SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२२ ] तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय : उत्तरा० अध्यन ३६. पलिओवममेगं तु, वासलक्खेण साहियं । पलिओवमट्ठभागो, जोइसेसु जहन्निया ॥ २१६ ॥ छाया- पल्योपममेकं तु, वर्षलक्षेण साधिकम् । पल्योपमस्याष्टमभागः, ज्योतिषकेषु जघन्यिका ॥ २१९ ॥ भाषा टीका-ज्योतिष्क देवों की उत्कृष्ट श्रायु एक लाख वर्ष अधिक एक पल्य होती है। और जघन्य आयु पल्य का आठवां भाग प्रमाण होती है। लौकान्तिकानामष्टौ सागरोपमाणि सर्वेषाम् । लोगंतिकदेवाणं जहएणमणुक्कोसेणं अट्ठसागरोवमाई ठिती पण्णत्ता। स्थानांग स्थान ८ सूत्र ६२३. व्याख्याप्रज्ञप्ति शतक ६ उद्देश्य ५. छाया- लौकान्तिकदेवानां जघन्यानुत्करेंण अष्टसागरोपमा स्थितिः प्रज्ञप्ता। भाषा टोका-लौकान्तिक देवों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति आठ सागर होती है। संगति-इन सब पत्रों में आगमों से नाम मात्र का ही अन्तर है। कई स्थलों पर तो शब्द २ मिलते हैं। इति श्री-जैनमुनि-उपा'याय-श्रीमदात्माराम-महाराज-संगृहीते तत्त्वार्थसूरजैनाऽऽगमसमