य में इस स्थल पर सम्मूर्छनों का बड़े विस्तार से वर्णन किया है।
"औदारिकवैक्रियिका हारकतैजसकार्मणानि शरीराणि ॥
कति णं भंते! सरीरया पएणता? गोयमा! पंच सरीरा पएणत्ता, तं जहा- "ौरालिते, वेउव्विए, आहारए, तेयए, कम्मए ।”
प्रमापना शरीरपद २१. छाया- कति भदन्त ! शरीराणि प्रजातानि ? गौतम! पञ्च शरीराणि
प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- औदारिका, वैक्रियिकः, आहारक, तेजसः, कार्मणम् ।
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५६ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वयः
२. ३७.
प्रश्न - भगवन् ! शरीर कितने होते हैं ?
उत्तर - गौतम् ! शरीर पांच कहे गये हैं - औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण।
परं परं सूक्ष्मम् । 'प्रदेशतोऽसंख्येयगुणं प्राक्तैजसात् ।'
२, ३८. अनन्तगुणे परे।
२, ३६. सव्वत्थोवा आहारगसरीरा दवट्ठयाए उब्वियसरीरा दवयाए असंखेजगुणा ओरालियसरीरा दव्वट्ठयाए असंखेजगुणा तेयाकम्मगसरीरा दोवि तुल्ला दव्यट्टयाए अणंतगुणा, पदेसट्टाए सव्वत्थोवा आहारगसरीरा पदेसठ्ठाए वेउव्वियसरीरा पदेसट्टाए असंखेजगुणा ओरालियसरीरा पदेसट्ठाए असंखेजगुणा तेयगसरीरा पदेसट्ठाए अपंतगुणा कम्मगसरीरा पदेसट्ठाए अणंतगुणा इत्यादि।
प्रज्ञापना शरीर पद २१. छाया- सर्वस्तोकानि आहारकशरीराणि द्रव्यार्थतया वैक्रियिकशरीराणि
द्रव्यार्थतया असंख्येयगुणानि औदारिकशरीराणि द्रव्यार्थतया असंख्येयगुणानि तैजसकार्मणशरीरे द्वे अपि तुल्ये द्रव्यार्थतया अनन्तगुणे । प्रदेशार्थतया सर्वस्तोकान्याहारकशरीराणि प्रदेशार्थतया वैक्रियिकशरीराणि प्रदेशार्थतया असंख्येयगुणानि औदारिकभरीराणि प्रदेशार्थतया असंख्येयगुणानि तैजसशरीरोणि प्रदेशार्थतया अणंतगुणानि कार्मणशरीराणि इत्यादि ।
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[ ५७
भाषा टीका - द्रव्यार्थ की अपेक्षा आहारक शरीर सबसे कम होते हैं । द्रव्यार्थ अपेक्षा वैक्रियिक शरीर उससे असंख्यात गुणे होते हैं । द्रव्यार्थ की अपेक्षा श्रदारिक शरीर वैक्रियिक से भी असंख्यात गुणे होते हैं । तैजस और कर्माण दोनों ही शरीर द्रव्यार्थ की अपेक्षा बराबर होते हुए प्रदारिक शरीर से भी अनन्त गुणे होते हैं ।
द्वितीयाध्याय :
प्रदेशों की अपेक्षा आहारक शरीर सबसे कम होते हैं। वैक्रियिक शरीर प्रदेशों की अपेक्षा आहारक से असंख्यात गुणे होते हैं। उनसे श्रदारिक शरीर प्रदेशों की अपेक्षा असंख्यात गुणे होते हैं उनसे प्रदेशों के अर्थ की अपेक्षा तैजस शरीर अनन्त गुणे होते हैं । प्रदेशों के अर्थ की अपेक्षा कार्मण शरीर भी उनसे अनन्त गुणे होते हैं ।
संगति – यहां सूत्र और आगम वाक्य में शाब्दिक अंतर ही है।
पहियई ।
अप्रतिहतगतिः ।
प्रतीघाते ।
राजप्रश्नीसूत्र, सूत्र ६६.
२, ४०.
छाया
भाषा टीका - ( इनमें से अन्त के दो तैजस और कार्मण शरीर ) की गति किसी बस्तु से नहीं रुकती ।
अनादिसम्बन्धे च ।
सर्वस्य ।
२, ४१.
२, ४२.
तेयासरीरप्पयोगबंधे णं भन्ते ! कालओ कालचिरं होइ ? गोयमा ! दुविहे पण, तं जहा - अणाइए वा अपज्जवसिए अाइ वा सपज्जवसिए ।
व्याख्याप्रज्ञप्ति सप्तक ८ ० १ सू० ३५०.
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तत्वार्थ सूत्र जैनाऽऽगमसमन्वय :
कम्मासरीरप्पयोग बंधे इए अपज्जवसिए वा एवं जहा तेयगस्स ।
५८ ]
छाया
-
अणाइए सपज्जवसिए अणा
व्याख्याप्रज्ञप्ति सप्तक ८ उ० ९ सू० ३५१.
तैजसशरीरप्रयोगवन्धः भदन्तः ! कालतः कियच्चिरं भवति ? गौतम ! द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - अनादिकः वा अपर्यवसितः नादिकः वा सपर्यवसितः ।
कार्मणशरीर प्रयोग बन्धः .... अनादिकः सपर्यवसितः श्रनादिकः पर्यवसितः वा एवं यथा तैजसः ।
-
प्रश्न - भगवन् ! तैजस शरीर का प्रयोग बंध समय की अपेक्षा कितनी देर तक होता है।
उत्तर - गौतम ! वह दो प्रकार का होता है। अनादिक और अपर्यवसित (अनन्त) तथा अनादिक सपर्यवसित ( सान्त)
तेजस शरीर के ही समान कार्मण शरीर का प्रयोगबंध भी समय की अपेक्षा दो प्रकार का होता है । (अभव्यों के ) अनादि और अनन्त तथा ( भव्यों के ) अनादि तथा
सान्त |
संगति - तेजस और कार्मण शरीर सभी संसारी जीवों के होते हैं। यह भव्यों के अनादि और सान्त होते हैं । किन्तु अभव्यों के यह अनादि और अनन्त होते हैं ।
""
'तदादीनि भाज्यानि युगपदेकस्याऽऽचतुर्थ्य "
२, ४३.
जस्सयां भंते! ओरालियसरीरं ? गोयमा ! जस्स ओरालियसरीरं तस्स वेडव्वियसरीरं सिय अस्थि सिय खत्थि, जस्स वेउव्वियसरीरं तस्स ओरालियसरीरं सिय अत्थि सिय णत्थि । जस्सां भंते! ओरालियसरीरं तस्स आहारगसरीरं जस्स - हारगसरीरं तस्स ओरालिय सरीरं ? गोयमा ! जस्स ओरालिय
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द्वितीयाध्यायः
[ ५६
सरीरं तस्स आहारगसरीरं सिय अस्थि सिय णत्थि, जस्स आहारगसरीरं तस्स ओरालियसरीरं णियमा अस्थि । जस्स णं भंते! ओरालियसरीरं तस्स तेयगसरीरं, जस्स तेयगसरीरं तस्य
ओरालियसरीरं ? गोयमा! जस्स ओरालियसरीरं तस्स तेयगसरीरं णियमा अस्थि, जस्स पुण तेयगसरीरं तस्सोरालियसरीरं सिय अस्थि सियणस्थि। एवं कम्मसरीरे वि। जस्स णं भंते! वेउव्वियसरीरं तस्स आहारगसरीरं, जस्स आहारगसरीरं तस्स घेउव्वियसरीरं ? गोयमा! जस्स वेउव्वियसरीरं तस्स आहारगसरीरं णत्थि, जस्स पुण आहारगसरीरं तस्स वेउव्वियसरीरं णस्थि । तेयाकम्माइं जहा ओरालिएणं सम्मं तहेव, आहारगसरीरेण वि सम्मं तेयाकम्माइं तहेव उच्चारियव्या । जस्स णं भंते ! तेयगसरीरं तस्स कम्मगसरीरं जस्स कम्मगसरीरं तस्स तेयगसरीरं ? गोयमा! जस्स तेयगसरीरं तस्स कम्मगसरीरं णियमा अस्थि, जस्स वि कम्मगसरीरं तस्स वि तेयगसरीरं णियमा अत्थि ।
प्रज्ञापना पद २१. छाया- यस्य भदन्त ! औदारिकशरीरं ? गौतम ! यस्य औदारिकशरीरं
तस्य वैक्रयिकशरीरं स्यादस्ति स्यामास्ति । यस्य वैक्रयिकशरीरं तस्य औदारिफशरीरं स्यादस्ति स्पानास्ति । यस्य भदन्त ! औदारिकशरीरं तस्य आहारकशरीरं, यस्य आहारकशरीरं तस्य औदारिकशरीरं ? गौतम! यस्य औदारिकशरीरं तस्य आहारकशरीरं स्यादस्ति स्यानास्ति । यस्य आहारकशरीरं तस्य औदारिकशरीरं नियमादस्ति । यस्य भदन्त! औदारिकशरीरं तस्य तैजसशरीरं, पस्य तैजसशरीरं तस्य औदारिकशरीरं ? गौतम !
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तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
१
यस्य श्रदारिकशरीरं तस्य तैजसशरीरं नियमादस्ति । यस्य पुनः तैजसशरीरं तस्य औदारिकशरीरं स्यादस्ति स्यान्नास्ति । एवं कार्मणशरीरेऽपि । यस्य भदन्त ! वैक्रियिक शरीरं तस्य आहारकशरीरं यस्य श्राहारकशरीरं तस्य वैक्रियिकशरीरं ? गौतम ! यस्य वैक्रियिकशरीरं तस्य आहारकशरीरं नास्ति । यस्य पुनः आहारकशरीरं तस्य वैक्रियिकशरीरं नास्ति । तैजसकार्मणे यथा औदारिकः सम्यक् तथैव । आहारकशरीरेणापि सम्यक् तैजसकार्मणे तथैव उच्चारितव्ये | यस्य भदन्त ! तैजसशरीरं तस्य कार्मणशरीरं यस्य कार्मणशरीरं तस्य तैजसशरीरं ? गौतम ! यस्य तैजसशरीरं तस्य कार्मणशरीरं नियमादस्ति, यस्यापि कार्मणशरीरं तस्यापि तैजसशरीरं नियमादस्ति ।
प्रश्न -
-भगवन् ! जिसके औदारिक शरीर हो उसके और क्या २ हो सकते हैं ? उत्तर - गौतम ! जिसके औदारिक शरीर हो उसके वैक्रियिक शरीर हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता। जिसके वैक्रियिक शरीर हो उसके औदारिक शरीर
हो भी और न भी हो ।
६० ]
प्रश्न
है, और क्या आहारक शरीर वाले के औदारिक शरीर होता है ?
-
भगवन् ! जिसके औदारिक शरीर हो क्या उसके आहारक शरीर होता
उत्तर - गौतम ! जिसके औदारिक शरोर हो उसके अहारक शरीर हो भी या न भी हो, किन्तु जिसके आहारक शरीर हो उसके औदारिक शरीर भी नियम से होता है । प्रश्न - भगवन् ! क्या औदारिक शरीर वाले के तैजस होता है और तैजस वाले के औदारिक शरीर होता है ।
उत्तर
-
- गौतम ! जिसके औदारिक शरीर हो उसके तैजस नियम से होता है, किन्तु जिसके तैजस हो उसके औदारिक शरीर हो भी अथवा न भी हो । इसी प्रकार कार्मण शरीर का भी नियम है।
प्रश्न - -भगवन् ! क्या जिसके वैक्रियिक शरीर हो उसके आहारक शरीर होगा और जिसके आहारक शरीर हो उसके वैक्रियिक शरीर होगा ?
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द्वितीयाध्यायः
उत्तर – गौतम ! जिसके वैक्रियिक हो उसके भाहारक नहीं होता । जिसके आहारक हो उसके वैक्रियिक शरीर नहीं होता।
तैजस और कार्मण शरीर भौदारिक वाले के समान वैक्रियिक पाले के भी होते हैं, बाहारक शरीर वाले के साथ भी तैजस कार्मण होते हैं।
प्रश्न - भगवन् ! क्या तैजस शरीर वाले के कार्मण शरीर होता है और कार्मण शरीर वाले के तैजस शरीर होता है ?
उत्तर – गौतम ! तैजस वाले के कार्मण शरीर नियम से होता है और कार्मण बाले के तैजस शरीर नियम से होता है। निरुपभोगमन्त्यम्।
२, ४४. विग्गहगइसमावन्नगाणं नेरइयाणं दोसरीरा पण्णत्ता, तं जहा-तेयए चेव कम्मए चेव । निरंतरं जाव वेमाबियाणं ।
स्थानांग स्थान २ उद्दे० १ सूत्र ७६. जीवे णं भंते! गम्भं वकममाणे किं ससरीरी वक्कमइ, असरीरीवकमइ ? गोयमा! सिय ससरीरी वक्कमइ सिय असरीरी वकमइ । से केणतुणं? गोयमा ! ओरालियवेउब्धिय-आहारयाई पडुच्च भसरीरी वकमइ। तेयाकम्माइं पड्डच्च ससरीरी धक्कमइ।
भगवती० शतक १ उद्दे० ७. छाया
विग्रहगतिसमापनकानां नैरयिकानां द्विशरीरे प्रज्ञप्ते, तद्यथा - तैजसश्चैव, कार्मणञ्चैव, निरंतरं यावत् वैमानिकानां । जीवो भगवन् ! गर्भ व्युत्क्रामन् किं सशरीरी व्युत्क्रामति, अशरीरी व्युत्क्रामति ? गौतम ! स्यात् सशरीरी व्युत्क्रामति स्यात् अशरीरी व्युत्क्रामति । तत् केनार्थेन ? गौतम ! औदारिक-चैक्रियिक-आहारकाणि प्रतीत्य अशरीरी व्युत्क्रामति । तैजसकामणे प्रतीत्य सशरीरी व्युत्क्रामति ।
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तत्त्वार्थसूत्रजनाऽऽगमसमन्वयः
भाषा टीका-विग्रहगति को प्राप्त करने वाले नारकियोंके दो शरीर होते हैं। तेजस और कार्माण । इसी प्रकार सब गतियों में वैमानिक देवों तक के तैजस और कार्मण होते हैं।
प्रश्न- भगवन् ! जीव गर्भ धारण करने के लिये शरीर सहित जाता है अथवा शरीर रहित जाता है ?
सत्तर- गौतम ! कथञ्चित् यह शरीर सहित जाता है और कथञ्चित् यह शरीर रहित जाता है।
प्रश्न- वह किस कारण से ?
उत्तर- गौतम ! औदारिक, वैक्रियिक, आहारक की अपेक्षा से शरीर रहित गमन करता है तथा तैजस कार्मण को अपेक्षा से शरीर सहित गमन करता है।
संगति – उपरोक्त कथन से प्रगट किया गया है कि यद्यपि कार्मण भी शरीर है क्रिन्तु वह उपभोग रहित है। गर्भसम्मूर्छनजमाद्यम्।
२, ४५ उरालिप्रसरीरे णं भंते कतिविहे पएणते? गोयमा! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - समुच्छिम. गब्भवक्कंतिय ।
प्रज्ञापना पद २१. छाया- औदारिकशरीरं भगवन् कतिषिधं प्रज्ञप्तं? गौतम! द्विविधं प्रज्ञप्तं,
तपथा - सम्मृर्छनम्........ गर्भव्युत्क्रांतिकम्। प्रश्न -भगवन् ! औदारिक शरीर कितने प्रकार का बतलाया गया है।
उत्तर - गौतम ! वह दो प्रकार का बतलाया गया है-सम्मूर्छन जन्म वालों के और गर्भ जन्म वालों के।
औपपादिकं वैक्रियिकम्।
परइयाणं दो सरीरगा परबत्ता, तं जहा-अभंतरगे चेव
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द्वितीयाध्यायः
[ ६३
बाहिरगे चेब, अभंतरए कम्मए बाहिरए वेउव्विए, एवं देवाणं ।
स्थानांग स्थान २, उद्देश्य १ सूत्र ७५. छाया- नारकाणां वे शरीरके प्रज्ञप्ते, तद्यथा - आभ्यन्तरं चैव बाह्यौं चैव,
आभ्यन्तरं कर्मकं बाह्य वैक्रियिकं, एवं देवानाम् । भाषा टीका - नारकियों के दो शरीर कहे गये हैं-आभ्यन्तर और बाह्य । भाभ्यन्तर शरीर कार्मण होता है । और बाह्य वैक्रियिक होता है। इसी प्रकार देवों के भी होता है। लब्धिप्रत्ययञ्च ।
२,४७. वेउव्वियलद्धीए।
. औपपातिकम् सूत्र ४०. छाया- क्रियिकलब्धिकम् । भाषा टीका-वैक्रियिक शरीर ऋद्धि के द्वारा भी प्राप्त होता है।
तैजसमपि। तिहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे संखित्तषिउलतेउलेस्से भवति, तं जहा-भायावणताते १ खंतिखमाते २ अपाणगेणं तवो कम्मेणं ३ ।
स्थानांग स्थान ३ उद्देश्य ३ सूत्र १८२. छाया- त्रिभिः स्थानः श्रमणः निर्ग्रन्थः संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्यः भवति -
तयथा, भातापनतया, शान्तिक्षमया, अपानकेन तपःकर्मणा। भाषा टीका-तीन स्थानों से श्रमण निर्ग्रन्थ संक्षेप की हुई अधिक तेज लेश्या वाले होते हैं - धूप में तपने से, शान्ति और क्षमा से और जल बिना पिये हुए तप करके।
संगति- इन आगमवाक्यों में सूत्रों से केवल कुछ शब्दों का ही भेद है।
२, ४८.
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६४ ]
तत्वार्थ सूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं प्रमत्तसंयतस्यैव ।
२, ४६.
आहारक सरीरे णं भंते! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! एगागारे परणते प्रमत्तसंजय समदिट्टि संठा संठिप पण्णत्ते ।
समचउरंस
प्रज्ञापना पद २१ सूत्र २७३.
छाया- आहारकः भगवन्! कतिविधः प्रज्ञप्तः १ गौतम ! एकाकारः प्रज्ञप्तः .. प्रमत्तसंजय सम्यग्दृष्टि:. · समचतुरं स्रसंस्थानसंस्थितः
मज्ञप्तः ।
प्रश्न
-
- भगवन् ! आहारक शरीर कितने प्रकार का होता है ?
उत्तर - गौतम ! आहारक का एक ही आकार होता है । यह प्रमत्त संबत सम्यग्दृष्टि के ही होता है तथा इसका आकार समचतुरस्रसंस्थान रूप होता है ।
..........
नारकसम्मूच्छिनो नपुंसकानि ।
२. ५०.
तिविहा नपुंसगा पण्णत्ता, तं जहा - रतियनपुंसगा तिरिक्खजोणियनपुंसगा मणुस्सनपुंसगा ।
स्थानांग स्थान ३ उद्दे० १ सूत्र १३१. छाया-- त्रिविधानि नपुंसकानि मझप्तानि तद्यथा - नारकनपुंसकानि, तिर्यग्योनिनपुंसकानि मनुष्य नपुंसकानि ।
भाषा टीका – नपुंसक तीन प्रकार के होते हैं - नारक नपुंसक, तिर्यच नपुंसक और मनुष्य नपुंसक |
न देवाः ।
२. ५१.
असुरकुमारा यणं भंते! किं इत्थीवेया पुरिसवेया नपुंसग
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छाया
द्वितीयाध्याय :
वेया ? गोयमा ! इत्थीवेया पुरिसवेया गो नपुंसगवेया जहा असुरकुमारा तहा वाणमंतरा जोइसिय वेमाणियावि । समवायाङ्ग वेदाधिकरण सूत्र १५६.
असुरकुमाराः भगवन् ! किं स्त्रीवेदाः पुरुषवेदाः नपुंसकवेदाः ? गौतम ! स्त्रीवेदाः पुरुषवेदाः नो नपुंसकवेदा:.. कुमारा तथा वानव्यन्तराः ज्योतिष्कवैमानिकारपि ।
.. यथा असुर
[ ६५
प्रश्न
-
- भगवन् ! असुरकुमार स्त्रीवेद वाले होते हैं, पुरुषवेद वाले होते हैं अथवा नपुंसक वेद वाले होते हैं ?
उत्तर - गौतम ! वह स्त्री और पुरुष वेद वाले ही होते हैं नपुंसक नहीं होते । असुरकुमारों के समान ही शेष भुवनवासी, व्यम्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक भी स्त्री तथा पुरुष वेद वाले ही होते हैं, नपुंसक नहीं होते ।
शेषास्त्रिवेदाः ।
२, ५२.
भाषा टीका - इनसे बचे हुए शेष जीव तीनों वेद वाले होते हैं।
ऽनपवर्त्यायुषः ।
-
संगति- - आगम प्रन्थों में इस विषय का बहुत विस्तार से विवरण दिया गया है। छोटी पंक्ति उपलब्ध न होने से कोई भी पंक्ति न उठायी जा सकी ।
औपपादिकचरमोत्तमदेहाऽसंख्येयवर्षायुषो
२, ५३.
दो महाउयं पालेंति देवाण चेव खेरइयाणं चेव ।
स्थानांग स्थान २, उ०३, सूत्र ८५. देषा नेरइयादि य असंखवासाज्या य तिरमणुभा । उत्तमपुरिसा य तहा चरम सरीरा य निरुवकमा ॥
इति ठाणांगवितीए.
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तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वयः
छाया- द्वौ पथायुष्कं पालयतः देवानां चैव नैरयिकाणाञ्चैव। .
देवाः नैरयिकारपि च असंख्यवर्षाऽऽयुष्काश्च तिर्यग्मनुष्याः॥
उत्तमपुरुषाश्च तथा चरमशरीराश्च निरुपक्रमाः॥ भाषा टीका -दो की पूर्ण भायु होती है-देवों की और नारकियों की । देव, नारको, भोगभूमि वाले तिर्यच और मनुष्य, उत्तम पुरुष और घरमशरीरियों की बंधी हुई वायु नहीं घटती।
___ संगति- इन सभी भागम वाक्यों का सूत्र वाक्यों के साथ केवल मात्र शाब्दिक भेद है।
इति श्री-जैनमुनि-उपाध्याय-श्रीमदात्माराम महाराज-संगृहीते
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वयेः द्वितीयाऽध्यायः समाप्तः॥२॥
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तृतीयाऽध्यायः रत्नशर्करावालुकापङ्कधूमतमोमहातमः प्रभा भूमयो घनाम्बुवाताकाशप्रतिष्ठाः सप्ताधोधः ॥
कहि णं भंते ! नेरइया परिवसंति ? गोयमा! सटाणे णं सत्तसु पुढवीसु, तं जहा- रयणप्पाए, सकरप्पभाए, बालुयप्पभाए, पंकप्पभाए, धूमप्पभाए, तमप्पभाए, तमतमप्पभाए ।
__प्रज्ञापना नरकाधिकार पद २. अत्थि णं भंते! इमीसे रयणप्पभाए पुडवीए, अहे घणोदधीति वा घणवातेति, वा तणुवातेति वा ओवासंतरेति वा । हंता अस्थि एवं जाव अहे सत्तमाए।
जीवाभि० प्रतिप० २ सू० ७०-७१ छाया- कुत्र भगवन् ! नैरयिकाः परिवसन्ति ? गौतम ! स्वस्थाने सप्तसु
पृथ्वीषु तद्यथा-रत्नप्रभायां, शर्करप्रभायां, बालुकमभायां, पङ्कप्रभायां, धूमप्रभायां, तमामभायां, तमातमःमभायाम् । आस्ति भगवन् ! अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्याः अधस्तात् घनोदधीति वा घनवातेति वा तनुवातेति वा आकाशान्तरः इति
वा । हन्त ! अस्ति एवं यावत् अवस्तात् सप्तमा । प्रश्न - भगवन् ! नारकी कहां रहते हैं ?
उत्तर-गौतम ! वह अपने स्थान सातों पृथिवियों में रहते हैं। जिनके नाम यह हैं- रत्नप्रभा, शर्करप्रभा, बालुकाप्रभा, पङ्कप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा, तमतमप्रभा ।
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६८ ]
तत्त्वार्थसूत्रजनाऽऽगमसमन्वय :
इस रत्नप्रभा पृथिवी के बाहिर घनोदधिवालवलय है, उसके बाहिर घन बातवलय है, उसके भी बाहिर तनु वातवलय है और सबसे बाहिर आकाश है, इसी प्रकार नीचे २ सातवीं पृथ्वी तक है। संगति - आगम वाक्य तथा सूत्र में शाब्दिक भेद ही है।
तासु त्रिंशत्पञ्चविंशतिपञ्चदशदशत्रिपञ्चोनैकनरकशतसहस्राणि पंच चैव यथाक्रमम्।
तीसा य पन्नवीसा पण्णरस दसेव तिमिण य हवंति ।। पंचूणसहसहस्सं पंचेव अणुत्तरो णरगा।
जीवाभिगम प्रतिपत्ति ३ सूत्र ६६
प्रज्ञापना पद २ नरकाधिकार छाया- त्रिंशतश्च पञ्चविंशतयः पञ्चदशाः दशाः एव त्रयश्च भवन्ति ।
पञ्चोनशतसहस्राः पञ्चैव अनुत्तराः नरकाः॥ भाषा टीका- प्रथम नरक में तीस लाख, द्वितीय में पञ्चीस लाख, तृतीय में पन्द्रह लाख, चतुर्थ में दस लाख, पञ्चम में तीन लाख, छटे में पांच कम एक लाख और सातवें में कुल पांच ही नरक हैं। .
नारकाः नित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रियाः।
पस्परोदीरितदुःखाः। ..अण्णमण्णस्य कार्य अभिहणमाणा वेयणं उदीरेंति इत्यादि। जीवाभिगम० प्रतिपत्ति ३ उद्दे० २ सूत्र ८९
३. ४.
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तृतीयाध्याय :
[ ६६
इमेहिं विवहेहिं आउहहिं किं ते मोग्गरभुसंढिकरकय सत्ति हलगय मुसल चक्क कुन्त तोमर सूल लउड भिंडिमालि सव्वल पहिस चम्मिट्ठ दुहण मुट्ठिय असिखेडग खग्ग चाव नाराय कणगकप्पिणि वासि परसु टंकतिक्ख निम्मल अण्णोहिं एवमादिहिं असुभेहिं वेउव्विएहिं पहरणसत्तेहिं अणुबन्धतिव्ववेरा परोप्परं वेयणं उदीरन्ति ।
प्रश्नव्याकरण अध्याय १ नरकाधिकार ते णं गरगा अंतोवट्टा बाहिं चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणा संठिया णिच्चंधयारतमसा ववगयगहचंदसूरणक्खत्तजोइसप्पहा, मेदवसापूयपडलरुहिरमंसचिक्खललित्ताणुलेवणतला, असुईवीसा परमदुब्भिगंधा काऊगगणिवण्णाभा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा णरगा असुभाओ णरगेसु वेअणाओ इत्यादि ।।
प्रज्ञापना पद २, नरकाधिकार. नेरइयाणं तओ लेसाओ पण्णता, तं जहा-कण्हलेस्सा नीललेस्सा काऊलेस्सा।
स्थानांग स्थान ३, उ० १, सूत्र १३२ अतिसीतं, अतिउण्हं, अतितराहा, अतिखुहा, अतिभयं वा; णिरए णेरइयाणं दुक्खसयाइं अविस्सामं ।।
जौवाभिगम० प्रतिपत्ति ३, सूत्र ९५. छापा- ......अन्योन्यस्य कायं अभिहन्यमानाः वेदनां उदीरयन्ति इत्यादि ।
एभिः विविधैः आयुधैः किं ते मुद्गरभुसण्डिक्रकचशक्तिहलगदामुशलचक्रकुन्ततोमरशूललकुटभिडिमालसदलपटिशचर्मवेष्टितद्रुघणमुष्टिकासिखेटकखगचापनाराचकनककल्पिनी-कासीपरशुटंकतीक्ष्ण
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तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वयः
निर्मलान्यैः एवमादिभिः अशुभैः विक्रियैः प्रहरणशतैः अनुबद्धतीववैराः परस्परं वेदनं उदीरयन्ति । ते नरकाः अन्तर्दृ त्ता बहिश्चतुरंता अवस्तात् क्षुरप्रसंस्थाना संस्थिता नित्यान्धकारतमसा व्यपगतग्रहचन्द्रसूर्यनक्षत्रज्योतिष्कप्रभा मेदवसापूतिपटलरुधिरमांसचिखललिप्तानुलेपनतला अश्रुचिविश्राः परमदुर्गन्धाः कापोताग्निवर्णाभाः कर्कशस्पर्शाः दुरघिसहाः अशुभाः नरकाः अशुभनरकेषु वेदनाः इत्यादि। नैरयिकाणां तिस्रः लेश्याः प्रज्ञप्ताः, तपथा-कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या । अतिशीतं अत्युष्णं, अतितृष्णा, अतिक्षुधा, अतिभयं वा नरके
नैरयिकाणां दुःखमसातं अविश्रामं इत्यादि । भाषा टीका - वहां परस्पर एक दूसरे के शरीर को पीड़ा देते हुए वेदना उत्पन्न करते हैं।
अनेक प्रकार के शस्त्र-मुद्गर, मुसण्डि (बन्दूक), क्रकच (आरा) शक्ति, हल, गदा, मूसल, चक्र, कुंत (बी), तोमर, शून, लकड़ी, भिडिपाल, सद्वल, पट्टिश, चमड़े में लिपटा हुआ मुद्गर, मुस्टिक, तलवार, खेटक, चङ्ग, धनुष वाण, कनक कल्पिनी नाम का वाण भेद, कासी (बिसौना), परशु (कुल्हाड़ा) की तेज धार तथा अन्य अशुभ विक्रियाओं से सैकड़ों चोट करते हुए तीव्र वैर का बन्धन करके एक दूसरे को वेदना उत्पन्न करते हैं।
वह नरक के बिल अन्दर से गोल, बाहिर से चौकोर, तथा नीचे छुरी की रचना के समान हैं। वहाँ सदा गहन अन्धकार रहता है-ग्रह, चन्द्र, सूर्य और नक्षत्र ज्योतिष्कों का प्रकाश कभी नहीं पहुँचता । चर्बी, राध, रुधिर और मांस की कीचड़ से सब ओर पुते हुए, अपवित्र आसन वाले, परम दुर्गन्ध वाले, मैली अग्नि के समान वर्ण की कान्ति वाले, कर्कश स्पर्श वाले, कठिनता से सहे जाने योग्य, अशुभ होतेहैं। उनके कष्ट भी अशुभ ही होते हैं। इत्यादि।
नारकियों के तीन लेश्या होती हैं- कृष्णलेश्या, नीमलेश्या, और कापोतलेश्या ।
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तृतीवान्याव:
नरक में नारकियों को शीत लगता है, अत्यन्त गर्मी लगती है, अत्यन्त प्यास लगती है, अत्यन्त भूख लगती है और अत्यन्त भय लगता है। यहां तो केवल दुःख, असाता और अविश्राम ही है। संक्लिष्टाऽसुरोदीरितदुःखाश्च प्राक्चतुर्म्यः ।
प्र०-किं पत्तियं णं भंते! असुरकुमारा देवा तच्चं पुढविं गया य गमिस्संति य?
उ०-गोयमा! पुव्यवेरियस्स वा वेदणउदीरणयाए, पुव्वसंगइस्स वा वेदणउवसामणयाए, एवं खलु असुरकुमारा देवा सच्चं पुढविं गया य, गमिस्संति य ।
व्याख्याप्राप्ति शतक ३, उ० २, स. १४२. छाया- प्र०-कि प्रत्ययं भगवन् ! असुरकुमारा देवास्तृतीयांपृथिवीं गताश्च,
गमिष्यन्ति च । उ०-गौतम! पूर्ववैरिकस्य वा वेदनोदीरणतया, पूर्वसंगतस्य वा वेदनोपशमनतया, एवं खलु असुरकुमाराः देवास्तृतीयां पृथिवीं
गताश्च गमिप्यन्ति च । प्रश्न- भगवन् ! असुरकुमार देव तृतीय पृथिवी तक किस कारण से गये थे जाते हैं तथा किस कारण से जायंगे ?
__उत्तर-गौतम ! पूर्व वैर की वेदना को उदीरणता से तथा पूर्व वेदना को उपशमन करने के लिये असुरकुमार देव तृतीय पृथ्वी तक जाया करते हैं।
तेष्वेकत्रिसप्तदशसप्तदशद्वाविंशतित्रयस्त्रिशत्सागरोपमा सत्वानां परा स्थितिः।
सागरोवममेगं तु, उक्कोसेण वियाहिया ।'' पढमाए जहन्नेणं, दसवाससहस्सिया ॥ १६०॥
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७२ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
तिण्णेव सागरा ऊ, उक्कोसेण वियाहिया । दोच्चाए जहन्नेणं, एगं तु सागरोवमं ।। १६१ ॥ सत्तेव सागरा ऊ, उक्को सेण वियाहिया । तइयाए जहन्नेणं, तिरणेव सागरोवमा ।। १६२ ।। दस सागरोवमा ऊ, उक्कोसेण वियाहिया । चउत्थीए जहन्नेणं, सत्तेव सागरोवमा ॥ १६३ ॥ सत्तरस सागरा ऊ, उक्कोसेण वियाहिया । पंचमाए जहन्नेणं, दस चेव सागरोपमा ॥ १६४ ॥ बावीससागरा ऊ उक्को सेण वियाहिया । छट्टीए जहन्ने, सत्तरस सागरोवमा ।। १६५ ।। तेत्तीस सागरा ऊ उक्कोसेण वियाहिया । सत्तमाए जहन्नेणं, बावीसं सागरोवमा ॥ १६६ ॥
उत्तराध्ययन अध्याय ३६.
छाया
सागरोपममेकं तु, उत्कर्षेण व्याख्याता । प्रथमायां जघन्येन, दशवर्षसहस्रिका ।। १६० ।। त्रीण्येव सागरोपमाणि तु, उत्कर्षेण व्याख्याता । द्वितीयायां जघन्येन, एकं तु सागरोपमम् ।। १६१ ।। सप्तैव सागरोपमाणि तु, उत्कर्षेण व्याख्याता । तृतीयायां जघन्येन, त्रीण्येव सागरोपमाणि ।। १६२ ।। दश सागरोपमाणि तु, उत्कर्षेण व्याख्याता । चतुर्थ्यां जघन्येन, सप्तैव तु सागरोपमाणि ॥ १६३ ॥ सप्तदश सागरोपमाणि तु, उत्कर्षेण व्याख्याता । पञ्चमायां जवन्येन, दश चैव सागरोपमाणि ॥ १६४ ॥
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तृतीयाध्यायः
[
७३
द्वाविशतिः सागरोपमाणि तु, उत्कर्षेण व्याख्याता । षष्टयां जघन्येन, सप्तदश सागरोपमाणि ॥ १६५ ॥ त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि तु, उत्कर्षेण व्याख्याता।
सप्तम्यां जघन्येन, द्वाविंशतिः सागरोपमाणि ॥ १६६ ॥ भाषा टीका-प्रथम नरक की जघन्य स्थिति दश सहस्र वर्ष तथा उत्कृष्ट आयु एक सागर है ॥ १६० ॥ द्वितीय नरक की जघन्य आयु एक सागर तथा उत्कृष्ट आयु तीन सागर है ॥१६१ ।। तीसरे नरक की जघन्य आयु तीन सागर तथा उत्कृष्ट आयु सात सागर है ॥ १६२ ॥ चौथे नरक की जघन्य आयु सात सागर तथा उत्कृष्ट आयु दश सागर है ॥ १६३ ॥ पञ्चम नरक की जघन्य आयु दश सागर तथा उत्कृष्ट आयु सतरह सागर है ॥ १६४ ॥ छटे नरक की जघन्य भायु सतरह सागर तथा उत्कृष्ट आयु बाईस सागर है ॥ १६५ ॥ सातवें नरक की जघन्य प्रायु बाईस सागर है तथा उत्कृष्ट आयु तेंतीस सागर है ।। १६६ ॥
संगति - इस प्रकार नरकों के वर्णन में सूत्र और आगम वाक्यों में संक्षेप विस्तार के अतिरिक्त और कुछ भेद नहीं है।
जम्बूद्वीपलवणोदादयः शुभनामानो द्वीपसमुद्राः ।
असंखेजा जंबुद्दीवा नामधेज्जेहिं पण्णता, केवतिया णं भंते ! लवणसमुद्दा पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जा लवणसमुद्दा नामधेज्जेहिं पण्णत्ता, एवं धायतिसंडावि, एवं जाव असंखेज्जा सूरदीवा नामधेज्जेहि य । एगे देवे दीवे पएणते एगे देवोदे समुद्दे पएणत्ते, एवं णागे जक्खे भूते जाव एगे सयंभूरमणे दीवे एगे सयंभूरमणसमुद्दे णामधेज्जेणं पण्णत्ते ।
जीवाभिगम प्रतिपत्ति ३, उ० २, सू० १८६ द्वीपसमुद्राधिकार.
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७४ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
जावतिया लोगे सुभा णामा सुभा वण्णा जाव सुभा फासा एवतिया दीवसमुद्दा नामधेज्जेहिं पण्णत्ता ।
जीवाभिगम प्रतिपत्ति ३, उ० २ सू० १८९. छाया - असंख्येयाः जम्बूद्वीपाः नाम्ना प्रज्ञप्ताः । कियन्तो भगवन् ! लवणसमुद्राः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! असंख्येयाः लवणसमुद्राः नामधेयैः प्रज्ञप्ताः, एवं धातकीषण्डाः अपि एवं यावत् असंख्येयाः सूर्यद्वीपाः नामधेयै च । एकदेवद्वीपः प्रज्ञप्तः, एकः देवोदधिसमुद्रः प्रज्ञप्तः, एवं नागः यक्षः भूतः यावत् एकः स्वयम्भूरमरणः द्वीपः एकः स्वयम्भूरमणसमुद्रः नाम्ना प्रज्ञप्तः ।
यावन्ति लोके शुभानि नामानि शुभा वर्णाः यावत् शुभाः स्पर्शाः एतावन्तो द्वीपसमुद्राः नामधेयैः प्रज्ञप्ताः ।
भाषा टीका - जम्बूद्वीप नाम के असंख्यात द्वीप कहे गये हैं ।
प्रश्न – भगवन् ! लवण समुद्र कितने हैं ?
उत्तर -
- लवणसमुद्र नाम के असंख्यात द्वीप कहे गये हैं । इसी प्रकार धातकीखण्ड नाम के असंख्यात द्वीप कहे गये हैं। इसी प्रकार सूर्यद्वीप तक असंख्यात नाम वाले हैं। देवद्वीप नाम का एक ही द्वीप है। देवोदधि समुद्र भी एक ही है। इसी प्रकार नाग, यत, और भूत से लगाकर स्वयंभूर मया द्वीप तक एक २ ही हैं। स्वयंभूरमण नाम का भी एक ही है।
समुद्र
लोक में जितने भी शुभ नाम और शुभ वर्ण से लगाकर शुभ स्पर्श तक हैं उतने ही द्वीप और समुद्र कहे गये हैं ।
द्विद्विर्विष्कम्भाःपूर्वपूर्वपरिक्षेपिणो
वलयाकृतयः ।
३, ८.
जंबूदीवं खाम दीवं लवणे णामं समुद्दे वहे वलयागारसंठाणसंठिते सव्वतो समंता संपरिक्खत्ता गं चिट्ठति ।
जीवाभिगम प्रतिपत्ति ३ ४० २ ० १५४.
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तृतीयाध्याय:
[ ७५
जंबूदीवाइया दीवा लवणादीया समुद्दा संठाणतो एकविहविधाणा वित्थारतो अणेगविधविधाणा दुगुणा दुगुणे पडुप्पारमाणा पवित्थरमाणा ओभासमाणवीचीया ।
जीवाभिगम प्रतिपत्ति ३, उ०२, सू० १२३. छाया-- जम्बूद्वीपः नाम द्वीपः लवणो नाम समुद्रः वृत्तः वलयाकारसंस्थानसंस्थितः सर्ववः समन्ततः संपरिक्षिप्य तिष्ठति ।
जम्बूद्वीपादयो द्वीपा लबणादिकाः समुद्राः संस्थानतः एकविध - विधानाः विस्तारत: अनेकविध विधानाः द्विगुणद्विगुणं प्रत्युत्पद्य - मानाः प्रविस्तरन्तः अवभासमानवीचयः ।
भाषा टीका - जम्बूद्वीप नाम का द्वीप है और लवण समुद्र नाम का समुद्र है । वह गोल वस्तय के आकार में स्थित है और जम्बूद्वीप को चारों ओर से घेरे हुए है।
जम्बूद्वीप आदि द्वीपों और लवण आदि समुद्रों का रचना की अपेक्षा एक ही भेद है, किन्तु विस्तार से अनेक प्रकार के भेद हैं। यह दुगने २ उत्पन्न होते हुए विस्तार को प्राप्त होते हुए शोभित होते हैं ।
संगति – सारांश यह है कि सब द्वीपों का विस्तार पहिले २ से दुगना २ है और बह गोल आकृति को धारण करते हुए पूर्व २ को घेरे हुए हैं।
तन्मध्ये मेरुनाभिर्वृत्तो योजनशतसहस्रविष्कम्भो जम्बुद्वीपः ।
३, ९.
जंबुद्दीवे सव्वदीवसमुद्दाणं सव्वब्भंतराए सव्वखुड्डाए वहे . एगं जोयणसहस्सं आयामविक्खंभेणं इत्यादि ।
जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सू० ३. जंबुद्दीवस्य बहुमज्झदेसभाए एत्थ जम्बुदीवे मन्दरे णाम्मं
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७६ ]
तत्त्वार्थसूत्रजनाऽऽगमसमन्वय :
पव्वए पएणत्ते । णवणउतिजोअणसहस्साइं उद्धं उच्चतेणं एगं जोमणसहस्सं उव्वेहेणं।
__ जम्बूद्वीप० सू० १०३. छाया- जम्बूद्वीपः सर्वद्वीपसमुद्राणां सर्वाभ्यन्तरः सर्वक्षुल्लकः वृत्तः......
एक योजनशतसहस्रं आयामविष्कम्भेन । जम्बूद्वीपस्य बहुमध्यदेशभागे अत्रान्तरे जम्बूद्वीपे मन्दरो नाम पर्वतः प्रज्ञप्तः । नवनवतियोजनसहस्राणि ऊर्बोच्चत्वेन एकं योजनसहस्र
मुद्वधेन। भाषा टीका - गोल आकार का जम्बूद्वीप सब द्वीप समुद्रों के बीच में सब से छोटा है, इसका विस्तार एक लाख योजन है।
___ जम्बूद्वीप के ठीक बीचोंबीच सुमेरु नाम का पर्वत है, यह पृथ्वी के ऊपर ६६ हजार योजन ऊंचा है, एक हजार योजन यह पृथ्वी के अन्दर है।
भरतहैमवतहरिविदेहरम्यकहरण्यवतैरावत - वर्षाः क्षेत्राणि।
३, १०. जम्वुद्दीवे सत्त वासा पएणता तं जहा-भरहे एरवते हेमवते हेरन्नवत हरिवासे रम्यवासे महाविदेहे ।
स्थानांग स्थान ७ सूत्र ५५५. छाया- जम्बूद्वीपे सप्त वर्षाः प्रज्ञप्ताप्तद्यथा-भरतः ऐरावतः हैमवतः
हरिवर्षः रम्यकवर्षः महाविदेहः । भाषा टीका - जम्बूद्वीप में सात क्षेत्र हैं – भरत, ऐरावत, हैमवत, हैरण्यवत, हरिवर्ष, रम्यक वर्ष और महाविदेह । - तहिभाजिनः पूर्वापरायता हिमवन्महाहिमवन्निषधनीलरुक्मिशिखरिणो वर्षधरपर्वताः ।
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तृतीयाध्यायः
[ ७७
विभयमाणे ।
जम्बूद्वीप० सूत्र १५. जम्बुद्दीवे छ वासहरपव्वता पण्णत्ता, तंजहा-चुल्लहिमवंते महाहिमवंते निसढे नीलवंते रुप्पि सिहरी।
स्थानांग स्थान ६ सूत्र ५२४. छाया- विभज्यमानः।
जम्बूद्वीपे षट् वर्षधरपर्वताः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-क्षुद्रहिमवान्, महा
हिमवान् , निषिधः, नीलवान, रुक्मिः, शिखरी। भाषा टीका - जम्बूद्वीप में उन सात क्षेत्रों को बांटने वाले (पूर्व से पश्चिम तक लम्बे) छै कुलाचल पर्वत हैं । वह इस प्रकार हैं - छोटा हिमवान् , महाहिमवान्, निषिध, नील, रुक्मि और शिखरी।
हेमार्जुनतपनीयवैडूर्यरजतहेममयाः । मणिविचित्रपार्था उपरि मूले च तुल्यविस्ताराः।
३. १३. चुल्लहिमवंते जंबुद्दीवे.......सव्वकणगामए अच्छे सण्हे तहेव जाव पडिरूवे । इत्यादि ।
जम्बू० वक्षस्कार ४ सू० ७२. महाहिमवंते णाम......सव्वरयणामए ।
जम्बू० स० ७६. निसहे णाम.......सव्वतपणिज्जमए ।
जम्बू सू० ८३. णीलवंते णाम.......सव्ववेरूलिमामए ।
जम्बृ० सू० ११०. रूप्पिणाम...... सव्वरूप्पामए ।
जम्बू० सू०१११.
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७८ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वयः
सिहरी णाम......सव्वरयणामए। ....
जम्बू० सू० १११. बहुसमतुल्ला अविसेसमणाणत्ता अन्नमन्नं णातिवटुंति पायामविक्खंभउव्वेहसंठाणपरिणाहेणं ।
स्थानांग स्थान २, उ० ३, सू० ८७. उभो पांसि दोहिं पउमवरवेइमाहिं दोहि अ वणसंडेहिं संपरिक्खत्ते ।
जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सू० ७२. छाया- क्षुद्रहिमवान् जम्बूद्वीपे ....... सर्वकनकमयः अच्छः श्लक्ष्णः
तथैव यावत् प्रतिरूपः महाहिमवान् नाम ....."सर्वरत्नमयः । निषषः नाम......." सर्वतपनीयमयः। नीलवान् नाम..."सर्ववैडूर्यमयः । रुक्मिः नाम .....""सर्वरौप्यमयः । शिखिरी नाम ..."सर्वरत्नमयः । बहुसमतुल्या अविशेष अनानात्वा अन्योन्यं नातिवर्तन्ते आयामविष्कम्भोत्सेधसंस्थानपरिणाहाः। उभयतो पार्श्वयोः द्वाभ्यां पद्मवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्याश्च वनखण्डाभ्यां
संपरिक्षिप्तः। भाषा टीका – जम्बूद्वीप में छोटा हिमवान् पर्वत सुवर्णमय अर्थात् पीत वर्ण का है । यह इतना चिकना है कि अपना प्रतिरूप स्वयं ही है । महाहिमवान् सब रत्न मय है तीसरा निषध पर्वत ताये हुए सुवर्ण के समान है। चौथा नील पर्वत वैडूर्यमय अर्थात् मयूर के कंठ के समान नीले रङ्ग का है। पांचवाँ रुक्मि पर्वत चांदी के सदृश शुक्ल वर्ण का है। और छटा शिखरी पर्वत सब प्रकार के रत्नों रूप है।
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तृतीयाध्यायः
यह पर्वत चौकोर इकसार हैं, और सामान्य रूप से भेद रहित हैं। यह एक दूसरे का उल्लंघन नहीं करते । यह लम्बाई, चौड़ाई, रचना और परिणाह वाले हैं। इनके दोनों ओर कमल की बनी हुई वेदिका है, जो दोनों ओर दो बनखण्डों से घिरी हुई है।
पद्ममहापद्मतिगिंछकेसरिमहापुण्डरीकपुण्डरीका ह्रदास्तेषामुपरि।
३, १४. जंबुद्दीवे छ महदहा पण्णता, तं जहा-पउमदहे महापउमइहे तिगिच्छदहे केसरिदहे पोंडरीयहहे महापोंडरीयइहे ।
___ स्था० स्थान ६, सू० ५२४. छाया- जम्बूद्वीपे षट् महाहू दाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा - पद्महद : महापद्महूदः
तिगिच्छह दः केसरिहूदः पुण्डरीकह दः महापुण्डरीकहदः । भाषा टीका- जम्बूद्वीप में छै महाह,द (तालाव) बतलाये गये हैं- पद्महद, महापद्मह,द, तिगिछ, केसरि, पुण्डरीक और महापुण्डरीक। प्रथमो योजनसहस्रायामस्तदईविष्कम्भो हृदः ।
दशयोजनावगाहः।
तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए इत्थणं इक्के महे पउमदहे णामं दहे पगणत्ते पाईणपडिणायए उदीणदाहिणविच्छिणणे इक्कं जोयणसहस्सं आयामेणं पंच जोमणसयाई विक्खंभेणं दस जोअणाई उव्वेहेणं अच्छे ।
जम्बूद्वीपप्रज्ञाप्ति पद्महदाधिकार. छाया- तस्य बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे अत्रावकाशे
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तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वयः
एको महान् पद्महदो नाम हूदः प्रज्ञप्तः पूर्वापरायतः उत्तरदक्षिणविस्तीर्णः एक योजनसहस्रायामेन पश्चयोजनशतानि विष्कम्भेन
दशयोजनान्युद्वेधेन अच्छः। भाषा टोका- उस बहुत सुन्दर पृथ्वी भाग के ठीक बीचों बीच एक पद्महूद नाम का बड़ा भारी तालाव है । यह पूर्व से पश्चिम तक एक सहस्र योजन लम्बा और उत्तर से दक्षिण तक पांच सौ योजन चौड़ा है, और दश योजन गहरा है।
तन्मध्ये योजनं पुष्करम् ।
तस्स पउमदहस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थं महं एगे पउमे पएणत्ते, जोअणं आयामविक्खंभेणं अद्धजोअणं बाहल्लेणं दसजोभणाई उव्वेहेणं दोकोसे ऊसिए जलंताओ साइरेगाइं दसजोभणाई सव्वग्गेणं पण्णत्ता।
जम्बू० पद्महूदाधिकार स० ७३. छाया- तस्य पद्मह दस्य बहुमध्यदेशभागः अत्रान्तरे महदेकं पद्म प्रज्ञप्तं,
एकं योजनमायामतो विष्कम्भतश्च अर्द्धयोजनं बाहुल्येन दशयोजनान्युद्वेधेन द्वौ क्रोशावुच्छितं जलान्तात् , एवं सातिरेकाणि
दश योजनानि सर्वाग्रेण प्रज्ञप्तानि । भाषा टीका- इस पद्म सरोवर के ठीक बीचों बीच एक बड़ा भारी कमल बतलाया गया है । इसकी लम्बाई एक योजन है और चौड़ाई आधा योजन है। इसकी ऊंचाई दश योजन है, और दो कोस यह जल के ऊपर है। इसी वास्ते इसके सब अवयवों को दश योजन से कुछ अधिक मानते हैं। तद्विगुणद्विगुणा हृदाः पुष्कराणि च ।
३, १८. महाहिमवंतस्य बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगे महापउम
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तृतीयाध्याय :
[ ८१
हे णामं दहे पण्णत्ते, दोजोऋण सहस्साइं आयामेणं एगं जोअणसहस्सं विक्खंभेणं दस जोअणाई उव्वेहेणं अच्छे रययामयकूले एवं आयामविक्खंभविणा जा चेव पउमद्दहस्स वत्तव्वया सा चैव अव्वा, पउमप्पमाणं दो जोगाई अट्ठो जाव महाप मद्दहवण्णाभाई हिरी अ इत्थ देवी जाव पओिवमट्टिया परिवसइ ।
जम्बू महाहिमवन्ताधिकार सूत्र० ८०.
तिfiars गामं दहे पण्णत्ते. चत्तारिजोअणसहस्साइं आयामेणं दोजोअणसहस्साइं विक्खंभेगां दसजोअणसहस्साइं उव्वेहेणं...... धिई अ इत्थ देवी पलिवमट्टिया परिवसइ । जम्बू० सू० ८३ से ११०. षड्ह दाधिकार
छाया
महाहिमवतः बहुमध्यदेशभागः अत्रान्तरे एकः महापद्महूदः नाम हृदः प्रज्ञप्तः । द्वियोजनसहस्रमायामतः एकयोजन सहस्र विष्कम्भतः दशयोजनान्युद्वेधेन अच्छः रजतमयकूलः एवं श्रयामविष्कम्भविहीनः या चैव पद्महूदस्य वक्तव्यता सा चैव ज्ञातव्या । पद्मप्रमाणं द्वे योजने अर्थः यावत् महापद्महू दवर्णाभ: ही: च अत्र देवी यावत् पल्योपमस्थितिका परिवसति ।
तिर्गिछिहृदः नाम हृदः प्रज्ञप्तः
चत्वारियोजनसहस्राणि यमतः द्वे योजनसहस्रे विष्कम्भतः दशयोजन सहस्राणि उद्बधेन • धृतिश्च अत्र देवी पल्योपमस्थितिका परिवसति ।
भाषा टीका - महाहिमवान् के बीचों बीच एक महापद्म नाम का सरोबर है। इसकी लम्बाई दो सहस्र योजन और चौड़ाई एक सहस्र योजन की है, और गहराई दस योजन है | इसके किनारे चांदी के बने हुए हैं। लम्बाई चौड़ाई के अतिरिक्त शेष बातें पद्म
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८२ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
सरोवर के समान हैं । इसके अन्दर दो योजन का कमल है । जिसके अन्दर एक पल्य आयु वाली ही देवी रहती है।
(तीसरा) तिगिंछ सरोवर है। यह चार योजन लम्बा, दो योजन चौड़ा और दस हजार योजन गहरा है । इसमें एक पल्य की आयु वाली धृति देवी रहती है।
तन्निवासिन्यो देव्यः श्रीह्रीधृतिकीर्तिबुद्धिलक्ष्म्यः पल्योपमस्थितितयः ससामानिकपरिषत्काः॥
३, १६. तत्थ णं छ देवयाओ महड्ढियाओ जाव पलिओवमद्वितीतातो परिवसंति । तं जहा-सिरि हिरि घिति कित्ति बुद्धि लच्छी।
स्थानांग स्था०६, सू० ५२४. छाया- तत्र षट् देव्यः महर्द्धिकाः यावत् पल्योपमस्थितिकाः परिवसंति ।
__ तद्यथा-श्रीः ही धृतिः कीर्तिः बुद्धिः लक्ष्मीः। भाषा टीका - उन (कमलों ) में बड़े ऐश्वर्य बाली तथा एक पल्य आयु वाली छै देवियां रहती हैं । वह यह हैं- श्री, ही, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी ।
गंगासिन्धुरोहिद्रोहितास्याहरिद्वरिकांतासीतासीतोदानारीनरकान्तासुवर्णरूप्यकूलारक्तारक्तोदाः सरितस्तन्मध्यगाः।
३, २०. द्वयोर्डयोः पूर्वाः पूर्वगाः॥
१, २१. शेषास्त्वपरगाः॥
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तृतीयाध्याय:
[ ८३
जंबुद्दीवे सत्त महानदीओ पुरत्थाभिमुहीमो लवणसमुदं समुप्पेंति, तं जहा- गंगा रोहिता हिरी सीता णरकंता सुवरणकूला रत्ता । जंबुद्दीवे सत्त महानदीओ पञ्चस्थाभिमुहीओ लवणसमुदं समुप्पेंति, तं जहा-सिंधू रोहितंसा हरिकता सीतोदा णारीकंता रुप्पकूला रत्तवती ।
स्थानांग स्थान ७ सूत्र ५५५. छाया- जम्बूद्वीपे सप्त महानयः पूर्वाभिमुख्यः लवणसमुद्र समुपयान्ति,
तद्यथा- गंगा रोहित् हरित् सीता नारी सुवर्णकूला रक्ता। जम्बूद्वीपे सप्त महानद्यः पश्चिमाभिमुख्यः लवणसमुद्रं समुपयान्ति, तद्यथा-सिन्धु रोहितास्या हरिकान्ता सीतोदा नरकान्ता रूप्यकूला
रक्तोदा। भाषा टीका - जम्बूद्वीप में सात महानदियां पूर्वाभिमुख होकर लवण समुद्र में गिरती हैं । वह यह हैं - गङ्गा, रोहित, हरित, सीता, नारी, सुवर्णकूला और रक्ता। जम्बूद्वीप में सात महानदियां पश्चिमाभिमुख होकर लवण समुद्र में गिरती हैं। वह यह हैंसिन्धु, रोहितास्या, हरिकान्ता, सीतोदा, नरकान्ता, रूप्यकूला, और रक्तोदा ।
चतुर्दशनदीसहस्रपरिवृता गंगासिन्ध्वादयो नद्यः॥
३, २३. जंबुद्दीवे भरहेरवएसु वासेसु कइ महाणइओ पण्णत्ताओ । गोअमा! चत्तारि महाणईओ पण्णत्ताओ, तं जहा-गंगा सिंधू रत्ता रत्तवई । तत्थ णं एगमेगा महाणई चउद्दसहिं सलिलासहस्सेहिं समग्गा पुरस्थिमपञ्चत्थिमे णं लवणसमुदं समुप्पेइ ।
जम्बु० प्र० वक्षस्कार ६ सू० १२५. छाया- जम्बूद्वीपे भरतैवरावतयोः वर्षयोः कति महानद्यः प्रज्ञप्ताः । गौतम!
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तत्वार्थ सूत्र जैनाऽऽगमसमन्बय :
चतस्रः महानद्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - गंगा सिन्धुः रक्ता रक्तोदा । तत्र एकैका महानदी चतुर्दशाभिः सलिलासहस्राभिः समग्राः पौरस्त्यपाश्चात्ययोः लवरणसमुद्र समुपयान्ति ।
प्रश्न -
-लम्बूद्वीप के भरत और ऐरावत क्षेत्रों में कितनी महा नदियां हैं ?
-
उत्तर - गौतम ! वहां चार महा नदियां हैं, वह यह हैं – गङ्गा, सिन्धु, रक्ता, रक्तोदा । इनमें से एक २ महानदी चौदह २ हजार नदियों सहित पूर्व और पश्चिम लवणसमुद्र में जाती हैं।
८४ ]
भरतः षड्विंशतिपञ्चयोजनशतविस्तारः षट चैकोनविंशतिभागा योजनस्य ।
छाया
जंबुद्दीवे दीवे भरहे णामं वासे... जंबुद्दीवदीवणउयसयभागे पंचवीसे जोणसच्च एगुणवीसइभाए जो मणस्सविक्खंभेणं ।
जम्बू सू० १०.
जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतः नाम वर्षः
जम्बूद्वीपद्वीपनबतिशतभागः पञ्च षड्विंशतियोजनशतः षट् च एकोनविंशतिभागः योजनस्य विष्कम्भः ।
भाषा टीका - जम्बूद्वीप में भरत क्षेत्र उसका एक सौ नव्वेवां भाग है। इसका विस्तार ५२६ योजन है । ६
१६
३, २४.
संगति अनुवाद है।
—
- इन सब आगम प्रमाणों से सिद्ध होता है कि सूत्र आगम का ही संक्षिप्त
तद्विगुणद्विगुणविस्तारा वर्षधरवर्षा विदेहान्ताः ।
३, २५.
जंबुद्दीपपण्णत्तीए वासावासहराणं महाविदेहपेरंतं विउविउणवित्थारेां वरिण । पस्संतु उत्तसुत्तं ।
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तृतीयाध्याय:
[ ८५
छाया- जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौ वर्षवर्षधराणां महाविदेहपर्यन्तं द्विगुणद्विगुणविस्तार
वर्णितः पश्यन्तु उक्तसूत्रं वर्षाधिकारे चतुर्थवक्षस्कारे । भाषा टीका-जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में महाविदेह क्षेत्र तक के क्षेत्र और पर्वतों का विस्तार पूर्व २ से दुगुना २ बतलाया गया है। वर्षाधिकार ४ थे वक्षष्कार में इस प्रकरण का बड़े बिस्तार से वर्णन किया गया है। उत्तरा दक्षिणतुल्याः।
३, २६. जंबुमंदरस्स पव्वयस्स य उत्तरदाहिणे गं दो वासहरपव्वया बहुसमतुल्ला अविसेसमणाणत्ता अन्नमन्नं णातिवदृति भायामविक्खंभुचतोव्वेहसंठाणपरिणाहेणं, तं जहा-चुल्लहिमवंते चेव सिहरिच्छेव, एवं महाहिमवंते चेव रुप्पिञ्चेव, एवं पिसढे चेव णीलवंते चेव इत्यादि।
स्थानांग स्थान २ उद्देश्य २ सूत्र ८७ छाया- जम्बूमन्दिरस्य पर्वतस्य च उत्तरदक्षिणयोः द्वौ वर्षधरपर्वतौ बहु
समतुल्यौ अविशेषौ अनानात्वौ अन्योन्यं नातिवर्तन्ते भायामविष्कम्भोचतोद्वेधसंस्थानपरिणाहेन, तद्यथा-क्षुद्रकहिमवान् चैव शिखरी चैव, एवं महाहिमवान् चैव रुक्मिश्चैव, एवं निषिधश्चैव नीलवन्त
श्चैव । इत्यादि। भाषा टीका-सुमेरु पर्वत के उत्तर तथा दक्षिण में दो पर्वत सब प्रकार से बराबर २ हैं। वह सामान्य रूप से एक से हैं। तथा लम्बाई, चौड़ाई, ऊंचाई, रचना तथा परिणाह से भिन्न २ नहीं है । समानवा इस प्रकार है-क्षुद्रहिमवान् और शिखरी बराबर २ हैं। महाहिमवान् तथा रुक्मि बराबर २ हैं। तथा निषिध और नील पर्वत समान हैं। इत्यादि।
भरतैरावतयोवृदिह्रासौ षट्समयाभ्यामु
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८६]
तत्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
त्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्याम् ।
ताभ्यामपरा भूमियो ऽवस्थिताः ।
३, २८.
३, २७.
जंबुद्दीवे दीवे दोसु कुरासु मणुप्रासया सुसमसुसममुत्तमिडिंट पत्ता पच्चरणुब्भवमाणा विहरंति, तं जहा- देवकुराए चेव, उत्तरकुराए चैव ॥ १४॥
जंबुद्दीवे दीवे दोसु वासेसु मणुयासया सुसममुत्तमिडिंढ पत्ता पच्चरणुब्भवमारणा विहरंति, तं जहा - हरिवासे चेव रम्मगवासे चेव ।। १५ ।।
जंबुद्दीवे दीवे दोसु वासेसु मणुयासया सुसमदुसममुत्तममिड्ढि पत्ता पच्चरणुब्भवमाणा विहरंति, तं जहा - हेमवए चेव एरन्नव चेव ॥ १६ ॥
जंबुद्दीवे दीवे दो खित्तेसु मरण्यासया दुसमसुसममुत्तममिडिंड पत्ता पच्चरणुभवमाणा विहरंति, तं जहा- पुव्वविदेहे चेव वरविदेहे चेव ॥ १७ ॥
जंबूदीवे दीवे दोसु वासेसु मरणया छव्विहं पि कालं पच्चगुब्भवमाणा विहरंति, तं जहा -भरहे चेव एरवए चैव ॥ १८ ॥
स्थानांग स्थान २ सूत्र ८६.
जंबूदीवे मंदरस्स पव्वस्स पुरच्छिम पञ्चत्थिमेणवि, वत्थि ओसप्पिणी नेवत्थि उस्सप्पिणी अवट्टिए णं तत्थ काले पन्नत्ते ।
व्याख्या प्रज्ञप्ति शतक ५ उद्देश्य १ सूत्र १७८
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तृतीयाध्यायः
छाया- जम्बूद्वीपे द्वीपे द्वयोः कुर्योः मनुष्याः सुखमसुखममुत्तमद्धि प्राप्ताः
प्रत्यनुभवन्तः विहरन्ति, तद्यथा-देवकुरौ चैवोत्तरकुरौ चैव॥ १४ ॥ जम्बूद्वीपे द्वीपे द्वयोः वर्षयोः मनुष्याः सुखममुत्तमद्धिं प्राप्ताः प्रत्यनुभवन्तः विहरन्ति, तद्यथा-हरिवर्षे चैव रम्यक् वर्षे चैव ॥ १५ ॥ जम्बूद्वीपे द्वीपे द्वयोः वर्षयोः मनुष्याः सुखमदुःखममुत्तमर्द्धि प्राप्ताः प्रत्यनुभवन्तः विहरन्ति, तद्यथा-हैमवते चैवैरण्यवते चैव १६ जम्बूद्वीपे द्वीपे द्वयोः क्षेत्रयोः मनुष्याः दुःखमसुखममुत्तमर्द्धि प्राप्ताः प्रत्यनुभवन्तः विहरन्ति, तद्यथा-पूर्वविदेहे चैवापरविदेहे चैव ॥१७॥ जम्बूद्वीपे द्वीपे द्वयोः वर्षयोः मनुष्याः षड्विधमपि कालं प्रत्यनुभवन्तः विहरन्ति, तद्यथा-भरते चैवैरावते चैव ॥१८॥ जम्बूद्वीपे मन्दिरस्य पर्वतस्य पौरस्त्यपश्चिमाभ्यामपि, नैवास्ति
अवसर्पिणी नैवास्ति उत्सर्पिणी अवस्थितः तत्र कालः प्रज्ञप्तः । भाषा टीका - जम्बूद्वीप के देवकुरु तथा उत्तरकुरु के मनुष्य प्राप्त की हुई सुखमसुखम की उत्तम ऋद्धि को अनुभव करते हुए विहार करते हैं। (यह उत्तम भोगभूमि है)
जम्बूद्वीप के हरिवर्ष और रम्यकवर्ष नाम के दो क्षेत्रों के मनुष्य सुखमा नाम की उत्तम ऋद्धि को प्राप्त कर अनुभव करते हुए विहार करते हैं। (यह मध्यम भोग भूमि है)
___ जम्बूद्वीप के हैमवत और हैरण्यवत नाम के दो क्षेत्रों के मनुष्य सुखमदुःखमा नाम की उत्तम ऋद्धि को प्राप्त कर अनुभव करते हुए विहार करते हैं । (यह जघन्य भोग भूमि है)
__ जम्बूद्वीप के पूर्व और पश्चिम विदेह नाम के दो क्षेत्रों के मनुष्य दुःखमसुखम नाम को उत्तम ऋद्धि को प्राप्त कर अनुभव करते हुए विहार करते हैं, (यहां सदा चौथा काल रहने से कर्मभूमि रहती है।)
जम्बूद्वीप के भरत और ऐरावत नाम के दो क्षेत्रों के मनुष्य छहों प्रकार के काल का अनुभव करते हुए बिहार करते हैं ।
जम्बूद्वीप में सुमेरु पर्वत के पूर्व तथा पश्चिम में भी उत्सर्पिणी अथवा अवसर्पिणी नहीं है, वरन् एक निश्चित काल है।
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तत्त्वार्थसूत्रजनाऽऽगमसमन्वय :
एकद्वित्रिपल्योपमस्थितयो हैमवतकहाविर्षकदैवकुरवकाः।
तथोत्तराः।
३, २९.
जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणेण दो वासा पएपत्ता....हिमवए चेव हेरन्नवते चेव हरिवासे चेव रम्मयवाते चेव'."देवकुरा चेव उत्तरकुरा चेव ... "एगं पलिओवमंठिई पएणत्ता'... "दो पलिओवमाइं ठिई पएणत्ता, तिपिण पलिभोवमाइं ठिई परखता।
__जम्बू द्वीप० वक्षस्कार ४ छाया- जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरदक्षिणयोः द्वौ वर्षों प्रज्ञप्तौ
...."हैमवतश्चैव हैरण्यवतश्चैव हरिवर्षश्चैव रम्यग्वर्षश्चैव ......"देवकुरुश्चैवोत्तरकुरुश्चैव ........" एक पल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता......"द्विपल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता त्रिपल्योपमं स्थितिः
प्रज्ञप्ता। भाषा टोका-जम्बूद्वीप में सुमेरु पर्वत के उत्तर दक्षिण में दो क्षेत्र बतलाये गये हैंहैमवत और हैरएयवत । हरिवर्ष और रम्यक् वर्ष । देवकुरु और उत्तरकुरु । इनकी आयु क्रमशः एक पल्य, दो पल्य और तोन पल्य होती है।
संगति - जघन्य भोगभूमि हैमवत और हैरण्यवत में एक पल्य आयु होती है। मध्यम भोगभूमि हरिवर्ष और रम्यक् वर्ष में दो पल्य की मायु होती है। तथा उत्तम भोग भूमि देवकुरु और उत्तर कुरु में तीन पल्य की आयु होती है।
विदेहेषु संख्येयकालाः।
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तृतीयाध्यायः
[ ८९
-
महाविदेहे ...."मणुभाणं केविइयं कालं ठिई पगणता? गोयमा! जहरणेण अंतोमुहत्तं उक्कोसेण पुवकोडी आउभं पालेति।
जम्बू० वक्षस्कार ४ सत्र ८५ छाया- महाविदेहे मनुजानां कियच्चिरं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम!
जघन्येन अन्तर्मुहुन्त उत्कर्षेण पूर्वकोटि आयुष्कं पालयन्ति । प्रश्न - महाविदेह क्षेत्र में मनुष्यों की कितनी आयु होती है ?
उत्तर- गौतम - वहां की जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ण आयु पूर्व कोटि होती है।
संगति -पूर्व कोटि आयु को संख्यात वर्ष की आयु भी कहते हैं। भरतस्य विष्कम्भो जम्बूद्वीपस्य नवतिशतभागः।
३, ३२. जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे भरहप्पमाणमेत्तेहिं खंडेहिं केवइयं खंडगणिए णं पण्णत्ते ? गोयमा! उअं खंडसयं खंडगणिएणं पएणत्ते ।
जम्बू० खंडयोजनाधिकार सूत्र १२५ छाया- जम्बुद्वीपे भगवन् ! द्वीपे भरतप्रमाणमात्रैः खण्डः कियान खण्ड
गणितेन प्राप्तः १ गौतम! नवत्यधिक खण्डशतं खण्डगणितेन
प्रज्ञप्तः। प्रश्न -भगवन् ! जम्बूद्वीप का भरतक्षेत्र किसनेवाँ भाग है ? उत्तर- गौतम ! एकसौ नव्वे वाँ भाग है। संगति- इन सूत्रों और आगम वाक्य के शब्द २ मिलते हैं।
द्विर्धातकीखण्डे ।
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६० ]
तस्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
धायइखंडे दीवे पुरच्छिमद्धे णं मंदरस्स पव्व यस्स उत्तरदाहिणे णं दो वासा पन्नत्ता, बहुसमतुल्ला जाव भरहे चेव एरवए चेव ....."धाततीखंडदीवे पञ्चच्छिमद्धे णं मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणे णं दो वासा पण्णत्ता बहुसमतुल्ला जाव भरहे चेव एरवए चेव । इच्चाइ ।
स्थानांग स्थान २ उद्देश्य ३ सूत्र ६२ छापा- धातकीखण्डे द्वीपे पूर्वार्दै मन्दिरस्य पर्वतस्य उत्तरदक्षिणयोः द्वौ वर्षों
प्रज्ञप्तौ । बहुसमतुल्यौ यावत् भरतश्चैव ऐरावतश्चैव..... धातकीखण्डद्वीपे पश्चिमा मन्दिरस्य पर्वतस्य उत्तरदक्षिणयोः द्वौ
वर्षों प्रज्ञप्तौ बहुसमतुल्यौ यावत् भरतश्चैव ऐरावतश्चैव । इत्यादि । भाषा टीका - धातकी खण्ड द्वीप के पूर्वार्द्ध में सुमेरु पर्वत के उत्तर दक्षिण में दो २ क्षेत्र हैं। भरत से ऐरावत तक वह सब प्रकार से बराबर हैं ।
धातकी खण्ड द्वीप के पश्चिमार्द्ध में सुमेरु पर्वत के उत्तर दक्षिण में दो २ क्षेत्र हैं। बह भरत क्षेत्र से लगाकर ऐरावत तक सब प्रकार से बराबर हैं।
संगति - धातकी खण्ड के पूर्वार्द्ध में भरतादि ऐरावत पर्यंत सात क्षेत्र हैं और पश्चिमार्द्ध में भी इसी प्रकार सात क्षेत्र हैं। जिससे वहां दो भरत दो ऐरावत आदि होतेहैं।
पुष्कराढे च।
३, ३४. पुक्खरवरदीवड्ढे पुरच्छिमद्धे णं मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणे णं दो वासा पण्णता बहुसमतुल्ला जाव भरहे चेव एरनए चेन तहेव जाव दो कुडाओ पएणत्ता ।
___ स्थानांग स्थान २ उद्देश्य ३ सूत्र १३ छाया- पुष्करवरद्वीपार्दै पूर्वार्द्ध मन्दिरस्य पर्वतस्य उत्तरदक्षिणयोः द्वौ वर्षों
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तृतीयाध्यायः
[ ९१
प्रज्ञप्तौ बहुसमतुल्यौ यावत् भरतश्चैव ऐरावतश्चैव । तथैव यावत्
द्वौ कूटौ प्रज्ञप्तौ । भाषा टीका -पुष्कर द्वीप के पूर्वार्ड में सुमेरु पर्वत के उत्तर दक्षिण में दो २ क्षेत्र हैं, वह भरत क्षेत्र से लगाकर ऐरावत तक सब प्रकार से बराबर हैं। उसी प्रकार पश्चिमार्द्ध में भी रचना है। प्राङ्मानुषोत्तरान्मनुष्याः।
३, ३५. माणुसुत्तरस्स णं पव्वयस्स अंतो मणुआ।
- जीवाभिगम प्रतिपत्ति ३ मानुषोत्तराधिकार उहे० २ सूत्र १७८ छाया- मानुषोत्तरस्य पर्वतस्य अन्तः मनुष्याः। भाषा टीका- मनुष्य मनुष्योत्तर पर्वत के अन्दर २ ही रहते हैं। आगे नहीं रहते।
आर्या म्लेच्छाश्च ।
ते समासओ दुविहा परणत्ता, तं जहा-आरिमा य मिलक्खू य ।
प्रज्ञापना पद १ मनुष्याधिकार छाया- तो समासतः द्विविधौ प्रज्ञप्तौ, तद्यथा-आर्याश्च म्लेच्छाश्च । भाषा टीका - मनुष्य संक्षेप से दो प्रकार के होते हैं - आर्य और म्लेच्छ । संगति-यहां सूत्र और आगम के शब्द २ मिलते हैं।
भरतैरावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरूत्तरकुरुभ्यः।
. ३, ३७. से किं तं अकम्मभूमगा? कम्मभूमगा परणरसविहा
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१२ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
पपणत्ता; तं जहा-पंचहिं भरहेहिं पंचहि एरवएहिं पंचहिं महाविदेहेहिं ।
से किं तं अकम्मभूमगा ? अकम्मभूमगा तीसई विहा पएणत्ता, तं जहा-"पंचहि हेमवएहि पंचहि हरिवासेहिं पंचहिं रम्मगवासेहिं, पंचहिं एरण्णवएहिं, पंचहिं देवकुरुहि, पंचहिं उत्तरकुरुहिं । सेत्तं अकम्मभूमगा ।
प्रज्ञापना पद १ मनुष्याधिकार सूत्र ३२ छाया- अथ किं तत् कर्मभूमयः ? कर्मभूमयः पञ्चदशविधाः प्रज्ञप्ताः,
तपथा-'पश्चभिः भरतैः पञ्चभिः ऐरावतैः पञ्चभिः महाविदेहै:" अथ किं तत् अकर्मभूमयः १ अकर्मभूमयः त्रिंशद्विधाः प्रज्ञप्ताः । तद्यथा-पञ्चभिः हेमवतैः, पञ्चभिः हरिवः पञ्चभिः रम्यग्वषैः पञ्चभिः हैरण्यवतैः पञ्चभिः देवकुरुभिः पञ्चभिरुत्तरकुरुभिः ।
सोऽयमकर्मभूमयः। प्रश्न- कर्म भूमि कौनसी हैं ?
उत्तर-धर्म भूमि पन्द्रह कही गई हैं। (अढ़ाई द्वीप के) पांच भरत, पांच ऐरावत और पांच महाविदेह ।
प्रश्न-अकर्म भूमि अथवा भोगभूमि कौन सी हैं ?
उत्तर-भोगभूमि तीस होती हैं-पांच हैमवत, पांच हरिवर्ष, पांच रम्यक वर्ष, पांच हैरण्यवत, पांच देवकुरु और पांच उत्तर कुरु । यह सब भोग भूमियां हैं।
संगति-यहां सूत्र और आगम वाक्य में कोई अन्तर नहीं है। आगम वाक्य में नियमानुसार थोड़ा विशेष कथन है।
नृस्थिती पराध्वरे त्रिपल्योपमान्तर्महुतें ।
३, ३८.
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तृतीयाध्यायः
[ ९३
पलिओवमाउ तिन्नि य, उक्कोसेण वियाहिया । आउट्ठिई मणुयाणं, अंतोमुहुत्तं जहन्निया॥
उत्तराध्ययन अध्याय ३६ गाथा १९८ मणुस्साणं भंते! केवइयं कालटिई परणात्ता ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिगिणपलिओषमाइं ।
प्रज्ञापना पद ४ मनुष्याधिकार छाया- पल्योपमानि त्रीणि च, उत्कर्षेण व्याख्याता ।
पायुः स्थितिर्मनुजानां अन्तर्मुहुर्ते जघन्यका ॥ मनुष्याणां भगवन् ! कियति कालः स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम !
जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षेण त्रीणि पल्योपमानि । भाषा टीका-मनुष्यों की जघन्य आयु अन्तर्मुहुर्त तथा अधिक से अधिक आयु तीन पल्य होती है। तिर्यग्योनिजानाञ्च।
३, ३६. पलिओवमाइं तिरिण उ उक्कोसेण वियाहिया । आउठिई थलयराणां अन्तोमुहुत्तं जहन्निया ॥
उत्तराध्ययन अध्याय ३६ गाथा १८३ गम्भवतिय चउप्पय थलयर पंचदिय तिरिक्ख जोणियाणं पुच्छा ? जहणणेणं अन्तोमुहत्तं उक्कोसेणां तिषिण पलिओवमाइं ।
प्रज्ञापना स्थितिपद ४ तिर्यगधिकार छाया- पल्योपमानि त्रीणि तु, उत्कर्षेण व्याख्याता।
आयुः स्थितिः स्थलचराणां अन्तर्मुहूर्त जघन्यका ॥
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१४ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वयः
गर्भव्युत्क्रान्तः चतुष्पदस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां पृच्छा ?
जघन्येन अन्तर्मुहूर्त उत्कर्षण त्रीणि पल्योपमानि । भाषा टीका-स्थलचरों की जघन्य आयु अन्तर्मुहुर्त तथा उत्कृष्ट आयु तीन पल्य होती है।
प्रश्न–गर्भ जन्म वालों, चौपायों, स्थलचरों, पंचेन्द्रियों तथा अन्य तिर्यचों की कितनी आयु होती है ?
उत्तर-जघन्य अन्तर्मुहुर्त तथा उत्कृष्ट तीन पल्य ।
संगति-यहां भी सूत्र और आगम वाक्य में बिल्कुल एक प्रकार के ही शब्द कहे गये हैं।
इति श्री-जैनमुनि-उपाध्याय-श्रीमदात्माराम महाराज-संगृहीते
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वये तृतीयाऽध्यायः समाप्तः ॥ ३ ॥ *
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चतुर्थाऽध्यायः
देवाश्चतुर्णिकायाः ।
४, १
चउव्विहा देवा पण्णत्ता, तं जहा - भवणवई वाणमंतर
जोइस वेमाणिया ।
छाया
चतुर्विधाः देवाः प्रज्ञप्ताः, ज्योतिषकाः वैमानिकाः ।
भाषा टीका - देव चार प्रकार के होते हैं—भुवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और
वैमानिक |
-
व्याख्याप्रज्ञप्ति शतक २ उद्देश्य ७
वारणमन्तराः
संगति – यहां आगम वाक्य और सूत्र में कुछ अन्तर नहीं है। केवल व्यन्तर का नाम आगम में वाणमन्तर दिया गया है, जो केवल शाब्दिक भेद है ।
आदितस्त्रिषु पीतान्तलेश्या ।
भवनवइवाणमंतर याणं एगा तेउलेसा'
तद्यथा – भुवनपतयः
-
छाया
"जोतिसि
चत्तारि लेस्साओ 'वेमाणियाणं तिन्नि उवरिमलेसाओ ।
स्थानांग स्थान १ सूत्र ५१ ज्योतिषकाणां एका
भुवनपतिवारणमन्तरयोः चतस्रः लेश्या तेजोलेश्या (पीतलेश्या) वैमानिकानां तिस्रः उपरिमलेश्याः ।
-भाषा टीका – भुवनवासी और व्यन्तरों के चार लेश्या (कृष्ण, नील, कापोत और पीत) होती हैं। ज्योतिष्कों के अकेली पीत लेश्या होती है और वैमानिकों के ऊपर की तीन लेश्या (पीत, पद्म, और शुक्ल ) होती हैं।
४, २
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तत्त्वार्थसूत्रजनाऽऽगमसमन्वय :
___ संगति-आगम तथा सूत्र में ज्योतिष्क देवों के सम्बन्ध में थोड़ा मत भेद है। सूत्रों में भुवनवासी तथा व्यतरों के समान ज्योतिष्कों में भी चार लेश्या मानी हैं। किन्तु आगम ग्रन्थ ज्योतिष्कों में कृष्ण, नील, और कापोत का अस्तित्व न मानकर उनमें केवल चौथी पीतलेश्या ही मानते हैं। इसलिये यह विषय विद्वानों के विचारने योग्य है। दशाष्टपञ्चद्वादशविकल्पाः कल्पोपपन्नपर्यन्ताः ।
४, ३. . भवणवई दसविहा पण्णता' वाणमन्तरा अट्ठविहा पण्णता,... 'जोइसिया पंचविहा पन्नत्ता'.......'वेमाणिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-कप्पोपवण्णगा य कप्पाइया य । से कि तं कप्पोपवण्णगा ? बारसविहा पण्णत्ता, तं जहा - सोहम्मा, ईसाणा, सणंकुमारा, माहिंदा, बंभलोगा, लंतया, महासुक्का सहस्सारा, आणया, पाणया, आरणा, अच्चुत्ता।
प्रज्ञापना प्रथम पद देवाधिकार छाया- भुवनपतयः दशविधाः प्रज्ञप्ताः "वाणमंतराः अष्टविधा प्रज्ञप्ताः
......''ज्योतिष्काः पश्वविधाः प्रज्ञप्ताः । वैमानिकौ द्विविधौ प्रज्ञप्तौ, तद्यथा-कल्पोपनकाच कल्पातीताश्च । अथ किं तत् कल्पोपपन्नकाः! द्वादशविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - सौधर्माः ईशानाः सनत्कुमाराः माहेन्द्राः ब्रह्मलोकाः लान्तकाः महाशुक्राः सहस्राराः
आनताः प्राणताः आरणाः अच्युताः । भाषा टीका-भुवनवासी दस प्रकार के होते हैं। व्यंतर आठ प्रकार के होते हैं । ज्योतिष्क पांच प्रकार के होते हैं और वैमानिक दो प्रकार के होते हैं। वैमानिकों के दो भेद यह हैं-कल्पोपपन्न और कल्पातीत ।
प्रश्न-कल्पोपपन्न किनको कहते हैं ?
उत्तर-कल्पोपपन्न बारह प्रकार के होते हैं-वह यह हैं-सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत ।
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तृतीयाध्याय :
इन्द्रसामानिकवायस्त्रिंशपारिषदात्मरक्षलोकपालानीकप्रकीर्णकाभियोग्यकिल्विषिकाश्चैकशः ।
देविंदा परिसोववन्नगा
४, ४.
"तायत्तीसगा लोगपाला
एवं सामाणिया अणियाहिवई.. आयरक्खा ।
छाया
देवकिव्विसिए... आभिजोगिए ।
।
[ ६७
स्थानांग स्थान ३, उ० १, सू० १३४.
श्रपपा० जीवोप० सू० ४१.
चडव्विहा देवाण ठिती पण्णत्ता, तं जहा- देवे णाममेगे देवसिखाते नाममेगे देवपुरोहिते नाममेगे देवपज्जलणे नाममेगे ।
स्थानांग स्थान ४, उ० १ सू० २४८.
देवेन्द्राः एवं सामानिकाः त्रायस्त्रिंशका : लोकपालाः परिषदुत्पन्नकाः अनीकपतयः आत्मरक्षाः ।
देवकिल्विषिकाः अभियोग्याः ।
चतुर्विधा देवानां स्थितिः प्रज्ञप्ता, तद्यथा देवः नामैक: देवस्नातकः नामैकः देवपुरोहितः नामैकः देवप्रज्वलनः नामैकः ।
-
भाषा टीका - देवेन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, लोकपाल, पारिषद् अथवा परिषदुत्पन्न अनी पति अथवा अनीक, आत्मरक्ष, देवकिल्बिष और अभियोग्य । ( एक एक के भेद
हैं।)
देवों की स्थिति चार प्रकार की होती है— देव, देवस्नातक, देवपुरोहित और देव
प्रज्वलन |
संगति - सूत्र में देव समूहों के दश भेद बतलाये गये हैं। उपरोक्त आगम वाक्य में थोड़े शाब्दिक हेरफेर के साथ नौ भेद तो बतला दिये हैं। दसवें भेद प्रकीर्णक के स्थान
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६८ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वयः
में उन्होंने देवों के एक समूह की देव, स्नातक, पुरोहित और प्रज्वलन यह चार संज्ञाऐं की हैं, जो कि प्रकीर्णक से प्रथक् कुछ प्रतीत नहीं होते।
त्रायस्त्रिंशलोकपालवा व्यंतरज्योतिष्काः।
वाणमंतरजोइसियाणं तायतीसलोगपाला नस्थि ।
पगणवणाए बीओ पए पस्संतु अहवा जंबुद्दीवपण्णत्तीए जिणमहिमाहियारे वावमंतरजोइसियाणं च विसए पासियव्वो। छाया- व्यन्तरज्योतिष्कानां त्रायस्त्रिंशलोकपालौ न स्तः । प्रज्ञापनायाः
द्वितीये पदे पश्यन्तु । अथवा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौ जिनमहिमाधिकारे
व्यन्तरज्योतिष्कयोश्च विषये द्रष्टव्यः । भाषा टोका - व्यन्तर तथा ज्योतिष्कों में त्रायस्त्रिंश और लोकपाल नहीं होते । इस विषय को प्रज्ञापना सूत्र के द्वितीयपद अथवा जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के जिनमहिमाधिकार में व्यन्तर और ज्योतिष्कों के विषय में देखना चाहिये।
पूर्वयोभन्द्राः। दो असुरकुमारिंदा पन्नता, तं जहा-चमरे चेव बली चेव । दो णागकुमारिंदा पण्णत्ता, तं जहा-धरणे चेव भूयाणंदे चेव । दो सुवन्नकुमारिंदा पण्णत्ता, तं जहा-वेणुदेवे चेव वेणुदाली चेव । दो विज्जुकुमारिंदा पएणत्ता, तं जहा-हरिच्चेव हरिसहे चेव । दो अग्गिकुमारिंदा पन्नत्ता तंजहा-अग्गिसिहे चेव अग्गिमाणवे चेव। दो दीवकुमारिंदा पण्णत्ता, तं जहा-पुन्ने चेव विसिटे चेव । दो उदहिकुमारिंदा पण्णत्ता, तं जहा-जलकते चेव जलप्पभे चेव। दो दिसाकुमारिंदा पण्णत्ता, तं जहा-अमियगती चेव अमितवा
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तृतीयाध्याय :
[
हणे चेव । दो वातकुमारिंदा पण्णत्ता, तं जहा - वेलंबे चेव पभंजणे चेव । दो थयिकुमारिंदा पण्णत्ता, तं जहा- घोसे चैव महाघोसे चेव । दो पिसाइंदा पन्नत्ता, तं जहा - काले चेव महाकाले चेव । दो भूइंदा पण्णत्ता, तं जहा सुरूवे चेव पडिरूवे चेव । दो जक्खिदा पन्नत्ता, तं जहा-पुन्नभद्दे चेष माणिभद्दे चेव । दो क्खसिंदापन्नता, तं जहा- भीमे चेव महाभीमे चेव । दो किन्नरिंदा पन्नता तं जहा - किन्नरे चेव किंपुरिसे चेव । दो किंपुरिसिंदा पन्नत्ता तं जहा- सप्पुरिसे चैव महापुरिसे चेव । दो महोरगंदा पन्नत्ता, तं जहा - अतिकाए चेव महाकाए चेव । दो गंधव्विदा पन्नत्ता, तं जहा -- गीतरती चेव गीयजसे चेव ।
स्थानांग स्थान २ उ० ३ सू० ६४.
छाया
-
सुकुमारेन्द्र प्रज्ञप्तौ तद्यथा - चमरश्चैव बलिश्चैव ।
9
द्वौ नागकुमारेन्द्रौ प्रज्ञप्ती, तद्यथा - धरणश्चैव भूतानन्दश्चैव । द्वौ सुपर्णकुमारेन्द्रौ प्रज्ञप्तौ तद्यथा - वेणुदेवश्चैव वेणुदारी चैव । द्वौ विद्युत्कुमारेन्द्र प्रज्ञप्तौ तद्यथा – हरिश्चैव हरिसहश्चैव । द्वावग्निकुमारेन्द्रौ प्रज्ञप्तौ तद्यथा - अग्निशिखश्चैवाऽग्निमाणवश्चैव । द्वौ दीपकुमारेन्द्रौ प्रज्ञप्तौ तद्यथा - पूर्णश्चैव वशिष्टश्चैव । द्वावुदधिकुमारेन्द्रौ प्रज्ञप्तौ तद्यथा - जलकान्तश्चैव जलप्रभश्चैव द्वौ दिकुमारेन्द्रौ प्रज्ञप्तौ तद्यथा - अमित गतिश्चैवाऽमितवाहनश्चैव । द्वौ वातकुमारेन्द्रौ प्रज्ञप्तौ तद्यथा - वेलम्बश्चैव प्रभञ्जनश्चैव ataraकुमारेन्द्र प्रज्ञप्तौ तद्यथा - घोपश्चैव महाघोषश्चैव । ( व्यन्तराणां मध्ये )
"
द्वौ पिशाचेन्द्रौ प्रज्ञप्तौ तद्यथा - कालश्चैव महाकालश्चैव ।
,
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१०० ]
तत्वार्थ सूत्र जैनाऽऽगमसमन्वय :
द्वौ भूतेन्द्र प्रज्ञप्तौ तद्यथा - सुरूपश्चैव प्रतिरूपश्चैव । ( प्रतिरूपोऽतिरूपश्च ) द्वौ यक्षेन्द्र प्रज्ञप्तौ तद्यथा - पूर्णभद्रश्चैव मणिभद्रश्चैव । द्वौ राक्षसेन्द्रौ प्रज्ञप्तौ तद्यथा – भीमश्चैव महाभीमश्चैव । afaaiद्र प्रज्ञप्तौ तद्यथा – किन्नरश्चैव किम्पुरुषश्चैव । athayeपेन्द्र प्रज्ञप्तौ तद्यथा - सत्पुरुषश्चैव महापुरुषश्चैव । aौ महोरगेन्द्रौ प्रज्ञप्तौ तद्यथा - अतिकायश्चैव महाकायश्चैव । ata प्रज्ञप्तौ तद्यथा - गीतरतिश्चैव गीतयशश्चैव
1
भाषा टीका - ( भुवनवासियों के अन्दर ) १. असुर कुमारों के दो इन्द्र होते हैं- - चमर और बलि । २. नागकुमारों के दो इन्द्र होते हैं – धरण और भूतानन्द | ३. सुपर्णकुमारों के दो इन्द्र होते हैं - वेणुदेव और वेणुदारी ।
४. विद्युत्कुमारों के दो इन्द्र होते हैं - हरि और हरिसह ।
-
५. अग्निकुमारों के दो इन्द्र होते हैं – अग्नि शिख और अग्नि माणव । ६. द्वीपकुमारों के दो इन्द्र होते हैं - पूर्ण और वशिष्ट । ७. उदधिकुमारों के दो इन्द्र होते हैं – जलकान्त और जलप्रभ । ८. दिक्कुमारों के दो इन्द्र होते हैं - श्रमितगति और अमितवाहन । ६. वातकुमारों के दो इन्द्र होते हैं - वेलम्ब और प्रभञ्जन । १०. स्तनित कुमारों के दो इन्द्र होते हैं – घोष और महाघोष |
-
( इस प्रकार भुवनवासियों के बीस इन्द्रों का वर्णन किया गया ।
अब व्यन्तरों के इन्द्रों का वर्णन किया जाता है। )
१. पिशाचों के दो इन्द्र होते हैं - काल और महाकाल ।
२. भूतों के दो इन्द्र होते हैं - सुरूप और प्रतिरूप ( अथवा प्रतिरूप और अतिरूप )
३. यक्षों के दो इन्द्र होते हैं - पूर्ण भद्र और मणिभद्र । ४. राक्षसों के दो इन्द्र होते हैं – भीम और महाभीम | ५. किन्नरों के दो इन्द्र होते हैं
-
- किन्नर और किम्पुरुष ।
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चतुर्थऽध्याय:
६. किम्पुरुषों के दो इन्द्र होते हैं – सत्पुरुष और महापुरुष । ७. महोरगों के दो इन्द्र होते हैं – अतिकाय और महाकाय । ८. गन्धर्वो के दो इन्द्र होते हैं - गीतरति और गीतयश ।
कायप्रवीचारा ा ऐशानात् ।
४, ७.
शेषाः स्पर्शरूपशब्दमनःप्रवीचाराः ।
४, ८.
[ १०१
परेऽप्रवीचाराः ।
छाया
४, ९.
कतिविहाणं भंते! परियारणा पण्णत्ता ? गोयमा ! पञ्चविहा पण्णत्ता; तं जहा - कायपरियारणा, फासपरियारणा, रूवपरियारणा, सहपरियारणा, मनपरियारणा भवणवासिवाणमंतरजोतिसि सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु देवा कायपरियारणा, सांकुमारमाहिंदेसु कप्पेसु देवा फासपरियारणा, बंभलोयलंत गेसु कप्पेसु देवा रूवपरियारणा, महासुक्कसहस्सारेसु कप्पेसु देवा सद्दपरियारणा, आणयपाणयच्चारण अच्चुए देवा मरणपरियारखा, गवेजग अणुत्तरोववाइया देवा अपरियारगा ।
प्रज्ञापना पद ३४ प्रचारणा विषय स्थानांग स्थान २, उ० ४, सू० ११६.
कतिविधा भगवन् प्रचाररणा प्रज्ञप्ता ? गौतम ! पञ्चविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा - कायप्रचारणा, स्पर्शप्रचारणा, रूपप्रचारणा, शब्दमचारणा, मनःप्रचारणा । भवनवासिव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मैशानेषु कल्पेषु देवाः कायप्रवीचारकाः । सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः कल्पयोः देवाः स्पर्शप्रचारकाः । ब्रह्मलोकलान्तकयोः कल्पयोः देवाः रूप
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१०२ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वयः
प्रचारकाः । महाशुक्रसहस्रारयोः कल्पयोः देवाः शब्दप्रचारकाः। आनतप्राणताऽऽरणाऽच्युतेषु कल्पेषु देवाः मनःप्रचारकाः ।
|वेयकाऽनुत्तरोपपादिकाः देवाः अप्रचारकाः। प्रश्न - भगवन् ! प्रचारणा कितने प्रकार की होती है?
उत्तर – गौतम ! पांच प्रकार की होती है-काय प्रचारणा, स्पर्श प्रचारणा, रूप प्रचारणा, शब्द प्रचारणा और मनःप्रचारणा । भवनवासी, व्यन्तर ज्योतिष्क, तथा सौधर्म और ईशान कल्पों के देव [ मनुष्यों के समान ] शरीर से प्रवीचार अथवा मैथुन करते हैं। सानत्कुमार और माहेन्द्र कल्पों के देव स्पर्श मात्र से ही मैथुन के सुख को भोग लेते हैं । ब्रह्मलोक और लान्तक कल्पों में देव रूप देखने मात्र से मैथुन के सुख को भोग लेते हैं । महाशुक्र और सहस्रार कल्पों में देव मन में स्मरण करने मात्र से मैथुन के सुख को भोग लेते हैं । नौ वेयक तथा अनुत्तरों में उत्पन्न देवों में कामवासना न होने से वह अप्रवीचार कहे जाते हैं।
संगति - प्रवीचार, प्रचारणा, तथा प्रचार यह सब मैथुन के ही नामान्तर हैं। इन सत्रों में देवों के मैथुन का सुख प्राप्त करने का ढंग बतलाया गया है । आगमवाक्य तथा उपरोक्त सूत्रों के शब्दों का साम्य ध्यान देने योग्य है।
भवनवासिनोऽसुरनागविद्युत्सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधिद्वीपदिक्कुमाराः।
४, १०. भवणवई दसविहा पण्णत्ता, तं जहा-असुरकुमारा, नागकुमारा, सुवरणकुमारा, विजुकुमारा, अग्गीकुमारा, दीवकुमारा, उदहिकुमारा, दिसाकुमारा, वाउकुमारा, थणियकुमारा ।
प्रज्ञापना प्रथम पद देवाधिकार. छाया- भवनवासिनः दशविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- असुरकुमाराः, नाग
कुमाराः, सुपर्णकुमारा, विद्युत्कुमाराः अग्निकुमाराः, द्वीपकुमाराः, उदधिकुमाराः, दिक्कुमाराः, वातकुमाराः, स्तनितकुमाराः ।
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चतुर्थऽध्याय :
[ १०३
भाषा टीका-भवनवासी दस प्रकार के होते हैं-असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, दिक्कुमार, वातकुमार, और स्तनित कुमार।
व्यन्तराः किन्नरकिम्पुरुषमहोरगगन्धर्वयक्षराक्षसभूतपिशाचाः।
४, ११. वाणमंतरा अट्ठविहा पएणत्ता, तं जहा-किएणरा, किंपुरिसा, महोरगा, गंधव्वा, जक्खा, रक्खसा, भूया, पिसाया।
प्रज्ञापना प्रथमपद देवाधिकार. छाया- व्यन्तराः अष्टविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा – किन्नराः, किम्पुरुषाः, महो
रगाः, गन्धर्वाः, यक्षाः, राक्षसाः, भूताः, पिशाचाः। भाषा टोका-व्यन्तर आठ प्रकार के होते हैं-किन्नर, किम्पुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच.
ज्योतिष्काः सूर्याचन्द्रमसौ ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकतारकाश्च।
जोइसिया पंचविहा पण्णता, तं जहा-चंदा, सूरा, गहा, सक्खत्ता, तारा।
प्रज्ञापना प्रथम पद देवाधिकार. छाया- ज्योतिष्काः पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- चन्द्रमसः, सूर्याः, ग्रहाः,
नक्षत्राणि, तारकाः। भाषा टीका - ज्योतिष्क पांच प्रकार के होते हैं- चंद्रमा, सूर्य, प्रह, नक्षत्र, और तारे
___मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके।
४, १३.
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१०४ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वयः
४, १४.
ते मेरु परियडता पयाहिणावत्तमंडला सव्वे । - प्रणवट्टियजोगेहिं चंदा सूरा गहगणा य ॥१०॥
जीवाभिगम, तृतीय प्रतिपत्ति उद्दे० २ सू० १७७. छाया- ते मेरु पर्यटन्तः प्रदक्षिणावर्त्तमण्डलाः सर्वे ।
अनवस्थितयोगैः चन्द्रमसः सूर्याः ग्रहगणाश्च ॥ भाषा टीका- वह चन्द्रमा, सूर्य, और ग्रहों के समूह स्थिर न रहते हुए नित्य मण्डलाकार में सुमेरुपर्वत की प्रदक्षिणा दिया करते हैं।
तत्कृतः कालविभागः। ___ से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-"सूरे आइच्चे सुरे", गोयमा! सूरादिया णं समयाइ वा आवलयाइ वा जाव उस्सप्पिणीइ वा अवसप्पिणीइ वा से तेणढेणं जाव आइच्चे।
व्याख्या प्रज्ञप्ति शत० १२ उ० ६. ___ से किं तं पमाणकाले ? दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-दिवप्पपाणकाले राइप्पमाणकाले इच्चाइ ।
व्याख्याप्रज्ञप्ति शतक ११ उ० ११ सू० ४२४.
जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, सूर्य प्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति । छाया- अथ केनार्थेन भगवन् एवं उच्यते - " सूर्यः आदित्यः सूर्यः",
गौतम ! सूर्यादिकाः समयादयः वाऽऽवलिकादयः वा यावत् उत्सर्पिण्यादयः वाऽवसर्पिण्यादयः वाऽथ तेनार्थेन यावदादित्यः। अथ किं तत्पमाणकालः १ द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - दिवसप्रमाण
कालः रात्रिप्रमाणकालः इत्यादि। प्रश्न - भगवन् ! सूर्य को आदित्य किस कारण से कहते हैं ? ___उत्तर – गौतम ! श्रावलि आदि से लगाकर उत्सर्पिणी अथवा अवसर्पिणी तक के समय की आदि सूर्य से ही होती है, इस कारण से उसे आदित्य कहते हैं ?
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चतुर्थऽध्यायः
[
१०५
प्रश्न-प्रमाण काल किसे कहते हैं?
उत्तर-वह दो प्रकार का होता है-दिवस प्रमाण काल और रात्रि प्रमाण काल । इत्यादि।
बहिरवस्थिताः।
४, १५. अंतो मणुस्सखेत्ते हवंति चारोवगा य उववण्णा । पञ्चविहा जोइसिया चंदा सरा गहगणा य ॥ २१ ॥ तेण परं जे सेसा चंदाइच्चगहतारनखत्ता । नत्थि गई नवि चारो अवट्ठिया ते मुणेयव्वा ॥ २२ ॥
जीवाधिगम तृतीय प्रतिपत्ति उद्दे० २ सूत्र १७७ छाया- अन्तः मनुष्यक्षेत्रे भवन्ति चारोपगाश्च उपपन्नाः।
पञ्चविधाः ज्योतिष्काः चन्द्रमसः सूर्याः ग्रहगणाश्च ॥ तेन परं यानि शेषाणि चन्द्रमसादित्यग्रहतारकनक्षत्राणि ।
नास्ति गतिः नापि चारः अवस्थितानि तानि ज्ञातव्यानि ॥ भाषा टीका-मनुष्य क्षेत्र के अन्दर उत्पन्न हुए पांचों प्रकार के ज्योतिष्क चन्द्रमा, सूर्य, और ग्रहों के समूह चलते रहते हैं। किन्तु मनुष्य क्षेत्र के बाहिर के शेष चन्द्रमा, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारे गति नहीं करते, न चलते हैं । परन् उनको निश्चल समझना चाहिये।
संगति-इन सब भागम वाक्यों और सूत्र के पदों में विशेष कथन के अतिरिक्त और कुछ भेद नहीं है.
वैमानिकाः। वेमाणिया -
व्याख्याप्रज्ञप्ति० शतक २० सूत्र ६७५-६८२. छाया- वैमानिकाः। भाषा टीका-[ज्योतिष्क देवों से ऊपर रहने वाले देवों को] वैमानिक कहते हैं।
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१०६ ]
तत्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च ।
४, १७
वेमाणिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- कप्पोपवण्णगा य
कप्पाईया य ॥
प्रज्ञापना प्रथम पद सूत्र ५०.
छाया
वैमानिकाः द्विविधा: प्रज्ञप्तास्तद्यथा- कल्पोपपन्नकाश्च कल्पातीताश्च । भाषा टीका - वैमानिक दो प्रकार के होते हैं-कल्पोपपन्न और कल्पातीत ।
उपर्युपरि ।
४, १८
ईसायरस कप्पस्स उप्पिं सपक्खि इत्यादि ।
प्रज्ञापना पद २ वैमानिकदेवाधिकार ।
छाया
ईशानस्य कल्पस्य उपरि सपक्षं इत्यादि भाषा टीका - ईशान कल्प के ऊपर २ बाकी सब रचना है ।
सौधर्मैशानसानत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मब्रह्मोत्तरलान्तवकापिष्टशुक्रमहाशुक्रशतारसहस्रारेष्वानतप्राणतयोरारणाच्युतयोर्नवसु ग्रैवेयकेषु विजयवैजयन्तजयन्तापराजितेषु सर्वार्थसिद्धौ च ।
४, १९
सोहम्म ईसाण सणकुमार माहिंद बंभलोय लंतग महासुक्क सहस्सार आणय पाणय आरण अन्य हेट्ठिमगेवेज्जग मज्झिमगेवेग उपरिमगेवेज्भग विजय वेजयंत जयंत अपराजिय सव्वट्टसिद्धदेवाय ।
प्रज्ञापना पद ६, अनुयोगद्धार सू० १०३ औपपातिक सिद्धाधिकार ।
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चतुर्थऽध्यायः
[ १०७
छाया- सौधर्मंशानसानत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मलोकलान्तकमहाशुक्रसहस्रारऽऽन
तप्राणताऽऽरणाऽच्युताधस्तादग्रैवेयकमध्यमवेयकोपरिमोवेयकवि
जयवैजयन्तजयन्तापराजितसर्वार्थसिद्धदेवाश्च । भाषा टीका-सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत, अधोवेयक, मध्यम प्रवेयक, उपरिम प्रैवेयक, विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित और सपार्थसिद्धि के देव [वैमानिक कहलाते हैं।]
संगति-दिगम्बर ग्रन्थों से श्वेताम्बर तथा स्थानकवासी आगमों का स्वर्गो' के विषय में मतभेद है। दिगम्बर ग्रन्थ सोलह स्वर्ग मानते हैं। जैसा कि सूत्र में लिखा है। किन्तु आगमों में ब्रह्मोत्तर, कापिष्ट, शुक्र और शतार इन चार स्वर्गों के अस्तित्व को नहीं माना । लान्तव का नाम आगमों में लान्तक मिलता है। अत: इन भेदों में साम्प्रदायिकता होने के कारण यह समन्वय में बाधक सिद्ध नहीं होते । इसी कारण से दिगम्बर आम्नाय के सूत्रों में सोलह तथा श्वेताम्बर आम्नाय के तत्वार्थसूत्र में बारह स्वर्ग मिलते हैं।
स्थितिप्रभावसुखद्युतिलेश्याविशुद्धीन्द्रियावधिविषयतोऽधिकाः।
४, २०. गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो हीनाः।।
सोहम्मीसाणेसु देवा केरिसए कामभोगे पञ्चणुब्भवमाणा विहरंति ? गोयमा! इठ्ठा सदा इट्ठा रूवा जाव फासा एवं जाव गेवेजा अणुत्तरोववातिया णं अणुत्तरा सदा एवं जाव अणुत्तरा फासा।
जीवाधिगम० प्रतिपत्ति ३ उद्दे० २ सत्र २१६.
प्रज्ञापना पद २ देवाधिकार ।
४, २१.
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तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वयः
..... ''महिड्ढीया महज्जुइया जाव महाणुभागा इड्ढीए पएणत्ते, जाव अचुओ, गेवेजणुत्तरा य सव्वे महिड्ढीया ।
जीवाभिगम० प्रतिपत्ति ३ सूत्र २१७ वैमानिकाधिकार । छाया- सौधर्मेंशानयोः देवाः कीदृक् कामभोगान् प्रत्यनुभवमानाः
विहरन्ति ? गौतम! इष्टाः शब्दाः इष्टाः रूपाः यावत् स्पर्शाः एवं यावत् |वेयकाः अनुत्तरोपपातिकाः अनुत्तराः शब्दाः एवं यावत् अनुत्तराः स्पर्शाः। महर्द्धिकाः महदद्युतिकाः यावत् महानुभागाः ऋद्धयः प्रज्ञप्ताः, यावत्
अच्युतः, ग्रैवेयकाः अनुत्तराश्च सर्वे महर्द्धिकाः..... प्रश्न-सौधर्म तथा ईशान स्वर्गों में देव कैसे २ काम भोगों को भोगते हुए विहार करते हैं।
उत्तर-गौतम । वह इष्ट शब्द, इष्ट रूप, इष्ट गंध, इष्ट रस और इष्ट स्पर्श का वैयक तथा अनुत्तरों तक आनन्द लेते हैं।
अच्युत स्वर्ग तक वह महानुभाग बड़ेभारी ऋद्धि वाले और महान् कान्ति वाले होते हैं । अवेयक और अनुत्तरों के निवासी देव भी महान ऋद्धि वाले होते हैं
संगति-यह पीछे बतलाया जा चुका है कि आगमों में सभी विषयों का प्रतिपादन विस्तार से किया गया है। जिवाधिगम प्रतिपत्ति सूत्रमें तथा प्रज्ञापना सूत्र में देवों के ऊपर २ अधिक तथा हीन गुणों पर भी बड़े विस्तार से प्रकाश डाला गया है। किन्तु किसी छोटे वाक्य के न होने से यहां किसी उपयुक्त पद का उद्धरण न किया जा सका। सूत्र में बतलाया है कि ऊपर २ देवों की अधिकाधिक आयु होती है, प्रभाव भी अधिकाधिक ही होता जाता है, सुख भी एक कल्प से दूसरे आदि में अधिक २ ही है, कान्ति भी अधिक २ होती जाती है, लेश्या अधिकाधिक विशुध्द होती जाती है, इन्द्रियों की विषय ग्रहण करने की शक्ति भी बढ़ती जाती है। और अवधि ज्ञान का विषय भी उनका अधिक २ ही होता जाता है।
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[ १०६
इसके विरुद्ध ऊपर २ के देवों की गति कम होती जाती है। अर्थात् जितने २ ऊपर जाइये देव कम चलते हैं। प्रवेयकों के अहमिन्द्र तो अपने स्थान से कहीं भी नहीं जाते । शरीर भी उपर २ छोटा होता जाता है, परिग्रह भी ऊपर २ कम रखते जाते हैं, और अभिमान भी ऊपर २ कम होता जाता है ।
पीतपद्मशुक्ललेश्या द्वित्रिशेषेषु ।
४, २२
सोहम्मीसाणदेवाणं कति लेस्साओ पन्नताओ ? गोयमा ! एगा तेऊलेस्सा पण्णत्ता । सगं कुमारमाहिंदेसु एगा पम्हलेस्सा एवं बंभलोगे वि पम्हा । सेसेसु एक्का सुक्कलेस्सा श्रणुत्तरोववातियाणं एक्का परमसुक्कलेस्सा ।
छाया
जीवाभिगम० प्रतिपत्ति ३ उद्दे० १ सूत्र २१४. प्रज्ञापना पद १७ उद्दे० १ लेश्याधिकार ।
सौधर्मैशानदेवानां कतिलेश्याः मज्ञप्ताः १ गौतम ! एका तेजोलेश्या प्रज्ञप्ता । सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः एका पद्मलेश्या एवं ब्रह्मलोकेऽपि पद्मलेश्या । शेषेषु एका शुक्ललेश्या अनुत्तरोपपातिकानामेका परमशुक्रलेश्या ।
प्रश्न - सौधर्म और ईशान स्वर्ग वालों के कितनी लेश्या होती हैं ?
उत्तर
- गौतम ! उनके केवल एक पीत लेश्या (तेजोलेश्या) ही होती है।
सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग में अकेली पद्म लेश्या होती है। ब्रह्मलोक में भी पद्मलेश्या होती है । शेष स्वर्गों में केवल शुक्ल लेश्या ही होती है। अनुत्तरों में उत्पन्न हुआ के परम शुक्ल लेश्या होती है ।
संगति - आगम के इस वाक्य का दिगम्बरों से थोडा मतभेद है । उनके लेश्या क्रम के अनुसार सौधर्म ईशान में पीत लेश्या; सानत्कुमार और माहेन्द्र में पीतपद्म दोनों; ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लांत और कापिष्ट में पद्मलेश्या; शुक्र, महाशुक्र, शतार और सहस्रार में पद्म
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११० ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
और शुक्र दोनों; तथा आनत आदि शेष स्वर्गों में शुक्ल लेश्या होती है। परंतु अनुदिश और अनुत्तर इन चौदह विमानों में परम शुक्ल होती है।
प्राग्ग्रेवेयकेभ्यः कल्पाः।
४, २३.
४, २४.
कप्पोपवरणगा बारसविहा पण्णत्ता।
प्रज्ञापना प्रथम पद सूत्र ४६. छाया- कल्पोपपन्नकाः द्वादशविधाः प्रज्ञप्ताः । __ भाषा टीका-[प्रवेयकों से पहिले के] कल्पोपपन्न जाति के देव बारह प्रकार के कहे जाते हैं।
ब्रह्मलोकालया लौकान्तिकाः।। बंभलोए कप्पे...... लोगंतिता देवा पण्णत्ता ।
स्थानांग० स्थान = सूत्र ६२३. छाया- ब्रह्मलोके कल्पे ........ लौकान्तिकाः देवाः प्रज्ञप्ताः । भाषा टीका-ब्रह्मलोक कल्प के अन्त में रहने वाले लौकान्तिक देव कहलाते हैं।
सारस्वतादित्यवन्यरुणगर्दतोयतुषिताव्याबाधारिष्टाश्च ।
सारस्सयमाइच्चा वण्हीवरुणा य गद्दतोया य । तुसिया अव्वावाहा अग्गिच्चा चेव रिट्ठा च ॥ छाया- सारस्वताऽऽदित्याः वन्हयो वरुणाश्च गर्दतोयाश्च ।
तुषिता अव्याबाधा आग्नेयाश्चैव रिष्टाश्च ॥ * स्थानांग स्थान० ८ सुत्र ६२३ में इसी गाथा में 'रिट्ठा च' के स्थान में 'बोद्धव्वा' पाठ देकर आठ भेद ही माने हैं।
४, २५.
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चतुर्थऽध्यायः
[ १११
भाषा टीका-सारस्वत, आदित्य, वन्हि, वरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्यावाध आग्नेय और रिष्ट यह सब के सब लौकान्तिक होते हैं।
संगति-सूत्र में संक्षेप से आठ भेद लिखे हैं। किन्तु आगम में विस्तार से नौ भेद लिखे गये हैं। आगम के वन्हि और आग्नेय को सूत्र में केवल वन्हि में ही अन्तर्भाव कर लिया है। आगम में अरुण को वरुण और अरिष्ट को रिष्ट नाम दिया गया है, जो कि कोई वास्तविक भेद नहीं है।
विजयादिषु द्विचरमाः।
विजय वेजयंत जयंत अपराजिय देवत्ते केवइया दकिदिया अतीता परमत्ता ? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ णत्थि, जस्सस्थि अट्ट वा सोलस वा इत्यादि ।
प्रज्ञापना० पद १५ इन्द्रियपद छाया- विजयवैजयन्तजयन्तापराजितेषु देवत्त्वे कियान्ति द्रव्येन्द्रियाणि
अतीतानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! कस्यास्ति कस्य नास्ति, यस्यास्ति
अष्ट वा षोडश वा इत्यादि। प्रश्न-विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित के देवपने में कितनी द्रव्येन्द्रियाँ बीत जाती हैं।
उत्तर-गौतम ! किसी के होती हैं और किसी के नहीं भी होती है जिनके होती हैं तो पाठ या सोलह होती हैं।
संगति-एक जन्म की आठ द्रव्येन्द्रिय (स्पर्शन, रसना, दो नाक, दो आंख और दो कान) मानी गई हैं। अतएव दो जन्मों की सोलह द्रव्येन्द्रियाँ हुई। उपरोक्त विमानों से आने वाले प्रायः तो उसी भव में मोक्ष को प्राप्त होते हैं। जिनको उसी भव में मोक्ष नहीं होती वह दूसरे भव में मोक्ष चले जाते हैं। किन्तु दो बार चार अनुत्तर विमानों में जाकर मोक्ष जाना तो उनका बिलकुन्न निश्वित है।
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११२ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
औपपादिकमनुष्येभ्यः शेषास्तिर्यग्योनयः ।
४, २७. उववाइया ....'मणुआ (सेसा) तिरिक्खजोणिया ।
दशवैका० अध्याय ४ षट् कायाधिकार । छाया- उपपादकाः मनुजाः (शेषाः ) तिर्यग्योनयः ।
भाषा टीका-औपपादिक (देव नारकियों) और मनुष्यों के अतिरिक्त शेष जीव तिर्यच कहलाते हैं।
स्थितिरसुरनागसुपर्णद्वीपशेषाणां सागरोपमत्रिपल्योपमाईहीनमिता।
४, २८. असुरकुमाराणं भंते! देवाणं केवइयं कालढिइ पण्णता? गोयमा ! उक्कोसेणं साइरेगं सागरोवमं.... ।
नागकुमाराणं देवाणं भंते! केवइयं कालं ठिई पन्नता ? गोयमा! उक्कोसेणं दोपलिओवमाइं देसूणाई ......सुवरणकुमाराणं भंते! देवणं केवइयं कालं ठिई पन्नता? गोयमा! उकोसेणं दोपलिओवमाइं देसूणाई। एवं एएणं अभिलावण... जाव थणियकुमाराणं जहा नागकुमाराणं ।
प्रज्ञापना० पद ४ भवनपत्यधिकार । स्थिति विषय । छाया- असुरकुमाराणां भगवन् ! कियती कालस्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम !
उत्कर्षेण सातिरेकं सागरोपमम् । नागकुमाराणां देवानां भगवन् ! कियती कालस्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! उत्कर्षेण द्वे पल्योपमे देशोने । सुपर्णकुमाराणां भगवन् ! देवानां कियती कालस्थितिः प्रज्ञप्ता ? गोतम! उतकर्षण द्वे
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चतुर्थाध्याय :
[ ११३
पल्योपमे देशोने। एवं अनेन अभिलापेन .......यावत् स्तनितकुमाराणां यथा नागकुमाराणाम् । प्रश्न-भगवन् ! असुरकुमारों की कितनी आयु होती है ? उत्तर-गौतम! उनकी अधिक से अधिक आयु कुछ अधिक एक सागर होती है ! प्रश्न-भगवन् ! नागकुमारों को कितनी आयु होती है ? उत्तर-गौतम ! अधिक से अधिक कुछ कम दो पल्य होती है ! प्रश्न-भगवन् ! सुपर्ण कुमारों की किवनी आयु होती है ? उत्तर-गौतम ! अधिक से अधिक कुछ कम दो पल्य होती है !
इसी प्रकार से स्तनिक कुमारों तक की आयु नागकुमारों को भायु के समान होती है !
संगति-इस विषय में आगमों का दिगम्बर प्रथों से थोड़ा मत भेद है । सूत्र में कहा गया है कि असुर कुमारों की आयु एक सागर की है, नागकुमारों को तीन पल्य है, सुपर्ण कुमारों की आयु अढ़ाई पल्य है, द्वीप कुमारों की दो पल्य है, और शेष रहे जो छह कुमार उनकी आयु डेढ़ २ फल्य की है!
४, २९.
४,३०.
सौधर्मशानयोः सागरोपमेऽधिके। ..
सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः सप्त। त्रिसप्तनवैकादशत्रयोदशपञ्चदशभिरधिकानि तु।
आरणाच्युतालमेकैकेन नवसु ग्रैवेयकेषु विजयादिषु सर्वार्थसिद्धौ च।
अपरा पल्योपमधिकम्।
४, ३२.
४, ३३.
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११४
]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वयः
परतः परतः पूर्वा पूर्वाऽनन्तरा।
४, ३४. दो चेव सागराइं, उक्कोसेण वियाहिआ। सोहम्मम्मि जहन्नणं, एगं च पलिओवमं ॥ २२० ॥ सागरा साहिया दुन्नि, उक्कोसेण वियाहिया । ईसाणम्मि जहन्नणं, साहियं पलिओवमं ॥ २२१ ।। सागराणि य सत्तेव, उक्कोसेणं ठिई भवे । सणंकुमारे जहन्नेणं, दुन्नि ऊ सागरोवमा ॥ २२२ ॥ साहिया सागरा सत्त, उक्कोसेणं ठिई भवे । माहिन्दम्मि जहन्नेणं, साहिया दुन्नि सागरा ॥ २२३ ॥ दस चेव सागराइं, उक्कोसेणं ठिई भवे। बम्भलोए जहन्नणं, सत्त ज सागरोवमा ॥ २२४ ॥ चउदस सागराइं, उक्कोसेण ठिई भवे । लन्तगम्मि जहन्नेणं, दस उ सागरोवमा ॥ २२५ ॥ सत्तरस सागराइं, उक्कोसेण ठिई भवे । महासुक्के जहन्नेणं, चोइस सागरोवमा ॥ २२६ ॥ अट्ठारस सागराइं, उक्कोसेण ठिई भवे । सहस्सारम्मि जहन्नेणं, सत्तरस सागरोवमा ॥ २२७ ॥ सागरा अउणवीसं तु, उक्कोसेणं ठिई भवे । माणयम्मि जहन्नणं, अट्ठारस सागरोवमा ॥ २२८ ॥
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चतुर्थाध्यायः
[ ११५
पीसं तु सागराइं; उकोसेण ठिई भवे। पाणयम्मि जहन्नणं, सागरा अउणवीसई ॥ २२६ ॥ सागरा इक्कवीसं तु, उक्कोसेण ठिई भवे । भारणम्मि जहन्नणं, वीसई सागरोवमा ॥ २३०॥ बावीसं सागराइं, उक्कोसेण ठिई भवे । अधुयम्मि जहन्नणं, सागरा इक्कवीसई ॥ २३१ ॥ तेवीस सागराइं, उक्कोसेण ठिई भवे । पढमम्मि जहन्नणं, बावीसं सागरोवमा ॥ २३२ ॥ चउवीस सागराइं, उक्कोसेण ठिई भवे । बिइयम्मि जहन्नेणं, तेवीसं सागरोवमा ॥ २३३ ॥ पणवीस सागराइं, उक्कोसेण ठिई भवे । तइयम्मि जहन्नणं, चउवीसं सागरोवमा ॥ २३४ ॥ छवीस सागराइं, उक्कोसेण ठिई भवे। चउत्थम्मि जहन्नणं, सागरा पणुवीसई ॥ २३५ ॥ सागरा सत्तवीसुं तु. उकोसेण ठिई भवे। पञ्चमम्मि जहन्नेणं, सागरा उ छवीसइ ॥ २३६ ॥ सागरा भट्ठवीसं तु, उक्कोसेण ठिई भवे । छम्मि जहन्नेणं, सागरा सत्तवीसइ ॥ २३७ ॥ सागरा अउणतीसं तु, उक्कोसेण ठिई भवे । सत्तमम्मि जहन्नणं, सागरा अट्टवीसइ ॥ २३८ ॥
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११६ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
तीसं तु सागराइं, उक्कोसेण ठिई भवे । अट्ठमम्मि जहन्नणं, सागरा अउस तीसई ॥ २३६ ॥ सागरा इक्कतीसं तु, उक्कोसेण ठिई भवे । नवमम्मि जहन्नणं, तीसई सागरोवमा ॥ २४० ॥ तेत्तीसा सागराइं, उक्कोसेण ठिई भवे । चउसुपि विजयाईसु, जहन्नेणेक्कत्तीसई ॥ २४१ ॥ अजहन्नमणुक्कोसा, तेत्तीसं सागरोवमा । महाविमाणे सव्वट्ठ, ठिई एसा वियाहिया ॥ २४२ ।।
उत्तराध्ययनसूत्र अध्य०३६.
छाया- द्वै चैव सागरोपमे, उत्कर्षेण व्याख्याता ।
सौधर्म जघन्येन, एकं च पल्योपमम् ॥ २२० ॥ सागरोपमे साधिके द्वे, उत्कर्षेण व्याख्याता । ईशाने जघन्येन, साधिकं पल्योपमम् (एक) ॥ २२१ ॥ सागरोपमाणि च सप्तैव, उत्कर्षण स्थितिर्भवेत् । सानत्कुमारे जघन्येन, द्वे तु सागरोपमे ॥ २२२ ॥ साधिकानि सागरोपमाणि सप्त, उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् । माहेन्द्रे जघन्येन, साधिके द्वे सागरोपमे ॥२२३॥ दश चैव सागरोपमाणि, उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् । ब्रह्मलोके जघन्येन, सप्त तु सागरोपमाणि ॥ २२४ ॥ चतुर्दश सागरोपमाणि, उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् । लान्तके जघन्येन, दश तु सागरोपमाणि ॥ २२५ ॥ सप्तदश सागरोपमाणि, उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् । महाशुक्र जघन्येन, चतुर्दश सागरोफ्माणि ॥ २२६ ॥
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चतुर्वाध्यायः
[ ११५
अष्टादश सागरोपमाणि, उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् । सहस्रारे जघन्येन, सप्तदश सागरोपमाणि ॥ २२७॥ सागरोपमाणां एकोनविंशतिस्तु, उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् । आनते जघन्येन, अष्टादश सागरोपमाणि ॥ २२८ ॥ विंशतिस्तु सागरोपमाणि, उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् । प्राणते जघन्येन, सागरोपमाणां एकोनविंशतिः ॥२२९ ॥ सागरोपमाणां एकविंशतिस्तु, उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् । आरणे जघन्येन, विंशतिः सागरोपमाणि ॥ २३०॥ द्वाविंशतिः सागरोपमाणि, उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् । अच्युते जघन्येन, सागरोपमाणां एकविंशतिः ॥ २३१ ॥ प्रयोविंशतिः सागरोपमाणि, उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् । प्रथमे (अवेयके) जघन्येन, द्वाविंशतिः सागरोपमाणि ॥ २३२ ॥ चतुर्विंशतिः सागरोपमाणि, उत्कर्षण स्थितिर्भवेत् । द्वितीये जघन्येन, त्रयोविवतिः सागरोपमाणि ॥ २३३ ॥ पञ्चविंशतिः सागरोपमाणि, उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् । तृतीये जघन्येन, चतुर्विंशतिः सागरोपमाणि ॥ २३४ ॥ षडविंशतिः सागरोपमाणि, उत्कर्षण स्थितिर्भवेत् । चतुर्थे जघन्येन, सागरोपमाणि पञ्चविंशतिः ॥ २३५ ॥ सागरोपमाणां सप्तविंशतिस्तु, उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् । पञ्चमे जघन्येन, सागरोपमाणां तु षड्विंशतिः ॥ २३६ ॥ सागरोपमाणामष्टाविंशतिस्तु, उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् । षष्ठ जघन्येन, सागरोपमाणां सप्तविंशतिः ॥ २३७ ॥ सागरोपमाणामेकोनत्रिंशत्तु, उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् । . . सप्तमे जघन्येन, सागरोपमाणामष्टाविंशतिः ॥ २३८ ॥
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११८]
तत्वार्थ सूत्र जैनाऽऽगमसमन्वय :
त्रिंशत्तु सागरोपमाणि, उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् । अष्टमे जघन्येन, सागरोपमाणामेकोनत्रिंशत् ।। २३९ ।। सागरोपमाणामेकत्रिंशत्तु उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् । नवमे जघन्येन, त्रिंशत्सागरोपमाणि ॥ २४० ॥ त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि, उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् । चतुर्ष्वपि विजयादिषु, जघन्येनैकत्रिंशत् ॥ २४९ ॥ अजघन्यानुत्कृष्टा, त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि । महाविमाने सर्वार्थे, स्थितिरेषा व्याख्याता ।। २४२ ।।
भाषा टीका - सौधर्म स्वर्ग की जघन्य आयु एक पल्य तथा उत्कृष्ट आयु दो सागर की है | २०० || ईशान स्वर्ग की जघन्य आयु एक पल्य से कुछ अधिक तथा उत्कृष्ट दो सागर से कुछ अधिक है ॥ २२९ ॥ सानत्कुमार स्वर्ग की जघन्य आयु दो सागर तथा उत्कृष्ट आयु सात सागर है || २२२ ॥ माहेन्द्र स्वर्ग की जघन्य आयु दो सागर से कुछ अधिक तथा उत्कृष्ट आयु सात सागर से कुछ अधिक होती है ॥ २२३ ॥ ब्रह्मलोक की जघन्थ आयु सात सागर तथा उत्कृष्ट आयु दश सागर होती है || २२४ ॥ लान्तक में जघन्य आयु दस सागर तथा उत्कृष्ट आयु चौदह सागर होती है || २२५ ॥ महाशुक्र की जघन्य आयु चौदह सागर और उत्कृष्ट आयु सतरह सागर होती है ॥ २२६ ॥ सहस्रार की जघन्य आयु सतरह सागर तथा उत्कृष्ट आयु अठारह सागर होती है || २२७ ॥ आनत स्वर्ग को जघन्य आयु अठारह सागर होती है तथा उत्कृष्ट आयु उन्नीस सागर होती है ।। २२८ ॥ प्राणत स्वर्ग को जघन्य आयु उन्नीस सागर तथा उत्कृष्ट आयु बीस सागर होती है || २२६ || आरण स्वर्ग की जघन्य श्रयु बोस सागर और उत्कृष्ट आयु इक्कीस सागर होती है || २३० ॥ अच्युत स्वर्ग की जघन्य चायु इक्कीस सागर तथा उत्कृष्ट आयु बाईस सागर होती है | २३१ ॥ प्रथम प्रवेयक की जघन्य आयु बाईस सागर की तथा उत्कृष्ट आयु तेईस सागर है || २३२ || दूसरे ग्रैवेयक की जघन्य आयु तेईस सागर तथा उत्कृष्ट आयु चौबीस सागर होती है ॥ २३३ ॥ तीसरे प्रवेयक की जघन्य आयु चौबीस सागर तथा उत्कृष्ट आयु पच्चीस सागर होती है ॥२३४॥ चतुर्थ वैक की जघन्य आयु पच्चीस सागर तथा उत्कृष्ट आयु छब्बीस सागर होती है
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चतुर्थाध्यायः
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॥२३५।। पंचम वेयक की जघन्य आयु छब्बीस सागर तथा उत्कृष्ट आयु सत्ताईस सागर होती है ॥२३६ ॥ छटे प्रवेयक की जघन्य आयु सत्ताईस सागर तथा उत्कृष्ट आयु अट्ठाईस सागर होती है ॥ २३७ ॥ सातवें प्रवेयक की जघन्य आयु अट्ठाईस सागर तथा उत्कृष्ट आयु उनतीस सागर है ॥ २३८ ॥ आठवें प्रवेयक की जघन्य आयु उनतीस सागर तथा उत्कृष्ट आयु तीस सागर होती है ॥ २३६ ॥ नौवें अवेयक की जघन्य भायु तीस सागर तथा उत्कृष्ट आयु इकत्तीस सागर होती है २४० ॥ विजय वैजयन्त जयन्त और अपराजित नाम के अनुत्तर विमानों की जघन्य आयु इकत्तीस सागर तथा उत्कृष्ट आयु तेंतीस सागर होती है ॥ २४१॥ सर्वार्थसिद्धि नाम के महाविमान की उत्कृष्ट और जघन्य आयु तेंतीस सागर होती है। इस प्रकार वैमानिक देवों की स्थिति का वर्णन किया गया ॥२४२॥
संगति-यह पीछे दिखलाया जा चुका है कि आगमों के इस वर्णन में सूत्रों से थोड़ा स्वर्गों की संख्या के विषय में मत भेद है। आगमों ने बारह स्वर्ग और उनके बारह ही इन्द्र माने हैं। किन्तु सूत्रों में सोलह स्वर्ग और उनके बारह इन्द्र माने गये हैं। आगमों ने ब्रह्मोत्तर, कापिष्ट, शुक्र और शतार स्वर्ग के अस्तित्व को नहीं माना है। अतएव स्वर्गों की आयु के विषय में भी नाम मात्र का थोड़ा भेद आगया है। सूत्र तथा दिगम्बर ग्रन्थों में महाशुक्र की उत्कृष्ट आयु सूत्र में सोलह सागर से कुछ अधिक और आगम में सतरह सागर मानी गई है। सूत्र में आनत प्राणत की उत्कृष्ट आयु बीस सागर की तथा आगम में पानत की उन्नीस सागर और प्राणत की उत्कृष्ट आयु बीस सागर मानी गई है। सूत्र में पारण अच्युत की उत्कृष्ट भायु बाईस सागर तथा गम में आनत की इक्कीस
और प्राणत की उत्कृष्ट आयु बाईस सागर मानी गई है। नव प्रैवेयक की आयु दोनों की समान है। दिगम्बरों में नव वेयकों के पश्चात् एक पटल नव अनुदिश का माना गया है
और उसके उपर एक पटल विजयादिक पांच अनुत्तर विमानों का माना गया है। सूत्र के 'च' पद से उन्ही नव अनुदिशों का ग्रहण करना सर्वार्थसिद्धि आदि तत्वार्थसूत्र की टीकाओं में माना गया है। दिगम्बरों के अनुसार नव अनुदिशों की उत्कृष्ट आयु बत्तीस सागर तथा पांच अनुत्तरों की उत्कृष्ट भायु तेंतीस सागर मानी गई है। किन्तु आगम प्रन्थों ने नव अनुदिशों का अस्तित्व नहीं माना है। अत : उनमें विजयादि चार विमानों की उत्कृष्ट आयु बत्तीस सागर और सर्वार्थसिध्दि की उत्कृष्ट मायु तेंतीस सागर
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१२० ]
तत्त्वार्थ सूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
मानी गई है। उत्कृष्ट आयु के समान जघन्य आयु का भेद स्वयं लगा लेना चाहिये । किन्तु यह आयु का अन्तर मतान्तर है। इसके अतिरिक्त आयु का विषय तात्विक विषय भी नहीं है कि उसका भेद वास्तविक भेद समझा जावे ।
नारकाणां च द्वितीयादिषु ।
दशवर्षसहस्राणि प्रथमायां ।
४, ३५.
४, ३६.
सागरोवममेगं तु, उक्कोसेा वियाहिया । पढमाए जहन्नेणं, दसवास सहस्सिया ।। १६० ।। तिण्णेव सागरा ऊ, उक्कोसेण वियाहिया । दोच्चाए जहन्ने, एगं तु सागरोवमं ।। १६१ ।।
उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन ३६ ।
एवं जा जा पुव्वस्स उक्कोसटिई अत्थि ता ता परमो
परओ जहण्याठिई अष्वा ।
छाया
सागरोपममेकं तु, उत्कर्षेण व्याख्याता । प्रथमायां जघन्येन, दशवर्षसहस्रिका ॥ १६० ॥ त्रीण्येव सागरोपमाणि तु, उत्कर्षेण व्याख्याता । द्वितीयायां जघन्येन, एकं तु सागरोपमम् ।। १६१ ।।
एवं या या पूर्वस्य उत्कृष्टस्थितिरस्ति सा सा परतः परतः जघन्यस्थितिः ज्ञातव्या ।
भाषा टीका - प्रथम नरक भूमि की जघन्य आयु दश सहस्र वर्ष की होती है। और उत्कृष्ट आयु एक सागर होती है ॥ १६० ॥
दूसरे नरक की जघन्य आयु एक सागर होती है और उत्कृष्ट आयु तीन सागर होती है ॥ १६९ ॥
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चतुर्थाध्यायः
[ १२१
इसी प्रकार जो पहिले २ की उत्कृष्ट स्थिति है वह बाद २ वाले की जघन्य स्थिति है ॥ १६१॥ संगति-इन सूत्रों में और आगम वाक्य में कोई भी अन्तर नहीं है।
भवनेषु च।
४, ३७. भोमेजाणं जहणणेणं दसवाससहस्सिया ।
___ उत्तरा० अध्यन ३६ गाथा २१७. छाया- भौमेयानां जघन्येन दसवर्षसहस्रिका । भाषा टीका-भवनवासी देवों की भी जघन्य आयु दश सहस्र वर्ष होती है। व्यन्तराणाञ्च।
४, ३८. परा पल्योपमधिकम् ।
४, ३६. वाणमंतराणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णता ? गोयमा! जहन्नेणं दसवाससहस्साई उक्कोसेणं पलिमोवमं ।
प्रज्ञापना० स्थितिपद ४. छाया- व्यन्तराणां भगवन् देवानां कियती स्थितिः प्रकप्ता ? गौतम !
जघन्येन दशवर्षसहस्रिका उत्कर्षेण पल्योपमा। प्रश्न-भगवन् व्यन्तरों की भायु कितनी होती है ? उत्तर-जघन्य दशसहस्र वर्ष और उत्कृष्ट एक पल्य। ज्योतिष्काणाञ्च ।
४,४०. तदष्टभागोऽपरा।
४, ४१.
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१२२ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
उत्तरा० अध्यन ३६.
पलिओवममेगं तु, वासलक्खेण साहियं । पलिओवमट्ठभागो, जोइसेसु जहन्निया ॥ २१६ ॥ छाया- पल्योपममेकं तु, वर्षलक्षेण साधिकम् ।
पल्योपमस्याष्टमभागः, ज्योतिषकेषु जघन्यिका ॥ २१९ ॥ भाषा टीका-ज्योतिष्क देवों की उत्कृष्ट श्रायु एक लाख वर्ष अधिक एक पल्य होती है। और जघन्य आयु पल्य का आठवां भाग प्रमाण होती है।
लौकान्तिकानामष्टौ सागरोपमाणि सर्वेषाम् ।
लोगंतिकदेवाणं जहएणमणुक्कोसेणं अट्ठसागरोवमाई ठिती पण्णत्ता।
स्थानांग स्थान ८ सूत्र ६२३.
व्याख्याप्रज्ञप्ति शतक ६ उद्देश्य ५. छाया- लौकान्तिकदेवानां जघन्यानुत्करेंण अष्टसागरोपमा स्थितिः
प्रज्ञप्ता। भाषा टोका-लौकान्तिक देवों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति आठ सागर होती है।
संगति-इन सब पत्रों में आगमों से नाम मात्र का ही अन्तर है। कई स्थलों पर तो शब्द २ मिलते हैं।
इति श्री-जैनमुनि-उपा'याय-श्रीमदात्माराम-महाराज-संगृहीते
तत्त्वार्थसूरजैनाऽऽगमसमन्वये * चतुर्थाध्याय समाप्तः॥ ४ ॥
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पञ्चमोऽध्यायः अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः।
चत्तारि अस्थिकाया अजीवकाया पण्णता, तं जहा - धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, आगासत्थिकाए पोग्गलस्थिकाए।
स्थानांग स्थान ४, उद्दे० १ सूत्र २५१.
व्याख्याप्रज्ञप्ति शतके ७ उद्दे० १० सूत्र ३०५. छाया- चत्वारः अस्तिकायाः अजीवकायाः प्रज्ञप्ता:- तद्यथा- “धर्मास्ति
कायः, अधर्मास्तिकायः, अकाशास्तिकायः, पुद्गलास्तिकायः ।" भाषा टीका – चार अजीव अस्तिकाय होते हैं - धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय ।
द्रव्याणि ।
जीवाश्च। कइविहाणं भंते! दव्वा पण्णता ? गोयमा ! दुविहा पण्णता, तं जहा – “जीवदव्वा य अजीवदव्या य ।।
__ अनुयोग० सूत्र १४१. छाया- कतिविधानि भगवन् ! द्रव्याणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! द्विविधानि
प्रज्ञप्तानि । तद्यथा-जीवद्रव्याणि अजीवद्रव्याणि च । प्रश्न- भगवन् ! द्रव्य कितने प्रकार के होते हैं ? उत्तर- गौतम ! द्रव्य दो प्रकार के होते हैं - जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य । संगति - इस आगम वाक्य के शब्दों में सूत्रों से संकोच विस्तार के अतिरिक्त
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१२४ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
और कोई भेद नहीं है । इसके अतिरिक्त इस आगमवाक्य ने प्रथम सूत्र के भाव को तो खोलकर दर्शा दिया है।
नित्यावस्थितान्यरूपाणि।
रूपिणः पुद्गलाः। पंचत्थिकाए न कयाइ नासी न कयाइ नत्थि, न कयाइ न भविस्सइ भुविं च भवइ अ भविस्सइ अ धुवे नियए सासए अक्खए, अव्वए, अवट्ठिए निच्चे अरूवी ।
नन्दिसूत्र० सूत्र ५८. पोग्गलस्थिकायं रूविकायं ।
व्याख्याप्रज्ञप्ति शतक ७ उद्देश्य १०. छाया- पञ्चास्तिकायः न कदाचित् नासीत् , न कदाचित् न भवति,
न कदाचित् न भविष्यति, अभूत च, भवति च, भविष्यति च, ध्रुवः नियतः शाश्वतः अक्षतः अव्ययः अवस्थितः नित्थः अरूपी।
पुद्गलास्तिकायः रूपिकायः। भाषा टीका - यह असम्भव है कि पांच अस्तिकाय किसी समय में न थे, या नहीं होते, या कभी भविष्य में न होंगे। यह सदा थे, सदा रहते हैं और सदा रहेंगे । यह ध्रुव, निश्चित, सदा रहने वाले, कम न होने वाले, नष्ट न होने वाले, एक से रहने वाले, नित्य और अरूपी हैं। इनमें केवल पुद्गल अस्तिकाय रूपी द्रव्य है।
आ आकाशादेकद्रव्याणि।
निष्क्रियाणि च ।
५.
६.
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पञ्चमोध्याय :
[ १२५
धम्मो अधम्मो आगासं दव्वं इक्किकमाहियं । अणंताणि य दव्वाणि कालो पुग्गलजंतवो ॥
उत्तराध्ययन० अध्य०२८ गाथा ८.
भवट्ठिए निच्चे।
नन्दि० द्वादशाङ्गी अधिकार सूग ५८. छाया- धर्मः अधर्मः आकाशं द्रव्यमेकैकमाख्यातम् । अवस्थितः नित्यः ।
अनन्तानि च द्रव्याणि, कालः पुद्गलजन्तवः । भाषा टीका-धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य एक २ हैं । क्रिया रहित निश्चित और नित्य हैं। काल और पुद्गल द्रव्य अनंत होते हैं। असंख्येयाः प्रदेशा धर्माधमैकजीवानाम् ।
चत्तारि पएसग्गेणं तुल्ला असंखेजा पएणता. तं जहाधम्मस्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, लोगागासे, एगजीवे ।
स्थानांग० स्थान ४ उद्देश्य ३ सूत्र ३३४. छाया- चत्वारः प्रदेशाग्रेण (प्रदेशपरिमाणेन) तुल्याः असंख्येयाः प्राप्ताः।
तद्यथा- धर्मास्तिकायः अधर्मास्तिकायः, लोकाकाशः, एकजीवः । भाषा टीका-प्रदेशों की संख्या की अपेक्षा से चार के बराबर २ असंख्यात प्रदेश होते हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश और एक जीव द्रव्य के।
आकाशस्याऽनन्ताः।
आगासस्थिकाए पएसट्टयाए अणंत गुणे ।
प्रज्ञापना पद ३ सूत्र ४१
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१२६ ]
तत्त्वार्थसूत्र जैनाऽऽगम समन्वय :
छाया - आकाशास्तिकायः प्रदेशापेक्षयाऽनन्तगुणः ।
भाषा टीका - प्रदेशों की अपेक्षा आकाश अस्तिकाय अनन्त गुणा है, अर्थात काश द्रव्य के अनंत प्रदेश होते हैं ।
संख्येयाऽसंख्येयाश्च पुद्गलानाम् ।
नाणोः ।
......
५, १०.
५, ११.
रूवी जीवदव्वाणं भंते! कइविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! चउव्विहा पण्णत्ता तं जहा - "खंधा, खंधदेसा, धप्पसा, परमाणुपोग्गला, 'अणंता परमाणुपुग्गला, अांता दुपएसिया खंधा जाव अणंता दसपएसिया खंधा अता संखिजपएसिया खंधा. अांता असंखिजपएसिया खंधा, अांता अतपरसिया
धा ।
प्रज्ञापना ५ वां पद छाया - रूपिण: जीवद्रव्याणि भगवन् ! कतिविधानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! चतुर्विधानि प्रज्ञप्तानि । तद्यथा - स्कन्धाः, स्कन्धदेशाः, स्कन्धप्रदेशाः, परमाणुपुद्गलाः । ..अनन्ताः परमाणुपुद्गलाः, अनन्ताः द्विपदेशिकाः स्कन्धाः यावत् अनन्ताः दशप्रदेशिकाः स्कन्धाः, अनन्ता संख्यातप्रदेशिकाः स्कन्धाः, अनंताः असंख्यात प्रदेशिकाः स्कन्धाः, अनन्ताः अनन्तप्रदेशिकाः स्कन्धा ।
↑
प्रश्न - भगवन् ! रूपी अजीव द्रव्य कितने प्रकार के होते हैं ?
उत्तर - गौतम ! चार प्रकार के होते हैं – स्कन्ध, स्कन्ध देश, स्कन्ध प्रदेश और परमाणु पुद्गल ।
परमाणु पुद्गल अनन्त होते हैं। दो प्रदेश वाले स्कन्धों से लगाकर दश प्रदेश
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[ १२७
वाले स्कन्ध तक सब अनन्त होते हैं। संख्यात प्रदेश वाले स्कन्ध अनन्त होते हैं, श्रसंख्यात प्रदेश वाले स्कन्ध भी अनन्त होते हैं और अनन्त प्रदेश वाले स्कन्ध भी अनन्त होते हैं ।
पचमोऽध्याय:
-
संगति - सूत्र में पुद्गलों के चार भेद दिये हुए हैं । परमाणु संख्यात प्रदेश वाले पुद्गल ( स्कन्ध), असंख्यात प्रदेश वाले पुद्गल ( स्कन्ध ) और ' व ' पद से अनन्त प्रदेश वाले पुद्गल ( स्कन्ध) | आगम वाक्य में यह भेद दिखलाने के अतिरिक्त स्कन्धों की संख्या भी दे दी है। परमाणु के एक प्रदेश होने के कारण से प्रदेश नहीं माने गये हैं । यह सभी आगम वाक्य सूत्रों के साथ बिलकुल मिलते जुलते हैं ।
छाया
लोकाकाशेऽवगाहः ।
धम्मो अधम्मो आगासं कालो पुग्गजंतवो । एस लोत्ति पण्णत्तो जिणेंहिं वरदं सहिं ||
५, १२.
छाया
धर्मोऽधर्मः आकाशः कालः पुद्गलजन्तवः । एषः लोक इति प्रज्ञप्तः जिनैर्वरदर्शिभिः ॥
भाषा टीका – जिसके अन्दर धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव रहते हों उसको सर्वदर्शी जिनेन्द्र भगवान् ने लोक कहा है। अर्थात् लोकाकाश में सब द्रव्य रहते हैं ।
उत्तराध्ययन अध्य० २८ गाथा ७
धर्माधर्मयोः कृत्स्ने ।
५, १३.
धम्माधम्मे य दो चेव, लोगमित्ता वियाहिया । लोगालोगे य आगासे, समए समयखेत्तिए ||
उत्तराध्ययन अध्ययन ३६ गाथा ७.
धर्माधर्मौ च द्वौ चैव, लोकमात्रौ व्याख्यातौ । लोकेऽलोके चाकाशं, समयः समयक्षेत्रिकः ॥
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१२८ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
भाषा टीका - धर्म और अधर्म नाम के दो द्रव्य सम्पूर्ण लोक भर में व्याप्त हैं। आकाश लोक भर में है और उसके बाहिर अलोक में भी सर्वत्र है । व्यवहार काल समय क्षेत्र में है। एक प्रदेशादिषु भाज्यः पुद्गलानाम्।
५, १४. एगपएसो गाढा'.."संखिजपएसोगाढा... असंविजपएसो गाढा।
प्रज्ञापना पञ्चम पर्यायपद अजीवपर्यवाधिकार। छाया- एकप्रदेशावगाहा........संख्येयप्रदेशावगाहाः ........ असंख्येय
प्रदेशावगाहाः। भाषा टीका -पुद्गलों के स्कन्ध [अपने २ परिमाण की अपेक्षा] आकाश के एक प्रदेश में भी हैं, संख्यात प्रदेशों में भी हैं और असंख्यात प्रदेशों को भी घेरे हुए हैं।
असंख्येयभागादिषु जीवानाम् ।
लोअस्स असंखेजइभागे।
प्रज्ञापना पद २ जीवस्थानाधिकार । छाया- लोकस्य असंख्येय भागे (जीवानाम्) भाषा टीका - जीवों का अवगाह लोक के असंख्यातवें भाग में है।
प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत्। दीवं व...''जीवेवि जं जारिसयं पुव्वकम्मनिबद्धं बोदिं णिवत्तेइ तं असंखेजेहिं जीवपदेसेहि सचित्तं करेइ खुड्डियं वा महालियं वा।
राजप्रश्नीय सूत्र सूत्र ७४.
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पञ्चमोऽध्याय:
[ १२५
छाया-- दीप इव ..... जीवोऽपि यद्यादृश्यकं पूर्वकर्म निबद्धं शरीरं निर्वतयति तत् असंख्येयैः जीवप्रदेशैः सचित्तं करोति क्षुद्रं वा महालयं वा ।
भाषा टीका - अपने पूर्व बांधे हुए कर्म के अनुसार प्राप्त किये हुए शरीर भर को जीव अपने असंख्यात प्रदेशों से दीपक के समान सचित्त (सजीव ) कर लेता है। फिर चाहे वह शरीर छोटे से छोटा हो या बड़े से बड़ा हो ।
गतिस्थित्युपग्रहौ धर्माधर्मयोरुपकारः ।
५, १७.
आकाशस्यावगाहः ।
५ १५.
शरीरवाङ्मनःप्राणापानाः पुद्गलानाम् ।
५, १८
सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च ।
परस्परोपग्रहो जीवानाम |
५, २१.
१०.
धम्मत्थिकाए णं जीवाणं श्रागमणगमणभासुम्मेसमणजोगा वइजोगा कायजोगा जे यावन्ने तहप्पगारा चला भावा सव्वे ते धम्मस्थिकाए पवत्तंति । गइलक्खणे णं धम्मत्थिकाए ।
अहम्मत्थिकापणं जीवाणुं किं पवत्तति ? गोयमा ! अहम्मत्थिकारणं जीवाणं ठाणनिसीयातुयहणमणस्स य एगत्तीभावकरणता जे यावन्ने तहप्पगारा थिरा भावा सव्वे ते अहम्मस्थिकाये पवत्तंति । ठाणलक्खणे णं अहम्मत्थिकाए ।
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१३० ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
भागासस्थिकाए णंभंते! जीवाणं अजीवाण य किं पवत्तति ? गोयमा! आगासस्थिकारणं जीवदव्वाण य अजीवदव्वाण य भायणभूए एगेण वि से पुन्ने दोहिवि पुन्ने सयंपि माएजा । कोडिसएणवि पुन्ने कोडिसहस्संवि माएजा ॥१॥ अवगाहणालक्खणे णं आगासस्थिकाए।
जीवत्थिकारणं भंते ! जीवाणं किं पवत्तति ? गोयमा! जीवस्थिकारणं जीवे अणंताणं आभिणिबोहियनाणपजवाणं अणंताणं सुयनाणपजवाणं, एवं जहा बितियसए अत्थिकायउद्देसए जाव उवओगं गच्छति, उवमोगलक्खणे णं जीवे ।
व्याख्या प्रज्ञप्ति शतक १३ उ० ४ मु० ४८१. “जीवे णं अणंताणं आभिणिबोहियनाणपजवाणं एवं सुय. नाणपजवाणं ओहिनाणपजवाणं मणपजवनाणप० केवलनाणप० मइअन्नाणप० सुयअण्णाणप० विभंगणाणप० चक्खुदंसणप० अचक्खुदंसणप० ओहिदसणप० केवलदसणपजवाणं उवओगं गच्छइ० ।”
व्याख्या प्रज्ञप्ति शतक २ उद्देश्य २० सूत्र १२० जीवो उवओगलक्णो । नाणेणं दंसणेणां च सुहेण यदुहेण य।
उत्तराध्ययन अध्य०२८ गाथा १० पोग्गलत्थिकाए णं पुच्छा ? गोयमा ! पोगलत्थिकाए णं जीवाणं ओरालियबेउव्वय आहारए तेयाकम्मए सोइंदियचक्खिदियघाणिंदियजिभिदियफासिंदियमणजोगवयजोगकायजोगाणा
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पञ्चमोऽध्यायः
[१३१
पाणुणं च गहणं पवत्तति । गहणलक्खणे णं पोग्गलस्थिकाए ।
व्याख्या प्रज्ञप्ति शतक १३ उद्दे० ४ सूत्र ४८१ छाया- धर्मास्तिकायः जोवानां आगमनगमनभाषोन्मेषमनःयोगाः वाग्यो
गाः काययोगाः ये चाप्यन्ये तथाप्रकाराः चलाः भावाः सर्वे ते धर्मास्तिकाये सति प्रवर्तन्ते। गतिलक्षणः धर्मास्तिकायः। अधर्मास्तिकायः जीवानां कि प्रवर्त्तते ? गौतम ! अधर्मास्तिकायः जोवानां स्थाननिषीदनत्वग्वर्तनमनसश्च एकत्वीभावकरणता ये चाप्यन्ये तथाप्रकाराः स्थिराः भावाः सर्वे ते अधर्मास्तिकाये सति प्रवर्तते। स्थितिलक्षणोऽधर्मास्तिकायः।
आकाशास्तिकायः भगवन् ! जीवानामजीवानाञ्च किं प्रवर्तते ? गौतम ! आकाशास्तिकायः जीवद्रव्याणाश्चाजीवद्रव्याणाश्च भाजनभूतः एकेनापि असौ पूर्णः द्वाभ्यामपि पूर्णः शतमपि माति। कोटिशतेनापि पूर्णः कोटिसहस्रमपि माति ॥१॥ अवगाहनालक्षण: आकाशास्तिकायः। जोवास्तिकायः भगवन् ! जीवानां कि प्रवर्तते १ गौतम ! जीवास्तिकायः जीवान् अनन्तानां आभिनिबोधिकज्ञानपर्यवानां अनन्तानां श्रुतज्ञानपर्यवानां एवं यथा द्वितीयशते अस्तिकायोई शके यावत् उपयोगं गच्छति, उपयोगलक्षणः जोवः । “जीवो अनन्तानां प्राभिनिबोधिकज्ञानपर्यवानां एवं श्रुतज्ञानपर्यवानां अवधि० मनःपर्ययज्ञानप० फेवलज्ञानपर्यवानां मत्यज्ञानप० श्रुताज्ञानप० विभंगज्ञानप० पशुदर्शनपर्यवानां अचक्षुदर्शनपर्यवानां अवधिदर्शनपर्यवानां केवलदर्शनपर्यवानां उपयोगं गच्छति ।" जीवः उपयोगलक्षणः । ज्ञानेन दर्शनेन च, सुखेन च दुःखेन च । पुद्रगनास्तिकायः पृच्छा ? गौतम ! पुद्गलास्तिकायः जीवाना
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१३२ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वयः
प्रौदारिकवैक्रियिकाहारकतैजसकामणश्रोत्रिंद्रियचक्षरिन्द्रियघाणेन्द्रिपजिव्हेन्द्रियस्पर्शनेन्द्रियमनःयोगवचनयोगकाययोगाऽनामाणानां
च ग्रहणं प्रवर्तते । ग्रहणलक्षणः पुद्गलास्तिकायः । भाषा टीका-धर्मास्तिकाय जीवों के गमन, आगमन, भाषा, उन्मेष, मनोयोग, पचनयोग, और काययोग [ के लिये निमित्त होता है ] । इनके अतिरिक्त और जो भी इस प्रकार के चल भाव हैं वह सब धर्मास्तिकाय के होने पर ही होते हैं, क्योंकि धर्मास्तिकाय गति लक्षण वाला है।
प्रश्न -अधर्मास्तिकाय जीवों के लिये क्या करता है ?
उत्तर-गौतम ! अधर्मास्तिकाय जीवों के लिये ठहरना, बैठना, त्वग्वर्तन (करवट बदलना), और मन की एकाग्रता करता है । इनके अतिरिक्त और जो भी इस प्रकार के स्थिर भाव हैं वह अधर्मास्तिकाय के होने पर ही होते हैं, क्योंकि अधर्मास्तिकाय स्थिति मामण वाला है।
प्रश्न-भगवम् ! आकाशास्तिकाय जीव और पुद्गलों के लिये क्या करता है ?
उत्तर-गौतम ! आकाश द्रव्य जीवद्रव्यों और अजीवद्रव्यों को स्थान देने वाला है। यह एक से भी भरा हुआ (पूर्ण) है, दो से भी भरा हुआ है, एक करोड़ और अरब से भी भरा हुआ है तथा एक खरब जीव तथा पुद्गल स्कन्धों से भी भरा हुआ है। क्यों किभाकाशास्तिकाय अवगाहना लक्षण वाला है।।
प्रश्न - भगवन् ! जीवास्तिकाय जीवों के लिये क्या करता है।
उत्तर-गौतम ! जीवास्तिकाय अनन्त मतिज्ञानपर्याय वाले जीवों के, इसी प्रकार भुतज्ञान पर्याय वाले जीवों के, अवधि ज्ञान पर्याय वाले जीवों के, मनःपर्यय ज्ञान पर्याय वाले जीवों के, केवल ज्ञान पर्याय बाले जीवों के, मतित्रज्ञान पर्याय वाले जीवों के, श्रुत अज्ञान पर्याय वाले जीवों के, विभंगज्ञान पर्याय वाले जीवों के, चक्षुदर्शन पर्याय वाले जीवों के, अचक्षुदर्शन पर्याय वाले जीवों के, अवधि दर्शन पर्याय वाले जीवों के और केवल दर्शन पर्याय वाले जीवों के उपयोग को प्राप्त होता है । ज्ञान, दर्शन, सुख और दुःख के बारा भी [जीव उपकार करता है ] जीव का लक्षण उपयोग है।
प्रश्न -पुदगलास्तिकाय क्या करता है ?
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पञ्चमोऽध्याय:
[ ११३
उत्तर - गौतम ! पुद्गलास्तिकाय जीवों के लिये औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस, कार्मण, कर्णेन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, स्पर्शनेन्द्रिय, मनोयोग, वचन योग, काय बोग और श्वासोच्छास का ग्रहण कराता है। पुद्गलास्तिकाय महण लक्षण वाला है ।
वर्तनापरिणामक्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य ।
५, २२.
वत्तना लक्खणो कालो० ।
बर्तनालक्षणः कालः ।
छाया
- काल वर्तनालक्षण वाला है।
भाषा टीका
--
संगति - सूत्र और आगम के इस पाठ को मिलाने से धर्म और अधर्म द्रव्य की परिभाषाओं की कुंजी खुल जाती है। आगम में विशेष अवश्य है, किन्तु वह जितना की है अत्यन्त आवश्यक है । काल द्रव्य के परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व का बर्तन में ही अन्तर्भाव हो जाता है । अतः आगमवाक्य में कालद्रव्य को केवल वर्तना लक्षण में ही समाप्त कर दिया गया है।
उत्तराध्यवन अध्ययन २८ गाथा १०
स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः ।
पोगले पंचवणे पंचरसे दुगंधे
५, २३.
फासे पण्णत्ते ।
व्याख्या प्राप्ति शतक १२ उद्दे० ५ सूत्र ४५०.
छाया - पुद्गलः पञ्चवर्णः पञ्चरसः द्विगन्धः अष्टस्पर्शः प्रज्ञप्तः ।
श्छायातपोद्योतवन्तश्च ।
भाषा टीका - पुद्गल में पांच वर्ण, पांच रस, दो गंध और आठ स्पर्श होते हैं।
शब्दबन्धसौक्ष्म्यस्थौल्यसंस्थानभेदतम
५, २४.
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१३४ ]
तत्वार्थसूत्रजनाऽऽगमसमन्वय
सहन्धयार-उज्जोओ, पभा छाया तवो इ वा । घण्णरसगन्धफासा, पुग्गलाणं तु लक्खणं ॥ १२ ॥ एगत्तं च पुहत्तं च, संखा संठाणमेव च । संजोगा य विभागा य, पजवाणं तु लक्खणं ॥ १३ ॥
___उत्तराध्ययन अध्ययन २८. छाया- शब्दोऽधकार उद्योतः प्रभाच्छायातम इति वा।
पर्णरसगन्धस्पर्शाः, पुद्गलानां तु लक्षणम् ॥ १२॥ एकत्वं च पृथकत्वं च, संख्या संस्थानमेव च ।
संयोगाश्च विभागाश्च, पर्यवाणां तु लक्षणम् ॥ १३ ॥ भाषा टीका- शब्द, अन्धकार, उद्योत, प्रभा, छाया, भातप, वर्ण, रस, गंध और सर्श पुद्गलों के लक्षण हैं ॥१२॥
एकत्व, पृथक्त्व, संख्या, संस्थान, संयोग और दिमाग पुद्गल पर्वानों के भपय ॥१३॥
संगति - इसमें सौक्ष्म्य तथा स्थौल्य के अतिरिक्त अन्य सभी शब्द मा जाते हैं। किन्तु यह दोनों शब्द इतने महत्व पूर्ण नहीं हैं कि इनका विशेष रूप से वर्णन किया जाता। अपवः स्कन्धाश्च।
५, २५. दुविहा पोग्गला पगणता, तं जहा-परमाणुपोग्गला नोपरमाणुपोग्गला चेव ।
स्थानांग स्थान २ उ० ३ सू. ८२. छाया- द्विविधौ पुदगलौ प्रमतौ। तपथा-परमाणुपुद्गलाश्च, नोपरमाणु
पुद्गलाश्चैव । भाषा टीका-पुद्गल दो प्रकार के होते हैं-परमाणपुद्गल और नोपरमाणु
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पञ्चमोऽध्यायः
[ १३५
-
-
५, २६.
संगति - अणु तथा परमाणु पुद्गेल और स्कन्ध सबा नोपरमाणु पुद्गल में नाम मात्र का ही भेद है। तात्विक भेद नहीं है।
भेदसङ्घातेभ्यः उत्पद्यन्ते। भेदादणुः।
५, २७. दोहि ठाणेहिं पोग्गला साहण्णंति,तं जहा-सई वा पोग्गला साहन्नति परेण वा पोग्गला साहन्नति । सई वा पोमगला भिजति परेण वा पोग्गला भिजति ।
स्थानांग स्थान २, उ० ३, सूत्र ८२. छाया- द्वाभ्यां स्थानाभ्यां पुद्गलाः संहन्यन्ते । तद्यथा-स्वयं वा
पुद्गलाः संहन्यन्ते परेण वा पुद्गलाः संहन्यंते । स्वयं वा
पुद्गलाः भिद्यन्ते परेण वा पुद्गलाः भिद्यन्ते । भाषा टीका - दो प्रकार से पुद्गल एकत्रित होकर मिलते हैं-या तो स्वयं मिलते हैं अथवा दूसरे के द्वारा मिलाये जाते हैं, या तो पुद्गल स्वयं भेद को प्राप्त होते हैं अथवा दूसरों के द्वारा भेद को प्राप्त होते हैं।
संगति - पुद्गलों के अणु और स्कन्ध भेद और संघात दोनों से ही बनते हैं। चाहे वह भेद या संघात स्वयं हो अथवा दूसरे के द्वारा हो । मणु केवल भेद से ही होता है, संघात से नहीं होता। भेदसंघाताभ्यां चाक्षुषः।
___५, २८. चक्खुदंसणं चक्खुदंसणिस्स घड पड कड रहाइएसु दव्वेसु ।
अनुयोग० दर्शनगुणप्रमाण सू० १४४. छाया- चक्षुदर्शनं चक्षुदर्शिनः घटः पटः कटा रथादिषु द्रव्येषु ।
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१३६ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनागमसमन्धयः
भाषा टीका - चक्षु पर्शन वाले को घट, पट, रथ आदि द्रव्यों में चक्षु, दर्शन होता है।
संगति - यह सभी द्रव्य चक्षु दर्शन द्वारा जाने के कारण चाक्षुष कहलाते हैं। पाशुर द्रव्य भी भेद और संघात दोनों से ही बनते हैं। सद्रव्यलक्षणम् ।
५, २६. सहव्वं था।
व्याख्या प्रज्ञप्ति शत०८ उ०१ सत्पदद्वार. छाया- सद्रव्यं वा । भाषा टीका-द्रव्य का लक्षण सत् है।
उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्। माउपाणुभोगे (उपन्ने वा विगए वा धुवे वा।)
स्थानांग स्थान १०. या- मातृकानुयोगः (उत्पनः वाः विगतः वा, ध्रुवः पा)।
भाषा टीका - उत्पन्न होने वाले, नष्ट होने वाले और ध्रुव को मातृकानुयोग कहते है। [और वही सत है] तदावाऽव्ययं नित्यम् ।
५, ३१. परमाणुपोग्गलेणं भंते! किं सासए असासए ? गोयमा! दव्वट्ठयाए सासए पन्नपजवेहिं जाव फासपजवेहिं असासए ।
व्याख्याप्रज्ञप्ति० शतक १४ उद्दे० ४ सूत्र ५१२.
जीवाधिगम० प्रतिपत्ति ३ उद्दे० १ सत्र ७७ छाया- परमाणुपुद्गलः भगवन् ! कि शाश्वतः अशाश्वतः? गौतम! द्रव्या
यतया शाश्वतः, वर्णपर्यायैः यावत् स्पर्शपर्यायैः प्रशाश्वतः ।
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पचमोऽध्याय:
—
प्रश्न
-भगवन्! परमाणु पुद्गल नित्य है अथवा अनित्य १
उत्तर - गौतम ! द्रव्यार्थिक नय से नित्य है तथा वर्ण पर्यायों से लेकर स्पर्श
पर्यायों तक की अपेक्षा अनित्य है ।
संगति – सूत्र में कहा है कि जो तद्भावरूप से अव्यय है सो ही नित्य है । सूत्र
-
[ १३७
कार का आशय यहां द्रव्यों से है कि द्रव्य नित्य हैं। किन्तु आगमवाक्य ने द्रव्य के नित्य और अनित्य दोनों रूपों को स्पष्ट कर दिया है।
अर्पिताऽनर्पितसिद्धेः ।
५, ३२.
न जघन्यगुणानाम् ।
अप्पितणप्पिते ।
स्थानांग० स्थान १० सूत्र ७२७.
छाया - अर्पितानर्पिते । भाषा टीका
-
- जिसको मुख्य करे सो अर्पित और जिसको गौण करे सो अनर्पित है । इन दोनों नयों से वस्तु की सिद्धि होती है।
स्निग्धरूक्षत्वाद्बन्धः ।
५, ३३.
५, ३४.
५, ३५.
गुणसाम्ये सदृशानाम् । द्वयधिकादिगुणानान्तु । बन्धेऽधिको पारिणामिकौ च ।
५, ३६.
५, ३७.
बंधणपरिणामे णं भंते! कतिविधे पगणते ? गोयमा ! दुविहे
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१३८ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
पएणते, तं जहा-णिद्धबंधणपरिणामे लुक्खबंधणपरिणामे या'समणिद्धयाए बंधो न होति समलुक्खयाएवि ण होति ।
वेमायणिद्धलुक्खत्तणेण बंधो उ खंधाणं ॥१॥ णिद्धस्स णिद्वेण दुयाहिएणं, लुक्वस्स लुक्खेण दुयाहिएणं। निद्धस्स लुक्खेण उवेइ बंधोः जहण्णवजो विसमो समो वा ॥२॥
प्रज्ञापना० परिणाम पद १३ सूत्र १८५. छाया- बन्धनपरिणामः भगवन् कतिविधः प्रज्ञप्तः १ गौतम! द्विविधः
प्रज्ञप्तस्तद्यथा, -स्निग्धबन्धनपरिणामः रूक्षबन्धनपरिणामश्च,'समस्निग्धतार्या बन्धो न भवति, समरूक्षतायामपि न भवति । वैमात्रस्निग्धरूक्षत्वेन बंधस्तु स्कन्धानाम् ॥१॥ स्निग्धस्य स्निग्धेन द्वयधिकादिकेन, रूक्षस्य रूक्षेण द्वयधिकादिकेन । स्निग्धस्य रूक्षेण (सह) उपैति बन्धः, जघन्यवयः विषमः समो
वा ॥२॥ प्रश्न - भगवन् ! बन्धन परिणाम कितने प्रकार का बतलाया गया है ?
उत्तर- गौतम ! दो प्रकार का बतलाया गया है -स्निग्धबन्धन परिणाम और हतबन्धन परिणाम । बराबर स्निग्धता होने पर बंध नहीं होता । बराबर रूक्षता होने पर भी बन्ध नहीं होता । स्कन्धों का बन्ध स्निग्धता और रूक्षता की मात्रा में विषमता से होता है । दो गुण अधिक होने से स्निग्ध का स्निग्ध के साथ बन्ध हो जाताहै, तथा दो गुण अधिक होने से रूक्ष का रूक्ष के साथ भी बन्ध हो जाता है। स्निग्ध का रूक्ष के साथ बन्ध हो जाता है। किन्तु अपन्य गुण वाले का विषम या सम किसी के साथ भी बन्ध नहीं होता।
संगति -- इन सूत्रों और आगमवाक्य का साम्य देखने योग्य है ।
गुणपर्यायवद्व्यम्।
५, ३८.
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पञ्चमोऽध्यायः
[ १३०
-
-
गुणाणमासमो दव्वं, एगदव्वस्सिया गुणा। लक्खणं पजवाणं तु, उभो अस्सिया भवे ॥
उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २८ गाथा ६. छाया- गुणानामाश्रयो द्रव्यं, एकद्रव्याश्रिता गुणाः ।
लक्षणं पर्यवाणां तु, उभयोराश्रिता (स्युः) भवन्ति ॥६॥ भाषा टीका-द्रव्य गुणों के आश्रित होता है, गुण भी एक द्रव्य के माश्रित होते हैं। किन्तु पर्याय द्रव्य और गुण दोनों के आश्रय होती हैं । सारांश यह है कि द्रव्य में गुण और पर्याय दोनों होती हैं।
कालश्च।
छविहे दवे पण्णत्ते, तं जहा-धम्मस्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, आगासस्थिकाए, जीवस्थिकाए, पुग्गलस्थिकाए, अद्धासमये अ, सेतं दव्वणामे ।
अनुयोगद्वार० द्रव्यगुणपर्यायनाम सू० १२४. छाया- षड्विधानि द्रव्याणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-धर्मास्तिकायः, अधर्मा
स्तिकायः, आकाशास्तिकायः, जीवास्तिकायः, पुद्गलास्तिकायः,
अद्धासमयश्च, तत् द्रव्यनाम ।। भाषा टीका-द्रव्य छै प्रकार के कहे गये हैं-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और श्रद्धा समय (काल)। संगति-आगम में कालद्रव्य को अद्धा समय भी कहा गया है। सोऽनन्तसमयः।
५, ४०. - अणंता समया ।
व्याख्या प्रज्ञप्ति शत० २५ उ० ५ सू० ७४७.
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१४० ]
स्वार्थसूत्र जैनाऽऽगमसमन्वय :
छाया
अनन्ताः समयाः ।
भाषा टीका - कालद्रव्य में अनन्त समय होते हैं।
द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः ।
व्वस्सिया गुणा ।
छाया---
k, ४१.
उत्तराभ्ययन अध्ययन २६, गाथा ६.
छाया -
द्रव्याश्रयाः गुणाः ।
भाषा टीका – गुण द्रव्य के आश्रय होते हैं [ और स्वयं निर्गुण होते हैं ] । तद्भावः परिणामः ।
५, ४२.
दुविहे परिणामे पण्णत्ते, तं जहा- जोवपरिणामे य अजोवपरिणामे य ।
द्विविधः परिणामः प्रज्ञप्तः, परिणामश्च ।
प्रज्ञापना परिणाम पद १३ सू० १८१. तद्यथा - जीवपरिणामश्च अजीव
-
परिणामो र्थान्तरगमनं न च सर्वथा व्यवस्थानम् । न च सर्वथा विनाशः परिणामस्तद्विदामिष्टः ॥
इति वृत्तिकार. भाषा टीका - परिणाम दो प्रकार का होता है - जीव परिणाम और अजीब परिणाम |
वृत्तिकार ने कहा है कि एक अर्थ से दूसरे अर्थ में प्राप्त होने को परिणाम कहते हैं । सब प्रकार से दूसरा रूप भी नहीं हो जाता और न सब प्रकार से प्रथम रूप नष्ट ही होता है, उसे परिणाम कहते हैं ।
संगति – इन सूत्रों का आगमवाक्यों के साथ साम्य स्पष्ट है ।
इति श्री जैन मुनि - उपाध्याय - श्रीमदात्माराम महाराज - संगृहीते तस्वार्थ सूत्र जैनाऽऽगमसमन्वये
* पञ्चमोऽध्यायः समाप्तः ॥ ५ ॥
:0: ---
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षष्ठोऽध्यायः कायवाङ्मनः कर्म योगः।
तिविहे जोए पएणते । तं जहा-मणजोए, वइजोए, कायजोए।
ज्याल्या प्राप्ति० शतक० १६ उद्दे० १ सूत्र ५६४ छाया- त्रिविधः योगः प्रज्ञप्तः । तद्यथा- मनःयोगः पाग्योमः
काययोगः। भाषा टीका-योग तीन प्रकार का होता है-मन योग, वचन योग और भय योग।
सासवः।
पञ्च आसवदारा पण्णत्ता. तं जहा-मिच्छ, अविरई, पमाया, कासाया. जोगा।
समवायांग समवाय ५. छाया- पञ्च प्रास्रवद्वाराः प्रज्ञप्ताः तद्यथा- मिथ्यात्वं, अविरवि:,
प्रमादाः, कषायाः, योगाः। भाषा टीका-आस्रव के पांच द्वार होते हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग।
संगति- यहां सूत्र और आगम वाक्य में सामान्य तथा विशेष कथन का भेद है। सूत्रकार ने योग को हो आस्रव माना है, किन्तु आगम वाक्य में भेद विवक्षा से मानब के पांचों कारणों को ही मानव माना है, जिनमें योग भी एक कारण है।
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१४२ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
शुभः पुण्यास्या शुभः पापस्य । पुण्णं पावासवो तहा।
उत्तराध्ययन अध्ययन २८ गाथा १४ छाया- पुण्यं पापास्रवस्तथा।
भाषा टीका - उस आस्रव के दो भेद होते हैं, शुभ कर्मो का पुण्य रूप शुभ भास्रव होता है और अशुभ कर्मों का पाप रूप अशुभ आस्रव होता है ।
सकषायाकषाययोः साम्परायिकर्यापथयोः ।
जस्स णं कोहमाणमायालोभा वोच्छिना भवन्ति तस्स णं ईरियाबहिया किरिया कजइ नो संपराइया किरिया कजइ, जस्स णं कोहमाणमायालोभा अवोच्छिन्ना भवन्ति तस्स णं संपरायकिरिया कजइ नो ईरियाबहिया ।
व्याख्या प्रज्ञप्ति शतक ७ उद्दे० १ सूत्र २६७. छाया- यस्य क्रोधमानपायालोमाः व्यवच्छिन्नाः भवन्ति तस्य ईर्यापथिका
क्रिया क्रियते, नो साम्परायिका क्रिया क्रियते । यस्य क्रोधमानमायालोमा अव्यवछिन्ना भवन्ति तस्य साम्परायिका क्रिया क्रियते
नो ईर्यापथिका। भाषा टीका-जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ नष्ट हो जाते हैं उसके ईर्यापथिका क्रिया (आसूव) होती है उसके साम्परायिक क्रिया नहीं होती। किन्तु जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ नष्ट नहीं होते उसके साम्परायिका क्रिया (आस्रव ) होती है। उसके ईर्यापथिका क्रिया नहीं होती।
इन्द्रियकषायाव्रतक्रियाः पञ्चचतुःपञ्च
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षष्ठोऽध्यायः
[
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पञ्चविंशतिसंख्याः पूर्वस्य भेदाः।
पंचिदिया पण्णत्ता......"चत्तारिकषाया पण्णत्ता........ पंच अविरय पण्णत्ता....."पंचवीसा किरिया पण्णत्ता....."
स्थानांग स्थान २ उद्देश्य १ सूत्र ६० छायां- पञ्चेन्द्रियाणि प्रज्ञप्तानि - चत्वारः कपायाः प्रज्ञप्ताः, पञ्चावताः
प्रज्ञप्ताः पञ्चविंशतयः क्रियाः प्रज्ञप्ताः। भाषा टीका - इन्द्रियां पांच होती हैं, कषाय चार होती हैं, अविरत पांच होते हैं। और क्रिया पच्चीस होती हैं, [यह प्रथम साम्परायिक आस्रव के भेद हैं।
तीव्रमन्दज्ञाताज्ञातभावाधिकरणवीर्यविशेषेभ्यस्तद्विशेषः।
जे केइ खुद्दका पाणा, अदु वा संति महालया ।। सरिसं तेहिं वेरंति असरिसं ती व णेवदे ॥६॥ एएहिं दोहिं ठाणेहिं, ववहारो ण विजई। एएहिं दोहिं ठाणेहिं, अणायारं तु जाणए ॥७॥
सूत्रकृतांग, श्रुतस्कन्ध २ अध्याय ५ गाथा ६-७. * व्याख्या-ये केचन क्षुद्रकाः सत्त्वाः प्राणिनः एकेन्द्रियद्वीन्द्रियादयोऽल्पकाया वा पञ्चेन्द्रिया अथवा महालया महाकायाः संति विद्यन्ते, तेषां च क्षुद्रकाणामल्फकायानां कुन्थ्वादीनां महानालयः शरीरं येषां ते महालयाः हस्त्यादयस्तेषां च व्यापादने, सदृशं, वैरमिति, वन कर्मविरोधलक्षणं वा वैरं तत् सदृशं समानं, अल्पप्रदेशत्वात्सर्वजंतूनामित्येवमेकान्तेन नो वदेत् । तथा विसदृशं असदृशं तद्व्यापत्तौ वैरं कर्मवन्धो विरोधों वा इन्द्रियविज्ञानकायानां विसरशत्वात् । सत्यपि प्रदेश अल्पत्वेन सदृशं वैरमित्येवमपि नो वदेत् । यदि हि अध्यापेक्ष एव कर्मषन्धः स्याचदा तत्तदशाकर्मणोऽपि
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१४४ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
छाया- ये केऽपि क्षुद्रकाः प्राणाः, अथवा सन्ति महालयाः।
सदृशं तैः वैरं इति, असदृशं इति वा नो वदेत् ॥ ६॥ एताभ्यां द्वाभ्यां स्थानाभ्यां, व्यवहारो न विद्यते ।
एताभ्यां द्वाभ्यां स्थानाभ्यां, अनाचारं तु जानीयात् ॥ ७॥ भाषा टीका - जो कोई भी छोटे अथवा बड़े जीव हैं उनके मारने का पाप बराबर होता है । बराबर नहीं होता ऐसा न कहे । इन दोनों स्थानों से व्यवहार नहीं होता । और इन्हों दोनों स्थानों से अनाचार का ज्ञान होता है। सादृश्यमसादृश्यं वा वक्तुं युज्यते। न च तद्वशादेव बंधः, अपि त्वध्यवसायवशादपि । ततश्च तोत्राध्यवसायिनोऽल्पकायसत्त्वव्यापादनेऽपि महद्वरं। अकामस्य तु महाकायसत्त्वव्यापादने ऽपि स्वल्पमिति ॥६॥
एतदेव सूत्रेणैव दर्शयितुमाह श्राभ्यामनन्तरोक्ताभ्यां स्थानाभ्यामनयोर्वा स्थानयोरल्पकायमहाकायव्यापादनापादितकर्मबन्धसदृशत्वयोर्व्यवहरणं व्यवहारो नियुक्तिकत्वान युज्यते । तथाहि, न वध्यस्य सदृशत्वमसदृशत्वं चैकमेव । कर्मबन्धस्य कारणं । अपि तु वधकस्य तीव्रभावो मन्दभावो ज्ञातभावोऽज्ञातभावो महावीर्यत्वमल्पवीर्यत्वं चेत्येतदपि । तदेवं वध्यवध्यकयोर्विशेषात्कर्मबन्धविशेष इत्येवं व्यवस्थिते । वध्यमेवाश्रित्य, सदृशत्वासदृशत्वव्यवहारो न विद्यत इति । तथाऽनयोरेव स्थानयोः प्रवृत्तस्यानाचारं, विजानीयादिति । तथाहि, यज्जीवसाम्यात्कर्मबन्धसदृशत्वमुच्यते, तदयुक्त', यतो न हि जीवव्यापत्या हिंसोच्यते, तस्य शाश्वतत्वेन व्यापादयितुमशक्यत्वात । अपि त्विंद्रियादिव्यापत्या तथा चोक्त, पञ्चेद्रियाणि, त्रिविधं बलं च उच्छ्वासनिःश्वासमथान्यदायुः प्राणाःदशेते भगवद्भिरक्ता, स्तेषां वियोजोकरणं तु हिंसा ॥१॥ इत्यादि, अपि च भावसव्यपेक्षस्यैव, कर्मबन्धोऽभ्यपेतु युक्तः, तथाहि, वैद्यस्यागमसव्यपेक्षस्य, सम्यक् क्रियां कुर्वतो, यद्यप्यातुरविपत्तिर्भवति, तथापि, न वैरानुषङ्गो भावदोषाभावाद् । अपरस्य तु सर्पबुद्धया रज्जुमपि घ्नतो भावदोषात्कर्मबन्धः। तद्रहितस्य तु न बन्ध इति । उक्त चागमे, उच्चालयमिपाए । इत्यादि तण्डुलमत्स्याख्यानकं तु सुप्रसिद्धमेव । तदेवंविधवध्यवधकभावापेक्षया स्यात् । सदृशं स्यादसहशत्वमिति । अन्यथाऽनाचार इति ॥७॥
वृत्ति शीलाकाचार्य .त.
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षष्ठोऽध्यायः
[ १४५
संगति-सूत्र में कहा है कि तीव्र भाव, मन्द भाव, ज्ञात भाव, अज्ञात भाव, अधिकरण और वीर्य की विशेषता से उस आसूव में विशेषता (न्यूनाधिकता) होती है। आगम वाक्य में इसी बात को बिलकुल बदले हुये शब्दों में और प्रकार से कहा गया है ।
अधिकरणं जीवाऽजीवाः। जीवे अधिकरणं ।
व्याख्या प्रज्ञप्ति श० १६, उ० १. एवं अजीवमवि ।
स्थानांग स्थान २, उ० १, सू० ६०. छाया- जोवोऽधिकरणं, एवमजीवमपि । भाषा टीका- आसूव का अधिकरण (आधार) जीव और अजीव दोनों हैं ।
आद्यं संरम्भसमारम्भारम्भयोगकृतकारिताऽनुमतकषायविशेषैस्त्रिस्त्रिस्त्रिश्चतुश्चैकशः। संरम्भसमारम्भे आरम्भे य तहेव य ।।
उ० अध्य० २४ गाथा २१. तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न समाजाणामि । .
' दशवैकालिक भ०४. जस्स णं कोहमाणमायालोभा अवोच्छिन्ना भवंति तस्स णं संपराइया किरिया।
व्याख्या प्रज्ञप्ति श० ७, ७० १, २०१८. छाया- संरम्भः समारम्भः प्रारम्भश्च तथैव च ।।
त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कर्मणा न करोमि न कारयामि करन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । यस्य क्रोधमानमायालोमाः अव्यवच्छिन्ना भवन्ति तस्य साम्परायिका क्रिया।
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१४६ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वयः
भाषा टीका-संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ । फिर इन तीनों भेदों को मन, वचन और काय के द्वारा तीन प्रकार करने से नौ भेद हुए। फिर इन नौ को न करना (कृत), न कराना (कारित) और न करते हुए अन्य व्यक्ति का समर्थन करना (अनुमोदना)। सो यह नौ तिया सत्ताईस भेद हुए। फिर इन सत्ताईसों में क्रोध, मान, माया और लोभ के होने से [ सत्ताईस चौक एक सौ आठ भेद जीवाधिकरण के होते हैं।] संगति - इन सब सूत्रों का आगम वाक्यों के साथ नाम मात्र का ही भेद है।
निर्वतनानिक्षेपसंयोगनिसर्गा द्विचतुर्द्वित्रिभेदाः परम्। णिवत्तणाधिकरणिया चेव संजोयणाधिकरणिया चेव ।।
स्थानांग स्थान २, सु. ६०. आइये निक्खिवेज्जा ।
उत्तराध्ययन भ० २५, गाथा १४. पवत्तमाणं ।
उत्तराध्ययन अ० २४, गाथा २१-२३. छाया- निर्वर्तनधिकरणिका चैव संवोगाधिकरणिका चैव ।
आददीत निक्षिपेद्वा ।
प्रवर्तमानम् (मनोवचः काये)। भाषा टीका - निर्वतनाधिकरण, संयोगाधिकरण, निक्षेपाधिकरण और प्रवर्तमानाधिकरण (मन, वचन, काय में प्रवर्तमान) [यह चार भेद अजीवाधिकरण के होतेहैं ]
संगति – प्रवर्तमानाधिकरण और निसर्गाधिकरण में केवल शाब्दिक भेद ही है, तात्विक भेद बिलकुल नहीं है।
तत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः।
६,१०.
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षष्ठोऽध्यायः
[ १४७
णाणावरणिजकम्मासरीरप्पओगबंधेणं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं ? गोयमा! नाणपडिणीययाए णाणनिण्हवणयाए णाणंतराएणं णाणप्पदोसेणं णाणचासायणाए णाणविसंवादणाजोगेणं, ....... "एवं जहा णाणावरणिजं नवरं दसणनाम घेत्तव्वं ।
व्याख्या प्रज्ञप्ति श० ८, उ० १, सू० ७५-७६. छाया- ज्ञानावरणीयकामणशरीरप्रयोगबन्धः भगवन् ! कस्य कर्मणः
उदयेन ? गौतम! ज्ञानमत्यनोकतया ज्ञाननिन्हवतया ज्ञानान्तरायण ज्ञानप्रदोषेण ज्ञानात्याशातनया ज्ञानविसंवादनायोगेन एवं यथा
ज्ञानावरणीयं नवरं दर्शननाम ग्रहीतव्यम् । प्रश्न - भगवन् ! किस कर्म के उदय से ज्ञानावरणीय कार्मण शरीर का प्रयोगबन्ध होता है ?
उत्तर-गौतम ! ज्ञानी को शत्रुता करने से, ज्ञान को छिपाने से, ज्ञान में विघ्न डालने से, ज्ञान में दोष निकालने से, ज्ञान का अविनय करने से, ज्ञान में व्यर्थ का वाद विवाद करने से ज्ञानावरणीय कर्म का आसूव होता है। इन उपरोक्त कार्यो में दर्शन का नाम लगाकर कार्य करने से दर्शनावरणीय कर्म का आसूष होता है।
दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यसवेदस्य।
परदुक्खणयाए परसोयणयाए परजूरणयाए परतिप्पणयाए परपिट्टणयाए परपरियावणयाए बहणं पाणाणं जाव सत्ताणं दुक्खणयाए सोयणयाए जाव परियावणयाए एवं खलु गोयमा! जीवाणं अस्सायावेयणिज्जा कम्मा किजन्ते ।
व्याख्याप्रज्ञप्ति श०७ उ० ६ सू० २८६. छाया- परदुःखनतया परशोकनतया परझुरणतया परतृपणतया परपि
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१४८ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
दृनतया परपरितापनतया बहूनां प्राणिनां यावत् सत्त्वानां दुःखनतया शोचनतया यावत् परितापनतया एवं खुल गौतम !
जीवानां असातावेदनीयकर्माणि क्रियन्ते । भाषा टीका - हे गौतम ! दूसरे को दुःख देने से, दूसरे को शोक उत्पन्न कराने से, दूसरे को भुराने से, दूसरे को रुलाने से, दूसरे को पीटने से, दूसरे को परिताप देने से, बहुत से प्राणियों और जीवों को दुःख देने से, शोक उत्पन्न कराने आदि परिताप देने से जीव असाता वेदनीय कर्मो का आसूव करते हैं ।
भूतव्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगः शान्तिः शौचमिति सडेदस्य ।
पाणाणुकंपाए भूयाणुकंपाए जीवाणुकंपाए सत्ताणुकंपाए बहणं पाणाणं जाव सत्ताणं अदुक्खणयाए असोयणयाए अजूरणयाए अतिप्पणयाए अपिट्टणयाए अपरियावणयाए एवं खलु गोरमा! जीवाणं सायावेयणिज्जा कम्मा किजंति ।
व्याख्या प्रज्ञप्ति शतक ७ उ० ६ सूत्र २८६. छाया- प्राणानुकम्पनतया भूतानुकम्पनतया जीवानुकम्पनतया सत्त्वानु
कम्पनतया बहूनां प्राणिनां यावत् सत्वानां अदुःखनतया अशोचनतया अझूरणतया अतपणतया अपिट्टनतया अपरितापन
तया एवं खलु गौतम ! जोवानां सातावेदनीयकर्माणि क्रियन्ते । भाषा टीका - हे गौतम ! प्राणों पर अनुकम्पा करने से, प्राणियों पर दया करने से, जीवों पर दया करने से, सत्त्वों पर दया करने से, बहुत से प्राणियों को दुःख न देने से, शोक न कराने से, न झुराने से, न रुलाने से, न पीटने से, परिताप न देने से जीव साता वेदनीय कर्मों का पासूव करते हैं।
केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य ।
६, १३.
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षष्ठोऽध्यायः
[ १४६
HWAN
पंचहि ठाणेहिं जीवा दुल्लभबोधियत्ताए कम्मं पकरेंति, तं जहा-अरहंताणं अवन्नं वदमाणे १, अरहंतपन्नतस्स धम्मस्स अवन्नं वदमाणे २, आयरियउवज्झायाणं अवन्नं वदमाणे ३, चउवएणस्स संघस्स अवएणं वदमाणे ४, विवक्तवबंभचेराणं देवाणं अवन्नं वदमाणे ।
स्थानांग स्थान ५, उ० २ सू० ४२६. छाया- पञ्चभिः स्थानैः जीवा दुर्लभबोधिकतया कर्म प्रकुर्वन्ति । तद्यथा
अर्हता अवर्णं वदन, अर्हत्यज्ञप्तस्य धर्मस्य अवर्ण वदन, आचार्योपाध्यायानां अवर्णं वदन, चातुर्वर्णस्य संघस्य अवर्ण वदन,
विपकतपोब्रह्मचर्याणां देवानां अवर्णं वदन् । भाषा टीका-पांच स्थानों के द्वारा जीव दुर्लभ बोधि (दर्शन मोहनीय) कर्म का उपार्जन करते हैं --अर्हत का अवर्णवाद करने से, अर्हत के उपदेश दिये हुए धर्म का अवर्णवाद* करने से, आचार्य और उपाध्याय का भवर्णवाद* करने से, चारों प्रकार के धर्म का अवर्णवाद* करने से, तथा परिपक्व तप और ब्रह्मचर्य के धारक देव जो जीव हुए हैं उनका अवर्णवाद* करने से।
कषायोदयात्तीव्रपरिणामश्चारित्रमोहस्य।
मोहणिजकम्मासरीरप्पयोगपुच्छा, गोयमा! तिव्वकोहयाए तिव्वमाणयाए तिव्वमायाए तिव्वलोभाए तिव्वदसणमोहणिजयाए तिव्वचारित्तमोहणिजाए।
व्याख्या प्रज्ञप्ति० शतक ८ उ० ९ सू० ३५१. छाया- मोहनीयकर्मशरीरप्रयोगपृच्छा ? गौतम ! तोक्रोधनतया तीव्रमान* जो दोष न हों उनका भी होना बतलाना, निन्दा करना अवर्णवाद है।
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तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
तया तीव्रमायातया तीव्रलोभतया तीव्रदर्शनमोहनीयतया तीव्र - चारित्रमोहनीयतया
1
प्रश्न - [ चारित्र ] मोहनीय कर्म के शरीर का प्रयोगबन्ध किस प्रकार होता है ? उत्तर - गौतम ! तीव्र क्रोध करने से, तीव्र मान करने से, तीव्र माया करने से, ती लोभ करने से, तीव्र दर्शन मोहनीय से और तीव्र चारित्र मोहनीय से ।
१५० ]
********
वक्तारम्भपरिग्रहत्वं नारकस्यायुषः ।
६. १५.
चउहिं ठाणेहिं जीवा रतियत्ताए कम्मं पकरेंति, तं जहामहारम्भता महापरिग्गहयाते पंचिदियवहेणं कुणिमाहारेणं ।
स्थानांग० स्थान ४ उ० ४ सूत्र ३७३.
छाया - चतुर्भिः स्थानैः जीवा नैरयिकत्वाय कर्म प्रकुर्वन्ति ।
तद्यथा - महारम्भतया, महापरिग्रहतया, पञ्चेन्द्रियवधेन, कुरण पाहारेण । भाषा टीका - जीव चार प्रकार से नरक आयु का बन्ध करते हैं :- बहुत आरम्भ करने से, बहुत परिग्रह करने से, पंचेन्द्रिय जीव के बध से, और ( मृतक ) मांस का हार करने से ।
संगति – यहां सूत्र की अपेक्षा विशेष कथन किया गया है।
माया तैर्यग्योनस्य ।
६, १६.
हिं ठाणेहिं जीवा तिरिक्खजोणियत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहा - माइल्लता ते णियडिल्लता ते अलियवयणेणं कूडतुल कूडमाणेणं ।
स्थानांग स्थान ४ उद्देश्य ४ सूत्र ३७३.
छाया
चतुर्भिः स्थानैः जीवाः तिर्यग्योनिकत्वाय कर्म प्रकुर्वन्ति । तद्यथामायितया, निकृतिमत्तया अलीकवचनेन कूटतुला कूटमानेन ।
-
भाषा टीका - चार प्रकार से जीव तिर्यञ्च आयु का बन्ध करते हैं - छल कपट से, छल को छल द्वारा छिपाने से, असत्य भाषण से और कमती तोलने और नापने से ।
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षष्ठोऽध्यायः
छाया
अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य ।
स्वभावर्मादवञ्च ।
[ १५१
६, १७.
६, १८.
चउहिं ठाणेहिं जीवा मणुस्सत्ताते कम्मं पति तं जहापगतिभद्दताते पगतिविणीययाए सारणुकोसयते श्रमच्छरिता ते ।
स्थानांग० स्थान० ४, उ० ४, सू० ३७३.
मायाहिं सिक्खाहिं जे नरा गिहिसुव्वया उवेंति माणुसं जोगिं कम्मसचाहु पाणियो ।
उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन ७ गाथा २०.
चतुर्भिः स्थानैः जीवा मानुषत्वाय कर्म प्रकुर्वन्ति । तद्यथा - प्रकृतिभद्रतया प्रकृतिविनयतया सानुक्रोशतया मत्सरिकतया ।
विमात्राभिः शिक्षाभिः ये नराः गृहिसुत्रताः उपयान्ति मानुषीं योनि कर्मसत्याः प्राणिनः ।
भाषा टीका - चार प्रकार से जीव मनुष्य आयु का बन्ध करते हैं - उत्तम स्वभाव होने से, स्वभाव में विनय होने से, स्वभाव में दया होने से, स्वभाव में ईर्ष्याभाव न होने से । जो प्राणि विविध शिक्षाओं के द्वारा उत्तम व्रत ग्रहण करते हैं वह प्राणि शुभ कर्मों के फल से मनुष्य योनि को प्राप्त करते हैं ।
1
निःशीलव्रतत्वं च सर्वेषां ।
६, १६.
एगंतबाले गं मस्से नेरइयाउयंपि पकरेइ तिरियाउयंपि
पकरेइ मणस्साउयंपि पकरेइ देवाउयंपि पकरेइ ।
व्याख्याप्रज्ञप्ति शतक १, उ० ८, सू० ६३.
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१५२ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
छाया- एकान्तबालः मनुष्यः नैरयिकायुमपि प्रकरोति - तिर्यगायुमपि
प्रकरोति मनुष्यायुमपि प्रकरोति देवायुमपि प्रकरोति । भाषा टीका -एकान्तबाल (बिना शील और व्रत वाला) मनुष्य नरक आयु भी बांधता है, तिर्यश्च आयु भी बांधता है, मनुष्य आयु भी बांधता है और देवायु का भी बन्ध करता है।
सरागसंयमसंयमाऽसंयमाञ्कामनिर्जराबालतपांसि दैवस्य ।
६, २०. चउहिं ठाणेहिं जीवा देवाउयत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहासरागसंजमेणं संजमासंजमेणं, बालतवोकम्मेणं, अकामणिज्जराए।
स्थानांग स्थान ४ उ० ४ सू० ३७३. छाया- चतुर्भिः स्थानैः जीवाः देवायुत्वाय कर्म प्रकुर्वन्ति, तद्यथा-सराग
___ संयमेन, संयमाऽसंयमेन, बालतपकर्मणा, अकामनिर्जरया । भाषा टीका - चार प्रकार से जीव देवायु का बन्ध करते हैं-सरागसंयम से, संयमासयम से, बाल तप से और अकामनिर्जरा से।
सम्यक्त्वं च ।
६, २१. वेमाणियावि 'जइ सम्मट्ठिीपज्जतसंखेजवासाउयकम्मभूमिगगब्भवतियमणुस्सेहिंतो उववजंति किंसंजतसम्मट्ठिीहिंतो असंजयसम्मदिट्ठीपजत्तएहितो संजयासंजयसम्मदिट्ठीपजत्तसंखेज० हिंतो उववज्जति ? गोयमा तीहिंतोवि उववजंति, एवं जाव अञ्चुगो कप्पो।
प्रज्ञापना० पद६.
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छाया -
षष्ठोध्याय :
वैमानिकाः अपि यदि सम्यग्दृष्टिपर्याप्तसंख्येयवर्षायुष्ककर्मभूमिकगर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्येभ्यः उत्पद्यन्ते किं संयतसम्यग्दृष्टिभ्यो Sसंयतसम्यग्दृष्टिपर्याप्तकेभ्यः संयतासंयतसम्यग्दृष्टिपर्याप्तकसंख्येयवर्षायुष्केभ्यः उत्पद्यन्ते ? गौतम ! त्रिभिः उत्पद्यन्ते, एवं याव - दच्युतः कल्पः
प्रश्न- यदि वैमानिक देवों में सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक, संख्यात वर्ष की आयु वाले, कर्मभूमि, गर्भज मनुष्य उत्पन्न हों तो क्या संयत सम्यग्दृष्टियों से, असंयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्तकों से, संयतासंयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक संख्यातवर्ष की आयुवालों में से उत्पन्न होते हैं ?
उत्तर - हे गौतम! तीनों ही में से अच्युत स्वर्ग तक उत्पन्न होते हैं।
[ १५३
संगति- इस कथन से प्रगट होता है कि सम्यग्दृष्टि देवलोक में जा सकता है।
योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः ।
६, २२.
छाया
तद्विपरीतं शुभस्य
1
६, २३.
सुभनामकम्मा सरीरपुच्छा ? गोयमा ! कायउज्जुययाए भावुज्जुययाए भासुज्जुययाए अविसंवादणजोगेणं सुभनामकम्मा सरीरजावप्पयोगबन्धे, असुभनामकम्मा सरीरपुच्छा ? गोयमा ! काय रज्जुययाए जाव विसंवायणा जोगेणं असुभनामकम्मा जाव पयोगबंधे ।
व्याख्या० श० ८ उद्देο Ε शुभनामकर्माणि शरीरपृच्छा? गौतत ! कायर्जुकतया भावर्जुकतया भाषर्जुकतया श्रविसंवादनयोगेन शुभनामकर्माणि शरीरयावत्प्रयोगबंधः । अशुभनामकर्माणि शरीरपृच्छा ? गौतम ! कायानर्जुकतया यावत् विसवादनयोगेन अशुभनामकर्माणि यावत् प्रयोगबन्धः ।
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१५४ ]
तत्वार्थ सूत्र जैनाऽऽगमसमन्वय :
प्रश्न - शुभ नाम कर्म का शरीर किस प्रकार प्राप्त होता है ?
उत्तर - हे गौतम! काय की सरलता से, मन की सरलता से, वचन की सरलता से तथा अन्यथा प्रवृत्ति न करने से शुभ नाम कर्म के शरीर का प्रयोग बंध होता है । प्रश्न - अशुभनाम कर्म के शरीर का प्रयोग बंध किस प्रकार होता है ?
उत्तर - इसके विपरीत काय, मन तथा वचन की कुटिलता से तथा अन्यथा प्रवृत्ति करने से अशुभ नाम कर्म के शरीर का प्रयोग बंध होता है।
दर्शनविशुद्धिर्विनयसम्पन्नता शीलव्रतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्यागतपसी साधुसमाधिर्वैयावृत्यकरणमर्हदाचार्य बहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिर्मार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य ।
६, २४.
अरहंत-सिद्ध-पवयण - गुरु - थेर - बहुस्सुए तवस्सीसुं । वच्छलया य तेसिं अभिक्ख णाणोवोगे य ॥ १ ॥ दंसण विए आवास्सए य सीलव्वए निरइयारं । खणलव तव च्चियाए वेयावच्चे समाही य ॥ २ ॥ अप्पुव्वणाणगहणे सुयभत्ती पवयणे पभावण्या | एएहिं कारणेहिं तित्थयरत्तं लहइ जीवो ॥ ३ ॥
ज्ञाताधर्म कथांग अ० ८, सु० ६४.
अर्हत्सिद्धमवचनगुरुस्थविरबहुश्रुततपस्विवत्सलताऽभीक्ष्णं ज्ञानो
छाया
-
पयोगश्च ॥ १ ॥
दर्शनं विनय आवश्यकानि च शीलवतं निरतिचारं । क्षरणलवस्तपः त्यागः वैयावृत्यं समाधिश्च ॥ २ ॥
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षष्ठोऽध्याय:
पूर्वज्ञानग्रहणं श्रुतभक्तिः प्रवचने प्रभावना | एतैः कारणैः तीर्थकरत्वं लभते जीवः ॥ ३ ॥
भाषा टीका - १. अर्हत भक्ति, २. सिद्ध भक्ति, ३. प्रवचन भक्ति, ४. स्थविर (आचार्य) भक्ति, ५. बहुश्रुत भक्ति, ६. तपस्वित्सलता, ७. निरन्तर ज्ञान में उपयोग रखना, ८. दर्शन का विशुद्ध रखना, ६. विनय सहित होना, १०. आवश्यकों का पालन करना, ११. अतिचार रहित शील और व्रतों का पालन करना, १२. संसार को क्षणभंगुर समझना, १३. शक्ति अनुसार तप करना. १४. त्याग करना, १५. वैयावृत्य करना, १६ समाधि करना, १७ अपूर्व ज्ञान को ग्रहण करना, १८ शास्त्र में भक्ति होना, १६ प्रवचन में भक्ति होना, और २० प्रभावना करना। इन कारणों से जीव तीर्थकर प्रकृति का बंध करता है।
[ १५५
संगति – सूत्र में सोलह तथा आगम वाक्य में बीस कारण बतलाये गये हैं । किन्तु विचार कर देखने से पता चलता है कि आगम के बीस केवल विस्तार दृष्टि से ही हैं । अन्यथा सूत्र के सोलह से अधिक उनमें एक भी बात नहीं है । सूत्रकार ने उसी को अत्यंत संक्षेप से लेकर सोलह कारण भावनाओं की रचना की है।
परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भा
वने च नीचैर्गोत्रस्य |
छाया
६, २५.
जातिमदेणं कुलमदेणं बलमदेणं जाव इस्सरियमदेणं खीयागोयकम्मासरीरजाव पयोगबन्धे ।
व्याख्या० शत०८, उ०६, सू० ३५१.
जातिमदेन कुलमदेन बलमदेन यावत् ऐश्वर्यमदेन नीचगोत्रकर्माणि यावत् प्रयोगबन्धः ।
भाषा टीका - जाति के मद से कुल के मद से, बल के मद से, तथा अन्य मदों सहित ऐश्वर्य के मद से नीच गोत्र कर्म के शरीर का प्रयोग बंध होता है।
संगति - यद्यपि इस सूत्र के और आगम बाक्य के शब्द आपस में नहीं मिलते। किन्तु भाव फिर भी दोनों का एक ही है। क्योंकि अभिमानी सदा अपनी प्रशंसा करता
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१५६ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
है और दूसरों की निन्दा करता है। अभिमानी सदा अपने न होने वाले गुणों को भी प्रकाशित करता है और दूसरे के होने वाले गुणों को भी छिपाता है। तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्यनुत्सेको चोत्तरस्य ।
२, २६. जातिअमदेणं कुलअमदेणं बलअमदेणं रूवअमदेणं तर. अमदेणं सुयअमदेणं लाभअमदेणं इस्सरियअमदेणं उच्चागोयकम्मासरीरजावपयोगबंधे ।
__ व्याख्या० शतक ८ उ० ९ सू० ३५१. छाया- जात्यमदेन कुलामदेन बलामदेन रूपामदेन तपसमदेन श्रुतामदेन
लाभामदेन ऐश्वर्यामदेन उच्चगोत्रकर्माणि यावत् प्रयोगबन्धः। भाषा टीका–जाति, कुल, बल, रूप, तप, विद्या, लाभ और ऐश्वर्य का घमंड म करने से उच्च गोत्र कर्म के शरीर का प्रयोग बन्ध होता है। संगति-यहां भी उपरोक्क सूत्र के समान सूत्र और आगम को मिला लेना चाहिये ।
विघ्नकरणमन्तरायस्य।
दाणंतराएणं लाभंतगएण भोगंतराएणं उवभोगंतराएणं वारियंतराएणं अंतराइयकम्मा सरीरप्पयोगबन्धे ।
व्याख्या प्रज्ञप्ति श० ८, उ० ९, सू० ३५१. छाया- दानान्तरायेन, लाभान्तरायेन, भोगान्तरायेन, उपभोगान्तरायेन.
वीर्यान्तरायेन अन्तरायकर्माणि शरीरप्रयोगबन्धः। भाषा टीका-दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में विघ्न करने से अन्तराय कर्म के शरीर का प्रयोगबन्ध होता है। इति श्री-जैनमुनि-उपाध्याय-श्रीमदात्माराम महाराज-संगृहीते
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वये * षष्ठोऽध्यायः समाप्तः ॥ ६॥
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सप्तमोऽध्यायः हिंसाऽनृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् ।
देशसर्वतोऽणुमहती। पंच महव्वया पण्णता, तं जहा-सव्वातो पाणातिवायामओ वेरमणं । जाव सव्वातो परिग्गहातो वेरमणं । पंचाणुव्वता पएणत्ता, तं जहा-थूलातो पाणाइवायातो वेरमणं थूलातो मुसावायातो वेरमणं थूलातो अदिन्नादाणातो वेरमणं सदारसंतोसे इच्छापरिमाणे ।
स्थानांग स्थान ५, उ० १, सू० ३८६. पञ्चमहाव्रताः प्रज्ञमाः, तद्यथा-सर्वतः पाणातिपातात् वेरमणं, यावत् सर्वतः परिग्रहात् वेरमणं । पञ्चाणुव्रताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथास्थूलतः प्राणातिपातात् वेरमणं स्थूलतः मृषावादावरमणं स्थू
लतोऽदत्तादानावरमणं स्वदारसन्तोषः इच्छापरिमाणः। भाषा टीका-महाव्रत पांच होते हैं-सब प्रकार को प्राणि हिंसा से बचने से लगाकर सब प्रकार के परिग्रह से बचने तक । अणुव्रत भी पांच होते हैं-स्थूल प्राणिहिंसा से बचना, स्थूल असत्य भाषण से बचना, स्थूल चोरी से बचना, स्वदारसंतोष और इच्छा को नाप तोल के रखना।
तत्स्थैर्यार्थ भावनाः पञ्च पञ्च । पंचजामस्य पणवीसं भावणाओ पएणत्ता ।
समवायांग, समवाय २५.
छाया
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१५८ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
छाया- पञ्चयामस्य पञ्चविंशतयः भावनाः प्रज्ञप्ताः । भाषा टीका-पांचों व्रतों की पांच २ के हिसाब से पच्चीस भावनाएं कही गई हैं।
वाङ्मनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकितपानभोजनानि पञ्च।
ईरिया समिई मणगुत्ती वमगुत्ती आलोयभायणभोयणं आदाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिई।
समवायांग, समवाय २५. छाया- ईर्यासमितिः मनोगुप्तिः वचोगुप्तिः आलोकभाजनभोजनं आदान
भण्डमात्रनिक्षेपणासमितिः । भाषा टीका-ईर्या समिति, मनोगुप्ति, वचन गुप्त, आलोकभाजनभोजन, आदानभण्ड मात्र निक्षेपणा समिति (आदान निक्षेपण समिति)। [यह पांच अहिंसा महाव्रत की भावनाएं हैं।]
क्रोधलोभभीरुत्वहास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीचिभाषणं च पंच।
अणुवीति भासणया कोहविवेगे लोभविवेगे भयविवेगे हासविवेगे।
समवायांग, समय २५. छाया- अनुविचिन्त्यभाषणता क्रोधविवेकः लोभविवेकः भयविवेकः हास्य
विवेकः। भाषा टोका-सोच समझ के बोलना, क्रोध का त्याग, लोभ का त्याग, भय का त्याग और हास्य का त्याग [यह पांच सत्य महाव्रत की भावनाएं हैं। ]
शून्यागारविमोचितावासपरोपरोधाकरणभैयशुद्धिसद्धर्माऽविसंवादाः पञ्च।
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सप्तमोऽध्यायः
[ १५६
उग्गहअणुण्णवणया उग्गहसीमजाणणया सयमेव उग्गहं अणुगिरहणया साहम्मियउग्गहं अणुण्णविय परिभुंजणया साहारणभत्तपाणं अणुण्णविय पडिभुंजणया।
____ समवायांग समय २५. छाया- अवग्रहानुज्ञापना, अवग्रहसीमापरिज्ञानता, स्वयमेव अवग्रहः अनु
ग्रहणता, साधर्मिकावग्रहः अनुज्ञाप्य परिभोजनता, साधारणभक्तपानं
अनुज्ञाप्य परिभोजनता । भाषा टीका-ठहरने की आज्ञा लेना, ठहरने की सीमा को जानना, स्वयं ही ठहर कर स्थान को स्वीकार करना, साधर्मियों को ठहराना और उनकी आज्ञा से भोजन करना, साधारण भोजन और पीने की वस्तु के विषय में अनुमति लेकर भोजन करना । ___ संगति- सूत्र में और इनमें केवल शाब्दिक भेद ही है। यह पांच अचौर्यमहाव्रत की भावनाएं हैं।
स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहराङ्गनिरीक्षणपूर्वरतानुस्मरणवृष्येष्टरसस्वशरीरसंस्कारत्यागाः पञ्च ।
७, ७.
इत्थीपसुपंडसंसत्तगसयणासणवजणया इत्थीकहववञ्जणया इत्थीणं इंदियाणमालोयणवजणया पुव्वरयपुव्वकोलिआणं अणणुसरणया पणीताहारववजणया ।
समवायांग समय २५. छाया- स्त्रीपशुपण्डकसंसक्तशय्यासनवर्जनता स्त्रीकथाविवर्जनता स्त्रोणामि...न्द्रियाणामालोकनवर्जनता पूर्वरतपूर्वक्रीडाना अनुस्मरणता प्रणी
ताहारवर्जनता । भाषा टीका-स्त्री, पशु तथा नपुसकों से लगे हुए शय्या तथा आसन को छोड़ना,
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१६० ]
तस्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
स्त्रियों की कथा का त्याग करना, स्त्रियों की इन्द्रियों के देखने का त्याग करना, पहिले भोगे हुए भोग और पहिले की हुई क्रीड़ाओं को स्मरण न करना, पौष्टिक आहार का त्याग करना, [ यह पांच ब्रह्मचर्य व्रत की भावनाएं हैं। --
मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानि पंच ।
सोइन्दियरागोवरई चक्खिदियरागोवरई घाणिंदियरागोवरई जिभिदियरागोवरई फासिंदियरागोवरई।
समवायांग समय २५. छाया- श्रोत्रेद्रियरागोपरतिः चक्षुरिन्द्रियरागोपरतिः प्राणेन्द्रियरागोपरतिः
जिव्हेन्द्रियरागोपरतिः स्पर्शनेन्द्रियरागोपरतिः । भाषा टीका - कर्ण इन्द्रिय के राग उत्पन्न करने वाले विषयों का त्याग, नेत्र इन्द्रिय के राग का त्याग, घाण इन्द्रिय के राग का त्याग, जिव्हा इन्द्रिय के राग (शौक) का त्याग, तथा स्पर्शन इन्द्रिय के राग का त्याग [ यह पांच परिग्रह त्याग महाव्रत की भावनाए हैं] हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम् ।
दुःखमेव वा। संवेगिणी कहा चउव्विहा पण्णता, तं जहा-इहलोगसंवे. गणी परलोगसंवेगणी आतसरीरसंवेगणी परसरीरसंवेगणी। णिव्वेगणी कहा चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा-इहलोगे दुच्चिन्ना कम्मा इहलोगे दुहफलविवागसंजुत्ता भवंति ॥१॥ इहलोगे दुच्चिन्ना कम्मा परलोगे दुहफलविवागसंजुत्ता भवंति ॥२॥ परलोगे दुच्चिन्ना कम्मा इहलोगे दुहफलविवागसंजुता भवंति ॥ ३ ॥
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सप्तमोऽण्याव:
परलोगे दुञ्चिन्ना कम्मा परलोये दुहफलविवागसंजुत्ता भवंति ॥४॥ इहलोगे सुचिन्ना कम्मा इहलोगे सुहफलविवागसंजुत्ता भवंति ॥१॥ इहलोगे सुचिन्ना कम्मा परलोगे सुहफलविवागसंजुत्ता भवंति, एवं चउभंगो।।
स्थानांग स्थान ४ उद्दे०२ सत्र. २८२ छाया- संवेगिनी कथा चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-इहलोकसंवेगनी परलोक
संवेगनी, श्रात्मशरीरसंवेगनी परशरीरसंवेगनी । निवेदनी कथा चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-इहलोके दुश्चीर्णानि कर्माणि इहलोके दुःखफलविपाकसंयुक्तानि भवन्ति ॥ १॥ इहलोके दुश्चीर्णानि कर्माणि परलोके दुःखफलविपाकसंयुक्तानि भवन्ति ॥२॥ परलोके दुश्चीर्णानि कर्माणि इहलोके दुःखफलविपाकसंयुक्तानि भवन्ति ॥३॥ परलोके दुश्चीर्णानि कर्माणि परलोके दुःखफलविपाकसंयुक्तानि भवन्ति ॥४॥ इहलोके सुचीर्णानि कर्माणि इहलोके सुखफलविपाकसंयुक्तानि भवन्ति ॥१॥ इहलोके सुचीर्णानि कर्माणि परलोके सुखफलविपाक
संयुक्तानि भवन्ति ॥२॥ एवं चतुर्भङ्गाः। भाषा टीका-संवेगिनी कथा चार प्रकार की कही गई है-इहलोक संवेगिनी, परलोक संवेगनी, आत्मशरीर संवेगनी, परशरीर संवेगनी।
निवेदनी कथा भी चार प्रकार की कही गई है-इस लोक में बुरी तरह एकत्रित किये हुए कर्म इस लोक में दुःख, फल और विपाक देते हैं ॥१॥ इसलोक में बुरी तरह एकत्रित किये हुए कर्म परलोक में दुःख, फल और विपाक देते हैं ॥२॥ परलोक में बुरी तरह एकत्रित किये हुए कर्म इस लोक में दुःख फल और विपाक से संयुक्त होते हैं ॥३॥ परलोक में बुरी तरह एकत्रित किये हुए कर्म परलोक में ही दुःख, फल और विपाक से संयुक्त होते हैं ॥ ४॥
इस लोक में अच्छी तरह किये हुए कर्म इस लोक में सुख, फल और विपाक से
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१५२ ]
सस्वार्थसूत्रजनाऽऽगमसमन्वयः
संयुक्त होते हैं ॥१॥ इस लोक में अच्छी तरह किये हुए कर्म परलोक में सुख, फलऔर विपाक से संयुक्त होते हैं ॥२॥ इस प्रकार धार भंग हैं।
संगति-विचार कर देखने पर पता चलेगा कि उपरोक्त मागम पाक्य भी यही कह रहे हैं कि हिंसा आदि पांचों पाप इस लोक और परलोक में पाप और दुःख को ही देने वाले हैं और स्वयं दुःख रूप हैं । सूत्र और आगम वाक्य में केवल कहने के ढंग का भेद है।
मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानि च सत्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनयेषु ।
मित्तिं भूणहिं कप्पए......
सूत्र कांग० प्रथम भुतिस्कंध अध्याय १५ गाथा ।। मुप्पडियाणंदा।
चौपपातिक सूत्र १ प्रश्न २० साणुकोस्सयाए।
भोपपातिक भगवदुपदेश। मज्झत्थो निजरापेही समाहिमणुपालए ।
__ आचारांग प्रथम श्रुतस्कंध अध्याय ८ ० - गाथा ५. छाया- मैत्री भूतैः कल्पयेत् ।
सुष्ठप्रत्यानन्दः । सानुक्रोशः।
मध्यस्थः निर्जरापेक्षी समाधिमनुपालयेत् । भाषा टीका-समस्त प्राणियों में मैत्री भाव रखे, अपने से अधिक गुण वालों को देखकर आनन्द में भर जावे, दुखी जीवों पर दया करे और अविनयी लोगों में समाधि का पालन करता, निर्जरा की अपेक्षा करता हुआ माध्यस्थ भाव रखे।
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सप्तमोऽध्यायः
[ १६३
जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् ।
७, १२.
भावणाहि य सुद्धाहिं, सम्मं भावेत्तु अप्पयं ।
उत्तराध्ययन अध्यय १३ गाथा २४.
मणिच्चे जीवलोगम्मि । जीवियं चैव रूवं च विज॒संपायचंचलम् ।
छाया
उत्तराध्ययन अध्ययन १८ गाथा ११, १३
भावनाभिश्च शुद्धाभिः सम्यग् भावयित्वाऽऽत्मानम् । अनित्ये जीवलोके'''''''जीवितं चैव रूपं च विद्युत्संपातचंचलम् । भाषा टीका - शुद्ध भावनाओं से अपने आप को अच्छी तरह चिन्तवन करके जीव लोक में जीवन और रूप को बिजली के गिरने के समान चंचल चिन्तवन करे ।
संगति - यह वाक्य भी दूसरे शब्दों में यही कह रहे हैं कि संवेग और वैराग्य के बासते जगत् और काय के स्वभाव का चिन्तवन करे ।
प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा ।
७, १३.
तत्थ गं जेते पमत्तसंजया ते असुहं जोगं पडुच्च आयारंभा परारंभा जाव णो णारंभा ।
व्याख्या प्रज्ञप्ति शतक १ उद्दे० १ सूत्र ४८ छाया--- तत्र ये ते प्रमत्तसंयतास्तेऽशुभं योगं प्रतीत्य श्रात्मारंभाः अपि परारम्भाः यावत् नो अनारम्भाः ।
भाषा टीका - प्रमत्तसंयत गुण स्थान वाले मुनि भी अशुभयोग को प्राप्त होकर आत्मारम्भ होते हुए भी परारम्भ हो जाते हैं और पूर्ण आरम्भ करने लगते हैं ।
- संगति- - इस आगम वाक्य में बतलाया गया है कि प्रमत्त संयंत गुण स्थान वाले प्रमाद के योग से प्राणव्यपरोपण रूप हिंसा में फिर भी लग सकते हैं। अन्य लोगों के विषय में तो क्या कहा जावे ।
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१६४ ]
अलियं
भलियं
तस्वार्थसूत्र जैनाऽऽगमसमन्वय :
असदभिधानमनृतम् ।
44400.
"असचं संधत्तणं
छाया
छाया -
अलीकमसत्यं संघत्तणं असद्भावः अलीकम् ।
भाषा टीका - जैसा न हो वैसा असत्य स्थापित करना असत्य कहलाता है ।
अदत्तादानं स्तेयं ।
"तेणिक्को ।
अदसं
छाया - अदत्तं स्तेनः ।
भाषा टीका - बिना दिये हुए को लेना चोरी है।
मैथुनमब्रह्म ।
अम्भ मेहुणं ।
७ १४.
'असब्भाव'
प्रश्न व्याकरणांग आस्रवद्वार २
मुच्छा परिग्गहो तो ।
मूर्छा परिग्रहः उक्तः ।
७, १५.
छाया
ब्रह्ममैथुनम् ।
भाषा टीका – मैथुन करना अब्रह्म पाप कहलाता है।
1
मूर्छा परिग्रहः ।
प्रश्न व्या० आस्रवद्वार ३
७, १६.
प्र० व्या० आस्रवद्वार ४
७, १७.
दश • अध्ययन ६ गाथा २१.
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[ १६५
भाषा टीका - चेतन अचेतन रूप परिग्रह में ममत्व परिणाम रूप मूर्छा को परिग्रह कहा गया है ।
सप्तमोऽध्याय:
छाया-
७, १८.
पक्किमामि तिहिं सल्लेहिं - मायासल्लेण नियाण सल्लेणं
मिच्छादंसण सल्लेणं ।
निश्शल्यो व्रती ।
आवश्यक० चतु० आवश्य० सूत्र ७ प्रतिक्रमामि त्रिभिः शल्यैः - मायाशल्येन निदानशल्येन मिध्यादर्शनशल्येन ।
भाषा टीका- मैं तीन शल्यों से प्रतिक्रमण करता हू - माया शल्य से, निदान शल्य से और मिथ्यादर्शन शल्य से । इस प्रकार प्रतिक्रमण करना ही व्रती का लक्षण है ।
गार्य नगारश्च ।
७, १६.
चरितधम्मे दुबिहे पश्नत्ते, तं जहा - आगारचरितधम्मे चेव, अणगारचरितम्मे चेव ।
स्थानांग स्थान २, उ० १. छाया- चारित्रधर्मः द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - आगार चारित्रधर्मश्चैवानागारचरित्रधर्मश्चैव ।
आगारधम्मं
भाषा टीका – चारित्र धर्म दो प्रकार का होता है- आगार चारित्रधर्म अथवा गृहस्थ धर्म और अनागार चारित्र धर्म अथवा मुनिधर्म ।
अणुव्रतोऽगारी ।
७, २०.
'अव्वयाई इत्यादि ।
पपातिक सूत्र श्रीवीर देशना.
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तत्वार्थ सूत्र जैनाऽऽगमसमन्वय :
छाया
आगरधर्मोऽणुव्रतादिः इत्यादि । भाषा टीका – अणुव्रत आदि का धारण करना आगार धर्म कहलाता 1
दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकप्रोषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणातिथिसंविभागव्रत -
१६६ ]
सम्पन्नश्च ।
७, २१.
श्रागरधम्मं दुवालसविहं माइक्खड़, तं जहा - पंच भरणुव्वयाइं तिरिण गुणवयाइं चत्तारि सिक्खावयाइं ।
तिरिण गुणव्वाई, तं जहा - अणत्थदंडवेरमणं दिसिव्वयं, उपभोगपरिभोगपरिमाणं । चत्तारि सिक्खावयाई तंजहा - सामाइयं देसावगासियं पोसहोववासे अतिहिसंविभागे ।
पपातिकम् श्रीवीरदेशना सूत्र ५७. छाया-- गारधर्मः द्वादशविधः आचक्षते, तद्यथा - पञ्चाणुत्रतानि त्रीणि गुणवतानि चत्वारि शिक्षाव्रतानि ।
श्रोणि गुणवतानि तद्यथा- श्रनर्थदंडवेरमणं, दिग्वतं, उपभोगपरिभोगपरिमाणं ।
चत्वारि शिक्षावतानि - तद्यथा - सामायिकं देशावकाशिकं, प्रोषधोपवासः, अतिथिसंविभागश्च ।
भाषा टीका – आगार धर्म बारह प्रकार का कहा जाता है - पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ।
तीन गुणव्रत यह हैं - अनर्थदंड त्याग, दिग्व्रत और उपभोग परिभोग परिमाण । चार शिक्षाव्रत यह हैं - सामायिक, देशावकाशिक, प्रोषधोपवास और अतिथि
संविभाग |
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सप्तमोऽध्यायः
[ १६७
मारणान्तिकी सल्लेखनां जोषिता।
७, २२. अपच्छिमा मारणंतिमा संलेहणा जूसणाराहणा ।
औपपा० सू० ५७. छाया- अपश्चिमा मारणांतिकी सल्लेखनां जूषणा आराधना । भाषा टीका- अन्तिम समय में मरते समय सल्लेखना को आराधना करे ।
शङ्काकांक्षाविचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दृष्टेरतिचाराः।।
७, २३. सम्मत्तस्स पंच अइयारा पेयाला जाणियव्वा, न समायरियव्वा, तं जहा-संका कंखा वितिगिच्छा, परपासंडपसंसा, परपासंडसंथवो।
उपासकदशांग, अध्याय १. छाया- सम्यक्त्वस्य पञ्चातिचाराः प्रधाना. ज्ञातव्याः । न समाचरितव्या,
तद्यथा-शङ्का, कांक्षा, विचिकित्सा, परपाखण्डप्रशंसा, परपा
खण्डसंस्तवः। . भाषा टीका- सम्यग्दर्शन के पांच प्रधान अतिचार होते हैं । उनको न करे। वह यह हैं-शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, दूसरे के पाखंडी प्रसंशा करना, पाखंडी का ससर्ग फरना।
व्रतशीलेषु पञ्च पञ्च यथाक्रमम् ।
भाषा टीका - इसी प्रकार पांच २ अतिचार पांच व्रतों, तीन गुणवतों और पारों शिक्षाप्रतों के क्रमशः हैं।
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तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वयः
बन्धबधच्छेदातिभारारोपणानपाननिरोधाः
७, २५. थूलस्स पाणाइवायवेरमणस्स समणेवासएणं पंच अइयारा पेयाला जाणियव्वा, न समायरियव्वा । तं जहा-वहबंधच्छविछेए भाभारे भत्तपाणवोच्छेए ।
उपा० अ० १. छाया- स्थूलस्य प्राणातिपातवेरमणस्य श्रमणोपासकेन पञ्चातिचाराः
प्रधानाः ज्ञातव्याः । न समाचरितव्या । तद्यथा-बधबन्धछविछेदः
प्रतिभारः भक्तपानव्यपछेदः। भाषा टीका- स्थूल हिंसा का त्याग करने वाले श्रावक का पांच प्रधान अतिचार आनने चाहिये । उनको कभी न करे । वह यह हैं-मारना, बांधना, शरीर छेदना, भस्यन्त बोझा लादना और अपने आधीन को अन्न पानी न देना।।
मिथ्योपदेशरहोभ्याख्यानकूटलेखक्रियान्यासापहारसाकारमंत्रभेदाः।
७, २६. थूलगमुसावायस्स पंच अइयारा जाणियव्वा । न समारियव्वा । तं जहा-सहसाभक्खाणे रहसाभक्खाणे, सदारमंतभेए मोसोबएसेए कूडलेहकरणे य ।
उपा० अ० १. छाया- स्थूलमृषावादस्य पञ्चातिचाराः ज्ञातव्याः, । न समाचरितव्याः।
तद्यथा-सहसाभ्याख्यानं, रहोभ्याख्यानं, स्वदारमंत्रभेदः मृषोपदेशः
कूटलेखकरणश्च । भाषा टीका- स्थूल झूठ के पांच अतिचार जानने चाहिये । उनको कभी न करे। वह यह हैं-बिना सोचे एक दम कह देना, गुप्त बात कह देना, अपनी स्त्री के गुप्त भेद को प्रगट करना, झूठ बोलने का उपदेश देना, झूठी दस्तावेज लिखना।
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सप्तमोऽध्यायः
[ १६९
स्तेनप्रयोगतदाहृतादानविरुद्धराज्यातिक्रमहीनाधिकमानोन्मानप्रतिरूपकव्यवहाराः।
७, २७. - थूलगअदिण्णादाणस्स पंचअइयारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा, तं जहा-तेनाहड़े, तकरप्पउगे, विरुद्धरजाइकम्मे, कुडतुल्लकूडमाणे, तप्पड़िरूवगववहारे । छाया- स्थूलादत्तादानस्य पञ्चातिचाराः ज्ञातव्याः, न समाचरितव्याः,
तद्यथा-स्तेनाहृतं, तस्करप्रयोगः, विरुद्धराज्यातिक्रमः, कूटतुला
कूटमानः, तत्पतिरूपकव्यवहारः ।। भाषा टीका - स्थूल चोरी के पांच अतिचार जानने चाहियें । उनको कभी न करे वह यह हैं-चोरी का माल लेना, चोरी को तरकीब बतलाना, राज्य विरुद्ध कार्य करना, देने तोलने के नाप बाट तराजू आदि का कम बड़ती रखना और असली माल में नकली माल अथवा कम मूल्य की वस्तु मिलाकर बेचना ।
परविवाहकरणेत्वरिकापरिगृहीतापरिगृहीतागमनाऽनङ्गक्रीडाकामतीव्राभिनिवेशाः ।
७, २८. सदारसंतोसिए पंच अइयारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा, तं जहा -इत्तरियपरिग्गहियागमणे अपरिग्गहियागमणे, अणगकीडा, परविवाहकरणे कामभोएसु तिव्वाभिलासो।
उपा० अध्याय १. छाया-- स्वदारसंतुष्टे पञ्चातिचाराः ज्ञातव्याः, न समाचरित० याः, तद्यथा
इत्वरपरिग्रहीतागमनं, अपरिग्रहीतागमनं, अनङ्गक्रीडा, परविवाहफरणं, कामभोगेषु तीव्राभिलाषः ।
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१७० ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
भाषा टीका - स्वदारसंतोष व्रत के भी पांच अतिचार जानने चाहिये । उनको कभी म करे । वह यह हैं
१. इत्वरिकापरिग्रहीतागमन-दूसरे की विवाह की हुई कुलटा स्त्री से गमन करना । अथवा छोटी अवस्था में विवाह की हुई किन्तु संभोग के योग्य अवस्था न होने पर भी अपनी स्त्री से विषय करना।
२. अपरिग्रहीतागमन-अविवाहिता कुमारी अथवा वेश्या आदि के साथ गमन करना अथवा किसी कन्या के साथ अपनी मंगनी होजाने पर उसके एकान्त में मिलने पर उसे अपने भावी स्त्री जानकर विवाह के पूर्व ही उससे भोग करना।
३. अनंग क्रीडा-काम के अंगों से भिन्न अंगों में क्रीड़ा करना ।
४. पर विवाह करण-कुमारी कन्या का विवाह पुण्य समझ कर या अन्य कारण से दूसरे का विवाह करना । अथवा दूसरे को मंगनी तुड़वा कर अपना विवाह करना। __५. काम भोग तीव्राभिलाषा–काम भोग सेवन की तीव्र अभिलाषा रखना ।
क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणातिक्रमाः।
७, २९. इच्छापरिमाणस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा । तं जहा-धणधन्नपमाणाइक्कमे खेतवत्युप्पमाणाइक्कमे हिरण्णसुवरणपरिमाणाइक्कमे दुपयचउप्पयपरिमाणाइक्कमे कुवियपमाणाइक्कमे।
उपासक० अध्याय १. छाया- इच्छापरिमाणस्य श्रमणोपासकेन पञ्चातिचाराः ज्ञातव्याः, न
समाचरितव्याः, तद्यथा-धनधान्यप्रमाणातिक्रमः, क्षेत्रवास्तुप्रमापतिक्रमः, हिरण्यसुवर्णपरिमाणातिक्रमः, द्विपदचतुष्पदपरिमाणातिक्रमः, कुप्यममाणातिक्रमः।
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सप्तमोऽध्याय:
[ १५१
भाषा टीका-इच्छा परिमाण व्रत के भी पांच अतिचार जानने चाहिये। उनको कभी न करे। वह यह हैं
१. धनधान्यप्रमाणातिक्रम-किये हुये धन और धान्य (अनाज) के परिमाण को उल्लंघन करना।
२. क्षेत्र वास्तु प्रमाणातिक्रम-किये हुए भूमि तथा गृह आदि के परिमाण का उल्लंघन करना।
३. हिरण्यसुवर्णपरिमाणातिक्रम- किये हुए चांदी सोने के परिमाण का उल्लंघन करना।
४. द्विपदचतुष्पदपरिमाणातिक्रम-किये हुए दासी दास पशु आदि के परिमाण का उल्लंघन करना।
५. कुष्यप्रमाणातिक्रम-किये हुए घर के उपकरणों के परिमाण का उल्लंघन करना ।
ऊर्ध्वाधस्तिर्यगव्यतिक्रमक्षेत्रवृद्धिस्मृत्यन्तराधानानि
दिसिव्वयस्स पंच अइयारा जाणियव्वा । न समायरियव्वा, तं जहा- उड्ढदिसिपरिमाणाइक्कमे, अहोदिसिपरिमाणाइक्कमे, तिरियदिसिपरिमाणाइक्कमे, खेत्तुवुढिस्स, सअंतरड्ढा ।
उपा० अध्या १ छाया- दिव्रतस्य पञ्चातिचाराः ज्ञातव्याः, न समाचरितव्याः, तद्यथा
ऊर्ध्वदिग्परिमाणातिक्रमः, अधोदिग्परिमाणातिक्रम, तिर्यग्दिगप्रमा.
णातिक्रमः, क्षेत्रवृद्धिः, स्मृत्यन्तराधानम् । भाषा टीका-दिग्नत के पांच अतिचार जानने चाहिये । उनको कभी न करे । वह यह हैं-ऊर्ध्व दिशा में जाने को किये हुए परिमाण का उल्लंघन करना, नीचे की दिशा में जाने के लिये किये हुए परिमाण का उल्लंघन करना, तिरछी दिशा में जाने के लिए किये हुए परिमाण का उल्लघंन करना, किये हुए क्षेत्र के परिमाण को बढ़ा लेना, किये हुये परिमाण को भूल जाना।
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तस्वार्थसूत्रजनाऽऽगमसमन्वय :
आनयनप्रेष्यप्रयोगशब्दरूपानुपातपुद्गलक्षेपाः ।
-- ५, ३१. देशावगासियस्स समणोवासएण पंच अइयारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा, तं जहा-आणवणपयोगे, पेसवणपओगे, सहाणुवाए, रूवाणुवाए, वहियापोग्गलपक्खवे ।।
उपा० अध्या०१ छाया- देशावकाशिकस्य श्रमणोपासकेन पश्चातिचाराः ज्ञातव्याः, न
समाचरितव्याः, तद्यथा-आनयनप्रयोगः प्रेष्यप्रयोगः, शब्दानुपातः,
रूपानुपातः, वहिपुद्गलप्रक्षेपः। भाषा टीका - श्रमणोपासक को देशावकाशिक के पांच अतिचार जानने चाहिये। किन्तु उन पर आचरण न करना चाहिये । वह यह हैं -
आनयन प्रयोग-सीमा के बाहर से किसी वस्तु को मंगवा लेना। प्रष्य प्रयोग- अपने न जाने के प्रदेश से बाहिर किसी वस्तु को भेजना।
शब्दानुपात-नियत देश से बाहिर न जाते हुए भी शब्द के द्वारा अपना काम निकाल लेना।
रूपानुपात-इसी प्रकार सीमा से बाहिर कोई संकेत आदि दिखाकर अपना काम निकाल लेना।
बहिपुद्गल प्रक्षेप-इसी प्रकार परिमाण से बाह्य देश में ढेला पाषाण भादि फेंक कर अपना काम चलाना।
कन्दर्पकौत्कुच्यमौखर्याऽसमीक्ष्याधिकरणोपभोगपरिभोगानर्थक्यानि।
७, ३२. अणट्ठादंडवेरमणस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा, तं जहा-कन्दप्पे कुक्कुइए
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सप्तमोऽध्यायः
[ ११
उपा० अध्या
मोहरिए संजुत्ताहिगरणे उपभोगपरिभोगाइरित्ते।। छाया- अनर्थदण्डवेरमणस्स श्रमणोपासकेन पश्चातिचाराः ज्ञातव्याः, न
समाचरितव्याः, तद्यथा-कन्दर्पः, कौत्कुच्यः मौखर्य, संयुक्ताधि
करणम् उपभोगपरिभोगातिरिक्तः । भाषा टीका- अनर्थदण्ड विरति व्रत के श्रमणोपासक को पांच अतिचार जानने चाहियें । किन्तु उन पर आचरण नहीं करना चाहिये । वह यह हैं__ कन्दर्प-स्वभाव की उत्कटता से हास्य मिश्रित भण्ड वचन बोलना।
कौत्कुच्य-हास्य मिश्रित भएड वचन बोलना तथा शरीर से भी निन्दनीय क्रिया करना।
मौखर्य - बहुत निरर्थक प्रलाप करना ।
संयुक्ताधिकरण -बिना विचारे आवश्यकता से अधिक हिंस्र सामग्री एकत्रित करना।
उपभोग परिभागोतिरिक्त-भोग उपभोग के जिन पदार्थों से अपना काम चल जाता है उनसे अधिक संग्रह करना । योगदुष्प्रणिधानानादरस्मृत्यनुपस्थानानि ।
७, ३३. सामाइयस्स पंच अइयारा समणोवासएणं जाणियव्वा । न समारियव्वा, तं जहा-मणदुप्पणिहाणे, वएदुप्पणिहाणे, कायदुप्पणिहाणे, सामाइयस्स सति अकरणयाए, सामाइयस्स अणबढियस्स करणया।
उपा० अभ्या३
छाया- सामायिकस्य पश्चातिचाराः श्रमणोपासकेन बातव्याः, न समा
चरितव्याः, तद्यथा - मन दुष्पणिधानं, वचःदुष्पणिधानं, कायदुष्पणिधानं, सामायिकस्य स्मृत्यकरणता, सामायिकस्यानवस्थितस्य करणवा ।
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________________
१७४ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
७, ३४.
भाषा टीका-श्रमणोपासक को समायिक व्रत के पांच अतिचार जानने चाहिये, किन्तु उनपर आचरण न करना चाहिये । वह यह हैं
१. मनो दुष्प्रणिधान - सामायिक के समय मनको अन्यथा चलायमान करना । २. धाग्दुष्प्रणिधान - सामायिक के समय वचन को चलायमान करना । ३. कायदुष्प्रणिधान - सामायिक के समय काय को चलायमान करना । ४. स्मृति अकरण - सामायिक के समय आदि को भूल जाना।
५. अनवस्थितकरण- समायिक के काल और उसकी क्रिया का निश्चित रूप से पालन न करना।
अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानादरस्मृत्यनुपस्थानानि।।
पोसहोववासस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियव्वा न समारियव्वा, तं जहा-अप्पडिलेहिय दुप्पडिलेहिय सिजाखंथारे, अप्पमजियदुप्पमजियसिज्जासंथारे, अप्पडिलेहियदुप्पडिलेहिय उच्चार पासवणभूमी, अप्पमज्जियदुप्पमज्जिय उच्चारपासवणभूमी, पोसहोववासस्स सम्म अणणुपालणया । छाया- प्रोषधोपवासस्य श्रमणोपासकेन पश्चातिचारा ज्ञातव्या, न समा
चरितव्याः, तद्यथा - अप्रत्युपेक्षितदुष्प्रत्युपेक्षितशय्यासंस्तारः, अप्रमार्जितदुष्पमार्जितशय्यासंस्तारकः अप्रत्युपेक्षितदुष्प्रत्युपेक्षितोचारप्रस्रवणभूमिः, अप्रमार्जितदुधमार्जितोचारप्रस्रवणभूमिः, पोष
धापवासस्य सम्यक अननुपालनता । भाषा टीका -प्राषधापवास के पांच अतिचार श्रमणोपासक को जानने चाहिये, किन्तु उनका आचरण नहीं करना चाहिये । वह यह हैं
१. अप्रत्युपेक्षित दुष्प्रत्युपेक्षित शय्यासंस्तारक - प्रोषधोपवास किए हुये स्थान
उपा० अध्या.
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सप्तमोऽध्यायः
[ १७५
पर शय्या और संस्तारक को भली प्रकार विशेष रूप से निरीक्षण न करना । यदि करना तो अस्थिर चित्त से ।
२. अप्रमार्जित दुष्प्रमार्जित शय्यासंस्थारक - शय्या और संस्तारक को भली प्रकार विशेष रूप से रजोहरणादि द्वारा प्रमार्जित न करना । यदि करना तो अस्थिर चित्त से ।
३. अप्रत्युपेक्षित दुष्प्रत्युपेक्षित उच्चारप्रस्रवण भूमि – भलीप्रकार विशेष रूप से उच्चार (मल) प्रस्रवण (मूत्र) के त्यागने की भूमि को निरीक्षण न करना । यदि करना तो स्थिर चित्त से |
४. अप्रमार्जित दुष्प्रमार्जित प्रस्रवण भूमि - भलीप्रकार विशेष रूप से मल मूत्र के त्यागने की भूमि को प्रमार्जित (शुद्ध) नहीं करना । यदि करना तो अस्थिर चित्त से ।
५. प्रोषधोपवासस्य सम्यगननुपालनता प्रोषधोपवास का भली प्रकार पालन न करना । उसमें चित्त को अस्थिर रखना ।
-
सचित्तसम्बन्धसम्मिश्राभिषवदुः पक्काहाराः ।
७, ३५.
भोयणतो समणोवासणं पञ्च अइयारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा, तं जहा - सचित्ताहारे सचित्तपडिबद्धाहारे उप्पउलियोसहिभक्खण्या, दुप्पोलितोस हिभक्खणया, तुच्छो
सहिभक्खया ।
उपा० अध्या० १
छाया - भोजनतः श्रमणोपासकेन पञ्चातिचाराः ज्ञातव्याः, न समाचरितव्याः, तद्यथा - सचित्ताहारः, सचित्तप्रतिबद्धाहारः, अपकौषधिभक्षणता, दुःपौषधिभक्षणता, तुच्छौषधिभक्षणता ।
भाषा टीका - श्रमणोपासक को भोजन ( उपभोगपरिभोगपरिमाण) के पांच व्यतिचार जानने चाहियें | किन्तु उनका आचरण नहीं करना चाहिये । वह यह हैं१. सचिताहार —— त्यागहोने पर जीव सहित पुष्प फल आदि का आहार करना ।
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१७६ ]
तत्वार्थसूत्र जैनाऽऽगमसमन्वय :
२.
-
सचित्तप्रबद्धाहार – सचित्त वस्तु से स्पर्श हुए पदार्थों का आहार करना । ३. अपक्वाहार - अग्नि से न पकाये हुये तथा औषधि आदि मिश्र पदार्थों का
खाना ।
४. दुपक्वाहार - भलोप्रकार न पके अथवा देर से परिपक्व होने वाले पदार्थों का भोजन करना ।
५. तुच्छौषधिभक्षणता - ऐसे पदार्थ को खाना जिसके खाने से हिंसा विशेष होती हो किन्तु उदर पूर्ति न हो सके ।
सचितनिक्षेपापिधानपरव्यपदेशमात्सर्यका
लातिक्रमाः ।
७, ३६.
महासंविभागस्स पंच अइयारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा तं जहा - सचित्तनिक्खेवण या सचित्तपेहरा. या कालाइकमदाणे परोव एसे मच्छरया ।
उपा० अध्या० १
अतिथिसंविभागस्य पञ्चातिचाराः ज्ञातव्याः, न समाचरितव्याः, तद्यथा - सचित्त निक्षेपणता, सचित्तपिधानता, कालातिक्रमदानं, परव्यपदेशः, मत्सरता ।
भाषा टीका - अतिथि संविभाग व्रत के पांच अतिचार जानने चाहियें। किन्तु उन पर ध्याचरण नहीं करना चाहिये । वह यह हैं
१. सचित्त निक्षेपणता – न देने की बुद्धि से जल अन्न अथवा वनस्पति यदि में वित्त आहार रखना ।
२. सचित्तपिधानता
छाया
सचित्र कमलपत्र आदि से ढक कर आहार को रखना । ३. कालातिक्रमदान - दान देने के काल को उल्लघन करके अकाल में विनती करना । अथवा बीते हुए समय वाली वस्तु का दान करना ।
४. परव्यपदेश - न देने को बुद्धि से साधु को अन्य की वस्तु बतला देनी अथवा अन्य की वस्तु का उसकी बिना आज्ञा दान करना ।
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सामोऽध्यायः
[ १७७
५. मत्सरता - अमुक ग्रहस्थ ने इस प्रकार का दान दिया है तो क्या मैं उससे किसी प्रकार न्यूनता रखता हूँ ? नहीं, अतः मैं भी दान दूंगा। इस प्रकार असूया वा अहंकार पूर्वक दान करना। जीवितमरणाशंसामित्रानुरागसुखानुबन्धनिदानानि। ___ अपच्छिममारणंतियसंलेहणा झूसणाराहणाए पंच भइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा तं जहा-इहलोगासंसप्पनोगे, परलोगासंसप्पओगे, जीवियासंसप्पओगे, मरणासंसप्पओगे, कामभोगासंसप्पओगे।
उपा० अभ्याय १ छाया- अपश्चिममारणान्तिकसल्लेखनाजषणाऽऽराधनायाः, पञ्चातिचाराः
ज्ञातव्याः, न समाचरितव्याः, तद्यथा-इहलोकाशंसाप्रयोगः, परलोकाशंसाप्रयोगः, जोविताशंसाप्रयोगः, मरणाशंसाप्रयोगः काम
भोगाशंसाप्रयोगः । भाषा टीका - आयु के अन्तिम भाग मरण समय में होने वाली सल्लेखना के पांच अतिचार जानने चाहियें। उन पर आचरण न करना चाहिये । वह यह हैं
१. इहलोकाशंसाप्रयोग-मरने के पश्चात् इहलोक के सुखों की इच्छा करना।
२. परलोकाशंसाप्रयोग-मरने के पश्चात् उत्तम देवलोक आदि के सुखों की इच्छा करना।
३. जीविताशंसाप्रयोग-जीवित ही रहने की इच्छा करना। ४. मरणाशंसाप्रयोग-दुख आदि से छूटने के लिये शीघ्र मरने की इच्छा .. कामभोगाशंसाप्रयोग-विशेष काम भोग की इच्छा करना।
अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम् । समणोवासए णं तहारूवं समणं वा जाव पडिलाभेमाणे
करना।
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तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा समाहिं उप्पाएति, समाहिकारएणं तमेव समाहि पडिलभइ। .
___व्याख्या० शत०७, उ० १, सू० २६३. छाया- श्रमणोपासकः तथारूपं श्रमणं वा यावत् प्रतिलाभ्यन् तथा
रूपस्य श्रमणस्य वा माइनस्य वा समाधि उत्पादयति, समाधिका
रकेण तमेव समाधि प्रतिलभते । भाषा टीका-श्रमणोपासक तथारूप श्रमण अथवा माहन (श्रावक) को यावत् माहार आदि देता हुआ तथा रूप श्रमण अथवा माहन को समाधि उत्पन्न करता है। समाधि ही के कारण से उसको भी समाधि की प्राप्ति होती है।
संगति-उपरोक्त पागम वाक्य में दान का लक्षण करते हुए उसका महत्व भी बतलाया है। जो कि सूत्र के " अनुग्रहार्थ' ' पद से स्पष्ट है। विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात्तद्विशेषः ।
७, ३६. दव्वसुद्धणं दायगसुद्धणं तवस्सिविसुद्धणं तिकरणसुद्धणं पडिगाहसुद्रेणं तिविहेणं तिकरणसुद्धेणं दाणेणं ।
व्याख्या प्र० श० १५, सू० ५४१. छापा- द्रव्यशुद्धेन दायकशुद्धन तपस्विशुद्धेन त्रिकरणशुद्धेन प्रतिगाह
शुद्ध न त्रिविधेन त्रिकरणशुद्धन दानेन । भाषा टीका-द्रव्य शुध्द से, दातृ शुध्द से, तपस्वि शुध्द से, त्रिकरण (मन वचन काय) शुध्द से, पात्र शुध्द से दान की विशेषता होती है।
संगति-इन सभी सूत्र और पागम वाक्यों के अक्षर प्राय : मिलते हैं। जहां कहीं भेद है तो वह शाब्दिक हो है। तात्विक बिल्कुल नहीं है। इति श्री-जैनमुनि-उपाध्याय-श्रीमदात्माराम महाराज-संगृहीते
सत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वये * सप्तमोऽध्यायः समाप्तः ॥७॥ *
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अष्टमोऽध्यायः
मिथ्यादर्शनाऽविरतिप्रमाद कषाययोगा बन्धहेतवः ।
६, १.
पंच आसवदारा पण्णत्ता, तं जहा -मिच्छत्तं अविरई पमाया कसाया जोगा ।
समवायांग, समय ५. छाया- पञ्च स्रवद्वाराणि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - मिध्यात्वमविरतिः प्रमादाः कषायाः योगाः ।
भाषा टीका - आस्रव के द्वार पांच बतलाये गये हैं- मिध्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ।
सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्ग
लानादत्ते स बन्धः । जोगबंधे कसायबंधे ।
समवायांग समवाय ५.
दोहिं ठाणेहिं पापकम्मा बंधंति, तं जहा - रागेण य दोसे य लोभे य । दोसे दुविहे
य। रागे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - माया पण, तं जहा- कोहे य माणे य ।
',
८, २.
छाया
स्थानांग स्थान २, उ०२. प्रज्ञापना पद २३, सू० ५.
योगबन्धः कषायबन्धः ।
द्वाभ्यां स्थानाभ्यां पापकर्माणि बध्नन्ति, तद्यथा - रागेण च द्वेषेण च । रागः द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - माया च लोभश्च । द्वेषः द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- क्रोधश्च मानश्च
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१८० ]
तत्वार्थ सूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
भाषा टीका-बन्ध योग से होता है और कषाय से होता है ।
दो स्थानों से पाप कर्म बंधते हैं- राग से और द्वेष से । राग दो प्रकार का कहा गया है - माया और लोभ । द्वेष दो प्रकार का कहा गया है— क्रोध और मान ।
संगति - उपरोक्त आगम वाक्य में स्पष्ट है कि बंध जीव के कषाय युक्त होने पर ही होता है। कर्म के योग्य पुद्गलों का ग्रहण करना स्पष्ट ही है।
प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशास्तद्विधयः ।
८, ३.
चव्वि बन्धे पणत्ते, तं जहा - पगइबंधे ठिइबन्धे अणु
भावबन्धे परसबन्धे |
छाया-
समवायांग समवाय ४.
चतुर्विधः बन्धः प्रज्ञप्तस्तद्यथा - प्रकृतिबन्धः, स्थितिबन्धः, अनुभागबन्धः, प्रदेशबन्धः ।
भाषा टीका-बन्ध चार प्रकार का बतलाया गया है - प्रकृतिबंध, स्थिति बंध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबंध ।
ज्ञानदर्शनावरणवेदनीय मोहनीयायु
र्नामगोत्रान्तरायाः ।
८, ४.
कम्मपगडीओ पणत्ताओ, तं जहा-गाणावर णिज्जं,
दंसणावर णिज्जं वेदणिजं, मोहणिजं, आउयं, नामं, गोयं, अंतर इयं ।
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प्रज्ञापना पद २१, उ०१, सु०२८८.
छाया- अष्टौ कर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - ज्ञानावरणीयं, दर्शनावरणीयं, वेदनीयं मोहनीयं आयुः, नाम, गोत्रं, अन्तरायः ।
भाषा टीका - कर्मप्रकृतियां आठ प्रकार की बतलाई गई हैं । वह यह हैंज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय ।
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अष्टमोऽभ्याय :
पांच होते हैं।
पंचनवद्वयष्टाविंशतिचतुर्द्विचत्वारिंशद्विपंचभेदा यथाक्रमम् ।
८, ५.
भाषा टीका- उनके भेद क्रम से पांच, नव, दो, अट्ठाईस, चार, बयालीस, दो और
[ १८१
मतिश्रुतावधिमनः पर्ययकेवलानाम् ।
८, ६.
पंचविहे गाणावरणिजे कम्मे पण्णत्ते, तं जहा - आभिणिबोहियणाणावरणिजे सुयणाणावर णिज्जे, ओहिणाणावर गिजे मणपज्जवणाणावरणिजे केवलणाणावरणिजे |
स्थानांग स्थान ५, उ०३, सू० ४६४. छाया - पञ्चविधं ज्ञानावरणीयं कर्म प्रज्ञप्तं, तद्यथा - आभिनिबोधिकज्ञानावरणीयं श्रुतज्ञानावरणीयं, अवधिज्ञानावरणीयं, मन:पर्ययज्ञानावरणीयं, केवलज्ञानावरणीयं ।
भाषा टीका -- ज्ञानावरणीय कर्म पांच प्रकार का होता है - आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय ( मतिज्ञानावरणीय), श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय. मन:पर्यय ज्ञानावरणीय और केवल ज्ञानावरणीय ।
चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां निद्रानिद्रानिद्रा
प्रचलाप्रचलाप्रचलास्त्यानगृद्धयश्च ।
८, ७.
वविधे दरिसणावरणिजे कम्मे पण्णत्ते, तं जहा - निदा निदानिदा पयला पयलापयला थी गिद्धी चक्खुदंसणावरणे अचक्खुदंसणावरणे, अवधिदंसणावरणे केवलदंसणावरणे ।
स्थानांग स्थान है, सू० ६६८.
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१२ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
छाया- नवविधं दर्शनावरणीयं कर्म प्रज्ञप्तं, तद्यथा-निद्रा निद्रानिद्रा प्रचला
प्रचलापचला स्त्यानगृद्धिः चक्षुदर्शनावरणोऽचक्षुदर्शनावरणो
ऽवधिदर्शनावरणः केवलदर्शनावरणः। भाषा टीका-दर्शनावरणीय कर्म नौ प्रकार का होता है-निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचला प्रचला, स्त्यानगृध्दि, चक्षु दर्शनावरण, अचक्षु दर्शनावरण, अवधिदर्शनाबरण और केवलदर्शनावरण।
सदसहृद्ये। सातावेदणिज्जे य असायावेदणिज्जे य ।
प्रज्ञापना पद २३, उ० २, सू० २६३. छाया- सातावेदनीयश्चासातावेदनीयश्च ।। भाषा टीका-वेदनीय कर्म दो प्रकार का होता है-साता वेदनीय और असाता
दर्शनचारित्रमोहनीयाकषायकषायवेदनीयाख्यास्त्रिद्विनवषोडशभेदाः सम्यक्त्वमिथ्यात्वतदुभयान्यकषायकषायौ हास्यरत्यरतिशोकमयजुगुप्सास्त्रीपुंन्नपुंसकवेदा अनंतानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनविकल्पाश्चैकशः क्रोधमानमायालोभाः।
मोहणिजे णं भंते! कम्मे कतिविधे पण्णते? गोयमा दुविहे पण्णत्ते; तं जहा-दसणमोहणिजे य चरित्तमोहणिज्जे य। दसणमोहणिज्जे णं भंते! कम्मे कतिविधे पण्णत्ते? गोयमा!
वेदनीय।
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मष्टमोऽध्यायः
[ १३
तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-सम्मत्तवेदणिज्जे, मिच्छत्तवेदणिज्जे, सम्मामिच्छत्तवेयणिज्जे।
चरित्तमोहणिजे णं भंते! कम्मे कतिविधे पण्णत्ते ?
गोयमा! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-कसायवेदणिजे नोकसायवेदणिज्जे ।
कसायवेदणिज्जे णं भंते ! कतिविधे पण्णते?
गोयमा! सोलसविधे पण्णते, तं जहा-अणंताणुबंधीकोहे अणंताणुबंधी माणे अ० माया अ० लोभे, अपचक्खाणे कोहे एवं माणे माया लोभे, पञ्चक्खणावरणे कोहे एवं माणे माया लोभे संजलणकोहे एवं माणे माया लोभे ।
नोकसायवेयणिज्जे णं भंते! कम्मे कतिविधे पण्णत्ते ?
गोयमा! णवविधे पएणते, तं जहा-इत्थीवेयवेयणिज्जे, पुरिसवे० नपुंसगवे. हासे रती अरती भए सोगे दुगुंछा ।
___ प्रज्ञापना कर्मबन्ध पद २३, उ० २. छाया- मोहनीयं भगवन् ! कर्म कतिविधं प्रज्ञप्तं ?
गौतम! द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-दर्शनमोहनीयश्च, चारित्रमोहनीयश्च । दर्शनमोहनीयं भगवन् ! कर्म कतिविधं प्राप्तं ? गौतम ! त्रिविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-सम्यक्त्ववेदनीयः, मिथ्यात्ववेदनीयः, सम्यमिथ्यात्ववेदनीयः । चारित्रमोहनीयं भगवन् ! कर्म कतिविधं प्राप्तं ?
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१८४ ]
तस्वार्थ सूत्र जैनाऽऽगमसमन्वय :
गौतम ! द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - कषायवेदनीयः नोकषायवेदनीयः । कषायवेदनीयः भगवन्! कतिविधः प्रज्ञप्तः १
"
गौतम ! षोडशविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - अनन्तानुबन्धीक्रोधः, अनन्तानुबन्धीमानः, अ० माया, घ० लोभः; श्रमत्याख्यानक्रोधः, एवं मानः, माया, लोभः; प्रत्याख्यानावरणक्रोधः, एवं मानः, माया, लोभः संज्वलनक्रोधः, एवं मानः, माया, लोभः 1 नोकषायवेदनीयं भगवन! कर्म कतिविधं प्रज्ञप्तं १ गौतम ! नवविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा - स्त्रीवेदवेदनीयः, पुरुषवेदवेदनीयः, नपुंसकवेदवेदनीयः, हास्यः, रतिः, अरतिः, भयः, शोकः, जुगुप्सा ।
प्रश्न- भगवन्! मोहनीय कर्म कितने प्रकार का कहा गया है ?
उत्तर - गौतम ! वह दो प्रकार का कहा गया है--दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय |
प्रश्न- भगवम्! दर्शन मोहनीय कर्म कितने प्रकार का कहा गया है ?
उत्तर - गौतम ! तीन प्रकार का कहा गया है -- सम्यक्त्व वेदनीय, मिध्यात्व वेदनीय, सम्यङ् मिध्यात्ववेदनीय ।
प्रश्न- भगवन् ! चारित्र मोहनीय कर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? उत्तर- गौतम दो प्रकार का कहा गया है--कषाय वेदनीय और नो कषायवेदनीय । प्रश्न- भगवन्! कषायवेदनीय कर्म कितने प्रकार का कहा गया है ?
उत्तर---
:- गौतम ! वह सोलह प्रकार का कहा गया है : -- अनन्तानुबन्धी क्रोध, अनन्तानुबन्धीमान, अ० माया, अ० लोभ; अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ; प्रत्याख्यान क्रोध मान माया लोभ और संज्वलन क्रोध मान माया लोभ ।
प्रश्न---भगवन् ! नो कषाय वेदनीय कर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? र-गौतम ! वह नौ प्रकार का कहा गया है : स्त्रीवेदनय, पुरुषवेदनय, नपुंसक वेदनय, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, और जुगुप्सा ।
उत्तर-
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अष्टमोऽध्यायः
[ १८५
८,१०.
नारकतैर्यग्योनमानुषदैवानि । आउएणं भंते! कम्मे कइविहे पण्णते? गोयमा! चउविहे पण्णत्ते, तं जहा - णेरइयाउए, तिरियाउए, मनुस्साउए, देवाउए।
प्रनापना पद २३, उ० २. छाया- आयुः भगवन् ! कर्म कतिविधं प्रज्ञप्तं ? गौतम! चतुर्विधं प्रज्ञप्तं,
___तद्यथा-नैरयिकायुः, तिर्यगायुः, मनुष्यायुः, देवायुः। प्रश्न--भगवन् ! आयु कर्म कितने प्रकार का कहा गया है ?
उत्तर-गौतम ! वह चार प्रकार का कहा गया है :--नरक आयु, तिर्यश्च आयु, मनुष्य आयु और देव आयु !
गतिजातिशरीराङ्गोपाङ्गनिर्माणबन्धनसंघातसंस्थानसंहननस्पर्शरसगंधवर्णानुपूर्व्यागुरुलधूपघातपरघातातपोद्योतोच्छवासविहायोगतयः प्रत्येकशरीरत्रससुभगसुस्वरशुभसूक्ष्मपर्याप्तिस्थिरादेययश कीर्तिसेतराणि तीर्थकरत्वं च ।।
८. ११. पामेणं भंते! कम्मे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा! वायालीसतिविहे पण्णत्ते, तं जहा-गतिनामे १, जातिनामे २, सरीरणामे ३, सरीरोवंगणामे ४, सरीरबंधणणामे ५, सरीरसंघयणनामे ६, संघायणणामे ७, संठाणणामे ८. वएणणामे , गंधणामे १०, रसणामे ११, फासणामे १२, अगुरुलघुणामे १३, उपघायणामे १४, पराघायणामे १५, आणूपुवीणामे १६, उस्सासणामे १७, आय
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१८६ ]
तत्त्वार्थ सूत्र जैनाऽऽगमसमन्वय :
वणामे १८, उज्जोयणामे १६, विहायगतिणामे २०, तामे २१, थावरणामे २२, सुहुमनामे २३, बादरणामे २४ पजत्तणामे २५, अपजत्तणामे २६. साहारण सरीरणामे २७, पत्तेयसरीरणामे २८, रिणामे २६, अरिणामे ३०, सुभणामे ३१, अभणामे ३२, सुभगणामे ३३, दुभगणामे ३४, सूसरनामे ३५, दूसरनामे ३६, आजनामे ३७ अणादेजनामे ३८ जसोकित्तिणामे ३६, असोकित्तिणामे ४०, णिम्माणामे ४१, तित्थगरणामे ४२ ।
प्रज्ञापना, उ०२, पद २३, सू० २३३. समवायांग० स्थान ४२.
छाया -
नाम भगवन ! कर्म कतिविधं प्रज्ञप्तं ? गौतम ! द्विचत्वारिंशद्विधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा १ गतिनाम, २ जातिनाम, ३ शरीरनाम, ४ शरीराङ्गोपांगनाम, ५ शरीरबन्धननाम, ६ शरीर संघातनाम, ७ संहनननाम, ८ संस्थाननाम, ९ वर्णनाम, १० गन्धनाम, ११ रसनाम, १२ स्पर्शनाम, १३ अगुरुलघुनाम, १४ उपघात - नाम, १५ परघातनाम, १६ आनुपूर्वीनाम, १७ उच्छ्वासनाम, १८ तपनाम, १९ उद्योतनाम, २० विहायोगतिनाम, २१ त्रस - नाम, २२ स्थावरनाम, २३ सूक्ष्मनाम, २४ बादग्नाम, २५ पर्याप्तनाम, २६ अपर्याप्तनाम, २७ साधारणशरीरनाम, २८ प्रत्येकशरोरनाम, २९ स्थिरनाम, ३० अस्थिरनाम, ३१ शुभनाम ३२ अशुभनाम, ३३ सुभगनाम, ३४ दुर्भगनाम, ३५ सुस्वरनाम, ३६ दुःस्वरनाम, ३७ आदेयनाम, ३८ अनादेयनाम, ३९ यश:कीर्तिनाम, ४० यश कीर्तिनाम, ४१ निर्माणनाम, ४२ तीर्थ -
करनाम ।
—
प्रश्न - भगवन् ! नामकर्म कितने प्रकार का कहा जाता है ? - गौतम ! वह बयालीस प्रकार का कहा गया है :
उत्तर
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[ १८७
१. गतिनाम, २. जातिनाम, ३. शरीरनाम, ४. शरीराङ्गोपाङ्गनाम, ५. शरीरबन्धननाम, ६ शरीरसंघात नाम, ७ संहनन नाम, ८ संस्थान नाम, वर्णनाम, १० गन्ध नाम, ११ रसनाम, १२ स्पर्शनाम, १३ अगुरुलघुनाम, १४ उपघातनाम, १५ परघातनाम, १६ श्रनुपूर्वीनाम, १७ उछवासनाम, १८ श्रातपनाम, ११ उद्योतनाम, २० विहायोगतिनाम, २१ त्रसनाम, २२ स्थावरनाम, २३ सूक्ष्मनाम, २४ बादरनाम, २५ पर्याप्तनाम, २६ अपर्याप्तनाम, २७ साधारणशरीर नाम, २८ प्रत्येकशरीरनाम, २३ स्थिरनाम, ३० अस्थिरनाम, ३१ शुभनाम, ३२ अशुभनाम, ३३ सुभगनाम, ३४ दुर्भगनाम, ३५ सुस्वरनाम, ३६ दुःस्वरनाम, ३७ श्रदेयनाम, ३८ अनादेयनाम, ३३ यशः कीर्तिनाम, ४० अयशः कीर्तिनाम, ४१ निर्माणनाम, ४२ तीर्थ करनाम ।
अष्टमोऽयायः
-
संगति १. जिसके उदय से आत्मा भवान्तर के प्रति सम्मुख होकर गमन को प्राप्त होता है सो गतिनाम कर्म है। यह चार प्रकार का होता है - १ नरकगति, २ तिर्यचगति ३ देवगति और ४ मनुष्य गति ।
२. उक्त गतियों में जो अविरोधी समान धर्मों से आत्मा को एक रूप करता है सो जातिनाम कर्म है। उसके पांच भेद हैं- एकेन्द्रियजातिनामकर्म, द्वीन्द्रियजातिनाम कर्म, श्रींद्रियजातिनामकर्म, चतुरिन्द्रियजातिनामकर्म, और पंचेंद्रियजातिनाम कर्म ।
३. जिसके उदय से शरीर की रचना होती है उसे शरीर नामकर्म कहते हैं । यह भी पांच प्रकार का है – औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, आहारकशरीर, तैजसशरीर और कार्मणशरीर ।
४. जिसके उदय से शरीर के अंग उपांगों का भेद प्रगट हो उसको शरीराङ्गोपाङ्गनामकर्म कहते हैं । मस्तक, पीठ, हृदय, बाहु, उदर, जांघ, हाथ, और पांव इनको तो अंग कहते हैं और इनके ललाट नासिका अदि भागों को उपांग कहते हैं। अंगोपांग नाम कर्म तीन प्रकार का है -
१ औदारिकशरीरांगोपांग, २ वैक्रियिक शरीरांगोपांग और ३ आहारकशरी रांगोपांग ।
५. जिसके उदय से शरीर नाम कर्म के वश से ग्रहण किये हुए आहारवर्गणा के पुद्गलस्कन्धों के प्रदेशों का मिलना हो, वह शरीरबन्धन नाम कर्म है। यह पांच प्रकार का होता है – औदारिक बन्धन नाम कर्म, वैक्रियिक बन्धन नाम कर्म, आहारक बन्धन
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१८ ]
तत्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्धयः
नाम कर्म, तैजसबन्धन नाम कर्म, और कार्मणबन्धन नाम कर्म । जिसके उदय से चौदारिक पन्ध हो सो औदारिक बन्धन नाम कर्म है। इसी प्रकार शेष बन्धनों का लक्षण भी लगा लेना चाहिये।
६. जिसके उदय से औदारिक आदि शरीरों का छिद्र रहित अन्योन्यप्रदेशानुप्रवेशरूप संगठन ( एकता ) हो उसे शरीरसंघातनाम कर्म कहते हैं। यह भी पांचो शरीरों की अपेक्षा से औदारिकशरीरसंघात नाम कर्म आदि पांच प्रकार का है।
७. जिसके उदय से शरीर के अस्थिपंजर (हाड़ ) आदि के बन्धनों में विशेषता हो उसे संहनन नाम कर्म कहते हैं । वह छह प्रकार का है - १ बजवृषभनाराचसंहनन, २ पवनाराचसंहनन, ३ नाराचसंहनन, ४ अर्द्धनाराचसंहनन, ५ कोलकसंहनन, और ६ असंप्राप्तामृपाटिका संहनन । नसों में हाड़ों के बन्धने का नाम ऋषभ या वृषभ है, नाराच नाम कीलने का है और संहनन नाम हाड़ों के समूह का है । सो जिस कर्म के उदय से वृषभ ( वेष्टन ), नाराच ( कील) और संहनन (अस्थिपंजर ) ये तीनों ही वन के समान अभेद्य हों, उसे वनवृषभनाराच संहनन कहते हैं।
जिसके उदय से नाराच और संहनन तो वञमय हों और वृषभ सामान्य हो, वह बजनाराच संहनन नाम कर्म है।
जिसके उदय से हाड़ तथा सन्धियों के कीले तो हों, परन्तु वे वनमय न हों और वनमय वेष्टन भी न हो, सो नाराच संहनन नाम कर्म है।
जिसके उदय से हाड़ों की संधियां श्रद्ध कीलित हों, अर्थात कोले एक तरफ तो हों दूसरी तरफ न हों, वह अर्द्धनाराच संहनन नाम कर्म है।
जिसके उदय से हाड़ परस्पर कौलित हों, सो कीलक संहनन नाम कर्म है।
जिसके उदय से हाड़ों की संधियां कोलित तो न हों, किन्तु नसों, स्नायुओ और मांस से बन्धी हों वह असंप्राप्तामृपाटिका संहनन नाम कर्म है। ____. जिसके उदय से शरीर की आकृति (आकार ) उत्पन्न हो, उसे संस्थान नाम कर्म कहते हैं। यह छह प्रकार का है - १ समचतुरस्रसंस्थान, २ न्यग्रोधपरिमंडल संस्थान, ३ सादिसंस्थान, ४ कुब्ज संस्थान, ५ वामनसंस्थान, और ६ हुडक संस्थान ।
जिसके उदय से ऊपर, नीचे और मध्य में समान विभाग से शरीर की आकृति
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अष्टमोऽध्यायः
[ १४
उत्पन्न हो उसे समचतुरस्र संस्थान नाम कर्म कहते हैं। जिसके उदय से शरीर का नाभि के नीचे का भाग वटवृक्ष के समान पतला हो और ऊपर का स्थूल व मोटा हो, वह न्यग्रोध परिमंडल संस्थान नाम कर्म है। जिसके उदय से शरीर के नीचे का भागस्थूल या मोटा हो
और ऊपर का पतला हो, उसे स्वातिसंस्थान नाम कर्म कहते हैं। जिसके उदय से पीठ के भाग में बहुत से पुद्गलों का समूह हो अर्थात् कुबड़ा शरीर हो, उसे कुजक संस्थान नामकर्म कहते हैं । जिसके उदय से शरीर बहुत छोटा हो वह वामन संस्थान नामकर्म है। और जिसके उदय से शरीर के अंग उपांग कहीं के कहीं, छोटे, बड़े वा संख्या में न्यूनाधिक हों-इस तरह विषम बेडौल आकार का शरीर हो, उसे हु डक संस्थान नामकर्म कहते हैं।
१. जिसके उदय से शरीर में वर्ण (रंग ) उत्पन्न हो, उसे वर्णनामकर्म कहते हैं। यह पांच प्रकार का है :-१. शुक्लवर्ण नामकर्म, २. कृष्णवर्ण नामकर्म, ३ नीलवर्ण नाम कर्म, ४. रक्तवर्ण नामकर्म, और ५. पीतवर्ण नामकर्म ।।
१०. जिसके उदय से शरीर में गंध प्रगट हो, सो गन्धनामकर्म है। यह दो प्रकार का है। एक सुगन्ध नामकर्म, दूसरा दुर्गन्ध नामकर्म ।।
११. जिसके उदय से देह में रस ( स्वाद ) उत्पन्न हो उसे रसनाम कर्म कहते हैं । यह पांच प्रकार का है :- १. तिक्तरस, २. कटुरस, ३. कषायरस, ४. अम्लरस और ५. मधुर रसनामकर्म ।
१२. जिसके उदय से शरीर में स्पर्शगुण प्रगट होता है उसे स्पर्शनामकर्म कहते हैं। यह आठ प्रकार का है :- १. कर्कशस्पर्श, २. मृदुस्पर्श, ३. गुरुस्पर्श, ४. लघुस्पर्श, . स्निग्ध स्पर्श, ६. रूक्षस्पर्श, ७. शीत स्पर्श और ८. उष्णस्पर्शनामकर्म ।
१३. जिसके उदय से जीवों का शरीर लोहपिंड के समान भारीपन के कारण नीचे नहीं पड़जाता है, और आक की रुई के समान हलकेपन से उड़ भी नहीं जाता है उसको
गुरुलघु नामकर्म कहते हैं । यहां पर शरीर सहित आत्मा के सम्बन्ध में अगुरुलघु कर्मप्रकृति मानी गई है। द्रव्यों में जो अगुरुलघुत्व है वह उनका स्वभाविक गुण है।
_ जिसके उदय से शरीर के अवयव ऐसे होते हैं कि उनसे उसीका बंधन वा घात हो जाता हो उसे उपघात नामकर्म कहते हैं।
१५. जिसके उदय से पैने सींग, नख वो डंक इत्यादि पर को घात करने वाले
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१९० ]
तस्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
अषयव होते हैं उसे परघात नामकर्म कहते हैं ।
१६. पूर्वायु के उच्छेद होने पर पूर्व के निर्माण नामकर्म को निवृत्ति होने पर विग्रह गति में जिसके उदय से मरण से पूर्व के शरीर के आकार का विनाश नहीं हो उसे भानुपूर्वी नामकर्म कहते हैं । इसके चारों गतियों की अपेक्षा से चार भेद होते हैं । जिस समय मनुष्य अथवा तिर्यच की आयु पूर्ण हो और आत्मा शरीर से प्रथक् होकर नरक भव के प्रति जाने को संमुख हो, उस समय मार्ग में जिसके उदय से आत्मा के प्रदेश पहले शरीर के आकार के रहते हैं उसको नरकगतिप्रयोग्यानुपूर्वी नाम कर्म कहते हैं । इसी प्रकोर देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और मनुष्य गति-प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म को भी समझना चाहिये । इस कर्मका उदय विग्रहगति में हो होता है । इस कर्म का उदय काल जघन्य एक समय, मध्यम दो समय और उत्कृष्ट तीन समय मात्र है ।
१७. जिसके उदय से शरीर में उच्छ्वास उत्पन्न हो सो उच्छवास नामकर्म है।
१८. जिसके उदय से शरीर आतापकारी होता है, वह आतपनामकर्म है। इस कर्म का उदय सूर्य के विमान में जो बादर पयाप्त जोव पृथिवीकायिक मणिस्वरूप होते हैं, उनके ही होता है। अन्य के नहीं होता।
१९. जिसके उदय से उद्योतरूप शरीर होता है सो उद्योतनामकर्म है । इसका उदय चद्रमा पादि के विमान के पृथिवीकायिक जीवों के, तथा भागिया (पटबीजना जुगनू ) आदि जीवों के होता है।
२०. जिसके उदय से आकाश में गमन हो उसे विहायोगतिनामकर्म कहते हैं । यह दो प्रकार की होती है। एक प्रशस्त विहायोगति दूसरी अप्रशस्तविहायोगति ।
२१. जिसके उदय से आत्मा द्वींद्रिय आदि शरीर धारण करता है सो सनामकर्म
२२. जिसके उदय से जीव पृथिवी, अप, तेज, वायु और वनस्पतिकाय में उत्पन्न होता है सो स्थावरनामकर्म है।
२३. जिसके उदय से ऐसा सूक्ष्म शरीर प्राप्त हो जो अन्य जीवों के उपकार वा घात करने में कारण न हो, पृथ्वी जल अग्नि पवन आदि से जिसका घात नहीं हो और
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[ १६१
पहाड़ आदि में प्रवेश करते हुए भी नहीं रुके उसे सूक्ष्मशरीर नामकर्म कहते हैं । २४. जिसके उदय से अन्य को रोकने योग्य वा अन्य से रुकने योग्य स्थूल शरीर प्राप्त हो उसको बादर शरीर नामकर्म कहते हैं ।
अष्टमोऽध्याय:
२५. जिसके उदय से जीव आहारादि पर्याप्ति पूर्ण करता है उसे पर्याप्तिनामकर्म कहते हैं । यह छह प्रकार का है:- १. आहार पर्याप्ति २. शरीर पर्याप्ति, ३. इन्द्रिय पर्याप्त, ४. प्राणापान पर्यामि, ५. भाषा पर्याप्ति, और ६. मनः पर्याप्त ।
यहां यह प्रश्न हो सकता है कि प्राणापानपर्याप्ति नाम कर्म के उदय का जो उदर पवन का निकालना वा प्रवेश होना फल है, वही उच्छ्वास कर्म के उदय का भी है। फिर इन दोनों में अंतर क्या हुआ ? सो इसका उत्तर यह है कि इन दोनों में इन्द्रिय अतीन्द्रिय का भेद है। अर्थात् पञ्चेन्द्रिय जीवों के सर्दी-गर्मी के कारण जो श्वास चलती है और जिसका शब्द सुन पड़ता है तथा मुंह के पास हाथ ले जाने से जो स्पर्श से मालूम होती है तो उच्छ्वास नाम कर्म के उदय से होती है। और जो समस्त संसारी जीवों के होती है और जो इन्द्रियगोचर नहीं होती है वह प्राणापान पर्याप्ति के उदय से होती है।
वह
एकेन्द्रिय जीवों के भाषा और मनको छोड़ कर चार; द्वीन्द्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिन्द्रिय सैनी पंचेन्द्रिय जीवों के भाषा सहित पांच और सैनी पंचेन्द्रियों के छहों पर्याप्ति
होती हैं।
२६. जिसके उदय से जीव छहों पर्याप्ति में से एक को भी पूर्ण नहीं कर सके उसे पर्याप्तिनामकर्म कहते हैं ।
२७. जिसके उदय से एक शरीर बहुत से जीवों के उपभोगने का कारण हो उसे साधारण शरीर नामकर्म कहते हैं। जिन अनंत जीवों के आहार आदि चार पर्याप्ति, जन्म, मरण, श्वासोच्छ्वास, और उपकार एक ही काल में होते हैं वे साधारण जीव है। जिस काल में जिस आहार आदि पर्याप्ति, जन्म, मरण, श्वासोच्छ्वास को एक जीव ग्रहण करता है उसी काल में उसी पर्याप्ति आदि को दूसरे भी अनन्त जोष ग्रहण करते हैं। ये साधारण जीव वनस्पति काय में होते हैं। अन्य स्थावरों में नहीं होते । इनके साधारण शरीर नामकर्म का उदय रहता है ।
२८. जिसके उदय से एक शरीर एक आत्मा के भोगने का कारण हो उसे प्रत्येकशरीर
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१९२ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
नामकर्म कहते हैं।
२६. जिसके उदय से रस आदि सात धातुएं और उपधातुएं अपने २ स्थान में स्थिरता को प्राप्त हों, दुष्कर उपवास आदि तपश्चरण से भी उपांगों में स्थिरता रहे-रोग नहीं होवे उसे स्थिर नामकर्म कहते हैं । रस, रुधिर, मांस, मेद, हाड़, मज्जा और वीर्य ये सात धातुएं हैं। पात, पित्त, कफ, शिरा स्नायु, चाम और जठराग्नि ये सात उपधातुएं हैं।
३०. जिसके उदय से तनिक उपवास आदि करने से तथा थोड़ी बहुत सर्दी लगने से अंगोपांग कृश होजाय, धातु उपधातुओं की स्थिरता नहीं रहे, रोग हो जावें उसे अस्थिरनामकर्म कहते हैं।
३१. जिसके उदय से शरीर के मस्तक आदि अवयव सुंदर हों-देखने में रमणीक हों, उसे शुभनामकर्म कहते हैं। ___ ३२. जिसके उदय से शरीर के अवयव सुन्दर न हों उसे अशभनामकर्म कहते हैं।
३३. जिसके उदय से अन्य के प्रीति उत्पन्न हो अर्थात् दूसरों के परिमाण देखते ही प्रीति रूप हो जावें सो सुभगनामकर्म है।
३४. जिसके उदय से रूप आदि गुणों से युक्त होने पर भी दूसरों के अप्रीति उत्पन्न हो, बुरा मालूम हो उसे दुर्भग नाम कर्म कहते हैं ।
३५. जिसके उदय से मनोज स्वर की अर्थात् सबको प्यारे लगने वाले शब्द की प्राप्ति हो उसे सुस्वर नाम कर्म कहते हैं।
३६. जिसके उदय से अमनोज्ञ स्वर की प्राप्ति हो, उसे दुःस्वर नाम कर्म कहते हैं । ३७. जिसके उदय से प्रभा सहित शरीर हो उसे आदेय नाम कर्म कहते हैं। ३८. जिसके उदय से शरीर प्रभारहित हो उसे अनादेय नाम कर्म कहते हैं।
३६. जिसके उदय से पुण्यरूप गुणों की ख्याति प्रसिद्धि हो उसे यशः कीर्ति नाम कर्म कहते हैं।
४०. जिसके उदय से पापरूप गुणों की ख्याति हो उसे अयशः कीर्तिनामकर्म कहते हैं।
४१. जिसके उदय से अंग उपांगों को उत्पत्ति हो उसे निर्माणनामकर्म कहते हैं। बह दो प्रकार का है:- १. स्थाननिर्माण, और २. प्रमाण निर्माण । जातिनामक नामकर्म
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अष्टमोऽध्यायः
[ १६३
के उदय से जो नाक कान आदि को योग्य स्थान में निर्माण करता है, सो तो स्थान निर्माण नाम कर्म है और जो उन्हें योग्य लम्बाई चौड़ाई आदिका प्रमाण लिये रचना करता है, सा प्रमाण निर्माण है।
___४२. जिस प्रकृति के उदय से अचिंत्यविभूति संयुक्त तीर्थकरपने की प्राप्ति हो उसे तीर्थकरनामकर्म कहते हैं।
इस प्रकार नामकर्म की बयालीस मूल प्रकृतियां हैं । किन्तु इनके अवान्तर भेदों को जोड़ने से नामकर्म की तिरानवे उत्तर प्रकृतियाँ होती हैं।
उच्चैर्नीचैश्च ।
८, १२. गोए णं भंते ! कम्मे कइविहे पण्णत्ते? गोयमा! दुविहे पएणते तं जहा-उच्चागोए य नीयागोए य ।
प्रज्ञापना पद २३, उ० २, सू० २६३. छाया- गोत्रं भगवन् ! कर्म कतिविधं प्रज्ञप्तं? गौतम ! द्विविधं प्रज्ञप्तं,
तद्यथा-उच्चगोत्रश्च नीचगोत्रश्च । प्रश्न - भगवन् ! गोत्र कर्म कितने प्रकार का कहा गया है? उत्तर-गोतम ! वह दो प्रकार क है-उच्चगोत्र और नीचगोत्र । दानलाभभोगोपभोगवीर्याणाम ।
८, १३. अंतराए णं भंते ! कम्मे कतिविधे पण्णत्ते? गोयमा! पंचविधे पण्णत्ते, तं जहा-दाणंतराइए, लाभंतराइए, भोगंतराइए, उवभोगंतराइए, वीरियंतराइए ।
___ प्रज्ञापना पद २३ उद्दे०२ सूत्र २६३. छाया- अन्तरायः भगवन् ! कर्म कतिविधः प्रज्ञप्तः १ गोतम! पञ्चविधः
प्रज्ञप्तः, तद्यथा-दानान्तरायिकः, लाभान्तरायिका, भोगान्तरायिकः, उपभोगान्तरायिकः, वीर्यान्तरायिकः।
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१४]
तत्वार्थसूत्रजनाऽऽगमसमन्वय :
प्रश्न- भगवन् ! अंतराय कर्म कितने प्रकार का कहा गया है ?
उत्तर- गौतम ! वह पांच प्रकार का कहा गया है: - दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय ।
इस प्रकार प्रकृतिबंध का वर्णन किया गया। अब स्थितिबंध का वर्णन किया
जाता है
आदितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्यः परा स्थितिः ।
उदहीसरिसनामाण, तीसई कोडिकोडीओ | उक्कोसिया ठिई होइ, अन्तोमुद्दत्तं जहन्निया ॥ १६ ॥ आवरणिज्जाण दुरहंपि, वेयाणिज्जे तहेव य । अन्तरा य कम्मम्मि ठिई एसा वियाहिया ॥ २० ॥
उत्तराध्ययन अध्ययन ३३.
८, १४.
गया
उदधिसदृङ्नाम्नां, त्रिंशत्कोटाकोटयः । उत्कृष्टा स्थितिर्भवति, अन्तर्मुहुर्त जघन्यका ॥ १९ ॥ आवरणोर्द्वयोरपि, वेदनीये तथैव च ।
अन्तराये च कर्मणि, स्थितिरेषा व्याख्याता ॥ २० ॥
भाषा टीका – ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय कर्म की स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागर और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहुर्त होती है।
सप्ततिमहनीयस्य ।
८, १५.
उदहीसरिसनामाण, सत्तरिं कोडिकोडीओ । मोहणिजस्स उक्कोसा, अन्तोमुहुत्तं जहन्निया ॥
उत्तराध्ययन अ० ३३, गाथा २१.
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अष्टमोऽध्यायः
छाया- उदधिसदृङनाम्ना, सप्ततिः कोटाकोटयः ।
मोहनीयस्योत्कृष्टा, अन्तर्मुहुर्त जघन्यका ॥ भाषा टीका-मोहनीय कमे को उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहुर्त होती है। विंशतिर्नामगोत्रयोः।
८, १६. उदहीसरिसनामाण, वीसई कोडिकोडीओ। नामगोताणं उक्कोसा, अन्तोमुहुत्तं जहन्निया ॥
उत्तराध्ययन अध्य० २३ गाया . छाया- उदधिसदृङ्नाम्नां, विंशतिः कोटाकोटयः ।
नामगोत्रयोरुत्कृष्टा, अन्तर्मुहुर्त जघन्यका ॥ भाषा टीका- नाम और गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति वीस कोडाकोड़ी सागर की है और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहुर्त होती है। त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यायुषः।
८. १७. तेतीस सागरोवमा, उक्कोसेण वियाहिया । ठिइ उ आउकम्मस्स, अन्तोमुहुत्तं जहन्निया ॥
____उत्तराभ्ययन प०१३, गा . छाया- त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा, उत्कर्षेण व्याख्याता ।
स्थितिस्त्वायुः कर्मणः, अन्तर्मुहुर्त जघन्यका ॥ भाषा टोका-आयु कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तेंतीस सागर की है और अपन्य स्थिति अन्तर्मुहुत होती है। ___ अपरा द्वादशमुहुर्ता वेदनीयस्य ।
८,१६.
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१९६ ] तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वयः - सातावेदणिजस्य...."जहन्नणं बारसमुहुत्ता ।
प्रज्ञापना पद २३, उ०२ सु० २६३. छाया- सातावेदनीयस्य जयन्येन द्वादशमुई ताः । भाषा टीका - साता वेदनीय की जघन्य आयु बारह मुहुर्त होती है। नामगोत्रयोरष्टौ ।
१६. जसोकित्तिनामाएणं पुच्छा ? गोयमा ! जहरणेणं अट्ठमुहुत्ता। उच्चगोयस्स पुच्छा ? गोयमा! जहरणेणं अट्ठमुहुत्ता ।
प्रज्ञापना पद २३, उ० २, सूत्र २६४. छाया- यशःकीर्तिनाम्नः पृच्छा ? गौतम ! जघन्येनाष्टमुहुर्ताः ।
उच्चगोत्रस्य पृच्छा ? गौतम! जयन्येनाष्टमुहुर्ताः ॥ भाषा टीका-हे गौतम ! यशकीर्ति नाम कर्म को जघन्य आयु आठ मुहुर्त होती है, मौर हे गौतम ! उच्च गोत्र कर्म को जघन्य आयु भी आठ मुहुर्त होती है। शेषाणामन्तर्मुहुर्ताः।
८,२०. अन्तोमुहुत्तं जहनिया।
उत्तराध्ययन अ० २३, गाथा १६ से २२ तक. छाया- अन्तर्मुहुर्त जघन्यका । भाषा टीका-शेष कर्मों की जघन्य आयु अन्तर्मुहुर्त होती है । संगति - इन सभी सूत्रों के शब्द और श्रागम वाक्य प्रायः एकसे ही हैं। इस प्रकार स्थिति बन्ध का वर्णन किया गया। अब अनुभागबन्ध का वर्णन किया जाता है - विपाकोऽनुभवः ।
८,२१.
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छाया
अणुभागफल विवागा |
सव्वेसिं च कम्माणं ।
-
अष्टमोऽध्याय:
छाया
स यथानाम |
जाती है।
अनुभागफल विपाकाः । सर्वषां च कर्मणाम् ।
भाषा टीका
प्रज्ञापना पद २३, उ०२. उत्तराध्ययन अ० २३, गाथा १७.
-
भाषा टीका • सब कर्मों का अनुभाग उन २ कर्मों के फल का विपाक है । अर्थात् उन में जो फलदान शक्तिका पड़जाना और उदय में आकर अनुभव होने लगना है सो अनुभव वा अनुभाग है ।
उदीरिया वेड्या य निजिन्ना ।
८, २२.
समवायांग, विपाकश्रुत वर्णन ।
ततश्च निर्जरा ।
[ १९७
८, २३.
व्याख्या प्रज्ञप्ति शत० १, उ० १, सू० ११.
उदीरिताः वेदिताश्च निजीर्णाः ।
―
- उस अनुभव के पश्चात् उन कर्मों की फल देकर निर्जरा हो
-
संगति – इन सब सूत्रों के अक्षर आगमवाक्यों से प्रायः मिलते हैं ।
-
अब प्रदेश बन्ध का वर्णन किया जाता है
नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात्सूक्ष्मैकतेत्रावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशाः ।
5,28
सव्वेसिं चैव कम्माणं पएसग्गमणन्तगं । गण्ठियसत्ताईयं, अन्तो सिद्धाण आउयं ॥
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तत्वार्थ सूत्र जैनाऽऽगमसमन्वय :
सव्वजीवाण कम्मं तु संगहे छद्दिसागयं । सव्वेसु विपएसेसु, सव्वं सव्वेण बद्धगं ॥
२]
उत्तराध्ययन अ० ३३, गाथा १७ - १८.
छाया- सर्वेषां चैव कर्मणां प्रदेशाग्रमनन्तकम् ।
ग्रन्थिकत्वातीतं, अन्तरं सिद्धानामाख्यातम् ।। १७ ।। सर्वजीवानां कर्म तु, संग्रहेष दिशागतम् । सर्वेरप्यात्मप्रदेशैः, सर्वं सर्वेण बद्धकम् ॥ १८ ॥
-
भाषा टीका - सब कर्मों के प्रदेश अनन्त हैं । उनकी संख्या अभव्यराशि से अधिक और सिद्धराशि से कम है।
सब जीवों का एक समय का कर्म संग्रह छहों दिशाओं से होता है और आत्मा के सब प्रदेशों में सब प्रकार से बंध जाता है।
संगति - सारांश यह है कि ज्ञानावरणीय आदि सभी कर्मों की प्रकृतियों अनंतानं कर्म पुद्गलों के प्रदेश हैं जो आत्मा के समस्त प्रदेशों में सूक्ष्म तथा एकक्षेत्रावाह रूप से स्थित हैं।
सद्यशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम् ।
अतोऽन्यत्पापम् ।
एगे पुणे एगे पावे ।
८, २५.
८, २६.
सायावेदणिज्ज...... तिरिआउए मगुस्साउए देवाउए, असाया वेदणिज्ज इत्यादि ।
.
सुहग्रामस्सणं' "उच्चागोत्तस्स
प्रज्ञापना सूत्र पद २३,
उ० १.
स्थानांग स्थान १, सूत्र १६.
छाया- सातावेदनीयः ""तिर्यगायुः मनुष्यायुः देवायुः शुभनाम"
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अष्टमोऽध्याय :
___उच्चगोत्रं असातावेदनीयः इत्यादिः एकः पुण्यः एकः पापः । · भाषा टीका - साता वेदनीय, तिर्यच आयु, मनुष्यायु, देवायु, शुभनाम, उच गोत्र और असाता वेदनीय आदि । एक पुण्य रूप हैं और एक पाप रूप हैं।
संगति - ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय यह चार घातिषा कर्म कहलाते हैं। ये चारों ही अशुभ (पाप) रूप होते हैं । शेष चारो अपातिया कर्म कहलाते हैं। और यह पाप तथा पुण्य दोनों रूप हैं।
इति श्री-जैनमुनि-उपाध्याय-श्रीमदात्माराम महाराज-संगृहीते
__ तत्स्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वये # अष्टमोऽध्यायः समाप्तः ॥८॥ *
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निरुद्धासवे संवरो |
नवमोऽध्यायः आस्रवनिरोधः संवरः ।
छाया
निरुद्धाश्रवः संवरः । भाषा टीकां - श्रस्रव का रुकजाना संवर है ।
उत्तराध्ययन अ० २६, सूत्र ११.
सगुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः ।
६, २.
छाया
६, १.
1
तपसा निर्जरा च ।
एगे संवरे ।
समई गुत्ती धम्मो अणुपेह परीसहा चरितं च । सत्तावन्नं भैया पणतिगभेयाई संवरणे ॥
९, ३.
एवं तु संजयस्स वि. पावकम्मनिरासवे । भक्कोडीसंचियं कम्मं तवसा निजरिज्जइ ॥
स्थानांग वृत्ति स्थान १.
उत्तराध्ययन अ० ३० गाथा ६.
एकः संवरः ।
समितिः गुप्तिः धर्मोऽनुप्रेक्षाः परीषहाश्चरित्रश्च । सप्तपञ्चाशद्भेदाः पञ्चत्रिकभेदादयः संवरे ॥ एवं तु संयतस्यापि पापकर्मनिरास्रवे । भवकोटिसंचितं कर्म तपसा निर्जीयते ॥
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[ २०१
-
भाषा टीका - उस संवर के समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्र ेक्षा, परिषहजय और चारित्र यह भेद होते हैं । जिनके क्रमश: पांच, तीन, दश, बारह, बाईस, और पांच भेदों को जोड़ने से संवर के कुल सत्तावन भेद होते हैं ।
पापकर्मों के नष्ट हो जाने पर व्रती के करोड़ जन्मों के संचित कर्मों की भी तपसे निर्जरा होजाती है ।
नवमोऽब्याय :
सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः ।
९, ४.
गुत्ती नियत्तणे बुत्ता, अभत्थेसु सव्वसो ।
उत्तराध्ययना० २४ गाथा २६.
छाया
गुप्तयो निर्वतने उक्ताः, अशुभार्थेभ्यः सर्वेभ्यः ।
भाषा टीका - सभी अशुभ अर्थों (प्रयोजनों) से [ मन वचन काय के ] रोकने को गुप्त कहा गया है।
ईर्याभाषैषणाऽऽदान निक्षेपोत्सर्गाः समितयः ।
९, ५.
पंच समिईओ पण्णत्ता, तं जहा - ईरियासमिई भासासमिई एसणासमिई आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिई उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्लपारिट्ठावणियास मिई ।
समवायांग समवाय ५.
छाया- पञ्च समितयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - ईर्यासमितिः भाषासमितिः एषणासमितिः आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणासमितिः उच्चारप्रस्रवणखेल सिघाणजलपरिष्ठापणासमितिः ।
-
भाषा टीका – समिति पांच होती हैं – ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदानभन्डमात्र निक्षेपणसमिति ( श्रादन निक्षेपण समिति ), उच्चार * प्रस्रवण + खेल + सिंघारण || जलपरिष्ठापणा \ समिति ( प्रतिष्ठापणा अथवा उत्सर्ग समिति )
* पुरीष, + मूत्र + निष्ठोवन अथवा थूक, || नाकमैल, 8 गिराना या डालना ।
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२०२ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्षय :
.
उत्तमक्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिंचन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः।
९, ६. दसविहे समणधम्मे परणत्ते, तं जहा-खंती १ मुत्ती २ अजवे ३, महवे ४ लाघवे ५ सच्चे ६ संजमे ७ तवे ८ चियाए . बंभचेरवासे १०।
समवायांग समवाय १०. छाया- दशविधः श्रमणधर्मः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-शान्तिः मुक्तिः आर्जव:
__ मार्दवः लाघवः सत्यः संयमः तपः त्यागः ब्रह्मचर्यवासः । भाषा टीका - श्रमणों का दशप्रकार का धर्म कहा गया है - उत्तमशान्ति (क्षमा) मुक्ति (भाकिंचन्य ), आर्जव, मार्दव, लाघव (शौच ), सत्य, संयम, तप, त्याग (दान ), और प्रमचर्य से रहना।
अनित्याशरणसंसारकत्वान्यत्वाशुच्यास्रवसंवरनिर्जरालोकबोधिदुर्लभधर्मस्वाख्यातत्त्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः। __ मणिचाणुप्पेहा १, असरणाणुप्पेहा २, एगत्ताणुप्पेहा ३, संसाराणुप्पेहा ४।।
स्थानांग स्थान ४, २०१, स० २४७. अण्णत्ते [अणुप्पेहा ] ५-अन्ने खलु णातिसंजोगा अन्नो अहमंसि। असुइअणुप्पेहा ६।
सूत्रकृतांग श्रुतस्कंध २, अ० १, सू० १३. इमं सरीरं अणिचं, असुइं असुइसंभवं ।
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नवमोऽध्यायः
[ २०३
असासयावासमिणं, दुक्खकेसाण भायणं ।
उत्तराध्ययन अ० १६, गाथा १२. अवायाणुप्पहा ७।
___ स्थानांग स्थान ४, उ० १, सू० २४७. संवरे [अणुप्पेहा ] ८जा उ अस्साविणी नावा, न सा पारस्त गामिणी । जा निस्साविणी नावा, सा उ पारस्स गामिणी ॥
उत्तराध्ययन अध्ययन २३, गाथा ७१. णिजरे [अणुप्पेहा ] ।
स्थानांग स्थान १, सू०१६. लोगे [अणुप्पहा ] १०॥
___ स्थानांग स्थान १, सू० ५. बोहिदुल्लहे [अणुप्पेहा ] ११ । संबुज्झह किं न बुज्झह, संबोही खलु पेजदुल्लहा । णो हृवणमंतिराइओ, नो सुलभं पुणरावि जीवियं ॥
सूत्रकृतांग प्रथम श्रुतिस्कन्ध गाथा १. धम्मे [अणुप्पेहा ] १२उत्तमधम्मसुई हु दुल्लहा ।
उत्तराध्ययन अ० १० गाथा १८. छाया- अनित्यानुप्रेक्षा, अशरणानुप्रेक्षा, एकत्वानुप्रेक्षा, संसारानुप्रेक्षा,
अन्यत्वानुप्रेक्षा-अन्ये खलु ज्ञातिसंयोगाः अन्योऽहमस्मि । अशुच्यनुप्रेक्षाइदं शरीरमनित्यं, अशुच्यशुचिसंभवं । अशाश्वतावासमिदं, दुःखक्लेशानां भाजनम् ॥
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२०४ ]
तत्वार्थ सूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
पायानुप्रेक्षा,
संवरानुप्रेक्षा
या त्वास्राविणी नौः, न सा पारस्य गामिनी । या निरास्त्राविणी नौः, सा तु पारस्य गामिनी ॥
निर्जरानुप्रेक्षा,
लोकानुप्रेक्षा,
बोधिदुर्लभानुभक्षा
संबुध्यध्वं किं न बुद्धध्वं संबोधी खलु प्रेत्य दुर्लभः । नैव उपनमंति रात्र्यः, नैव सुलभं पुनरपि जीवितं ॥ धर्मानुप्रक्षा
उत्तमधर्मश्रुतिः खलु दुर्लभा ।
भाषा टीका - १. अनित्य अनुप्र ेक्षा [ संसार के पदार्थों जीवन काय आदि को भी नाशवान् क्षणभंगुर अनित्य समझना, ]
२. शरण अनुक्षा- [ सिंह के हाथ में पड़े हुए मृग के समान इस संसार में
इस जीव को शरण देकर इसकी रक्षा करने वाला कोई नहीं है । ]
३. एकत्व अनुप्र ेक्षा
अकेला ही जाना है। ऐसा बारंबार चितवन करना । ]
४. संसार अनुप्रक्षा - [ यह जीव इस संसार में सदा जन्म लेकर के भ्रमण स्वरूपका बारंबार चितवन
-
[ यह जीव संसार में अकेला ही आया है और इसको
करता रहता है। यह संसार दुःखरूप है आदि संसार
करना । ]
५. अन्यत्व अनुप्र ज्ञा - जाति के सम्बन्ध भिन्न हैं और मैं भिन्न हूँ । [ इस
प्रकार बारंबार चिन्तवन करना । ]
-
६. अशुचि भावना - यह शरीर अनित्य, अपवित्र, अपवित्र पदार्थों से उत्पन्न हुआ, रहने का क्षणभंगुर स्थान है और दुःख तथा क्ल ेशों का भाजन है। [ ऐसा बारंबार चिन्तवन करना । ]
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नवमोऽध्यायः
[ २०५
७. अपाय भावना अथवा आस्रव भावना [ इस लोक में कर्म इस प्रकार दुःख देने वाले हैं और वह इस प्रकार आत्मा में आते हैं आदिका चिंतबन करना।]
८. संवर भावना-जिस नाव में छिद्र होता है वह नदी के पार नहीं जा सकती। किन्तु जिस नाव में छिद्र नहीं होता वही पार लेजा सकती है। इसी प्रकार जब
आत्मा में नवीन कर्मों के आने का मार्ग रुक कर संवर होता है तभी यह उत्तम मार्ग पर चलकर क्रमशः संसार रूपी समुद्र को पार करता है। ___१. निर्जरा भावना-[संवर होने के पश्चात् ओत्मा में बाकी रहे कर्मों को तप मादि के द्वारा नष्ट करना निर्जरा कहलाता है।]
१०. लोक भावना -[लोक के स्वरूप का विशेष रूप से चितवन करना।]
२२. बोधि दुर्लभ भावना-समझो, ज्ञान क्यों नहीं प्राप्त करते । मरण के पश्चात् फिर ज्ञान होना दुर्लभ है । इस प्रकार विचार करने के लिये रात्रियां बारंबार नहीं
आती और यह जन्म भी बारबार नहीं प्राप्त होता। [इस प्रकार ज्ञान की दुर्लभता का विचार करना ।
१२. धर्म भावना – उत्तम धर्म का सुनना बड़ा दुर्लभ है [इस प्रकार धर्म के ‘स्वरूप का बारंवार चिन्तवन करना । ]
संगति- इन सत्रों और भागमवाक्य का शब्द साम्य ध्यान देने योग्य है। मार्गाच्यवननिर्जरार्थ परिषोढव्याः परीषहाः । नो विनिहन्नेजा।
उत्तराध्ययन अ०२ प्रथम पाठ. सम्म सहमाणस्स"णिज्जरा कजति ।
___ स्थानांग स्थान ५ उ०१ सू०४०६. छाया- न विहन्येत्, सम्यक् सहन्तः निर्जरा क्रियते ।
भाषा टीका-पीछे न हटे। भली प्रकार सहन करने वाले के निर्जरा होती है।
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२०६ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
-
संगति - परीषह सेवन दो प्रयोजन से किया जाता है-एक, मार्ग से च्युत न होने
-पीछे न हटने के लिये तथा दूसरा, निजरा के लिये। क्यों कि भली प्रकार सहन करने वाले के निर्जरा होती है।
साशीतोष्णदंशमशकनारन्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्याशय्याक्रोशवधयाचनालाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाऽज्ञानाऽदर्शनानि
बावीस परिसहा पण्णता, तं जहा-दिगिंछापरीसहे १, पिवासापरीसहे २, सीतपरीसहे ३, उसिणपरीसहे ४, दंसमसगपरीसहे ५, अचेलपरोसहे ६, अरइपरीसहे ७, इत्थीपरीसहे ८, चरिआपरीसह ६, निसीहियापरीसह १०, सिज्जापरीसह ११, भक्कोसपरीसहे १२, वहपरीसहे १३, जायणापरीसह १४, अलाभपरीसह १५, रोगपरीसहे १६, तणफासपरीसहे १७, जल्लपरोसहे १८, सकारपुरकारपरीसहे १६. पण्णापरीसहे २०, अण्णाण परीसहे २१, दंसणपरोसहे २२ ।
समवायांग समवाय २२. छाया- द्वाविंशतिपरीषहाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-१ क्षुधापरीषहः, २ पिपासा
परीषहः, ३ शीतपरीषहः, ४ उष्णपरीषहः, ५ दंशमशकपरीषह, ६ अचेलपरोषहः,७ अरतिपरीषहः, ८ स्त्रोपरीषहः, ९चर्यापरिषहः, १०निषद्यापरीषहः, ११शय्यापरीषहः, १२आक्रोशपरीषहः १३वधपरीपहः, १४ याचनापरीषहः, १५ अलाभपरीषहः, १६रोगपरीषहः, १७ तृणस्पर्शपरोषहः, १८ जल्लपरीषहः, १९ सत्कारपुरस्कारपरीषहः, २० प्रज्ञापरीषहः, २१ अज्ञानपरीषहः, २२ दर्शनपरीषहः ।
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नवमोऽध्याय:
[ २०७
भाषा टीका - परीषह बाईस कही गई हैं- १. क्षुधा परीषह, २ पिपासा परीषह, ३ शीत परीषह, ४ उष्ण परीषह, ५ दंशमशक परीषह, ६ अचेल परीषह, ७ परति परीषह, स्त्री परीषह, १ चर्या परीषह, १० निषद्या परीषह ११ शय्या परीषह १२
आक्रोश परीषह, १३ बध परीषह, १४ याचना परीषह, १५ अलाभ परीषह. १६ रोग परीषह, १७ तृणस्पर्श परीषह, १८ जल्ल अथवा मल परीषह ११ सत्कारपुरस्कार परीषह, २० प्रज्ञा परीषह, २१ अज्ञान परीषह, और २२ दर्शन परीषह।
सूक्ष्मसाम्परायछद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश ।
९, १३.
एकादश जिने। बादरसाम्पराये सर्वे ।
ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञाने। दर्शनमोहांतराययोरदर्शनालाभौ।
चारित्रमोहे नाग्न्यारतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनासत्कारपुरस्काराः।
वेदनीये शेषाः। - एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नैकोनविंशतः ।
९,१५.
९,१७.
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२०६
तत्त्वार्थसूत्रजैनागमसमन्वयः
नाणावरणिजे णं भंते ! कम्मे कति परोसहा समोयरति ? गोयमा ! दो परीसहा समोरयंति, तं जहा-पन्नापरीसहे नाणपरीसहे य । वेयणिज्जे णं भंते! कम्मे कति परीसहा समोरयंति ? गोयमा! एकारसपरीसहा समोयरंति, तं जहा
पंचेव आणुपुव्वी. चरिया सेन्जा वहे य रोगे य । तणफास जल्लमेव य, एक्कारस वेदणिज्जमि ॥१॥
दसणमोहणिजे णं भंते! कम्मे कति परीसहा समोरयंति ? गोयमा। एगे दंसणपरीसहे समोयरइ । चरित्तमोहणिजे णं भंते ! कम्मे कति परीसहा समोयरंति? गोयमा! सतपरीसहा समोयरंति, तं जहा
अरती अचेल इत्थी, निसीहिया जायणा य अक्कोसे । सकारपुरकारे चरित्तमोहमि सत्ते ते ॥१॥
अंतराइए णं भंते! कम्मे कति परीसहा समोयरंति ? गोयमा! एगे अलाभपरीसहे समोयरइ। सत्तविहबंधगस्स णं भंते! कति परीसहा पएणता? गोयमा! बावीसं परीसहा पएणत्ता, वीसं पुण वेदेइ, जं समयं सीयपरीसहं वेदेति णो तं समयं उसिणपरीसहं वेदेइ, जं समयं उसिणपरीसहं वेदेइ णो तं समयं सीयपरीसहं वेदेइ, जं समयं चरियापरीसहं वेदेति णो तं समयं निसीहियापरीसहं वेदेति जं समयं निसीहियापरीसहं वेदेइ णो तं समयं चरियापरीसहं वेदेइ ।
अविहबंधगस्स णं भंते ! कतिपरीसहापण्णता? गोयमा!
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नवमोऽध्यायः
[ २०६
बावीसं परीसहा पएणता, तं जहा-छुहापरीसहे पिवासापरीसहे सीयप० दंसप० मसगप० जाव अलाभप० एवं अविहबंधगस्स वि सत्तविहबंधगस्स वि।
छव्विहबंधगस्स णं भंते ! सरागछउमत्थस्स कति परीसहा पण्णत्ता? गोयमा! चोइस परीसहा पण्णत्ता ।बारस पुण वेदेइ। जं समयं सीयपरीसहं वेदेइ णो तं समयं उसिणपरीसहं वेदेइ, जं समयं उसिणपरीसहं वेदेइ नो तं समयं सीयपरीसहं वेदेइ । जं समयं चरियापरीसहं वेदेइ णो तं समयं सेजापरीसहं वेदेइ, जं समयं सेज्जापरीसहं वेदेति णो तं समयं चरियापरीसहं वेदेइ।
एक विहबंधगस्स णं भंते ! वीयरागछउमत्थस्स कति परीसहा पण्णता ? गोयमा! एवं चेव जहेव छव्विहबंधगस्स णं । एगविह बंधगस्स णं भंते! सजोगिभवत्थकेवलिस्स कति परीसहा पण्णता ? गोयमा ! एकारस परीसहा पण्णत्ता, नव पुण वेदेइ, सेसं जहा छविहबंधगस्स।
अबंधगस्स णं भंते ! अजोगिभवत्थकेवलिस कति परीसहा पण्णता ? गोयमा! एकारस्स परीसहा पण्णत्ता, नव पुण वेदेइ । जं समयं सीयपरीसहं वेदेति नो तं समयं उसिणपरीसहं वेदेइ, जं समयं उसिणपरीसहं वेदेति नो तं समयं सीयपरीसहं वेदेइ । जं समयं चरियापरीसहं वेदेइ नो तं समयं सेजापरीसहं वेदेति, जं समयं सेजापरीसहं वेदेइ नो तं समयं चरियापरीसहं वेदेइ।
व्याख्या प्रज्ञप्ति श०८, उ०८, २०३४३.
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२२०
]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वयः
छाया- ज्ञानावरणीये भगवन ! कर्मणि कति परीषहाः समवतरन्ति ।
गौतम ! द्वौ परीपही समवतरन्तः, तद्यथा-प्रज्ञापरीषहः ज्ञानपरीषहश्च । वेदनीये भगवन् ! कर्मणि कति परीषहाः समवतरन्ति ? गौतम ! एकादश परोषहाः समवतरन्ति, तद्यथापञ्चैव आनुपूर्वी चर्या शय्या बधश्च रोगश्च । तृणस्पर्शः जल्लमेव च एकादश वेदनीये ॥ दर्शनमोहनीये भगवन् ! कर्मणि कति परिषहाः समवतरंति ? गौतम ! एकः दर्शनपरीषहः समवतरति। चारित्रमोहनीये भगवन्! कर्मणि कति परीषहाः समवतरंति ? गौतम ! सप्त परीषहाः समवतरंति, तद्यथाअरतिः अचेलः स्त्री निषद्या याचना च आक्रोशः । सत्कारपुरस्कारः चारित्रमोहे सप्तैते ॥ अन्तराये भगवन् ! कर्मणि कति परीषहाः समवतरंति ? गौतम! एकोऽलाभपरीषहः समवतरति । सप्तविधबंधकस्य भगवन् ! कति परीषहाः प्राप्ताः १ गौतम! द्वाविंशतिपरीसहाः प्रज्ञप्ताः, विशति पुनः वेदयते । यस्मिन् समये शीतपरोषहं वेदयते न तस्मिन् समये उष्णपरीषहं वेदयते, यस्मिन् समये उष्णपरीषहं वेदयते न तस्मिन् समये शीतपरीषहं वेदयते । यस्मिन् समये चर्यापरीषहं वेदयते न तस्मिन् समये निषद्यापरीषहं वेदयते, यस्मिन् समये निषद्यापरीपह वेदयते न तस्मिन् समये चर्यापरीषहं वेदयते । अष्टविधबंधकस्य भगवन् ! कतिपरीषहाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम! दाविंशतयः परीषहाः प्रज्ञप्ताः । तद्यथा-क्षुत्परीषहः, पिपासापरीषहः शीतपरीषहः, दंशपरीषहः, मशकपरीषहः, या
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[ २११
वत् अलाभपरीषदः, एवं अष्टविधबंधकस्यापि सप्तविधबन्धकस्यापि ।
षड्विधबन्धकस्य भगवन् ! सरागछद्मस्थस्य कति परीषदाः प्रज्ञप्ताः १ गौतम ! चतुर्दश परीषहाः प्रज्ञप्ताः । द्वादशं पुनः वेदयते । यस्मिन् समये शीतपरीषदं वेदयते न तस्मिन् समये उष्णपरीषहं वेदयते, यस्मिन् समये उष्णपरीषद्दं वेदयते न तस्मिन समये शीतपरीषदं वेदयते । यस्मिन् समये चर्यापरीषदं वेदयते न तस्मिन् समये शय्यापरीषहं वेदयते, यस्मिन् समये शय्यापरीषदं वेदयते न तस्मिन् समये चर्यापरीषदं वेदयते ।
नवमोऽध्याय:
एकविधबन्धकस्य भगवन् ! वीतरागछद्मस्थस्य कति परीषदाः प्रज्ञप्ताः १ गौतम ! एवं चैव यथैव षड्विधबन्धकस्य । एकविध - बन्धकस्य भगवन् ! सयोगिभवस्थकेवलिनः कति परीषदाः मज्ञप्ताः १ गौतम ! एकादशपरीषदाः प्रज्ञप्ताः नवं पुनः वेदयते । शेषं यथा षड्विधबन्धकस्य ।
अबन्धकस्य भगवन् ! योगिभवस्थकेवलिनः कति परीषदाः मज्ञप्ताः १ गौतम ! एकादश परीषहाः प्रज्ञप्ताः, नवं पुनः वेदयते । यस्मिन् समये शीतपरीषदं वेदयते न तस्मिन् समये उष्णपरीषहं वेदयते, यस्मिन् समये उष्णपरीसहं वेदयते न तस्मिन् समये शीतपरीषदं वेदयते । यस्मिन् समये चर्यापरीषदं वेदयते न तस्मिन समये शय्यापरीषहं वेदयते, यस्मिन् समये शय्यापरीषदं वेदयते न तस्मिन् समये चर्यापरापहं वेदयते ।
प्रश्न
-
- भगवन् ! कौन २ सी परीषद ज्ञानावरणीय कर्म में आती हैं !
उत्तर -गौतम ! दो परीषह आती हैं – प्रज्ञापरीषह और ज्ञानपरीषह ।
प्रश्न
उत्तर
-
—
-भगवन् ! वेदनीय कर्म में कौन सी परीषह ली जाती हैं।
-
- हे गौतम! ग्यारह परीषह ली जाती हैं - पंच आनुपूर्वी ( क्षुधा, तृषा,
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२१२ ]
तत्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
शीत, उष्ण, दंशमशक ), चर्या, शय्या, बध, रोग, तृणस्पर्श और मल ( जल्ल ), ये ग्यारह
वेदनीय में गिनी जाती हैं
1
प्रश्न
- भगवन् ! दर्शनमोहनीय कर्म में कितनी परीषह होती हैं ? उत्तर - गौतम ! एक दर्शनपरीषह ही गिनी जाती है ।
प्रश्न
- भगवन् ! चारित्रमोहनीय कर्म में कितनी परीषह होती हैं ?
—
उत्तर - गौतम ! सात परीषद होती हैं - अरति, अचेल, स्त्री, निषद्या, याचना,
आक्रोश और सत्कारपुरस्कार, यह सात चारित्रमोहनीय में होती हैं ।
- भगवन् ! अन्तराय कर्म में कितनी परीषह होती हैं ?
प्रश्न -
उत्तर
प्रश्न
- गौतम ! केवल एक अलाभ परीषह होती है ।
-
—
- भगवन् ! सात प्रकार के बन्धवालों के कितनी परीषह होती हैं ?
उत्तर
-
- गौतम ! बाईसों परीषह होती हैं । किन्तु एक काल में अनुभव बीस परीषह का होता है । जिस समय में शोतपरीषह होती है उस समय उष्णपरीषह नहीं होती । जिस समय उष्णपरीषह होती है उस समय शीतपरीषह नहीं होती । जिस समय चर्यापरीषह की वेदना होती है उस समय निषद्या परीषह नहीं होती । जिस समय निषद्या परीषह होती है उस समय चर्या परीषह नहीं होती ।
प्रश्न - - भगवन् ! आठ प्रकार के बन्ध वालों के कितनी परीषह होती हैं ?
-
उत्तर - गौतम ! बाईसों परीषह ही होती हैं – दुधापरीषह, तृषा परीषह, शीत परीषद, दंशपरीषह, और मशकपरोषह से लगा कर अलाभ परीषह तक। इसी प्रकार आठ प्रकार के बंधवालों के तथा सात प्रकार के बन्धवालों के होती हैं।
प्रश्न - भगवन् ! छह प्रकार के बंधवाले सरागछद्मस्थ के कितनी परीषह कही गई हैं। ?
उत्तर - गौतम ! चौदह परीषह कही गई हैं और बारह परीषहों का एक साथ अनुभव होता है । जिस समय शीत परीषह होती है उस समय उष्णपरीषह नहीं होती, जिस समय उष्णपरीषह होती है उस समय शीतपरीषह नहीं होती । जिस समय चर्चा परीषह होती है उस समय शय्यापरीषह नहीं होती, जिस समय शय्या परीषह होती है उस समय चर्या परोषह नहीं होती ।
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नवमोऽध्यायः
[ २३
प्रश्न- भगवन् ! एक प्रकार के बंधवाले वीतरामछद्मस्थ के कितनी परीषह कही गई हैं?
उत्तर - गौतम ! उतनी ही होती हैं जितनी छह प्रकार के बन्धवाले के होती हैं।
प्रश्न - भगवन् ! एक प्रकार के बन्धवाले सयोगि भवस्थ केवली के कितनी परीषह कही गई हैं ?
उत्तर - गौतम ! ग्यारह परीषह कही गई हैं। किन्तु वेदना एक साथ केवल नौ की ही होती है। शेष छै प्रकार के बन्ध वाले के समान होती हैं । हा प्रश्न -भगवन् ! बिना बन्धवाले अयोगि भवस्थ केवलो के कितनी परीषह होती
उत्तर- गौतम ! ग्यारह परीषह कही गई हैं। किन्तु अनुभव नौ का ही होता है। जिस समय शीतपरोषह होती है उसी समय उष्णपरीषह नहीं होती । जिस समय उष्णपरीषह होती है उस समय शीतपरोषह नहीं होती । जिस समय चर्यापरीषह होती है उस समय शय्या परीषह नहीं होती। जिस समय शय्या परीषह होती है उसी समय चर्यापरीषह नहीं होती।
सामायिकच्छेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसाम्पराययथाख्यातमिति चारित्रम् ।
९, १८. सामाइयत्थ पढम, छेदोवट्ठावणं भवे वीयं । परिहारविसुद्धीयं, सुहुम तह संपरायं च ॥३२॥ अकसायमहक्खायं, छउमत्थस्स जिणस्स वा । एवं चयरित्तकर, चारित्तं होइ आहियं ॥३३॥
उत्तराध्ययन अ० २८, गाथा ३२-३३ छाया- सामायिकमत्र प्रथम, छेदोपस्थानं भवेदद्वितीयम् ।
परिहारविशुद्धिकं, सूक्ष्मं तथा सम्परायं च ॥३२॥ अकषायं यथाख्यातं, छद्मस्थस्य जिनस्य वा। एतच्चयरिक्तकरं, चारित्रं भवत्याख्यातम् ॥ ३३॥
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२१४ ]
तत्त्वार्थसूत्र जैनाऽऽगमसमन्वय :
भाषा टोका - सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय, और बिनाकषाय वाला यथाख्यात यह छद्मस्थ अथवा जिनके चारित्र कहे गये हैं । यह कर्मों के समूह को नष्ट करने वाले हैं ।
अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासन कायक्लेशा बाह्यं तपः ।
९, १९.
बाहिरए तवे afore पराणत्ते तं जहा - अणसण ऊणोयरिया भिक्खायरिया य रसपरिच्चा । कायकिलेसो पडिसंलीगया वो ( तव होई) ॥
व्याख्याप्रज्ञप्ति शत० २५, उ०७, सु० ८०२.
बाह्यतपः छड्विधं मज्ञप्तं, तद्यथा - अनशनः श्रवमौदर्यः भिक्षाचर्या (वृत्तिपरिसंख्यानं ) च रसपरित्यागः । कायक्लेशः प्रतिसंलीनता (विविक्तशय्यासनं ) बाह्य ( तपः भवति ) ।
-
भाषा टीका - बाह्य तप छै प्रकार के कहे गये हैं:- अनशन, श्रवमौदर्य, भिक्षा, चर्या (वृत्तिपरिसंख्यान ), रसपरित्याग, कायक्लेश और प्रतिसंलीनता ( अथवा विविक्त
शय्याशन ) ।
प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्यस्वाध्यायव्युत्सर्ग
छाया
ध्यानान्युत्तरम् ।
९, २०.
अभितर तवे छवि पराणत्ते, तंजहा - पायच्छित्तं विणओ वेयावच्चं तहेव सज्झाओ, भाणं विसग्गो ।
व्याख्याप्रज्ञप्ति श० २५, उ० ७, सू० ८०२.
आभ्यन्तरतपः षड्विधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा - प्रायश्चित्तं विनयः, वैयावृत्यं, स्वाध्यायः, ध्यानं, व्युत्सर्गः ।
छाया
9
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नवमोऽध्याय:
[
२१५
१,२२.
भाषा टीका-आभ्यन्तर तप भी छै प्रकार के कहे गये हैं:- प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग। नवचतुर्दशपंचद्विभेदा यथाक्रमं प्राग्ध्यानात् ।
१,२१. भाषा टीका - उन आभ्यन्तर तपों के ध्यान से पूर्व २ क्रमशः नौ, चार, दश, पांच और दो भेद हैं।
आलोचनाप्रतिक्रमणतदुभयविवेकव्युत्सर्गतपश्छेदपरिहारोपस्थापनाः।
णवविधे पायच्छित्ते पण्णत्ते, तं जहा-आलोअणारिहे पडिकम्मणारिहे तदुभयारिहे विवेगारिहे विउसग्गारिहे तवारिहे छेदा. रिहे मूलारिहे अणवठ्ठप्पारिहे।
स्थानांग स्थान ९, सू० ६८८. छाया- नवविधः प्रायश्चित्तः, प्रज्ञप्तः, तद्यथा-आलोचनाई, प्रतिक्रमणाई,
तदुभयाई, विवेकाह, व्युत्संगाह, तपसह, छेदाई, मूलाई,
(परिहारार्ह ) अनवस्थापनाई। भाषा टीका- प्रायश्चित नौ प्रकार का कहा गया है:- आलोचनायोग्य, प्रतिक्रमण योग्य, तदुभय योग्य, विवेक योग्य, व्युत्सर्ग योग्य, तप योग्य, छेद योग्य, मूल योग्य, (परिहार योग्य ) और अनवस्था अथवा उपस्थापना योग्य। संगति - यहां तक मागम और सूत्र के शब्द प्रायः मिलते हैं। ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः।
१,२३. विणए सतविहे पण्णते, तं जहा-णाणविणए दंसणविणए
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२१६ J
चरितविण मणविणए वडविणए कायविणए लोगोवया रविणए ।
व्याख्याप्रज्ञप्ति श० २५, उ० ७, सू० ८०२.
छाया -- विनयः सप्तविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - ज्ञानविनयः दर्शनविनयः चारित्रविनयः मनोविनयः वचः विनयः कार्याविनयः लोकोपचारविनयः ।
भाषा टीका - विनय सात प्रकार का कहा गया है:
ज्ञान विनय, दर्शन विनय, चरित्र विनय, मनो विनय, वचन विनय, काय विनय और
लोकोपचार विनय ।
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
संगति सूत्र में मन, द माने हैं । किन्तु आगम ने विस्तार की दृष्टि से सात भेद माने हैं ।
वचन और काय की विनय को न लेकर संक्षेप से केवल चार
आचार्योपाध्याय तपस्विशैक्षग्लानगणकुल
छाया
संघसाधुमनोज्ञानाम् ।
९, २४.
वेयाबच्चे दसविहे पण ते तं जहा-आयरियवे आवच्चे उवज्झायवे आवच्चे सेहवेावच्चे गिलाणवे आवच्चे तपस्सिवे आवच्चे थेरवेच्चवच्चे साहम्मिमवेश्रवच्चे कुलवे आवच्चे गणवेश्रवच्चे संघवे भावच्चे ।
व्याख्याप्रज्ञप्ति श० २५, उ० ७, सू० ८०२.
षैयानृत्यः दशविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - आचार्यवैयावृत्यः, उपाध्यायवैयाहृत्यः, शैक्षवैयावृत्यः, ग्लाणवैयावृत्यः, तपस्विवैयावृत्यः, स्थविरवैयावृत्यः, साधर्मिवैयावृत्यः, कुलवैयावृत्यः, गणवैयावृत्यः, संघवैयावृत्यः ।
भाषा टीका - वैयावृत्य दश प्रकार का कहा गया है: - आचार्य वैयावृत्य, उपाध्याय का वैयावृत्य, शैक्ष का वैयावृत्य, ग्लान का वैयावृत्य, तपस्वियों का वैयावृत्य, स्थविर
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नवमोऽण्याव:
[ २१७
(साधुओं ) का वैयावृत्य, साधर्मियों ( मनोज्ञों ) का वैयावृत्य, कुल का वैयावृत्य, गण का वैयावृत्य, और संघ का वैयावृत्य ।
संगति - यहां संख्या समान होते हुये भी दो नामों में अन्तर हैं । सूत्र के साधु और मनोज्ञ के स्थान पर आगम में क्रमशः स्थविर और साधर्मि कहा गया है । जिसमें कोई विशेष भेद नहीं है। वाचनापृच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशाः।
६, २५ सज्झाए पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-वायणा पडिपुच्छणा, परिप्रणा अणुप्पेहा धम्मकहा।
___ व्याख्याप्रज्ञप्ति श० २५, उ० ७, सू० ८०२. छाया- स्वध्यायः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-वाचना, प्रतिपृच्छना, परि
वर्तना, अनुप्रेक्षा, धर्मकथा । __ भाषा टीका - स्वाध्याय पांच प्रकार का कहा गया है:- वाचना, परिपृच्छना, परिवर्तना (आम्नाय ), अनुप्रक्षा और धर्मकथा (धर्मोपदेश )। बाह्याभ्यन्तरोपध्योः।
९, २६. विउसग्गे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-दव्वविउसग्गे य भावविउसग्गे य ।
व्याख्याप्रज्ञप्ति श० २५, उ०७, २० ८०२. छाया- व्युत्सर्गः द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-द्रव्यविसर्गश्च भावविसर्गश्च ।
भाषा टीका - व्युत्सर्ग दो प्रकार का कहा गया है:-द्रव्य का विसर्ग (त्याग) और भाव का विसर्ग। ...---संगति – बाह्य परिग्रह और द्रव्य परिग्रह प्रथक् २ नही हैं । इसी प्रकार भाव परिग्रह अथवा आभ्यन्तर परिग्रह भी प्रथक् २ नहीं हैं।
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२१८ ]
तत्त्वार्थसूत्रजनाऽऽगमसमन्वय :
९,२७.
उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्महुर्तात् ।
केवतियं कालं अवट्टियपारिणामे होज्जा ? गोयमा ! जहन्नणं एक समयं उक्कोसेण अन्तमुहुत्तं ।
- व्याख्याप्रज्ञप्ति श० २५, उ० ६, सू० ७७०. अंतोमुत्तमित्तं चित्तावस्थाणमेगवत्थुम्मि । छउमत्थाणं झाणं जोगनिरोहो जिणाणं तु ।
स्थानांग वृत्ति० स्थान ४, उ० १, सू० २४७. छाया- कियत्कालं अवस्थितपरिणामः भवति ? गौतम! जघन्येन एकं
समयं उत्कर्षेण अन्तर्मुहुत। अन्तर्मुहुर्तमात्रं चित्तावस्थानमेकत्र वस्तुनि ।
छद्मस्थानां ध्यानं योगनिरोधः जिनानान्तु ॥१॥ प्रश्न - निश्चत (ध्यान के ) परिणाम कितनी देर तक रहते हैं ? उत्तर - कम से कम एक समय तक और अधिक से अधिक अन्तर्मुहुर्त तक।
छमस्थ और जिन के मन वचन और काय की क्रियाओं का रोकना ही ध्यान होता है।
संगति – यह बात स्मरण रखने की है कि क्षपक श्रेणि उत्तम संहनन वाले ही बांधते हैं।
___ आर्त्तरौद्रधर्मशुक्लानि।
चत्तारि झाणा पण्णत्ता, तं जहा-अट्टे झाणे, रोद्दे झाणे, धम्मे झाणे, सुक्के झाणे।
व्याख्याप्रज्ञप्ति श० २५, उ०७, सू०८०३.
६,२८.
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[ २१९
चत्वारि ध्यानानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - श्रार्तं ध्यानं, रौद्रं ध्यानं, धर्मं ध्यानं, शुक्लं ध्यानम् ।
भाषा टीका
-
- ध्यान चार प्रकार के कहे गये हैं: - आर्त ध्यान, रौद्र ध्यान, धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान ।
छाया -
नवमोऽध्यायः
परे मोक्ष हेतुः ।
धम्मसुकाई झाणाई, झाणं तं
९, २९.
तु बुहा वए ।
उत्तराध्ययन अ० ३० गाथा ३५.
छाया - धर्मशुक्ले ध्याने, ध्यानं तत् तु बुद्धा वदेयुः । भाषा टीका - धर्म और शुक्ल ध्यान को बुद्ध कहते हैं ।
छाया -
संगति - बुद्धिमानों ने मोक्ष का कारण होने से धर्म और शुक्ल को ही वास्तविक
ध्यान माना है ।
आर्त्तममनोज्ञस्य संप्रयोगे तद्विप्रयोगाय
स्मृतिसमन्वाहारः ।
९, ३०.
हे झाणे चउविहे पणत्ते, तं जहा - अमणुन्नसंपयोगसंपते तस्स विप्पयोग सति समन्नागए यावि भवइ ।
व्याख्याप्रज्ञप्ति श० २५, उ०७, सू० ८०३.
ध्यानं चतुर्विधं प्रज्ञप्त, अमनोज्ञसम्प्रयोग सम्प्रयुक्तो तस्य विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वा गतश्चापि भवति ।
भाषा टीका - आर्त ध्यान चार प्रकार का कहा गया है। [ उनमें से प्रथम अनिष्ठ संयोग है ] |
अनिष्ट अथवा अप्रिय व्यक्ति से संयोग होने पर उसके वियोग के लिये बारबार चिन्ता करना [ अनिष्ट संयोग आर्तध्यान है ] ।
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२२० ]
९, ३१.
मणुन्न संपद्मोगसंपत्ते तरस विप्पयोग सति समरणायावि भवति ।
छाया
तत्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
विपरीतं मनोज्ञस्य |
व्याख्याप्रज्ञप्ति श० २५, उ०७, सू० ८०३.
मनोज्ञसम्प्रयोगसम्प्रयुक्तो तस्य श्रविप्रयोगाय स्मृतिसमन्वागतश्चापि भवति ।
इष्ट व्यक्ति के संयोग होने पर उसका वियोग न होने की चिन्ता करना ।
अथवा इष्ट व्यक्ति का वियोग होने पर उसके मिलने के लिये बारबार चिन्ता करना [ इष्ट वियोग नामक आर्तध्यान है । ]
यावि भवति ।
छाया
९, ३२.
मयंक संपभोगसंपत्ते तरस विप्पयोग सति समरागए
वेदनायाश्च ।
व्याख्याप्रज्ञप्ति श० २५, ०७, सू० ८०३. श्रातङ्कसम्प्रयोगसम्प्रयुक्तो तस्य विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वागतश्चापि भवति ।
भाषा टीका
-
- किसी दुःख अथवा कष्ट के पड़ने पर उसके दूर होने के लिये arrer चिन्ता करना [ वेदना नामक आर्त ध्यान है ] ।
निदानञ्च ।
९, ३३.
परिजुसितकामभोग संपयोगसंपत्ते तस्य अविप्पयोग सति
समरणागते यावि भवइ ।
व्याख्याप्रज्ञप्ति श० २५, उ०७, सू०८०३.
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नवमोऽध्यायः
[
२२१
छाया- परिजूषितकामभोगसम्प्रयोगसम्प्रयुक्तो तस्य अविप्रयोगाय स्मृति
समन्वागतश्चापि भवति । भाषा टीका- अनुभव किये अथवा भोगे हुए काम भोगों के वियोग न होने के लिये वांछा करना और उसका विचार करते रहना [निदान नामक आर्तध्यान कहलाता है] संगति - इन सब सूत्रों के शब्द आगम वाक्यों से प्रायः मिलते हैं। तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् ।
९, ३४. अरुहाणि वजित्ता, झाएजा सुसमाहिये ।।
उत्तराध्ययन अध्ययन ३०, गाथा ३५. छाया- आर्तरौद्राणि वर्जयित्वा, ध्यायेत् सुसमाहितः । भाषा टीका-आर्त और रौद्र को छोड़कर उत्तम समाधि में लगा हुआ ध्यान करे।
संगति – उत्तम समाधि को प्राप्ति सातवें गुणस्थान से आरम्भ होती है । अतः यह स्वयं ही सिद्ध हो गया कि आर्त ध्यान सातव से पहिले २ अर्थात् प्रथम गुणस्थान से लगाकर छटे प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होता है।
हिंसान्तस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयोः।
६, ३५. रोदज्झाणे चउव्विहे पण्णते, तं जहा-हिंसाणुबंधी मोसाणुबंधी तेयाणुबन्धी, सारक्खणाणुबंधी ।
व्याख्याप्रज्ञप्ति श० २५ उ०७, सू०८०३. झाणाणं च दुयं तहा जे भिक्खू वजई निच्चं ।
उत्तराध्ययन अ०३१, गाथा ६. छाया- रौद्रध्यानं चतुर्विधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-हिंसानुबन्धी, मृषानुबन्धी,
स्तेयानुबन्धी, संरक्षणानुबन्धी।
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तत्वार्थ सूत्र जैनाऽऽगमसमन्वय :
ध्यानानां च द्विकं तथा, यो क्षिक्षुर्वर्जयति नित्यं ।
भाषा टीका - रौद्र ध्यान चार प्रकार का कहा गया है - १ | हिंसानुबन्धी अथवा हिंसानन्दी - [ हिंसा करने का बार बार चितन्तवन करना और उसमें आनन्द मानना, ] २ मृषानुबन्धी अथवा मृषोनन्दी -[ मूंठ बोलने का चिन्तवन करना और उसमें आनन्द मानना । ]
२२२ ]
३ स्तेयानुबन्धी अथवा चौर्यानन्दी -[ चोरी करने का चिन्तवन करना और उसमें आनन्द मानना ।]
४ संरक्षणानुबन्धी अथवा परिग्रहानन्दी - [ विषयों को सामग्री का संरक्षण करने चितवन करना और उसमें आनन्द मानना । ]
इन ध्यानों का भिक्षु सदा त्यागन करता है ।
संगति – इससे प्रगट है कि यह ध्यान भिक्षु अथवा छटे गुण स्थान वाले के नहीं होता । अतः यह स्वयं सिद्ध होगया कि यह प्रथम गुण स्थान से लगाकर पांचवें देशविरत गुणस्थान तक होता है ।
आज्ञापायविपाकसंस्थान विचयाय धर्म्यम् ।
९, ३६.
धम्मे झाणे चउविहे पणणते, तं जहा - आणाविजए, वायविजए, विवागविजए, संठाणविजए ।
व्याख्याप्रज्ञति श० २५, उ०७, सू० ८०३.
छाया- धर्मध्यानं चतुर्विधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा - आज्ञाविचयः, अपायविवयः, विपाकविचयः संस्थानविचयः ।
भाषा टीका - धर्म ध्यान चार प्रकार का कहा गया है - आज्ञाविवय, अपाय विचय, विपाकविचय, और संस्थानविचय ।
संगति – उपदेशदाता के अभाव से और अपनी मंद बुद्धि से सूक्ष्म पदार्थों का स्वरूप अच्छी तरह समझ में न आवे तो उस समय सर्वज्ञ की आज्ञा को प्रमाण मान कर इन पदार्थ का अर्थ अवधारण करना आज्ञावित्रय धर्म ध्यान है ।
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नवमोऽध्यायः
[ २२३
मिथ्यादृष्टियों के कहे हुये उन्मार्ग से ये प्राणी कैसे फिरेगें ? ये कब सन्मार्ग में भावेंगे ? इस प्रकार सन्मार्ग के अपाय का अथवा आस्रव के स्वरूप का चिन्तवन करना अपाय विचय धर्मध्यान है।
ज्ञानावरण आदि कर्मों का द्रव्य क्षेत्र काल भाव के अनुसार जो विपाक अर्थात फल होता है उसका चिन्तवन करना विपाक विचय धर्मध्यान है। और
लोक के संस्थानों का चिन्तवन करना सो संस्थान विचय धर्मध्यान है ।
यह धर्मध्यान चौथे असंयत, पांचवे देशसंयत, छटे प्रमत संयत और सातवें अप्रमत्त संयत इन चार गुणस्थानों में होता है।
शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः। -
९,३७. सुहमसंपरायसरागचरित्तारिया य बायरसंपरायसरागचत्तारिया य,... 'उवसंतकसायवीर रायचरित्तारिया य खीणकसाय वीयरायचरित्तारिया च।
प्रज्ञापना सूत्र पद १, चारित्रायविषय. छाया- सूक्ष्मसाम्परायसरागचरित्रार्याश्च बादरसाम्परायसरागचरित्रार्या
श्च । उपशान्तकषायवीतरागचरित्रार्याश्च क्षीणकषायवीतरागच
रित्रार्याश्च । भाषा टीका-सूक्ष्मसाम्पराय सराग चारित्र वाले आर्य, बादरसाम्परायसरागचारित्र वाले आर्य, उपशान्त कषाय वीतराग चारित्र वाले आर्य और क्षीणकषाय वीतराग चारित्र वाले आर्य [ इनके पृथक्त्ववितर्क और एकत्वषितर्क नामके दो शुक्ल ध्यान होते हैं।]
परे केवलिन । सजोगिकवलिखीणकषायवीयरायचरित्तारिया य अजोगिकेवलिखीणकसायवीयरायचरित्तारिया य ।
प्रज्ञापनासूत्र पद १ चारित्राविषय.
६,३८.
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२२४ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
९, ३६.
छाया- सयोगिकेवलिक्षीणकषायवीतरागचरित्रार्याश्च अयोगिकेवलिली.
णकषायवीतरागचरित्रार्याश्च । भाषा टीका-सयोगि केवलि क्षीणकषायवीतरागचारित्र वाले आर्यो के और अयोगिकेवलि क्षीणकषायवीतरागचारित्रवाले आर्यो के [सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति और व्युपरत क्रियानिवर्ति नाम के बाद के दो।शुक्लध्यान होते हैं।]
पृथक्त्वैकत्ववितर्कसूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिव्युपरतक्रियानिवर्तीनि।
सुक्के झाणे चउविहे पण्णत्ते) तं जहा- हुत्तवितके सवियारी १, एगत्तवितके अवियारी २, सुहुमकिरिते अणियट्टी ३, समुच्छिन्नकिरिए अप्पडिवाती।
व्याख्याप्रज्ञप्ति श० २५, उ० ७, सू० ८०३. छाया- शुक्लध्यानं चतुर्विधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-पृथ्क्त्ववितर्कः सविचारि १,
एकत्ववितर्कः अविचारि २, सूक्ष्मक्रिया अनिवर्ति ३, समुच्छिन्न
क्रिया अप्रतिपाति । भाषा टीका - शुक्खध्यान के चार भेद होते हैं- १. पृथक्त्व वितर्क सविचारी, २. एकत्ववितर्क अविचारी, ३. सूक्ष्मक्रिया अनिवर्ति अथवा सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति और ४. समुच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाती अथवा व्युपरतक्रियानिविर्ति ।
व्येकयोगकाययोगायोगानाम् । सुहमसंपरायसरागचरित्तारिया य बायरसंपरायसरागचरितारिया य, ........"उवसंतकसायवीतरायचरित्तारिया य खीणकसायवीयरायचरित्तारिया च ।
९.४०.
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नवमोऽध्याय:
[ २२५
सजोगिकेवलिखीण कसायवीयरायचरितारिया य अजोगि केवलिखीणक सायवीयरायचरितारिया य ।
प्रज्ञापना सूत्र पद १ चारित्रार्यविषय | छाया - सूक्ष्मसाम्परायसरागचरित्रार्याश्च बादरसाम्परायसरागचरित्रार्याश्च । उपशान्तकषायवीतरागचरित्रार्याश्च क्षीणकषायवीतरागचरित्रार्याश्च ।
1
सयोगिकेवलक्षीणकषायवीतरागचरित्रार्याश्च । प्रयोगिकेवलिक्षीकषायवीतरागचरित्रार्याश्च ।
भाषा टीका सूक्ष्मसाम्पराय सरागचारित्र वाले आर्य, बादरसाम्परायसरागचारित्र वाले आर्य, उपशान्तकषाय वीतरागचारित्र वाले आर्य, क्षीणकषाय वीतरागचारित्र वाले आर्य, सयोगिकेवलि क्षीणकषाय वीतरागचारित्र वाले आर्य, और अयोगिकेवल क्षीणकषाय वीतरागचारित्र वाले आर्य के [ यह शुक्ल ध्यान होते हैं । ]
( संगति) इस कथन से प्रगट है कि पृथक्त्ववितर्क नामका प्रथम शुक्ल ध्यान मन, वचन और काय इन तीनों योगों के धारक के होता है। दूसरा एकत्ववितर्क नामका शुक्ल ध्यान तीनों में से किसी एक योगवाले के होता है । तीसरा सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति नामका ध्यान काययोग वालों के ही होता है और चौथा व्युपरतक्रियानिविर्ति नामका ध्यान योगकेवली के ही होता है।
प्रथम के दो ध्यानों के विशेष रूप से जानने के लिये सूत्र कहे जाते हैं
एकाश्रये सवितर्कविचारे पूर्वे ।
९, ४१.
विचारं द्वितीयम् ।
वितर्कः श्रुतम् । विचारो ऽर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिः ।
६, ४३.
४४.
९, ४२.
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तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
उप्पायठितिभंगाई पजयागं जमेगदव्वंमि । नाणानयाणुसरणं पुव्वगयसुयाणुसारेणं ॥ १ ॥ सवियारमत्थवंजणजोगंतरत्र तयं पढमसुक्कं । होति पुहुत्तवियक्कं सवियारमरागभावस्स ॥ २ ॥ जं पुण सुनिप्पकंपं निवाय सरणप्पईवमिव चित्तं । उप्पायटिइभंगाइयाणमेगंमि पजाए ॥ ३ ॥ अवियारमत्थवं जग जोगंतर तयं बिइयसुक्कं । पुव्वगयसुयालंबण मेगत्तवियक्कमवियारं ॥ ४ ॥
२२६ ]
स्थानांग सूत्र वृत्ति स्था० ४, उ० १, सू० २४७. उत्पादस्थितिभंगादिपर्यवानां यदेकस्मिन् द्रव्ये । नानानयैरनुसरणं पूर्णगतश्रुतानुसारेण ॥ १ ॥ सविचारमर्थव्यञ्जनयोगान्तरतस्तत् प्रथमशुक्लम् । भवति पृथक्त्ववितर्कं सविचारमरागभावस्य ॥ २ ॥ यत्पुनः सुनिष्प्रकंपं निवातस्थानप्रदीपमिव चित्तं । उत्पादस्थितिभंगादीनामेकस्मिन् पर्याये ॥ ३ ॥ अविचारमर्थव्यञ्जनयोगान्तरतस्तत् द्वितीयं शुक्लम् । पूर्वगतश्रुतालम्बनमेकत्ववितर्कमविचारम् ॥ ४ ॥
भाषा टीका – जो एक द्रव्य में पूर्वगतश्रुत के अनुसार अनेक नयों के द्वारा उत्पाद, व्यय, धौव्य आदि पर्यायों का विचार सहित अर्थ, व्यञ्जन और योग का अन्तर ( पलटना अथवा संक्रान्ति ) है उसे पृथक्त्ववितर्क सविचार नामका प्रथम शुक्लध्यान कहते हैं। यह रागरहित भाववाले मुनियों के होता है ॥ १-२ ॥
और जो उत्पाद, व्यय, धौव्य आदि भंगों में से एक पर्याय में अर्थ, व्यञ्जन और योग के अन्तर के विचार रहित निर्वातस्थान में दीपक के समान निष्कम्प रहता है वह पूर्वगत तालम्बन रूप एकत्ववितर्क अविचार नामका द्वितीय शुक्ल ध्यान है ॥ ३४॥ इस प्रकार बाह्य और आभ्यन्तर तपों का वर्णन किया गया। यह दोनों प्रकार के तप
छाया
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नवमोऽध्याय:
[ २२७
नवीन कर्मों का निरोध करने के कारण होने से संवर के कारण हैं और पूर्व बंधे कर्मों के नष्ट करने के निमित्त होने से निर्जरा के भी कारण हैं।
___ अब तपश्चरण आदि करने से जो निर्जरा होना कहा है वह समस्त सम्यग्दृष्टि जीवों के एक सी ही होती है अथवा भिन्न प्रकार की होती है यह बतलाने के लिये सूत्र कहते हैं
सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोहक्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः।
कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउदस जीवट्ठाणा पएणत्ता, तं जहा-'अविरयसम्मट्ठिी विरयाविरए पमत्तसंजए अप्पमत्तसंजए निअट्टीबायरे अनिअट्टिबायरे सुहुमसंपराए उवसामए वा खवए वा उवसंतमोहे खीणमोहे सजोगी केवली अयोगी केवली।
समवायांग समवाय १४. छाया- कर्मविशुद्धिमार्गणां प्रतीत्य चतुर्दशजीवस्थानानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा
अविरतसम्यग्दृष्टिः विरताविरतः प्रमत्तसंयतः अप्रमत्तसंयतः निवृत्तिबादरः अनिवृत्तबादरः सूक्ष्मसाम्परायः उपशमकः वा क्षपका
वा उपशान्तमोहः क्षीणमोहः सयोगी केवली अयोगी केवली। भाषा टोका-कर्मों की विशुद्धि के मार्ग को दृष्टि से जीव स्थान चौदह होतेहैं:
अविरतसम्यग्दृष्टि, देशव्रत के धारक श्रावक, प्रमत्तसंयत वाले मुनि, अप्रमत्तसंयत, निवृत्तिबादर, अनिवृत्ति बादर, सूक्ष्मसाम्पराय उपशमक अथवा क्षपक, उपशान्त मोह, क्षीण मोह, सयोगी केवलो (जिन) और अयोगी केवली [ इनके क्रमसे असंख्यातगुणो निर्जरा होतो है।] पुलाकबकुशकुशीलनिर्ग्रन्थस्नातका निर्ग्रन्थाः।
६, ४६.
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________________
२२८ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
पंच गियंठा पन्नत्ता, तं जहा - पुलाए बउसे कुसीले यिंठे
सिखाए ।
व्याख्याप्रज्ञप्ति श० २५, ०५, सु० ७५१.
पश्च निर्ग्रन्थाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - पुलाक: बकुश: कुशीलः, निर्ग्रन्थः स्नातकः ।
भाषा टीका – निथ पांच प्रकार के कहे गये हैं:- पुलाक, बकुश, कुशील, न और स्नातक |
अब इन्हीं के अन्य भेद भी कहे जाते हैं:
—
छाया
संयमश्रुतप्रतिसेवनातीर्थलिङ्गलेश्योपपादस्थानविकल्पतः साध्याः ।
पडि सेवा गाणे तिथे लिंग-खेत्ते काल गइ संजम "
लेसा ।
व्याख्याप्रज्ञप्ति श० २५, उ०५, सू० ७५१.
छाया
परिसेवना ज्ञानं तीर्थः लिङ्गः क्षेत्रः कालः गतिः संयमः लेश्या । भाषा टीका – परिसेवना (प्रतिसेवना) ज्ञान (श्रुत ), तीर्थ, लिङ्ग, क्षेत्र (स्थान), काल, गति ( उपपाद ), संयम और लेश्या [ के भेदों से भी विचार करे ]
-
६,४७.
संगति - आगम तथा सूत्र के शब्दों में नाम मात्र का ही अन्तर है । आगम में इन भेदों को विस्तार दृष्टि से छत्तीस प्रकार का बतलाया गया है, जिन में सूत्र के योग्य यहां ये गये हैं।
1
इति श्री - जैन मुनि - उपाध्याय - श्रीमदात्माराम - महाराज - संगृहीते तत्वार्थसूत्र जैनाऽऽगमसमन्वये
* नवमोऽध्यायः समाप्तः ॥ ६॥
-:o:
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दशमोऽध्यायः मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच केवलम् ।
१०, १. खीणमोहस्स णं अरहओ ततो कम्मंसा जुगवं खिजंति, तं जहा-नाणावरणिजं दंसणावरणिजं अंतरातियं ।
स्थानांग स्थान ३, उ० ४, सू० २२६. तप्पढमयाए जहाणुपुवीए अट्ठवीसइविहं मोहणिजं कम्म उग्घाएइ, पञ्चविहं नाणावरणिजं, नवविहं दसणावरणिजं, पंक विहं अन्तराइयं, एए तिन्नि वि कम्मसे जुगवं खवेइ ।
उत्तराध्ययन अध्ययन २९, सू० ७१. छाया- क्षीणमोहस्याहतस्ततः कांशाः युगपत् क्षपयन्ति, तद्यथा-ज्ञाना
वरणीयं, दर्शनावरणीयं अंतरायिकं । तत्पथमतया यथानुपूर्व्या अष्टाविंशतिविधं मोहनीयं कर्मोद्घातयति । पंचविधं ज्ञानावरणीयं, नवविधं दर्शनावरणीयं, पञ्चविष
मन्तरायिकमेतानि त्रीण्यपि कर्माणि युगपत् क्षपयति । भाषा टीका-मोहनीय कर्म को नष्ट करने वाले अहंत के इसके पश्चात् निम्नलिखित कर्मो के अंश एक साथ नष्ट होते हैं- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अंतराय ।
[अर्थात् ] सब से प्रथम पूर्व आनुपूर्वी के अनुसार अट्ठाइस प्रकार के मोहनीय कर्म को नष्ट करता है। [इसके पश्चात् ] पांच प्रकार के ज्ञानावरणीय, नौ प्रकार के दर्शना वरणीय, और पांच प्रकार के अंतराय इन तीनों ही कर्मों को एक साथ नष्ट करता है।
संगति - और तब इसके केवलज्ञान प्रगट होता है।
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२३० ]
तत्त्वार्थसूत्रजनाऽऽगमसमन्वय :
१०,२.
___ बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमो
क्षो मोक्षः। ___अणगारे समुच्छिन्नकिरियं अनियट्टिसुकमाणं झियायमाणे वेयणिज आउयं नाम गोत्तं च एए चत्तारि कम्मसे जुगवं खवेइ ।
उत्तराध्ययन अध्ययन २९, सूत्र ७२. छाया- अनगारः समुच्छिन्नक्रियमनिवृत्तिशुक्लध्यानं ध्यायन्वेदनीयमायुर्नाम
गोत्रं चैतान् चतुरः कांशान युगपत्क्षपयति । भाषा टीका-[इसके पश्चात् वह ] मुनि समुच्छिन्नक्रिया अनिवृत्ति अथवा व्युपरतक्रियानिवर्ति नाम के चतुर्थ शुक्ल ध्यान का ध्यान करते हुए वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र इन चार कर्मो के अंशों अथवा प्रकृतियों को एक साथ नष्ट करते हैं ।
___ संगति - वीतराग होने के कारण उस समय बंध के सभी कारणों का अभाव हो जाता है और प्रतिक्षण निर्जरा होते २ अंत में चारों अघातिया कर्मा को भी निर्जरा हो जाती है। उस समय सम्पूर्ण कर्मों का नाश रूप मोक्ष की प्राप्ति होती है।
औपशमिकादिभव्यत्वानाञ्च । नोभवसिद्धिए नोअभवसिद्धिए।
प्रज्ञापना पद १८. छाया- न भवसिद्धिकः नाऽभवसिद्धिकः ।
भाषा टीका - उस समय न भव्यत्व भाव रहता है और न अभव्यत्व भाव रहता है।
संगति - औपशमिक, क्षायोपशमिक, औदयिक तथा भव्यत्व [ तथा अभव्यत्व] भावों का और पुद्गलकर्मों की समस्त प्रकृतियों का नाश हो जाने पर मोक्ष होता है। अन्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शनसिद्धत्वेभ्यः।
१०,४.
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दशमोऽध्यायः
[ २३१
खीणमोहे (केवलसम्मत्तं) केवलणाणी, केवलदंसी सिद्धे।
अनुयोगद्वारसूत्र षण्णामाधिकार सू० २२६. छाया- क्षीणमोहः ( केवलसम्यक्त्व), केवलज्ञानी, केवलदर्शी, सिद्धः ।
भाषा टीका - क्षीण मोह वाले, (केवल सम्यक्त्व वाले ), केवल ज्ञान वाले, और केवल दर्शन वाले सिद्ध होते हैं।
संगति – केवल सम्यक्त्त्व, केवल ज्ञान, केवल दर्शन और केवल सिद्धत्व भावों के सिवाय अन्य भावों का मुक्त जीवों के अभाव है। अनन्त वीर्य आदि भावों का उपरोक्त भावों के साथ अविनाभाव सम्बन्ध होने से उनका प्रभाव न समझना चाहिये। तदनन्तरमूवं गच्छत्यालोकान्तात् ।
१०,५. अणुपुव्वेणं अट्ठ कम्मपगडीओ खवेत्ता गगणतलमुप्पइत्ता उप्पिं लोयग्गपतिठ्ठाणा भवन्ति ।
ज्ञाताधर्मकांग, अध्ययन ६, सू० ६२. छाया- अनुपूर्वेण अष्टकर्मप्रकृतयः क्षपयित्वा गगनतलमुत्पत्य उपरि
लोकाग्रप्रतिष्ठानाः भवन्ति । भाषा टीका - इस प्रकार क्रम से आठों कर्मों की प्रकृतियों को नष्ट करके आकाश में ऊर्ध्व गति द्वारा लोक के अप्र भाव में स्थित होते हैं ।
१०,६.
पूर्वप्रयोगादसंगत्वाधच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च ।
आविद्धकुलालचक्रवद्वयपगतलेपालाबुवदेरण्डबीजवदग्निशिखावच्च ।
+ सिद्धा सम्मदिट्ठी (सिद्धाः सम्यग्दृष्टिः) प्रज्ञापना १९ सम्यक्स्व पद.
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२३२ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
अत्थि णं भंते ! अकम्मस्स गती पन्नायति ? हंता अस्थि, कहन्नं भंते! अकम्मस्स गती पन्नायति ? गोयमा निस्संगयाए निरंगणयाए गतिपरिणामेणं बंधणछेयणयाए निरंधणयाए पुव्वपयोगेणं अकम्मस्स गती पन्नत्ता । कहन्नं भंते ! निस्संगयाए नि. रंगणयाए गइपरिणामेणं बंधणछेयणयाए निरंधणयाए पुव्वप्प
ओगेणं अकम्मस्स गती पन्नायति ? से जहानामए, केई पुरिसे सुकं तुंबं निच्छिड्ड निरुवहयं आणुपुव्वीए परिकम्मेमाणे २ दम्भेहि य कुसेहि य वेढेइ २ अट्ठहिं मट्ठियालेवेहिं लिंपइ २ उण्हे दलयति भूतिं २ सुकं समाणं अत्थाहमतारमपोरसियंसि उदगंसि पक्खिवेज्जा, से नूणं गोयमा ! से तुंबे तेसिं अट्ठण्हं मट्ठियालेवेणं गुरुयत्ताए भारियत्ताए गुरुसंभारियत्ताए सलिलतलमतिवइत्ता अहे धरणितलपइट्ठाणे भवइ ?, हंता भवइ, अहे णं से तुंबे अढण्हं मट्ठियालेवेणं परिक्खएणं धरिणतलमतिवइत्ता उप्पि सलिलतल. पइट्ठाणे भवइ ? हंता भवइ, एवं खलु गोयमा! निस्संगयाए निरंगणयाए गइपरिणामेणं अकम्मस्स गई पन्नायति । कहन्नं भंते! बंधणछेदणयाए अकम्मस्स गई पन्नत्ता ? गोयमा ! से जहानामए-कलसिंबलियाइ वा मुग्गसिंबलियाइ वा माससिंबलियाइ वा सिंबलिसिंबलियाइ वा एरंडमिंजियाइ वा उण्हे दिन्ना सुक्का समाणी फुडित्ताणं एगंतमंतं गच्छइ, एवं खलु गोयमा ! । कहन्नं भंते ! निरंधणयाए अकम्मरस गती? गोयमा ! से जहानामए-धूमस्स इंधणविप्पमुक्कस्स उड्ढं वीससाए निव्वाघाएणं,
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दशमोऽध्यायः
[ २३३
छाया
गती पवत्तति, एवं खलु गोयमा! ० । कहन्नं भंते ! पुव्वपओगेणे अकम्मस्स गती पन्नत्ता? गोयमा ! से जहानामए-कंडस्स कोदंङविप्पमुक्कस्स लक्खाभिमुही निव्वाघाएणं गती पवत्तइ, एवं खलु गोयमा! नीसंगयाए निरंगणयाए जाव पुव्वपओगेणं अकम्मस्स गती पण्णत्ता।
व्याख्याप्रज्ञप्ति श०७, उ० १, सू० २६५ अस्ति भदन्त ! अकर्मणः गतिः प्रज्ञायते? हन्त अस्ति । कथं नु भगवन् ! अकर्मण: गतिः प्रज्ञायते ? गौतम! निःसंगतया निरङ्गतया गतिपरिणामेण बन्धनछेदनतया निरिन्धनतया पूर्वप्रयोगेण अकर्मणः गतिः प्रज्ञप्ता । कथं नु भगवन् ! निःसंगतया निरङ्गतया गतिपरिणामेण बन्धनछेदनतया निरिन्धनतया पूर्वप्रयोगेण अकर्मणः गतिः प्रज्ञायते ? अथ यथानामकः कोऽपि पुरुषः शुष्कं तुम्बं निश्छिद्रं निरुपहतं आनुपूर्व्या परिक्रमन् २ दर्भश्च कुशेश्च वेष्टयति २ अष्टाभिः मृत्तिकालेपैः लिम्पति २ उष्णे ददाति भूरि भूरि शुष्कं सन् अस्थाघे (अगाधे) अतारं अपौरुषिके उदके प्रक्षिपेत्, अथ नूनं गौतम! सस्तुम्बः तेषा अष्टानां मृत्तिकालेपानां गुरुकतया भारिकतया गुरुसंभारिकतया सलिलतलमतिपत्य अधस्तात् धरणितलप्रतिष्ठानः भवति ? हत भवति, अथ सस्तुम्बः अष्टानां मृत्तिकालेपानां परिक्षयेण धरणितलमतिपत्य उपरि सलिलतलप्रतिष्ठानः भवति? हंत भवति, एवं खलु गोयमा ! निःसंगतया निरङ्गतया गतिपरिणामेण अकर्मण! गतिः प्रज्ञायते। कथं भगवन् ! बन्धनछेदनतया अकर्मणः गतिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! अथ यथानामक:-कलसिम्बलिका (धान्यविशेषफलिका ) वा मुद्गसिम्बलिका वा माषसिम्बलिका वा शाल्मलिसिम्बलिका वा एरण्डमिञ्जिका उष्णे दत्ता शुष्का सती स्फुटिता
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२३४ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वयः
एकान्तमन्तं गच्छति । एवं खलु गौतम! ० । कथं- भगवन् ! निरिन्धनतयाऽकर्मणः गतिः? गौतम! अथ यथानामकःधूमस्येंधनविप्रमुक्तस्य ऊर्ध्वं विस्रसया निर्विघातेन गतिः प्रवर्तते, एवं खलु गौतम! ० । कथं नु भगवन्! पूर्वप्रयोगेणाऽकर्मणः गतिः प्रज्ञप्ता ? गौतम! अथ यथानामकः, काण्डस्य कोदण्डविप्रमुक्तस्य लक्ष्याभिमुखी निर्विघातेन गतिः प्रवर्तति । एवं खलु गौतम! निःसंगतया निरागतया यावत् पूर्वप्रयोगेण अकर्मणः
गतिः प्रज्ञप्ता । भाषा टीका - [अब प्रश्न करते हैं कि जीव मुक्त होने पर ऊपर को ही क्यों जाता है सो इसके उत्तर में सूत्रार्थ कहते हैं]
प्रश्न - भगवन् ! क्या कर्म रहित जीव के गति होती है ? उत्तर - हाँ, होती है ? प्रश्न - उनके गति किस प्रकार होती है ?
उत्तर – हे गौतम ! संग रहित होने से, राग (रंग) रहित होने से, स्वाभाविक ऊर्ध्व गमन स्वभाव वाला होने से, कर्म बन्ध के नष्ट हो जाने से, इंधन रहित होने से और पूर्व प्रयोग से कर्म रहित जीव के गति होती है।
प्रश्न – भगवन् ! संग रहित होने से, राग (रंग ) रहित होने से, स्वाभाविक ऊर्ध्वगमन स्वभाववाला होने से, कर्म बन्ध के नष्ट हो जाने से, इंधन रहित होने से और पूर्व प्रयोग से कर्म रहित जीव के गति किस प्रकार होती है ?
उत्तर – जिस प्रकार कोई पुरुष छिद्ररहित बिना टूटी हुई सुखी तुम्बी को क्रमसे लाता हुआ पहिले दाभ और कुशाओं से बार २ लपेटता है । इसके पश्चात् वह उसके ऊपर मिट्टी के आठ लेप करता है । फिर उसको धूप में रख कर बार बार सुखाता है । इसके पश्चात् वह उस तुम्बी को मनुष्य के डूबने योग्य अगाध गहन जल में फेंक देता है। तब हे गौतम! क्या वह तुम्बी उन आठों मिट्टी के लेपों के बोझ से अत्यन्त भारी हो जाने के कारण पानी के बिल्कुल नीचे के पृथ्वीतल पर जा पड़ेगी ? अवश्य जा पड़ेगी?
इसके पश्चात् क्या वह तुम्बी जल के कारण धीरे २ मिट्टी के आठों लेपों के घुल जाने से पृथ्वी तल से ऊपर उठ कर जल के ऊपर आजाती है १ निश्चय से आजाती है । उसी
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दशमोऽध्यायः
[ २३५
प्रकार हे गौतम! संग रहित होने से, राग ( रंग ) रहित होने से और स्वाभाविक ऊर्ध्वं गमन स्वभाव होने से कर्म रहित जीव के भी गति होती है ।
प्रश्न- भगवन् ! बंधन के नष्ट होने से कर्म रहित जीव के किस प्रकार गति होती
है ?
उत्तर
—
- हे गौतम! जिस प्रकार कल नाम के अनाज की फली, मूंग की फली, उड़द की फली, सेंभल की फली अथवा एरण्ड की फली को धूप में रख कर सुखाने से जब वह फूटती है तो बीज टूट २ कर एक ओर को ही जाते हैं उसी प्रकार हे गौतम! [ कर्म ] बन्धन के नष्ट होने से कर्म रहित जीव की गति होती है ।
प्रश्न
- भगवन् ! इंधन रहित होने से कर्म रहित जीव के गति किस प्रकार होती
है ?
उत्तर - हे गौतम ! जिस प्रकार इंधन से निकला हुआ धुआं बिना किसी बाधा हुए स्वभाव से ऊपर को ही जाता है उसी प्रकार इंधन रहित होने से कर्म रहित जीव के गति होती है।
प्रश्न
- भगवन् पूर्व प्रयोग से कर्म रहित के गति किस प्रकार कही गई है ?
—
-
उत्तर - हे गौतम! जिस प्रकार धनुष से छोड़े हुए बाण की गति निर्बाध रूप से अपने लक्ष्य की ओर ही होती है, उसी प्रकार हे गौतम! संग रहित होने से राग (रंग) रहित होने से, स्वाभाविक ऊर्ध्व गमन र भाव वाला होने से, बन्धन के नष्ट होने से, इंधन रहित होने से और पूर्व प्रयोग से कर्म रहित जीव के गति कही गई है ।
जीव का जब ऊर्ध्व गमन स्वभाव है तो फिर वह लोक के अन्त में ही जाकर क्यों ठहर जाता है ? आगे क्यों नहीं चला जाता ? इसका उत्तर सूत्र द्वारा दिया जाता है
धर्मास्तिकायाभावात् ।
१०, ८.
चहिं ठाणेहिं जीवा य पोग्गला य णो संचातेंति बहिया लोगंता गमणताते, तं जहा गतिमभावेणं णिरुवग्गहताते लक्खताते लोगाणुभावेणं ।
BO
स्थानांग स्थान ४, ४०३, सु० ३३७
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२३६ ]
तत्त्वार्थसूत्रजनाऽऽगमसमन्वय :
छाया- चतुर्भिः स्थानैः जीवाश्च पुद्गलाश्च न शक्नुवंति बहिस्ताल्लोका
न्ताद्गमनाय । तद्यथा-गत्यभावेन निरुपग्रहतया (धर्मास्तिकाया
भावेन) रूक्षतया लोकानुभावेन । - भाषा टीका - चार कारणों से जीव और पुद्गल लोक के अन्त से बाहिर नहीं जा सकते
आगे गति का अभाव होने से, उपग्रह (धर्मास्तिकाय ) का अभाव होने से, लोक के अंत भाग के परिमाणुओं के रूक्ष होने से और अनादि काल का स्वभाव होने से ।
सगति - आगम में जीव और पुद्गल दोनों की अपेक्षा विशेष दृष्टि से कथन किया गया है, जैसा कि आगमों में प्रायः होता है । सूत्रों में संक्षिप्त ही वर्णन किया जाता
क्षेत्रकालगतिलिंगतीर्थचारित्रप्रत्येकबुद्धबोधितज्ञानावगाहनान्तरसंख्याल्पबहुत्वतः साध्याः।
१०, ६. खेत्तकालगईलिङ्गतित्थे चरित्ते।
व्याख्याप्रज्ञप्ति श० २५, उ० ६, २०७५१. पत्तेयबुद्धसिद्धा बुद्धबोहियसिद्धा।
नन्दिसूत्र केवलज्ञानाधिकार. नाणे खेत्त अन्तर अप्पाबहुयं ।।
____ व्याख्याप्रज्ञप्ति श० २५, ३० ६, सू०७५१. सिद्धाणोगाहणा संख्या ।
उत्तराध्ययन अध्ययन ३६, गाथा ५३. छाया- क्षेत्रकालगतिलिङ्गतीर्थः चरित्रः ।
प्रत्येकबुद्धसिद्धाः बुद्धबोधितसिद्धाः । शानं क्षेत्रान्तराल्पबहुत्वं । सिद्धानामवगाहना संख्या ।
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दशमोऽध्यायः
[ २३७
भाषा टीका-क्षेत्र, कोल, गति, लिङ्ग, तीर्थ, चारित्र, प्रत्येकबुद्धसिद्ध, बुद्धबोधित सिद्ध, ज्ञान, क्षेत्र, अंतर, अल्पबहुत्व, अवगाहना और संख्या इन अनुयोगों से सिद्धों में भी भेद साधने चाहिये।
संगति-सूत्र में तथा आगम में यहां शब्द साम्य देखने योग्य है।
इति श्री-जैनमुनि-उपाध्याय श्रीमदात्माराम महाराज-संगृहीते
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वये * दशमोऽध्यायः समाप्तः॥१०॥
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२३८ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
गुरुप्पसत्थी. नायसुओ वद्धमाणो नायसुमो महामुणी । लोगे तित्थयरो आसी अपच्छिमो सिवंकरो ॥१॥ सतित्थे ठविओ तेण पढमो अणुसासगो । सुहम्मो गणहरो नाम तेअंसी समणच्चिओ ॥२॥ तत्तो पवडिओ गच्छो सोहम्मो नाम विस्सुओ । परंपराए तत्थासी सूरीचामरसिंघमो॥३॥ तस्स संतस्स दंतस्स मोतीरामाभिहो मुणी । होत्थ सीसो महापन्नो गणिपर्यविभूसिओ ॥४॥ तस्स पट्टे महाथेरो गणावच्छेअगो गुणी । गणपतिसन्निओ साह सामगणगुणसोहिओ ॥५॥ तस्स सीसो गुरुभत्तो सो जयरामदासभो । गणावच्छेअगो अस्थि समो मुत्तो व्व सासणे ॥६॥ तस्स सीसो सच्चसंधो पवट्टगपयंकियो। सालिग्गामो महाभिक्खू पावयणी धुरंधरो ॥७॥ तस्संतेवासिणा भिक्खुअप्पारामेण निम्मिओ । उवज्झायपयंकणं तत्तत्थस्स समन्नओ ॥८॥ तत्तत्थमूलसुत्तस्स जं बीअं उवलब्भइ । जिणागमेसु तं सव्वं संखेवेणेत्थ दंसि ॥६॥ इगुणवीसानवर-विक्कमवासेसु निम्मिमओ एस । दिल्लीनामयनयरे मुक्ख सत्थस्स य समन्नयो॥१०॥
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परिशिष्ट नं. १.
तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्।
१, १४. तत्र 'नोइंदियअत्थावग्गहो' त्ति नोइन्द्रियं मनः, तच्च द्विधा द्रव्यरूपं भावरूपं च, तत्र मनःपर्याप्तिनामकर्मोदयतो यत् मनः प्रायोग्यवर्गणादलिकमादाय मनस्त्वेन परिणमितं तव्यरूपं मनः तथा चाह चूर्णिकृत् - "मणपजत्तिनामकम्मोदयो तज्जोग्गे मणोदव्वे घेत्तुं मणत्तेण परिणामिया दव्वा दव्यमणो भएणइ ।” तथा द्रव्यमनोऽवष्टम्भेन जीवस्य यो मननपरिणामः स भावमनः तथा चाह चूर्णिकार एव-" जीवो पुण मणणपरिणामकिरियापन्नो भावमनो, किं भणियं होइ ?-मणदव्वालंबणो जीवस्स मणणवावारो भावमणो भण्णइ" तत्रेह भाव. मनसा प्रयोजनं, तद्ग्रहणे ह्यवश्यं द्रव्यमनसोऽपि ग्रहणं भवति, द्रव्यमनोऽन्तरेण भावमनसोऽसम्भवात्. भावमनो विनापि च द्रव्यमनो भवति, यथा भवस्थकेवलिनः, तत उच्यतेभावमनसेह प्रयोजनं, तत्र नोइन्द्रियेण-भावमनसाऽर्थावग्रहो द्रव्येन्द्रियव्यापारनिरपेलोघटायर्थस्वरूपपरिभावनाभिमुखःप्रथम----इस परिशिष्ठ में वह पाठ हैं जो शीघ्रता के कारण मूलप्रन्थ के छपते समय उसमें न दिये जा सके थे।
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२४० ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय:
मेकसामयिको रूपायकारादिविशेषचिन्ताविकलोऽनिर्देश्यसामान्यमात्रचिन्तात्मको बोधो नोइन्द्रियार्थावग्रहः ।
नन्दिसूत्र वृत्ति मतिज्ञान वर्णन. श्रुतं मतिपूर्व द्वयनेकद्वादशभेदम् ।
१,२०. अंगबाहिरं दुविहं पएणत्तं, तं जहा-आवस्सयं च आवस्सयवइरित्तं च । से किं तं आवस्सयं? आवस्सयं छव्विहं पएणत्तं, तं जहा-सामाइयं चउवीसत्थवो वंदणयं पडिकमणं काउस्सग्गो पञ्चक्खाणं, सेत्तं आवस्सयं । से किं तं आवस्सयव. इरित्तं? आवस्सयवइरित्तं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा-कालिअंच उक्कालिनं च । से किं तं उक्कालिअं? उक्कालिअं अणेगविहं पएणतं, तं जहा-दसवेआलियं कप्पिआकप्पिअं चुल्लकप्पसुअं महाकप्पसुअं उववाइअं रायपसेणिअं जीवाभिगमो पण्णवणा महापण्णवणा पमायप्पमायं नंदी अणुओगदाराइं देविंदत्थो तंदुलवेआलिअं चंदाविज्झयं सूरपण्णति पोरिसिमंडलं मंडलपवेसो विजाचरणविणिच्छओगणिविजा झाणविभत्ती मरणविभत्ती भायविसोही वीयरागसुअं संलेहणासुअं विहारकप्पो चरणविही आउरपञ्चक्खाणं महापञ्चक्खाणं एवमाइ, से तं उकाल्लिअं । से किं तं कालिअं? कालिअं अणेगविहं पण्णत्तं, तं जहा-उत्तरज्झयणाई दसाओ कप्पो ववहारो निसीहं महानिसीहं इसिभासिमाइं जंबूदीवपन्नती दीवसागरपन्नत्ती चंदपन्नत्ती खुड्डिा विमाणपविभत्ती महल्लिा विमाणपविभत्ती अंगचूलिआ वग्ग
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परिशिष्ट न०१
[ २४१
चूलिया विवाहचूलिया अरुणोववाए वरुणोववाए गरुलोववाए धरणोववाए वेसमणोक्वाए वेलंधरोववाए देविंदोववाए उट्ठाणसुए समुठ्ठाणासुए नागपरिआवणिआओ निरयावलिामो कप्पिआमओ कप्पवडिसिआओ पुप्पिाओ पुप्पचूलिआओ वहीदसाओ, एवमाइयाई चउरासीइं पइन्नगसहस्साई भगवओ अरहओ उसहसामिस्स भाइतित्थयरस्स तहा संखिजाइं पइन्नगसहस्साई मज्झिमगाणं जिणवराणं चोइसपइन्नगसहस्साणि भगवओ वद्धमाणसामिस्स, अहवा जस्स जत्तिा सीसा उप्पत्तिाए वेणइआए कम्मियाए पारिणामिआए चउव्विहाए बुद्धीए उववेआ तस्स तत्तिाई पइएणगसहस्साइं; पत्तेअबु. द्वावि तत्तिा चेव, सेत्तं कालिअं, सेत्तं आवस्सयवइरितं, से तं भणंगपविलु।
नन्दी० सूत्र ४४. सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य।
केवलदसणं केवलदंसणिस्स सव्वदव्वेसुअसव्वपजवेसु अ।
अनुयोगद्वार० सूत्र १४४. मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च । अन्नाणे णं भंते! कतिविहे पणते ? गोयमा! तिविहे
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२४२ ]
तत्त्वार्थसूत्रजनाऽऽगमसमन्वय :
पएणते, तं जहा-मइभन्नाणे सुयअन्नाणे विभंगन्नाणे ।
व्याख्याप्रज्ञप्ति श० ८, २०२, स० ३१८. संज्ञिनः समनस्काः।
२, २४.
जीवा णं भंते! किं सगणी असण्णी नोसण्णीनोअसण्णी? गोयमा! जीवा सरणीवि असरणीवि नोसण्णीनोअसण्णीवि । नेरइयाणं पुच्छा ? गोयमा! नेरइया सरणीवि असण्णीवि नो नोसण्णीनोअसण्णी, एवं असुरकुमारा जाव थणियकुमारा । पुढविकाइयाणं पुच्छा ? गोयमा ! नो सरणी असण्णी, नो नोसण्णीनोअसरणी । एवं बेइंदियतेइंदियचउरिंदियावि । मणूसा जहा जीवा, पंचिंदियतिरिक्खजोणिया वाणमंतरा य जहा नेरइया, जोतिसियवेमाणिया सगणी नो असरणी नो नोसण्णीनोअसण्णी । सिद्धाणं पुच्छा? गोयमा! नो सरणी नो असण्णी नोसण्णीनोअसण्णी । नेरइयतिरियमणुया य वणयरगसुरा इ साणीऽसण्णी य । विगलिंदिया असपणी जोतिसवेमाणिया सगणी । पगणवणए सरणीपयं समत्वं ।
प्रज्ञापना, ३१ संज्ञापद, सूत्र ३१५. शेषास्त्रिवेदाः।
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परिशिष्ट नं १
[
२४३
कइविहे णं भंते ! वेए पण्णते? गोयमा! तिविहे वेए पएणते, तं जहा-इत्थीवेए पुरिसए नपुंसकवेए । नेरइया णं भंते! किं इत्थीवेया पुरिसवेया णपुंसगवेया पण्णता? गोयमा! णो इत्थीवेया णो पुंवैए णपुंसगवेया पण्णत्ता । असुरकुमारा णं भंते ! किं इत्थीवेया पुरिसवेया नपुंगवेया ? गोयमा! इत्थीवेया पुरिसवेया णो णपुंसगवेया जाव थणियकुमारा । पुढवी आऊ तेऊ वाऊ वण स्सई बितिचउरिंदियसंमुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खसंमुच्छिममणुस्सा णपुंसगवेया । गब्भवकंतियमणुस्सा पंचिं. दियतिरिया य तिवेया । जहा असुरकुमारा तहा वाणमंतरा जोइसियवेमाणियावि।
समवायांग सूत्र १५६.
-::
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परिशिष्ट नं. २
-.:तत्त्वार्थ सूत्र भाषा
(सूत्रों का मर्थ)
प्रथम अध्याय मोक्षमार्ग का वर्णन१-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र यह तीनों मिला कर मोक्ष का
मार्ग है। सम्यग्दर्शन२–तत्त्व के (जो पदार्थ जिस रूप में विद्यमान है उसके उसी) अर्थ का श्रद्धान
करना सम्यग्दर्शन है। ३-वह सम्यग्दर्शन दो प्रकार से उत्पन्न होता है
स्वभाव से और अधिगम (दूसरे के द्वारा ज्ञान दिया जाने) से । सात तत्व४-तत्त्व सात हैं
जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । उनको जानने के साधन५-नाम, स्थापना, द्रव्य (भूत भविष्य की अपेक्षा वर्तमान में कथन करना)
और भाव (वर्तमान काल की अपेक्षा कयन) से उन सम्यग्दर्शन मादि
तथा सात तत्वों का न्यास अर्थात् लोक व्यवहार होता है। ६-प्रमाण और नय से भी उनका ज्ञान होता है।
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[ २४५
७
- निर्देश, स्वामित्व, साधन ( उत्पत्ति का कारण ), अधिकरण ( वस्तु का धार), स्थिति, और विधान (भेद) से भी वह जाने जाते हैं ।
परिशिष्ट नं० २
८ – सत्, संख्या, क्षेत्र (पदार्थ का वर्तमान निवास), स्पर्शन ( तीनों कालों में निवास करने का क्षेत्र ), काल, अन्तर ( विरह काल ), भाव ( औपशमिक आदि) और अल्पबहुत्व से भी उनका ज्ञान होता है ।
पांचां ज्ञान का वर्णन
९ - ज्ञान पांच प्रकार का होता है
-
मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल ।
१० - वह पांच प्रकार का ज्ञान दो प्रमाण रूप है।
११ - आदि के दो मति और श्रुतज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं ।
१२ - बाकी के अवधि, मनः पर्यय और केवलज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण हैं ।
१३ - मति ( वर्तमान कालवर्ती पदार्थ को अवग्रह आदि रूप जानना), स्मृति (अनुभूत पदार्थ का कालान्तर में स्मरण करना), संज्ञा (प्रत्यभिज्ञान अथवा मति और स्मृति रूप ज्ञान ), चिन्ता ( अविनाभाव सम्बन्ध का ज्ञान ), अभिनिबोध, (चिन्ह देखकर चिन्ह वाले का निश्चय कर लेना) और इनको आदि
लेकर अन्य प्रतिभा, बुद्धि आदि सब अनर्थान्तर हैं, अर्थात् मतिज्ञान ही हैं । १४ - वह मतिज्ञान पांच इन्द्रिय और मन के निमित्त से होता है।
१५ – उसके चार भेद हैं- भवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ।
१६ - बहु, बहुविध, क्षिम, अनिःसृत, अनुक्त, ध्रुव, अल्प, एकविध, अक्षिम, निःसृत, उक्त और अध्रुव इस प्रकार बारह प्रकार का अवग्रह आदि रूप ज्ञान होता है ।
१७ – यह उपरोक्त भेद प्रकट रूप पदार्थ के हैं, [जो २८८ हैं ।]
१८ -- अप्रकट रूप पदार्थ का केवल अवग्रह हो होता हैं, अन्य ईहा आदि नहीं होते। १९ - अप्रकट रूप पदार्थ का ज्ञान नेत्र और मन से नहीं होता । [ अतएव अप्रकट रूप पदार्थ के कुल ४८ भेद ही होते हैं, अर्थात् मतिज्ञान के कुल ३३६ भेद होते हैं ।]
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२४६ ]
तस्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वयः
२०-श्रुतमान मतिज्ञान के निमित्त से होता है । उसके दो भेद हैं-प्रथम अंगवास
के अनेक भेद हैं और अंगप्रविष्ठ के प्राचारांग आदि बारह भेद हैं। २१-[अवधिज्ञान दो प्रकार का होता है
भवप्रत्यय अवधि और क्षयोपशम निमित्त अवधि ]
भवप्रत्यय अवधि देव और नारकियों के ही होता है । १२-क्षयोपशम निमित्त अवधिज्ञान मनुष्य और तिर्यंचों के होता है । वह छै प्रकार
का होता है- [अनुगामी, अननुगामी, वर्द्धमान, हीयमान, अवस्थित और
अनवस्थित ।] २३-मनःपर्यय ज्ञान दो प्रकार का होता है
जुमति और विपुलमति। २४-परिणामों की विशुद्धता और अप्रतीपात (केवलज्ञान होने तक चारित्र से
न गिरने ) से इन दोनों में न्यूनाधिकता है । अर्थात् ऋजुमति से विपुलमति वाले के परिणाम अधिक विशुद्ध होते हैं और न विपुलमति मनःपर्यय ज्ञान
बाला चारित्र से ही गिर सकता है। १५–अवधि और मनः पर्यय ज्ञान में भी विशुद्धता, क्षेत्र, स्वामी और विषय की
अपेक्षा से भेद होता है। २६–मति और श्रुतज्ञान के विषयों के जानने का नियम द्रव्यों को कुछ पर्यायों में
है। अर्थात् मतिज्ञान और श्रुत ज्ञान छहों द्रव्यों की सब पर्यायों को नहीं
जानते, थोड़ी २ पर्यायों को ही जान सकते हैं। २७–अवधिज्ञान के विषय का नियम रूपी अर्थात् मूर्तिक पदार्थों में है । अर्थात्
भवधि ज्ञान पुद्गलद्रव्य की पर्यायों को ही जानता है। २८–अवधिज्ञान द्वारा जाने हुए सूक्ष्म पदार्थ के अनंतवें भाग को मनःपर्यय
ज्ञान जानता है। -केवलज्ञान के विषय का नियम समस्त ट्रव्यों की समस्त पर्यायों में है । अर्थात् केवल ज्ञान छहों द्रव्यों की समस्त पर्यायों को एक काल में जानता
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[ २४७
३० -- एक जीव में एक साथ विभाग किए हुए एक से लेकर चार ज्ञान तक हो
सकते हैं।
परिशिष्ट नं० २
तीन अज्ञान
३१ - पति, श्रुत और अवधि यह तीन ज्ञान विपर्यय भी कहलाते हैं । [ उस समय
--
यह कुमति, कुश्रुत और कुअवधि अथवा विभंग ज्ञान कहलाते हैं । ] ३२ – सत् और असत् पदार्थों के भेद का ज्ञान न होने से स्वेच्छा रूप यद्वा तद्वा जानने के कारण उन्मत्त के समान यह मिथ्याज्ञान भी होते हैं ।
सात नय
३३- नय सात होती हैं
नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूट और एवंभूत ।
-:0:
द्वितीय अध्याय
जीव के भाव
१ - जीव के अपने पांच भाव होते हैं
औपशमिक, क्षायिक, मिश्र अथवा क्षायोपशमिक, प्रौदयिक और पारिणामिक |
२ – उनके क्रमशः दो, नौ, अठारह, इक्कीस और तीन भेद हैं अर्थात् श्रपशमिक भाव दो प्रकार के हैं, क्षायिक भाव नौ प्रकार के हैं, क्षायोपशमिक भाव अठारह प्रकार के हैं, औदायिक भाव इक्कीस प्रकार के हैं और पारिणामिक भाव तीन प्रकार के हैं ।
३ – औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र ये दो औपशमिक भाव के
भेद हैं ।
४ - क्षायिक भाव नौ हैं
केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिक दान, क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग,
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२४८ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
क्षायिक उपभोग, क्षायिक वीर्य, क्षायिक सम्यक्त्त्व और क्षायिक चारित्र । -क्षायोपशामिक भाव अठारह हैंमतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यय ज्ञान, कुमति, कुश्रुत, विभंग ज्ञान, चक्षुर्दशन, अचक्षुर्दशन, अवधिदर्शन, क्षायोपशमिक दान, क्षायोपशमिक लाभ, क्षायोपशमिक भोग, क्षायोपशमिक उपभोग, क्षायोपशमिक बीय,
क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, सराग चारित्र और संयमासंयम (देशव्रत)। ६--ौदयिक भाव इक्कोस हैं---
मनुष्यगति, देवगति, नरक गति, तिथंच गति, क्रोध, मान, माया, लोभ कषाय, स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसक वेद, मिथ्यादर्शन, अज्ञान, असंयम, असिद्धत्व, कृष्ण लेश्या, नील लेश्या, कापोत लेश्या, पीत लेश्या, पद्म
लेश्या और शुक्ल लेश्या । ७–पारिणामिक भाव तीन होते हैं
जीवत्व भव्यत्व और अभव्यत्व । जीव का लक्षण८-जीव का लक्षण उपयोग है। ९-वह उपयोग दो प्रकार का होता है। जिनमें से प्रथम ज्ञानोपयोग आठ
प्रकार का होता है और द्वितीय दर्शनोपयोग चार प्रकार का होता है। जीवों के भेद-- १०–जीव दो प्रकार के होते हैं
संसारी और मुक्त। ११-संसारी जीव समनस्क और अमनस्क दो प्रकार के होते हैं । १२-संसारो जीव त्रस और स्थावर दो प्रकार के होते हैं। १३-स्थावर पांच प्रकार के होते हैं
पृथिवी कायिक, अपकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, और वनस्पतिकायिक। १४-दीन्द्रिय आदि जीव वस होते हैं।
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परिशिष्ट नं०२
[ २४९
इन्द्रियां १५–इन्द्रियां पांच ही होती हैं । १६-वह इन्द्रियां दो २ प्रकार की होती हैं--
द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय ।। १७-निति और उपकरणों को द्रव्येन्द्रिय कहते हैं। १८-लब्धि, और उपयोग भावेन्द्रिय हैं ।
पांचों इन्द्रिय और उनके विषय१९- स्पर्शन ( त्वचा ), रसन (जीभ), प्राण (नासिका ), चक्षु ( नेत्र ), और
श्रोत्र (कान ) यह पांच इन्द्रियां हैं। २०- इन पांचों इन्द्रियों के विषय क्रम से स्पर्श (हलका, भारी, रूखा, चिकना,
कड़ा, नरम, ठंडा, और गरम), रस (खट्टा, मीठा, कडुवा, कषायला और चरपरा ), गंध (सुगन्ध, दुर्गन्ध ), वर्ण ( काला, पीला, नीला, लाल और
सफेद ) और शब्द हैं। २१-मन का विषय श्रुतज्ञान गोचर पदार्थ है।
षट्काय जीव२२–पृथिवी कायिक, अपकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक
जीवों के पहिली स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है। ___ * नामकर्म के निमित्त से हुई इन्द्रियाकार रचना विशेष को निति कहते हैं । यह दो प्रकार की होती है-एक आभ्यन्तर निति, दूसरी बाह्य निवृति। आत्मा के प्रदेशों का इन्द्रियों के प्राकार रूप होना आभ्यन्तर निवृति है । और पुद्गल परमाणु की इन्द्रिय रूप रचना होना सो बाह्य निवृति है।
न निवृति को जो सहायक हो उसे उपकरण कहते हैं। जैसे नेत्र में सफेद भाग, पलक मादि। -----
ज्ञानावरण कर्म की क्षयोपशम रूप शक्ति विशेष को लब्धि कहते हैं। -- लब्धि होने पर आत्मा का विषयों के प्रति परिणमन होने से प्रात्मा में उत्पन्न हुए ज्ञान को उपयोग कहते हैं।
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२५० ]
तत्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
२३ - लट, चिउंटी, भौंरा और मनुष्य आदि के क्रम से एक२ इन्द्रिय अधिक २ होती है । २४ - मन सहित जीवों को संज्ञी कहते हैं । विग्रह गति
२५ – नया शरीर धारण करने के लिये की जाने वाली गति में कार्माण योग रहता है । २६ जीव और पुद्गलों का गमन आकाश के प्रदेशों की श्रेणि का अनुसरण करके होता है ।
२७ - मुक्त जीव की गति वक्रता रहित ( मोड़े रहित ) सीधी होती है ।
२८ – और संसारी जीव की गति चार समय से पहिले २ विग्रहवती वा मोड़े वाली है।
२९ - मोड़े रहित गति एक समय मात्र ही होती है।
३० - विग्रह गति वाला जीव एक समय, दो समय अथवा तीन समय तक * अनाहारक रहता है ।
तीन जन्म
३१ – सम्मूर्छन, गर्भ, और उपपाद यह तीन जन्म होते हैं । ३२ – उन तीनों जन्मों की नौ योनियां होती हैं—
सचित्त, श्रचित, सचित्ताचित्त, शीत, उष्ण, शीतोष्ण, संवृत, वितृत और संवृतविवृत ।
३३ - जरायुज ( जरायु में लिपटे हुए उत्पन्न होने वाले), अंडज ( अंडे से उत्पन्न होने वाले ) और पोत ( जो माता के उदर से निकलते ही चलने फिरने लगे) जीवों के गर्भ जन्म होता है।
३४ - चारों प्रकार के देवों और नारकी जीवों के उपपाद जन्म होता है । ३५ - - इनसे अविशिष्ट संसारी जीवों का सम्मूर्छन जन्म होता है ।
* दारिक, वैक्रिक और आहारक शरीर तथा छहों पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलवर्गणा के ग्रहण को आहार कहते हैं। जीव जब तक ऐसे आहार को ग्रहण नहीं करता है, तब तक उसे अनाहारक कहते हैं ।
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परिशिष्ट नं०२
[ २५१
पांच शरीर३६--औदारिक, वैक्रियिका, आहारकः, तैजस और कार्मण। यह पांच शरीर
होते हैं। ३७–अगले २ शरीर पहिले २ से सूक्ष्म २ हैं । अर्थात् मौदारिक से वैक्रियिक
सूक्ष्म है, वैक्रियिक से आहारक सूक्ष्म है, आहारक से तैजस और तैजस
से कार्मण शरीर सूक्ष्म है। ३८---किन्तु प्रदेशों+ ( परमाणुओं) की अपेक्षा तैजस से पहिले पहिले के शरीर
असंख्यात गुणे हैं । अर्थात् मौदारिक से वैक्रियिक शरीर में असंख्यात गुणे
परमाणु हैं, और वैक्रियिक से माहारक शरीर में असंख्यात गुणे परमाणु हैं। ३९-शेष के दो शरीर-तैजस और कार्मण अनंत गुणे परमाणु वाले हैं। अर्थात्
आहारक से तैजस में अनंत गुणे परमाणु हैं, और तैजस से कार्माण शरीर
में अनन्त गुणे परमाणु हैं। ४०-तैजस और कार्माण यह दोनों ही शरीर अप्रतीघात हैं। अर्थात् अन्य मूर्तिमान ___ पुद्गल आदि से रुकते नहीं हैं।
* स्थूल अर्थात् प्रधान शरीर को औदारिक शरीर कहते हैं।
+ जिसमें अनेक प्रकार के स्थूल, सूक्ष्म, हलका, भारी, आदि विकार होने संभव हों उसे वैक्रियिक शरीर कहते हैं ।
* सूक्ष्म पदार्थ के निर्णय के लिये छटे गुणस्थान वाले मुनियों के शरीर प्रगट होने वाले शरीर को आहारक शरीर कहते हैं।
$ जिससे शरीर में तेज शक्ति होती है उसे तैजस शरीर कहते हैं। ॥ ज्ञानावरण भादि अष्टकर्मों के समूह को कार्माण शरोर कहते हैं ।
+ आकाश के जितने प्रदेश को पुद्गल का अविभागी परमाणु घेरे उसे प्रदेश कहते हैं । जिस प्रकार मूर्तिक द्रव्य (पुद्गल) के छोटे बड़े पने का अंदाज परमाणुओं से बतलाया जाता है, उसी प्रकार अमूर्तिक द्रव्यों (जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल) का अंदाज प्रदेशों से लगाया जाता है। यहां सूक्ष्म होने के कारण इन शरीरों का अंदाजा भी प्रदेशों से ही लगाया गया है। यद्यपि शरीर नाम कर्म के द्वारा रचना होने से यह शरीर भी पौद्गलिक ही हैं।
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तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
४१-इन दोनों शरीरों का आत्मा से अनादि काल से सम्बन्ध है [ और संतान
को अविवना से सादि सम्बन्ध भी है ।] ४२-ये दोनों शरीर समस्त संसारी जोवों के होते हैं। ४३-एक श्रात्मा में विभाजित किये हुए इन दोनों शरीरों को आदि लेकर
एक साथ चार शरीर तक होते हैं । ४४–अंत का कर्माण शरीर उपभोग रहित है अर्थात् इंद्रियों द्वारा शब्द आदि
विषयों के उपभोग से रहित है । ४५–गर्भ जन्म और सम्मर्छन जन्म वालों के आदि का औदारिक शरीर ही
होता है। ४६–उपपाद जन्म से उत्पन्न होने वालों के वैक्रियिक शरीर होता है । ४७–वैक्रियिक शरीर लब्धि अर्थात् तपो विशेष रूप ऋद्धि की प्राप्ति के निमित्त
से भी होता है । ४८-तथा तेजस शरीर भी लब्धि प्रत्यय अर्थात् ऋद्धि होने से प्राप्त होता है। ४६-आहारक शरीर शुभ है अर्थात् शुभ कार्य को करता है, विशुद्ध है, व्या___घात रहित है तथा प्रमत्तसंयत मुनि के ही होता है । जीवों के वेद५०–नारकी और सम्मूर्छन जोव नपुंसक होते हैं। ५१-देव नपुंसक नहीं होते । अर्थात् देवों में पुरुषलिंग और स्त्रीलिंग दो ही
लिंग होते हैं। ५२-नारकी, देव और सम्र्छनों के अतिरिक्त गर्भज, तिर्यञ्च, और मनुष्य
तीनों वेद वाले होते हैं। परिपूर्ण आयु वाले जीव- . ५३–देव, नारकी, चरमशरीर वाले, और असंख्यात वर्ष की आयु वाले भोगभूमि
के जोव परिपूर्ण आयु वाले होते हैं । अर्थात् इनकी अकाल मृत्यु नहीं होती।
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परिशिष्ट नं० २
[ २५३
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तृतीय अध्याय
१-नरकों की सात भूमियां हैं:
रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमप्रभा, और महातमप्रभा । यह सातों पथिवी एक दूसरी के नीचे २, तीन वातवलय और आकाश के आश्रय स्थिर हैं। अर्थात् समस्त भूमियां घनोदषि वातवलय के आधार हैं, घनोदधि वातवलय घनवातवलय के आधार है, घनवातवलय तनुवातवलय के आधार है, तनुवातवलय आकाश के आधार है और आकाश स्वयं
अपने ही आधार है। २–प्रथम पृथिवी में तीस लाख, दूसरी में पच्चीस लाख, तीसरी में पन्द्रह लाख,
चौथी में दश लाख, पांचवीं में तीन लाख, छटी में पांच कम एक लाख
और सातवीं में कुल पांच ही नरक अर्थात् नारकावास हैं। ३--नारकी जीव सदा ही अशुभतर लेश्या वाले, अशुभतर परिणाम वाले.
अशुभतर देह के धारक, अशुभतर वेदना वाले, और अशुभतर विक्रिया वाले
होते हैं। ४-वह परस्पर एक दूसरे को दुःख उत्पन्न करते रहते हैं। ५-तीसरे नरक तक उन नारकी जोवों को संक्लिष्ट परिणाम वाले असुर
कुमार देव भी दुःखी किया करते हैं । ६-प्रथम नरक की उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) आयु एक सागर, दूसरे की
तीन सागर, तीसरे की सात सागर, चौथे की दश सागर, पांचवें की सतरह सागर, छटे की बाईस सागर और सातवें नरक की उत्कृष्ट आयु
तेंतीस सागर की है। मध्य लोक का वर्णन
[इस पृथ्वी पर ] जम्बूद्वीप आदि तथा लवण समुद्र आदि उत्तम २ नाम वाले द्वीप और समुद्र हैं।
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__२५४ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
८-प्रत्येक द्वीप समुद्र गोल चूड़ी के आकार, पहिले २ द्वीप तथा समुद्र को
घेरे हुए और एक दूसरे से दुगुने २ विस्तार वाला है। जम्बू द्वीप६-उन सब द्वीप समुद्रों के बीच में सुमेरु पर्वत को नाभि के समान धारण
करने वाला, गोलाकार तथा एक लाख योजन लम्बा चौड़ा जम्बू द्वीप है । १०-इस जम्बू द्वीप में भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत, और
ऐरावत यह सात क्षेत्र हैं ।। ११--उन सात क्षेत्रों का विभाग करने वाले, पूर्व से पश्चिम तक लंबे-हिमवान्, ___ महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी यह छह क्षेत्रों को धारण
करने वाले अर्थात् वर्षधर पर्वत हैं। १२–हिमवान पवत सुवर्णमय अर्थात् पीतवर्ण का है, महाहिमवान् सफेद चांदो
के समान रंग वाला है, निषध पर्वत ताये हुए सुवर्ण के समान है, नील पर्वत वैडूर्यमय अर्थात् मोर के कंठ के समान नीले रंग का है, रुक्मी पर्वत चांदी के समान श्वेत वर्ण है और छटा शिखरी पर्वत सुवर्ण
के समान पीत वर्ण का है । १३–उनके पसवाड़े नाना प्रकार के रंग तथा प्रभा वाली मणियों से चित्रित हो रहे
हैं। वह ऊपर, नीचे और मध्य में एक से लम्बे चौड़े-दीवार के समान हैं। १४-उन छहों पर्वतों के ऊपर क्रम से निम्नलिखित छै हद हैं पद्म, महापद्म,
तिगिंछ, केसरि, महापुण्डरीक और पुण्डरीक । १५–इनमें से पहला पद्म सरोवर पूर्व से पश्चिम तक एक सहस्र योजन
लम्बा और उत्तर से दक्षिण तक पांच सौ योजन चौड़ा है । १६-वह पद्म सरोवर दश योजन गहरा है।। १७-उस पद्मद के बीच में एक योजन का लंबा चौड़ा एक कमल है। १८-इस प्रथम सरोवर और कमल से अगले २ तालाब और कमल
[तीसरे तक] दुगुने हैं।
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परिशिष्ट न०२
[ २५५
१९--इन छहों कमलों में निम्नलिखत छै देवियां सामानिक और पारिषद्
के देवों सहित निवास करती हैंश्री, ही, धति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी ।
इनकी आयु एक २ पल्य की होती है । २०-उन सातों क्षेत्रों में क्रमशः दो २ के जोड़े से निम्नलिखित चौदह
नदियां बहती हैं-- गंगा, सिन्धु, रोहित, रोहतास्या, हरित, हरिकान्ता, सीता, सीतोदा,
नारो, नरकान्ता, सुवर्णकूला, रूप्यकूला, रक्ता और रक्तोदा । २१--इन सात युगल में से पहली २ नदियां पूर्व की ओर जाती हुई पूर्व
समुद्र में मिलतो हैं। २२--और शेष सात नदियां पश्चिम की ओर जाती हुई पश्चिम के समुद्र
में मिलती हैं। २३--गंगा सिन्धु आदि नदियां चौदह २ हज़ार नदियों के परिवार सहित
हैं। अर्थात् इनकी चौदह २ हजार सहायक नदियां हैं। २४-भरत क्षेत्र का उत्तर दक्षिण विस्तार पांच सौ छब्बीस सही छै बटा उन्नीस
(५२६३) योजन है। २५–भरतक्षेत्र से आगे विदेह क्षेत्र तक पर्वत और क्षेत्र दुगुने २ विस्तार
वाले हैं। २६-विदेह क्षेत्र से उत्तर के तीन पर्वत और तीन क्षेत्र विदेह क्षेत्र से
दक्षिण के पर्वतों और क्षेत्रों के बराबर विस्तार वाले हैं। २७-इनमें से भरत और ऐरावत क्षेत्र में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के __ छै २ कालों में [ प्राणियों के आयु, काय, भोग, उपभोग, सम्पदा, वीर्य,
और बुद्धि प्रादि ] बढ़ते और घटते रहते हैं। २८-उन भरत और ऐरावत के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों की पांच पृथिवी ज्यों की
त्यों नित्य हैं। अर्थात् उनमें कालचक्र की हानि और वृद्धि नहीं होती।
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२५६ ]
तत्त्वार्थसूत्रजनाऽऽगमसमन्वय :
२९-हैमवत क्षेत्र के मनुष्यों की आयु एक पल्य, हरिवर्ष वालों की दो फ्ल्य
और देवकुरु वालों की तीन पल्य होती है। ३०-इन दक्षिण के क्षेत्रों के समान ही उत्तर के क्षेत्रों की रचना और
आयु है। ३१–विदेह क्षेत्रों में संख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य होते हैं। ३२--भरत क्षेत्र जम्बूद्वीप का एक सौ नव्वेवां (१०) भाग है।
अढाई द्वीप का वर्णन३३–धातकीखंड नाम के दूसरे द्वीप में भरत आदि क्षेत्र दो २ हैं। ३४-पुष्करद्वीप के आधे भाग में भी भरत आदि क्षेत्र दो २ हैं । ३५–मनुष्य मानुषोत्तर पर्वत से पहिले २ ही रहते हैं । ३६-मनुष्यों के दो भेद हैं—आर्य और म्लेच्छ । ३७–देवकुरु तथा उत्तरकुरु को छोड़कर पांच भरत, पांच ऐरावत और पांच
विदेह इस प्रकार पन्द्रह कर्मभूमियां हैं। ३८ मनुष्यों की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्य और जघन्य अन्तर्मुहुर्त है। ३६-तिर्यञ्चों की भी उत्कृष्ट आयु तीन पल्य और जघन्य अन्तर्मुहुर्त होती है।
चतुर्थ अध्याय चार प्रकार के देव१-देवों के चार समूह हैं-(भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक)। २-भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्कों में कृष्ण, नील, कापोत और पीत ये चार
लेश्या होती हैं। ३-भवनवासियों के दश भेद, व्यन्तरों के पाठ, ज्योतिष्कों के पांच और कल्पोपपनों के बारह भेद होते हैं । + देखो अध्याय ४ सूत्र १७.
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परिशिष्ट नं०२
[ २५७
देवों के इन्द्र आदि दश भेद४–इन भेदों में से भी प्रत्येक के निम्नलिखित दश २ भेद होते हैं
इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, पारिषद्, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक, प्रकी
र्णक, आभियोग्य, और किल्बिषिक । ५-व्यन्तर और ज्योतिष्कों में त्रायस्त्रिंश और लोकपाल नहीं होते। ई-भवनवासी और व्यन्तरों के प्रत्येक भेद में दो दो इन्द्र होते हैं । देवों का काम सेवन७–भवनवासो, व्यंतर, ज्योतिष्क, सौधर्म स्वर्ग और ईशान स्वर्ग के देव [ मनुष्यों
के समान] शरीर से काम सेवन करते हैं । ८-ऊपर के स्वगों के देव केवल स्पर्श करने, रूप देखने, शब्द सुनने और
मन से ही काम सेवन का रस ले लेते हैं । ९-स्वर्गों (कल्पी) के परे के देव काम सेवन रहित हैं।
देवों के अवान्तर भेद-- १०--भवनवासियों के दश भेद हैं
असुरकुमार, नागकुमार, विद्यु तकुमार, सुपर्णकुमार, अग्निकुमार, वातकुमार,
स्तनितकुमार, उदधिकुमार, दीपकुमार और दिकुमार । ११--व्यंतरों के आठ भेद हैं
किनर, किम्पुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच । १२-ज्योतिष्कों के पांच मेद हैं
सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और प्रकीर्णकतारे । १३–यह सब ज्योतिष्कदेव मनुष्य लोक अर्थात् भढ़ाईद्वीप और दो समुद्रों
में सुमेरु पर्वत को प्रदक्षिणा देते हुए निरंतर गमन करते रहते हैं। १४--उन के द्वारा ही समय का विभाग किया जाता है। --१५-मनुष्य लोक से बाहिर के ज्योतिष्कदेव निश्चित अर्थात गति रहित हैं।
१६-इनके ऊपर विमानों में रहने वाले देव वैमानिक कहलाते हैं ।
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२५८ ]
तत्त्वार्थसूत्रजनाऽऽगमसमन्वयः
१७-वैमानिकों के दो भेद होते हैं
कल्पोपपन्न और कल्पातीत । स्वर्ग और उनके ऊपर की रचना१८-यह सब निम्नलिखित क्रम से ऊपर २ हैं। १९-सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म ब्रह्मोत्तर, लांतव कापिष्ठ, शुक्र महा
शुक्र, सतार सहस्रार, आनत प्राणत और श्रारण अच्युत में कल्पोपपपन्न देव रहते हैं । और नवग्र वेयक के नौ पटल, नौ अनुदिश के एक पटल तथा विजय, वैजयंत, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि नाम के पांच अनुत्तर विमानों के एक पटल में कल्पातीत देव रहते हैं। (यह
सब महमिन्द्र कहलाते हैं । ) २०- ऊपर २ के वैमानिकों की आयु, प्रभाव, सुख, धुति, लेश्या की
विशुद्धता, इन्द्रिय विषय और अवधि ज्ञान का विषय अधिक २ हैं । २१- किन्तु गमन, शरीर की उच्चता, परिग्रह और अभिमान ऊपर २ के
देवों का कम २ है। २२- सौधर्म ईशान में पीत लेश्या; सानत्कुमार माहेन्द्र में पीत पम दोनों
ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव और कापिष्ठ में पद्म लेश्या; शुक्र, महाशुक्र, सतार और सहस्रार में पद्म शुक्ल दोनों तथा आनत आदि शेष विमानों में शुक्ल लेश्या है । परन्तु अनुदिश और अनुत्तर विमानों में
परम शुक्ल लेश्या होती है। २३-अवेयकों से पहिले २ के सोलह स्वर्ग कल्प कहलाते हैं ।
लौकान्तिक देव२४पांचवें स्वर्ग ब्रह्मलोक के अंत में रहने वाले लौकान्तिक देव कहलाते हैं । २५–इनके आठ भेद होते हैं
सारस्वत, आदित्य, वन्हि, अरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध, और अरिष्ट । २६-विजय आदि चार विमानों के देव दो जन्म लेकर मोत जाते हैं ।
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परिशिष्ट नं. २
[ २५९
तिर्यञ्च जीव
२७ – देव, नारकी और मनुष्यों के अतिरिक्त शेष सब जीव तिर्यञ्च हैं ।
देवों की आयु
२८ - असुरकुमारों की आयु एक सागर, नागकुमारों की तीन पल्य, सुपर्णकुमारों की अढाई पल्य, द्वीपकुमारों की दो पल्य और शेष छह कुमारों की उत्कृष्ट आयु डेढ़ डेढ़ पल्य की है ।
२६
-सौधर्म और ईशान स्वर्ग के देवों की उत्कृष्ट आयु दो सागर से कुछ अधिक है ।
३० – सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग के देवों की उत्कृष्ट श्रायु सात सागर से कुछ अधिक है ।
३१ - ब्रह्म ब्रह्मोत्तर के देवों की श्रायु दश सागर से कुछ अधिक, लान्तव और कापिष्ठ में चौदह सागर से कुछ अधिक, शुक्र और महाशुक्र में सोलह सागर से कुछ अधिक, सतार और सहस्वार में अठारह सागर से कुछ अधिक नत और प्राणत में बीस सागर की, तथा आरण और अच्युत स्वर्ग में बाईस सागर की उत्कृष्ट आयु है ।
३२ - आरण और अच्युत युगल से ऊपर नव ग्रैवेयकों, नव अनुदिशों, विजयादिक चार विमानों और सर्वार्थसिद्धि विमान में एक २ सागर श्रायु अधिक है। अर्थात् प्रथम ग्रैवेयक में तेईस सागर, नवम ग्रैवेयक में इकत्तीस सागर, नव अनुदिशों में बत्तीस सागर और पांचो अनुत्तर विमानों में तैंतीस सागर उत्कृष्ट आयु है ।
३३ - सौधर्म ईशान स्वर्ग की जघन्य आयु एक पल्य से कुछ अधिक है । ३४ - पहिले २ युगल की उत्कृष्ट यु अगले अगले युगलों में जघन्य है । ३५ - नारको जीवों की जघन्य आयु भी इसी प्रकार दूसरे तीसरे आदि नरकों में पूर्व २ की उत्कृष्ट आगे २ जघन्य है ।
३६ - प्रथम नरक की जघन्य आयु दश सहस्र वर्ष है ।
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२६० ]
तत्वार्थ सूत्र जैनाऽऽगमसमन्वय :
३७ – भवन वासियों की जघन्य आयु भी दश हजार वर्ष है । ३८ – व्यन्तरों की जघन्य आयु भी दश हजार वर्ष है । ३९ - व्यन्तरों की उत्कृष्ट आयु एक पल्य से कुछ अधिक है ।
४० - ज्योतिष्कों की उत्कृष्ट आयु भी एक पल्य से कुछ अधिक है ।
४१ - ज्योतिष्कों की जघन्य आयु पल्य का आठवां भाग है।
४२ - सभी लौकान्तिक देवों की उत्कृष्ट और जघन्य आयु आठ सागर है ।
पंचम अध्याय
-:0:
के द्रव्य१ – धर्म, धर्म, श्राकाश और काल अजीवकाय अर्थात् अचेतन और बहुप्रदेशी पदार्थ हैं ।
२ – उक्त चारों पदार्थ द्रव्य हैं ।
३- जीव भी द्रव्य हैं ।
४ - यह सब द्रव्य [ इसी अध्याय के ३६ में सूत्र के काल द्रव्य सहित ] नित्य अर्थात् कभी न नष्ट होने वाले, अवस्थित अर्थात् संख्या में न घटने बढ़ने वाले और रूप हैं ।
५ - किन्तु इनमें से केवल पुद्गल द्रव्य रूपी हैं ।
६ - धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, और आकाश द्रव्य एक २ ही हैं।
७ – यह तीनों ही द्रव्य निष्क्रिय भी हैं ।
द्रव्यों के प्रदेश-
[ किन्तु लोकाकाश के श्रसंख्यात प्रदेश हैं ] | अनुसार ] संख्यात, असंख्यात और अनंत हैं । ११ - पुद्गल परमाणु के एक प्रदेश मात्रता होने से प्रदेश नहीं कहे गये हैं ।
5- - धर्म, अधम और एक जीव द्रव्य के प्रदेश असंख्यात २ हैं । E -- काश के अनन्त प्रदेश हैं १० - पुद्गलों के प्रदेश [स्कन्धों के
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परिशिष्ट न०२
[ २६१
द्रव्यों का अवगाह१२–इन सब द्रव्यों का अवगाह (स्थिति) लोकाकाश में है । १३–धर्म और अधर्म दृष्य सम्पूर्ण लोकाकाश में हैं । १४–पुद्गलों का अवगाह लोक के एक प्रदेश आदि में है । १५—जीवों का अवगाह लोक के असंख्यातवें भाग आदि में है ।
जीव के छोटे बड़े शरीर को ग्रहण करने का दृष्टान्त१६–जीव के प्रदेश संकोच और विस्तार से दीपक के समान [छोटे बड़े सभी
शरीरों में व्याप्त रहते हैं।] द्रव्यों का उपकार१७-धर्म द्रव्य का उपकार जीवों और पुद्गलों को गमन में सहायता देना
तथा अधर्म द्रव्य का उपकार स्थिति में सहायता देना है । १८-सब द्रव्यों को जगह देना आकाश द्रव्य का उपकार है । १६-शरीर, वचन, मन और श्वासोच्छवास आदि बनना पुद्गलों का उपकार है। २०-सुख, दुःख, जीना और मरना यह उपकार भी पुद्गलों के ही हैं। २१-जीवों का परस्पर उपकार है। २२-वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व काल द्रव्य के उपकार हैं।
पुटुगल द्रव्य का वर्णन-... २३-स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण वाले पुद्गल होते हैं। २४-शब्द, बंध, सूक्ष्मता, स्थूलता, संस्थान, भेद, तम, छाया, पातप (प)
और उद्योत सहित भी पुद्गल होते हैं। [सारांश यह है कि यह भी
पुदगल की ही पर्यायें होती हैं।] २५-पुद्गलों के दो भेद होते हैं
अणु और स्कन्ध । २६ पुद्गलों के स्कन्ध भेद ( टूटने ) और संघात ( जुड़ने ) से उत्पन्न
होते हैं।
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२६२ ]
तत्वार्थ सूत्र जैनाऽऽगमसमन्वय :
२७ - किन्तु अणु भेद से ही होता है, संघात से नहीं होता ।
२८ नेत्र इन्द्रिय से दिखाई देने वाला स्कन्ध भेद और संघात दोनों से ही
होता है ।
द्रव्य का लक्षण
है
२९- द्रव्य का लक्षण सत्
३० – उत्पाद ( उत्पत्ति ), व्यय ( बिनाश ), और धौव्य ( स्थिर मौजूदगी ) सहित को सत् कहते हैं
३१ - जो तद्भाव रूप से अव्यय अर्थात् तीनों काल में विनाश रहित हो उसे नित्य कहते हैं ।
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३२ – मुख्य करने वाली अर्पित और गौण करने वाली अनर्पित से वस्तु की सिद्ध होती है ।
स्कन्धों के बन्ध का वर्णन --
३३ - परमाणुओं के स्कन्धों का बन्ध स्निग्धता अथवा चिकनाई और रूक्षता अर्थात् रूखेपन से होता है ।
नहीं होता ।
३४ - जघन्यगुरण * सहित परमाणु में बंध ३५ - गुण की समानता होने पर सहसों का ३६ - किंतु दो अधिक गुण वालों का ही बन्ध होता है ।
३७ - औरबन्ध अवस्था में अधिक गुण सहित पुद्गल अल्प गुण सहित को परिणामाते हैं । अर्थात् अल्पगुण के धारक स्कन्ध अधिक गुण के स्कन्ध रूप हो जाते हैं ।
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द्रव्य का दूसरा लक्षण
३८ - गुण और पर्याय वाला द्रव्य होता है ।
महीं होता ।
* जिस परमाणु में स्निग्धता अथवा रूक्षता का एक अविभागी प्रतिच्छेद रह जावे वह अघन्य गुण वाला है ।
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परिशिष्ट ०२
[ २६३
काल द्रव्य३६-काल भी द्रव्य है। ४०-बह काल द्रव्य अनन्त समय पाला है।
गुण का लक्षण४१ जो द्रव्य के नित्य आश्रित हो अर्थात् बिना द्रव्य के आश्रय के न रा
सकें तथा स्वयं अन्य गुणों से रहित हो वह गुण हैं। पर्याय का लक्षण४२-द्रव्यों के जिस रूप में वह हैं उसी रूप में होने को परिणाम या पर्याय
कहते हैं।
षष्ठ अध्याय आस्रव का वर्णन१--काय, वचन और मन की क्रिया को योग कहते हैं। २--वह योग ही कमों के आगमन का द्वार रूप प्रास्त्रब है। ३--शुभ परिणामों से उत्पन्न हुआ योग पुण्य प्रकृतियों के आस्रव का
कारण है तथा अशुभ परिणामों से उत्पन्न हुमा योग पापरूप कर्मप्रक
तियों के आस्रव का कारण है । ४--कषाय सहित जोवों के होने वाला सांपरायिक आस्रव तथा कथायरहित
जोवों के होने वाला ईर्यापथ आस्त्रव होता है । साम्परायिक आस्रव के भेद५-प्रथम साम्परायिक भासव के निम्नलिखित भेद हैं
पांच इन्द्रिय, चार कषाय, पांच अव्रत, और पञ्चीस क्रिया । ६-उस पासव में भी तीव्रभाव, मन्दभाव, शातभाष, अज्ञातभाव, अधिकरण
और वीर्य की विशेषता से न्यूनाधिकता होती है।
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२६४ ]
सत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
प्रास्त्रव के अधिकरण७–पासूव का अधिकरण (आधार ) जीव और अजीब दोनों हैं । जीवाधिकरण के १०८ भेद८-आदि के जीवाधिकरण के निम्न भेद हैं:--
संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ । फिर उनको मन, वचन और काय योग से करना (कृत), कराना (कारित) अथवा करते हुए को भला मानना (अनुमोदना)। फिर उसमें क्रोध, मान, माया अथवा लोभ करना । इस प्रकार तीन, तीन, तीन और चार को परस्पर गुणा देने से
एक सौ आठ भेद होते हैं । अजीवाधिकरणk-निवर्तनाधिकरण, निक्षेपाधिकरण, संयोगाधिकरण और निसर्गाधिकरण यह
चार अजीवाधिकरण के भेद हैं । पाठों कर्मों के प्रास्त्रव के कारण१०-ज्ञान तथा दर्शन के विषय में प्रदोष, निन्हव, मात्सर्य, अंतराय, आसा
दन और उपघात करने से झानावरणीय और दर्शनावरणीय कमों का
आसव होता है। ११–स्वयं दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, बध, और परिदेवन करने, दूसरे को
कराने अथवा दोनों को एक साथ उत्पन्न करने से असाता वेदनीय कर्म
का आसूव होता है। १२–प्राणियों और व्रतियों में दया, दान, सरागसंयम आदि योग, क्षमा और
शौच आदि भावों से साता वेदनीय कर्म का आसव होता है । १३-केवलज्ञानी, शास्त्र, मुनियों के संघ, अहिंसामय धर्म, और देवों का
अवर्णवाद करने से दर्शनमोहनीय कर्म का आसव होता है । १४–कषायों के उदय से तीव्र परिणाम होने से चारित्र मोहनीय. फर्म का
आसव होता है ।
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परिशिष्ट नं०२
[ २६५
१५--बहुत प्रारम्भ करने और बहुत परिग्रह रखने से नरक आयु कर्म का
आसव होता है । १६--कुटिल स्वभाव रखने से तिर्यच आयु कर्म का पासव होता है। १७--थोड़ा प्रारम्भ करने और थोड़ा परिग्रह रखने से मनुष्य प्रायु का पासव
होता है। १८-स्वाभाविक कोमलता से भी मनुष्य आयु का पासूव होता है । १९–सातों शील तथा अहिंसा आदि पांचों व्रतों का पालन न करने से
चारों गतियों का आस्रव होता है। २०-सरागसंयम, संयमासंयम ( देशवत ) काम निर्जरा और बालतप से
देव आयु कर्म का आसूव होता है । २१–सम्यग्दर्शन भी देव आयु का कारण है । २२-मन, वचन और काय के योगों की कुटिलता और अन्यथा प्रवृत्ति से
अशुभ नाम कर्म का पासव होता है । २३-इसके विपरीत मन, वचन और काय की सरलता और विसंवाद न करने
से शुभ नाम कर्म का पासव होता हैं। २४--१ दर्शन विशुद्धि, २ विनयसम्पन्नता ३ शीलों और व्रतों का अतिचार रहित
पालन करना, ४ निरन्तर ज्ञान के अभ्यास में रहना, ५ संसार के दुखों से भयभीत होना ६ शक्ति अनुसार दान करना, ७ शक्ति अनुसार तप करना ८ मुनियों की सेवा करना, ६ रोगी मुनियों की परिचर्या करना, १० अर्हद्भक्ति ११ आचार्य भक्ति, १२ बहुश्रुत भक्ति, १३ प्रवचन भक्ति, १४ सामायिक स्तवन, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग इन छह आवश्यकीय कियाओं में कमी न करना, १५ जैनधर्म का प्रचार करने रूप मार्गप्रभावना और १६ सहधर्मी जन से अत्यन्त प्रेम मानना—यह सोलह
भावनाएं तीर्थंकर प्रकृति के मासूव का कारण हैं । २५–पर की निन्दा करने, अपनी प्रशंसा करने, पर के विद्यमान गुणों को
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२६६ ]
तत्त्वार्थसूत्रजनाऽऽगमसमन्वय :
छिपाने और अपने विद्यमान गुणों को प्रगट करने से नीच मोत्र कर्म का प्रसव होता है ।
२६ - इसके विपरीत अपनी निंदा करने पर की प्रशंसा करने, अपने विद्यमान गुणों को छिपाने पर के गुणों को प्रकाशित करने और अपने से गुणाधिक के सामने विनय रूप से रहने तथा गुणों में भी मद न करने ( अनुत्सेक ) से उच्चगोत्र कर्म का २७ – दूसरे के दान, भोग आदि में विघ्न करने से अन्तराय
बड़ा होते हुए
सूव होता है । कर्म का
व
होता है ।
:0:
सप्तम अध्याय
पांच व्रत
१ – हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह से ज्ञान पूर्वक विरक्त होना व्रत है ।
I
२ – उक्त पांचों पापों का एक देश त्याग करना अणुव्रत कहलाता है । और पूर्ण त्याग करना महाव्रत है ।
३ – उन व्रतों को स्थिर करने के लिये प्रत्येक व्रत की पांच २ भावनाएं हैं । ४ - वचनगुप्ति, मनो गुप्ति, ईर्यासमिति, श्रदाननिक्षेपण समिति और आलोकितपान भोजन यह पांच हिसावत की भावनाएं हैं ।
५ - कोध का त्याग, लोभ का त्याग, भय का त्याग, हास्य का त्याग और शास्त्र के अनुसार निर्दोष वचन बोलना यह पांच सत्यव्रत की भावनाएं हैं ।
६ - खाली घर में रहना, किसी के छोड़े हुए स्थान में रहना, अन्य को रोकना नहीं, शास्त्रविहित आहार की विधि को शुद्ध रखना और सहधर्मी भाइयों से विसंवाद नहीं करना यह पांच अचौर्यव्रत की भावनाएं हैं । ७ स्त्रियों में प्रीति उत्पन्न करने वाली कथाओं का त्याग, स्त्रियों के मनो
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परिशिष्ट ने०२
[ २६७
हर अंगों को देखने का त्याग, पूर्वकाल में भोगे हुए भोगों को स्मरण करने का त्याग, पौष्टिक तथा प्रिय रसों का त्याग और अपने शरीर का शृंगार युक्त करने अथवा सजाने का त्याग यह पांच ब्रह्मचर्य व्रत
की भावनाएं हैं। ८-पांचों इन्द्रियों के स्पर्श रस आदि इष्ट अथवा अनिष्ट रूप पांचों विषयों
में राग द्वेष का त्याग करना परिग्रह त्याग व्रत की पांच भावनाएं हैं। ९–हिंसा आदि पांचों पापों में इस लोक में दण्ड मिलने तथा परलोक में पाप
बन्ध होने का चिन्तवन करे। १०-अथवा यह चिन्तवन करे कि यह पांचों पाप दुःख रूप ही हैं। ११–सर्व साधारण जीवों में मैत्री भावना, गुणाधिकों में प्रमोद भावना,
दुःखियों में कारुण्य भावना और अविनयी अथवा मिथ्यादृष्टियों में
माध्यस्थ भावना रखे । १२-अथवा संवेग* और वैराग्यो के लिये जगत् और काय के स्वभाव का
भी बारम्बार चिन्तवन करे । पांचों पापों के लक्षण१३-प्रमाद के योग से द्रव्य अथवा भाव प्राणों का वियोग करना हिंसा है। १४-असत् वचन कहना अनृत अथवा असत्य है । १५–बिना दी हुई वस्तु को ले लेना चोरी है । १६-मैथुन करना अब्रह्म अर्थात् कुशील है । १७-[ चेतन अचेतन रूप परिग्रह में ] ममत्वरूप परिणाम ही परिग्रह है। १८- जो शल्य रहित है वही व्रती है ।
* संसार के दुःख से डरना, + संसार से विरक्त होना, पांच इन्द्रिय, मन बल, वचन बल. कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास यह दश प्राण हैं, मिात्मा के मान दर्शन आदि स्वभावों को भाव प्राण कहते हैं।
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२६८ ]
तत्वार्थ सूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
१९ - [ व्रती जीव दो प्रकार के होते हैं ], अगारी ( गृहस्थी ) और
गृहत्यागी साधु ।
अणुव्रती श्रावक
२० - अणुव्रतों का पालन करने वाले को अगारी कहते हैं । २१ - दिग्विरति, देशविरति अनर्थदंडविरति [ इन तीन गुण व्रतों ] सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोगपरिभोग परिमाण और प्रतिथिसंविभाग व्रत [ इन चार शिक्षावतों का ] भी अगारी पालन करे ।
२२ — और
मृत्यु के समय होने वाली सल्लेखना का पालन करे । व्रतों और शीनों के अतिचार
२३ - शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टिप्रशंसा और अन्यदृष्टिसंस्तव यह पांच सम्यग्दर्शन के चार हैं ।
२४ – पांचों व्रत और सात शीलों के भी कम से पांच २ प्रतीचार हैं । २५ – बंध, बध, छेद, अत्यन्त बोझ लादना, और अन्न पानी न देना यह पांच अहिंसावत के प्रतीचार हैं ।
२६ - झूठा उपदेश देना, किसी की गुप्त बात को प्रगट कर देना, झूठे स्टाम्प आदि लिखना, किसी को धरोहर को अपना लेना, और किसी की चेष्टा आदि से उसके मन की बात को जानकर प्रगट कर देना यह पांच सत्यावत के अतीचार हैं ।
२७ – चोरी करने का उपाय बताना, चोरी की वस्तु को लेना, राज्य (देश) के विरुद्ध चलना, नाप और तोल के वाट आदि को कमती बड़ती रखना, और असल माल में खोटा माल मिला कर बेचना (प्रतिरूपक व्यवहार ) यह पांच अचौर्यावत के अतीचार हैं ।
२८ - - दुसरे का विवाह करना या कराना, परिगृहीतेत्वरिकागमन, अपरिगृहीत्वरिकागमन, अनंगक्रीडा, और कामतीवाभिनिवेश* यह पांच ब्रह्मचर्याशुवत के श्रीचर हैं ।
*
'इनका लक्षण इसी प्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र जैनागमसमन्वय के पृ० १७० पर देखो
A
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परिशिष्ट नं. २
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२९-क्षेत्रवास्तु, हिरण्यसुवर्ण, धनधान्य, दासीदास और कुष्य इन पांचों के
परिमाण को उल्लंघन करना परिग्रह परिमाणवत के पांच प्रतीचार है। ३०- ऊर्ध्वातिक्रम, अधोऽतिक्रम, तिर्यगतिक्रम, क्षेत्रवृध्दि और स्मृत्यंतराधान
यह पांच दिवत के अतिचार हैं। ३१-पानयन, प्रेष्यप्रयोग, शब्दानुपात, रूपानुपात और पुद्गलक्षेप यह पांच
देशव्रत के अतिचार हैं। ३२-कन्दर्प, कौत्कुच्य, मौखर्य, असमीक्ष्याधिकरण, और उपभोगपरिभोगानर्थक्य
यह पांच अनर्थदंडवत के अतिचार हैं। ३३–तीन प्रकार के योग दुःमणिधान, अनादर और स्मृत्यनुपस्थान यह पांच
सामायिकवत के अतिचार हैं। ३४- अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जितोत्सर्ग, अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जितादान, अप्रत्यवेक्षित ____ अप्रमार्जित संस्तरोपक्रमण, अनादर और स्मृत्यनुपस्थान यह पांच प्रोषधोप
वास व्रत के अतिचार हैं। ३५–सचित्त, सचित्त सम्बन्ध, सचित्तसम्मिश्र, अभिषव और दुःपक्क ऐसे पांच
प्रकार के पदार्थों का आहार करना उपभोग परिभोग परिमाणव्रत के पांच
अतिचार हैं। ३६–सचित्तनिक्षेप, सचित्तपिधान, परव्यपदेश, मात्सर्य और कालातिक्रम यह
पांच अतिथि संविभाग व्रत के अतिचार हैं। ३७–जीविताशंसा, मरणाशंसा, मित्रानुराग, सुखानुबंध और निदान यह पांच
सल्लेखनामरण के अतिचार है। दान का वर्णनां३८- [अपने और पराये] उपकार के लिये अपने [पदार्थ ] का त्याग करना दान है।
समणोवासए णं भंते! तहारूवं समणं वा जाव पाडलाभेमाण किं चयति ? गोयमा! जोवियं चयति दुच्चयं चयति
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२७० ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
३९–विधिविशेष, द्रव्यविशेष, दातारविशेष और पात्रविशेष के कारण उस दान में भी विशेषता होती है।
-::
अष्टम अध्याय बंध के कारण१-मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग यह पांच बन्ध के
कारण हैं। बंध का स्वरूप२-जीव कषाय सहित होने से कमों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है
वह बंध है। बंध के भेद३–प्रकृति बन्ध, स्थिति बन्ध, अनुभाग बन्ध और प्रदेश बन्ध यह चार उस
बन्ध की विधियां (भेद) हैं । प्रकृति बंध-आठों कर्मों की प्रकृतियां४-श्रादि का प्रकृति बन्ध, ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु,
नाम, गोत्र और अन्तराय इस तरह आठ प्रकार का है । [इनमें से झानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय यह चार घाति कम
हैं और शेष चार अघाति कर्म हैं ।] ५-उन कर्मों के क्रम से प च, नौ, दो अट्ठाईस, चार, बयालीस, दो और
पांच भेद हैं। दुक्करं करेति दुल्लहं लहइ बोहिं बुज्झइ तो पच्छा सिन्झति जाव अंतं करेति।
व्याख्याप्रज्ञप्ति शतक ७७० १ सूत्र २६४ इस सूत्र के आगमपाठों में इस पाठ को भी मिला लेना चाहिये।
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[ २७१
६ - मतिज्ञानावरण, श्रुत ज्ञानावरण, अवधि ज्ञानावरण, मन:पर्यय ज्ञानावरण, और केवल ज्ञानावरण यह पांच भेद ज्ञानावरण कर्म के हैं ।
परिशिष्ट नं० २
७ - चक्षुर्दर्शनावरण, श्रचक्षुदर्शनावरण अवधि दर्शनावरण, केवल दर्शनावरण, निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला, और स्त्यानगृद्धि यह नौ प्रकृति दर्शनावरण कर्म की हैं।
८ -- सातावेदनीय और असातावेदनीय यह दो प्रकृति वेदनीय कर्म की हैं। ६-मोहनीय कर्म के दो भेद हैं, दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय इनमें से दर्शन मोहनीय के तीन भेद होते हैंसम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व । चारित्रमोहनीय के दो भेद होते हैंकषाय वेदनीय और नोकषाय वेदनीय ।
कषाय वेदनीय अर्थात् नोकषाय वेदनीय के नौ भेद हैंहास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, और नपुंसक वेद ।
कषाय वेदनीय के सोलह भेद होते हैं ।
श्रनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभ, अप्रत्याख्यान क्रोध मान माया लोभ, प्रत्याख्यान क्रोध, मान माया लोभ और संज्वलन क्रोध मान माया और लोभ, [ यह मोहनीय कर्म की हाईस प्रकृतियां हैं ।]
१० - नारकायु, तैर्यगायु, मानुषायु और देवायु यह चार आयु कर्म की प्रकृतियां हैं ।
११ – गति, जाति, शरीर, अंगोपांग, निर्माण, बन्धन, संघात, संस्थान, संहनन, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, श्रनुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, उच्छ्वास, विहायोगति, प्रत्येक शरीर, साधारण शरीर, ॠस, स्थावर, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुःस्वर, शुभ, अशुभ, सूक्ष्म, बादर, पर्याप्ति, पर्याप्ति, स्थिर, अस्थिर, श्रदेय, श्रनादेय, यशः कीर्ति, अयशः कीर्ति और
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२७२ ]
___ तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
तीर्थकरत्व यह बयालीस नाम कर्म* की मूल प्रकृतियां हैं। १२--उच्च गोत्र और नोच गोत्र यह दो गोत्र कर्म की प्रकृतियां हैं। १३–दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य का विघ्न करना रूप पांच
प्रकृतियां अन्तराय कर्म की हैं । स्थिति बन्ध१४-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अंतरायकर्म की उतकृष्ट स्थिति तोस
कोड़ाकोड़ी सागर की है। १५-मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर को है। १६-नाम और गोत्र कर्म की उतकृष्ट स्थिति बीस कोड़ाकोड़ी सागर की है १७-आयु कर्म की उतकृष्ट स्थिति तेंतीस सागर की है। १८-वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति बारह मुहर्त की है। १६--नाम और गोत्र कर्म की जघन्य स्थिति आठ मुहुर्त की है। २०-शेष ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अंतराय, और भायु कमों की
जघन्य स्थिति अन्तर्मुहुर्त है। अनुभाग बन्ध२१-कर्मों का जी विपाक है सो अनुभव अथवा अनुभाग है। २२-वह अनुभाग बंध कर्म की प्रकृतियों के नामानुसार होता है। २३--अनुभव के पश्चात् उन कर्मों की निर्जरा हो जाती है।
प्रदेश बन्ध--- २४-बानावरण आदि कर्मों की प्रकृतियों के नामानुसार कारणभूत समस्त
भावों अथवा सब समयों में मन वचन काय की क्रिया रूप योगों को
* नाम कर्म की उत्तर प्रकृतियां ९३ हैं, जिनका वर्णन इस अन्य में पृष्ठ १८७ से १९३ तक किया गया है।
__t बद्ध कर्मों में फलदान शक्ति पड़कर उनके उदय में माने पर अनुभव होने को विपाक कहते हैं।
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[ २७३
विशेषता से आत्मा के समस्त प्रदेशों में एक क्षेत्रावगाह रूप से स्थित जो सूक्ष्म अनंतानंत कर्मपुद्गलों के प्रदेश हैं उनको प्रदेश बंध कहते हैं । पुण्य तथा पाप प्रकृतियां -
२५ – सातावेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम और शुभ गोत्र यह पुण्य रूप प्रकृतियां हैं ।
२६–इन प्रकृतियों से बाकी बची हुई कर्मप्रकृतियां पाप रूप अशुभ हैं ।
नवम अध्याय
परिशिष्ट नं. २
:0:
संवर का लक्षण --
१ - श्रस्रव के रोकने को संवर कहते हैं ।
संवर के कारण
२ – वह संवर तीन गुप्तियों पांच समितियों, दश धर्म के पालन करने, बारह अनुप्रेक्षाओं के चितवन, बाईस परीषदों के जीतने और पांच प्रकार के चारित्र के पालने से होता है ।
-
निर्जरा के कारण
३ – बारह प्रकार के तप करने से निर्जरा और संवर दोनों होते हैं । तीन गुप्तियां-
४ – भले प्रकार मन, वचन, और काय की यथेष्ठ प्रवृत्ति को रोकना सो गुप्त हैं ।
पांच समितियां-
५ – ईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदान निक्षेप और उत्सर्ग यह पांच समितियां हैं। दश धर्म
६ – उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम श्राजर्व, उत्तम शौच, उत्तम सत्य,
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२७४ ]
तत्वार्थ सूत्र जैनाऽऽगम समन्वय :
उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग (दान), उत्तम आकिंचन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य यह दश प्रकार के धर्म हैं ।
बारह भावनाएं' -
-
- अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, श्रस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्मस्वाख्यातत्व इनका बारम्बार चिन्तवन करना सो अनुप्रेक्षा हैं ।
बाईस परीषय जय
८ - रत्नत्रय रूप मार्ग से च्युत न होने और कर्मों को निर्जरा के लिये परीसह सहनी चाहिये ।
९ - १ क्षुधा, २ तृषा, ३ शीत, ४ उष्ण, ५ दंशमशक, ६ नाग्न्य, ७ अरति, ८ स्त्री, ९ चर्या, १० निषद्या, ११ शय्या, १२ आक्रोश, १३ बघ, १४ याचना, १५ अलाभ, १६ रोग, १७ तृणस्पर्श, १८ मल, १६ स त्कारपुरुस्कार, २० प्रज्ञा, २१ अज्ञान और प्रदर्शन यह बाईस परीषह हैं। १० – सूक्ष्म सांपराय नामक दशवें गुणस्थान वालों के तथा छद्मस्थवीतराग अर्थात् उपशांत कषाय नामक ग्यारहवें और क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान वालों के चौदह परीषह होती हैं ।
११ – तेरहवें गुणस्थानवर्ती जिन अर्थात् केवली भगवान के ग्यारह परीषह होती हैं । १२ – स्थूल कषाय वाले अर्थात् छटे, सातवें, आठवें और नौवें गुणस्थान वालों के सब परीषह होती हैं ।
१३ - प्रज्ञा और ज्ञान परीषह ज्ञानावरण कर्म के उदय होने पर होती हैं । १४ - अदर्शन परीषह दर्शनमोह के उदय से और अलाभ परीषद अन्तराय कर्म के उदय से होती हैं ।
१५ – नाग्न्य, अरति, स्त्री, निषद्या, भाक्रोश, याचना और सत्कारपुरुस्कार यह सात परीषद चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से होती हैं ।
१६ – शेष [ क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्य्या, शय्या, बघ, रोग,
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परिशिष्ट नं०२
[ २७५
तृणस्पर्श और मल यह ग्यारह परोषह ] वेदनीय कर्म के उदय से होती हैं। १७--एक हो जीव में एक को आदि लेकर एक साथ उन्नीस परोपह तक
विभाग करनी चाहिये । पांच प्रकार का चारित्र१८-सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात
यह पांच प्रकार का चारित्र है। बारह प्रकार के तपों का वर्णन१६–अनशन, अवमौर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन और
कायक्लेश यह छह प्रकार के बाह्य तप हैं । २०--प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान यह छह
अभ्यन्तर तप हैं। २१-प्रायश्चित के नो, विनय के चार, वैयाक्ष्य के दश, स्वाध्याय के पांच
और व्युत्सर्ग के दो भेद हैं। २२–पालोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तपः, छेद, परिहार
और उपस्थापना यह प्रायश्चित के नौ भेद हैं । २३--ज्ञानविनय, दशनविनय, चारित्रविनय और उपचार विनय यह चार
विनय के भेद हैं। २४-प्राचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और __ मनोज्ञ इन दश प्रकार के साधुओं की सेवा टहल करना सो दश प्रकार
का वैयाल्य है। २५–वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश यह स्वाध्याय के
पांच भेद हैं। २६- बाह्य उपधि और अभ्यन्तर आदि का त्याग करना सो दो प्रकार का
व्युत्सर्ग तप है।
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२७६ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
ध्यान का वर्णन--- २७–उत्तम संहनन वाले का अन्तर्मुहुर्त पर्यन्त एकाग्रचिन्तानिरोध करना
ध्यान है। २८--आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धम्यध्यान, और शुक्लध्यान यह चार प्रकार के
ध्यान हैं। २९-धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान मोक्ष के कारण हैं ।
चार प्रकार के आर्तध्यान३०--अप्रिय पदार्थ का संयोग होने पर उसके दूर करने के लिये वारंवार
चिन्तवन करना सो [ अनिष्टसंयोगज नाम का प्रथम ] आर्तध्यान है। ३१-पिय पदार्थ का वियोग होने पर उसको प्राप्ति के लिये बारंवार
चिन्तवन करना [ सो इष्टवियोगज नामका द्वितीय आर्तध्यान है। ३२--वेदना का बारंबार चिन्तवन करना [ सो वेदना जनित तीसरा भात
ध्यान है। ] ३३- और आगामी विषय भोगादिक का निदान करना सो निदान नामका
चौथा भात्तध्यान है। ३४- वह आर्तध्यान मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरत, देशविरत और
छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान बालों के होता है । चार प्रकार के रौद्रध्यान३५- हिंसा, अनुत, चोरी, और विषयों की रक्षा से रौद्रध्यान चार प्रकार का
होता है । यह प्रथम पांच गुणस्थान वालों के होता है । .धर्म्यध्यान के चार भेद३६- आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकषिचय और संस्थान विचय यह चार
प्रकार का धम्यध्यान है। चार प्रकार के शुक्ल ध्यान का वर्णन३७–आदि के दो शुक्ल ध्यान भुतकेवली के होते हैं, श्रुत केवली के धर्म्य
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परिशिष्ट नं० २
[ २७७
ध्यान भी होते हैं ।
३८- बाद के दो शुक्ल ध्यान सयोगकेवली और प्रयोगकेवली के ही होते हैं । ३९ – पृथक्त्ववितर्क एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरत क्रियानिवर्ति यह चार शुक्लध्यान के भेद हैं ।
४० - पृथक्त्ववितर्क तीनों योगों के धारक के, एकत्ववितर्क तीनों में से किसी एक योग वाले के, तीसरा सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति व्काययोग बालों के और व्युपरत क्रियानिवर्त्ति अयोगी केवली के ही होता है ।
४१ - पहिले के दो ध्यान श्रुतकेवली के श्राश्रय होते हैं और वितर्क तथा विचार सहित होते हैं ।
४२ - दुसरा शुक्लध्यान विचार रहित है ।
४३ - श्रुतज्ञान को वितर्क कहते हैं ।
४४ – अर्थ, व्यञ्जन और योगों के पलटने को विचार कहते हैं ।
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निर्जरा का परिमाण -
४५ - सम्यग्दृष्टि, श्रावक, मुनी, अनंतानुबंधी का विसंयोजन करने वाला, दर्शनमोह को नष्ट करने वाला, चारित्रमोह को उपशम करने वाला, उपशांत मोह वाला, क्षपकश्रेणी चढ़ता हुआ, क्षीणमोही और जिनेन्द्र भगवान इन सब के क्रमसे असंख्यात गुणी निर्जरा होती है 1
मुनियों के भेद
४६ – पुलाक, बकुश, कुशील, निग्रंथ और स्नातक यह पांच प्रकार के निर्ग्रथ साधु हैं।
४७
9- संयम, श्रुत, प्रतिसेषना, तीर्थ, लिंग, लेश्या, उपपाद और स्थान इन आठ प्रकार से उन मुनियों के और भी भेद होते हैं ।
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२४८ ]
तत्त्वार्थसूत्रजेनाऽगमसमन्वय :
दशम अध्याय केवल ज्ञान का उत्पत्ति क्रम१–मोहनीय कर्म के क्षय होने के पश्चात् [अन्तर्मुहुर्त पर्यन्त क्षोणकषाय
नाम का बारहवां गुण स्थान पाकर ] फिर एक साथ ज्ञानावरण, दर्शना. वरण और अन्तराय कमों का क्षय होने से केवल ज्ञान होता है । मोक्ष प्राप्ति क्रम२-बंध के कारणों के अभाव और निर्जरा से समस्त कमों का अत्यन्त
प्रभाव हो जाना सो मोक्ष है। ३-मुक्त जीव के औपशमिक आदि भावों और पारिणामिक भावों में से
भव्यत्व भाव का भी अभाव हो जाता है । ४-केवल सम्यक्त्व, केवल ज्ञान, केवल दर्शन, और केवल सिद्धत्व इन चार
भावों के सिवाय अन्य भावों का मुक्त जीव के अभाव है। ५-समस्त कमों के नष्ट हो जाने के पश्चात् मुक्त जीव लोक के अन्त माग । सक अपर को माता है । ऊर्ध्वगमन का कारण६-७-कुम्हार के द्वारा घुमाये हुये चाक के समान पूर्व प्रयोग से, दर हुई
मिट्टी के लेप वाली तुम्बी के समान प्रसंग होने से, एरंड के पीज के समान बंध के नष्ट होने से और अग्नि शिखा के समान अपना निमो
स्वभाव होने से मुक्त जाव ऊपर को गमन करता है । अलोक में न जाने कारण८. अलोकाकाश में धर्मास्तिकाय का अभाव होने से गमन नहीं होता है। सिद्धों के भेद९-क्षेत्र, काल, गति, लिंग, तीर्थ, चारित्र, प्रत्येक बुद्ध बोधित, ज्ञान, अव
गाहना, अन्तर, संख्या और अल्पबहुत्व इन बारह अनुयोगों से सिद्धों में भी भेद साधने चाहियें ।
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परिशिष्ट नं. ३ दिगम्बर और श्वेताम्बराम्नाय के सूत्र पाठों का
भेद प्रदर्शक कोष्टक।
प्रथमोध्याय सूत्राङ्क दिगम्बराम्नायी सूत्रपाठः सूत्राङ्क स्वेताम्बरोम्नायी सूत्रपाठः १५ अवाहेहावायधारणाः १५ अवग्रहहापायधारणाः
xxx २१ द्विविधोऽवधिः २१ भवप्रत्ययोवधिदेवनारकाणाम् २२ भवप्रत्ययो नारकदेवानाम् २२ क्षयोपशमनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम् २३ यथोनिमित्तः.. २३ ऋजुविपुलमती मनःपर्ययः २४ ...
* पर्यायः २५ विशुद्धतेक्षस्वामिविषयेभ्योऽवधिमनः
पर्यययोः २६ ... ... पर्याययोः २८ तदनन्तभागे मन:पर्ययस्य २६ ... .... पर्यायस्य ३३ नैगमसंग्रहल्यवहारजसूत्रशब्दसम
मिरुदैवम्भूता नयाः ३४ ... ... सत्रशब्दा नयाः x x x ३५ भाद्यशब्दौ द्वित्रिभेदी
द्वितीयोऽध्यायः ५ मानाबानदर्शनलब्धयश्चतुरित्रि- ५ ............दर्शनदानादिलब्धयः
पञ्चभेदाः सम्यक्सचारित्रसंयमासंयमाञ्च .. ७ जौवभन्याभव्यत्वानि च
भव्यत्वादीनि च __ *भाष्य के सूत्रों में सर्व मनः पर्यय के बदले मनहाय पाठ है।
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___ २० ]
तत्त्वार्थसूत्रजनाऽऽगमसमन्वय :
नाऽऽगमसमन्वय:
X
सूत्राङ्क दिगम्बराम्नायी सूत्रपाठः सूत्राङ्क श्वेताम्बरोम्नायी सूत्रपाठः १३ पृथिग्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः १३ पृथिव्यब्वनस्पतयः स्थावराः १४ द्वीन्द्रिपादयनसाः
१४ तेजावायू द्वीन्द्रियादयश्च त्रसाः
- १६ उपयोगः स्पर्शादिषु २० स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दास्तदर्थाः २१ .......शब्दास्तेषामर्थाः २२ वनस्पत्यन्तानामेकम्
२३ वाय्वन्तानामेकम् २६ एकसमयाऽविप्रहा
३० एकसमयाऽविग्रहः ३० एकं द्वौ त्रीन्वाऽनाहारक: ३१ एक द्वौ वानाहारक: ३१ सम्म॒छनगर्भोपपादा जन्मः ३२ सम्मूर्च्छनगौंपपाता जन्मः ३३ जरायुजाण्डजपोतानां गर्भः ३४ जराय्वण्डपोतजानां गर्भः ३४ देवनारकाणामुपपादः
३५ नारकदेवानामुपपातः ३७ परं परं सूक्ष्मम्
३८ तेषां परं परं सूक्ष्मम् ४० अप्रतीघाते
४१ अप्रतिघाते ४३ तदादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्ना ४४ ... ... कस्याऽऽचर्तुभ्यः
चर्तुभ्यः ४६ औपपादिक वैक्रियिकम् ४७ वैक्रियमौपपातिकम् ४८ तैजसमपि ४९ शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारक ४९ ... ... ..
. चतुर्दशप्रमत्तसंयतस्यैव
पूर्वधरस्यैव ५२ शेषास्त्रिवेदाः १३ औपपादिकचरमोत्तमदेहाः सङ्खये- ५२ औपपातिकचरमदेहोत्तमपुरुषासङ्घय ... यवर्षायुषोऽनपायुषः
तृतीयोऽध्यायः १ रत्नशर्करावालुकापङ्कधूमतमोमहातमः १ ... ... सप्ताधोऽध:पृथुतरा: प्रभाभूमयो घनाम्बुवाताकाशप्रतिष्ठाः
सप्ताधोऽधः
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परिशिष्ट नं० ३
सूत्राङ्क
दिगम्बराम्नायी सूत्रापाठः
सुत्राङ्क
२ तासु त्रिंशत्पञ्चविंशतिपञ्चदशदशत्रि २ तासु नरकाः पञ्चानंकनरकशतसहस्राणि पञ्च चैव
यथाक्रमम्
३ नारका नित्याशुभतर लेश्या परिणाम - ३ नित्याशुभतरलेश्याः
देहवेदनाविक्रयाः
७ जम्बूद्वीपलवणादादय: शुभनामानो- ७ जम्बूद्वीपलबरणादयः शुभनामानो द्वीप
द्वीपसमुद्राः
समुद्राः ।
१० भरतहैमवतहरिविदेहर म्यकहैरण्यव - १० तत्र भरत
तैरावतवर्षाः क्षेत्रारिण
१२ हेमार्ज्जुनतपनीयवैडूर्य रजत हेममयाः
१३ मरिणविचित्रपार्श्वो उपरिमूले च
तुल्यविस्तारा:
१४ पद्ममहापद्मतिगिच्छ के सरिमहापुण्डरीक पुण्डरोका हूदास्तेषामुपरि
१५ प्रथमोयोजनसहस्रायामस्तदुर्ध
विष्कम्भो हृदः
१६ दशयोजनावगाहः
१७ तन्मध्ये योजनं पुष्करम्
१६ तद्विगुणद्विगुणा हूदाः पुष्करारिंग च १९ त नवासिन्यो देव्य: श्री धृति कीर्तिबुद्धिलक्ष्म्य: पल्योपमस्थितय:
ससामानिक परिषत्काः
२० गङ्गासिन्धुरोहिद्रोहितास्याहरिद्धरि
कान्तासतासीतोदानारीनरकान्तासुवर्णरूप्य कलारक्कारक्कादाः सरितस्तन्मध्यगाः
[ २८१
श्वेताम्बराम्नायी सूत्रपाठः
X
X
X
X X X X
X
X
X
X
X
X X X X
X
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२८२ ]
सुत्राङ्क दिगम्बराम्नायी सूत्रपाठः सुत्राङ्क
२१ द्वयोद्वयोः पूर्वाः पूर्वगाः
२२ शेषास्त्वपरगाः
२३ चतुर्दशनदी सहस्रपरिवृत्ता
तत्वार्थ सूत्र जैनागमसमन्वय :
गङ्गा सिन्ध्यादयो नद्यः
२४ भरतः षड्विंशतिपञ्चयोजनशत विस्तारः षट् चैकोनविंशतिभागा योजनस्य २५ तदुद्विगुणद्विगुणविस्तारा वर्षधरवर्षाविदेहान्ताः २६ उत्तरा दक्षिणतुल्याः
२७ भरतैरावतयोवृद्धिह्रासौ षट् समयाभ्यामुत्सपिण्यवसर्पिणीभ्याम्
२८ ताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थिताः
२९ एकद्वित्रिपल्योपमस्थितयो हैमवतक हारिवषकदैव कुरुखकाः
३० तथोत्तराः
३१ विदेहेषु सङ्ख्येयकाला :
३२ भरतस्य विष्कम् जम्बूद्वीपस्य नवतिशत भागः
३८ नृस्थिती परावरे त्रिपल्योपमान्तर्मुहु १७ ३९ तिर्यग्योनिजानाञ्च
२ आदितस्त्रिषु पीतान्तलेश्या:
X
X
८ शेषाः स्पर्श रूपशब्दमन: प्रवीचाराः १२ ज्योतिष्काः सूर्याचन्द्रमसौ
श्वेताम्बराम्नायी सूत्रपाठः
X
- X
चतुर्थोऽध्यायः
X
X
X
X
X
X
X
X
X
१८ तिर्यग्योनीनाञ्च
X
३ तृतीयः पीतलेश्यः
७ पीतान्तलेश्याः
င်
१३
X
X
X
X
X
X
X
X
X
X
परापरे
...प्रवीचाद्वयोराद्वयोः
• सूर्याचन्द्रमसो.. .. प्रकीर्ण
तारकाच
ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकतारकश्च
१९ सौधर्मेशान सानत्कुमार माहेन्द्रब्रह्म- २० सौधर्मैशानसानत्कुमार माहेन्द्रब्रह्म
लोकलान्तकमहाशुक्रसहस्रारे....
ब्रह्मोत्तरान्तवकापिष्टशुक्रमहाशुक्रशतारसहस्रारेष्वानतप्राण
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सूत्राङ्क
दिगम्बराम्नायी सूत्रपाठः सूत्राङ्क
तयोरारणाच्युतयोर्नवसु प्रवैयकेषु विजयवैजयन्तजयन्तापराजितेषु सर्वार्थसिद्धौ च
X
X
२२ पातपद्मशुक्ललेश्या द्वित्रिशेषेषु २४ ब्रह्मलोकालया लौकान्तिकाः
२५ सारस्वतादित्यवन्ारुण गर्द तो यतु
षिताव्याबाधारिष्टाश्च
२८ स्थितिर सुरनागसुपर्णद्वीपशेषाणां सागरोपमत्रिपल्योपमार्द्ध होनमिताः
परिशिष्ट नं० ३
X
X
X
X
२६ सौधर्मे शानयाः सागरोपमेऽधिके
३० सानत्कुमार माहेन्द्रयोः सप्त
३१ त्रिसप्तनवं कादशत्रयादशपञ्चदशभि
का
३३ अपरा पल्योपमधिकम्
३६ परा पल्योपमधिकम् ४० ज्योतिष्कारणां च
२३
२५
२६
२९
३०
श्वेताम्बराम्नायी सूत्रपाठः
000
[ २=३
सर्वार्थसिद्ध च
श्या हि विशेषेषु लोकान्तिकाः
व्याबाधमरुतः (अरिष्टाश्च ), ४
स्थिति:
भवनेसु दक्षिणार्धाधिपतीनां पल्योपम
मध्यर्धम्
३१
३२
३३ सौधर्मादिषु यथाक्रमम्
सागरोपमे
शेषाणां पादोने
असुरेन्द्रयाः सागरोपममधिकं च
४९ ग्रहाणमेकम्
५० नक्षत्राणामर्द्धम्
५१ तारकाणां चतुर्भागः
३४
३५
अधिके च
३६ सप्त सानत्कुमारे
३७ विशेषस्त्रिसप्तदशैकादशत्रयोदशपञ्च
३९ अपरा पल्योपममधिकं च
४० सागरोपमे
४१ अधिके च
४७ परा पल्योपमम्
४८ ज्योतिष्काणामधिकम
दशभिरधिकानि च
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२८४ ]
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वयः
सूत्राङ्क दिगम्बराम्नायी सूत्रपाठः सूत्राङ्क श्वेताम्बरोम्नायी सूत्रपाठः४१ तदष्टभागोऽपरा
५२ जघन्या त्वष्टभागः
५; चतुर्भागः शेषाणाम् ४२ लौकान्तिकानामष्टौ सागरोपमाणि
सर्वेषाम्
पञ्चमोऽध्याय २ द्रव्याणि
२ द्रव्याणि जीवाश्च ३ जोवाश्च ८ अपक्षयेयाः प्रदेशा धर्माधर्मेकजोवानाम७ असङ्खयेयाः प्रदेशा धर्माधर्मयोः x
x = जीवस्य च १६ प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत् १६ ... विसर्गाभ्यां २६ भेदसङ्घातेभ्य उत्पद्यन्ते २६ संघातभेदेभ्य उत्पद्यन्ते २६ सद्व्यलक्षणम् ३७ बन्धेऽधिको पारिणामिकौ च ३६ बन्धे समाधिको पारिणामिकौ ३९ कालश्च
३८ कालश्चेत्येके ४२ अनादिगदिमांश्च ४३ रूपिष्वादिमान्
४४ योगापयोगी जीवेषु
षष्ठोऽध्याय ३ शुभ: पुण्यस्याशुभः पापस्य ३ शुभः पुण्यस्य
४ अशुभपापस्य ५ इन्द्रियकषायाव्रतक्रियाः पञ्चचतुः ६ अव्रतकषायेन्द्रियक्रिया ...
पञ्चपञ्चविंशतिसंख्या पूर्वस्य भेदाः तीव्रमन्दज्ञाताज्ञातभावाधिकरणवीर्य ७
भाववीर्याधिकरण विशेषेभ्यस्तद्विशेषः
बिशेषे- .. १७ अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य १८ अल्पारम्भपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवं
च मानुषस्य
xx x
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परिशिष्ट नं. ३
[ २८५
सूत्राक दिगम्बराम्नायी सूत्रपाठः सूत्राङ्क श्वेताम्बराम्नायी सूत्रपाठः १८ स्वभावमार्दवं च
___x x २१ सम्यक्त्वं च २३ तद्विपरीतं शुभस्य
२२ विपरीतं शुभस्य २४ दशनविशुद्धविनयसम्पन्नता शोल- २३ ...
व्रतेष्वनतिचाराऽभीक्ष्णज्ञानापयोग- ... ... ऽभीक्षणं संवेगौ शक्तितस्त्यागतपसा साधु- सङ्घसाधुसमाधिवेय वृत्यकरण समाधियात्रत्त्य करणमहंदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिर्मार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलस्वमितितार्थकरत्वस्य
___ तीर्थकृत्वस्य सप्तमोऽध्यायः ४ वाङ्मनागुतोर्यादाननिक्षेपणसमित्या
लाकितपानभोजनानि पञ्च ५ क्रोधलोमभीरुत्यहास्यप्रत्याख्यानान्य
नुषोचिभाषणं च पञ्च । शून्यागारविमाचितावासपरोपरोधा
करणभैक्ष्यशुद्धिसधाविसंवादाः
७ स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहराङ्गनिरी
क्षणपूर्वरतानुस्मरणवृष्येष्टरसस्वशरीर
संस्कारत्यागाः पञ्च ८ मनोज्ञामनाज्ञेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्ज
-- नानि पञ्च । हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम ४ हिंसादिष्वहामुत्र चापायावद्यदर्शनम् १२ जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् ७ जगत्कायस्वभावौ च संवेगवैराग्यार्थम
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२८६ ]
तत्त्वार्यसूत्रजैनागमसमन्वय :
सुधाङ्क दिगम्बराम्नायी सूत्रपाठः सूत्राङ्क श्वेताम्बराम्नायी सूत्रपाठः२८ परिविवाहकरणेत्वरिकापरिगृहीता २३ परविवाहकरणेत्वरपरिगृहोता परिगृहोतागमनानङ्गक्रोडाकामतीव्रा- ... ... ... ... भिनिवेशाः
... ... ... ... ३९ कन्दर्पकौत्कुच्यमौख-समीक्ष्याधि- २७ कन्दर्पकौकुच्य ... ... ___करणापभोगपरिभागानर्थक्यानि णापभोगाधिकत्वानि ३४ अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्गादान- २६ .. ...
.. संस्तारो संस्तरोपक्रमणानादरस्मृत्युनुप-
... ...
नुपस्थापनानि स्थानानि ३७ जीवितमरणशंसामियानुराग- ३२ ... ... निदानकारणानि
सुखानुबंधनिदानानि
अष्टमोऽध्यायः
२ सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्या- २ ... ... पुद्गलानादत्ते
__ न्पुद्गलानादते स बन्धः x x
३ स बन्धः ४ आद्यो ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोह- ५ .... .. मोहनीयायुष्कनाम
नीयायुर्नामगोत्रान्तराया: ६ मतिश्रुतावाधिमनःपर्ययकेवलानाम् ७ मत्यादीनाम् ७ चतुरचक्षुरवधिकेवलानां निद्रा-
... ... ... ... निद्रानिद्राप्रचलाप्रचलाप्रचलास्त्यानगृदयश्च
... स्त्यानगृद्धिवेदनोयानिच १ दर्शनचारित्रमोहनीयाकषायाकषाय- १० ... मोहनीयकषायनोकषाय ...
वेदनीयाख्यास्त्रिद्विनवषोडशभेदाः __... द्विषोडशनव ... ... सम्यक्त्वमिथ्यात्वतदुभयान्याऽकषाय- तदुभयानि कषायनोकषायावनन्तानुकषायौ हास्यरत्यरतिशोकमयजुगुप्सा- बन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसंज्वस्त्रीपुनपुंसकवेदो अनन्तानुबन्ध्यप्रत्या- मनविकल्पाश्चैकशः कापमानमाया
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परिशिष्ट नं०३
२८७ ]
सुत्रांक दिगम्बराम्नायी सूत्रपाठः सूत्रांक श्वेताम्बराम्नायो सूत्रपाठः
ख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनविकल्पाश्चैः लोभाः हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सास्त्री
कशः क्रोधमानमायालाभाः १३ दान लाभभागापभागवीर्याणाम् १४ दानादीनाम् १६ विंशति मगात्रयोः
१७ नामगोत्रयोविंशतिः २७ चयरिंचशत्सागरोपमाण्यायुषः १८ ... ... युष्कस्य १६ शेषाणामन्नर्मुहुर्ता
२१ ... ... मुहुर्तम् : .. २४ नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात्सूक्ष्म- २५
कक्षेत्रावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वन- क्षेत्रावगाहस्थिताः
न्तानन्तप्रदेशाः २५ सद्व द्यशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम् २६ सद्वद्यसम्यकत्वहास्यरतिपुरुषवेदशुभायु २६ अतोऽन्यत्पापम्
नवमोऽध्यायः ६ उत्तमक्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयम- ६ उत्तमः क्षमा ... ...
तपस्त्यागाकिञ्चन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः १७ एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्न कान- १७ ... ... ... विंशते:
विंशति १८ सामायिकच्छेदोपस्थापनापरिहार- १८ ... छेदोपस्थाप्य ... ... विशुद्धिसूक्ष्मसाम्पराययथाख्यात- ... यथाख्यातानि चारित्रम्
मिति चारित्रम् २२ आलोचनप्रतिक्रमणतदुभयविवेक- २२ ... ... ... व्युसर्गतपश्छेदपरिहारोपस्थापनाः
.. स्थापनानि २७ उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो २७ ... ... निराधा ध्यानम् ध्यानमान्तर्मुहूर्तात्
२८ श्रामुहूर्तात् ३० आर्तममनोज्ञस्य साम्प्रयोगेत ३१ आर्तममनोज्ञानां
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________________ 288 ] तत्त्वार्थसूत्रजनाऽऽगमसमन्वय. - सूशांक दिगम्बराम्नायो सूत्रपाठः सूत्रांक श्वेताम्बराम्नायी सूत्रपाठः द्विप्रयोगायस्मृतिसमन्वाहारः 31 विपरातं मनोज्ञस्य 3 विपरीतंमनाज्ञानाम् 36 आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय 37 धर्म्यम् धर्ममप्रमत्तसंयतस्य 38 उपशान्तक्षीणकषाययोश्च 37 शुक्ले चाद्य पूर्वविदः 36 शुक्ले चाद्य 40 त्र्येकयागकाययोगायोगानाम् 42 तव्येककाययोगायोगानाम् 41 एकाश्रय सवितर्कविचारे पूर्व 43 ... ... सवितके पूर्व दशमोऽध्यायः 2 बन्ध हेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्न 2 बन्धहेत्वभावनिर्जगभ्यां ___ कमविप्रमोक्षो मोक्षः 3 कृत्स्नकर्मक्षयो माक्षः 3 औपशमिकादिभव्यत्वानां च 4 औपशमकादिभव्यत्वाभावाश्चान्या केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शनसिद्धत्वेभ्यः / अन्यत्र केवलसम्यक्वत्ज्ञानदर्शनx x सिद्धत्वेभ्यः 6 पूर्वप्रयागादसंगत्वाद्बन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाञ्च परिणाश्च तद्गतिः आविद्धकुलालचक्रवव्यपगतलेपालाबुवदेरण्डबोजवदग्निशिखावश्च 8 धर्मास्तिकायाभावात्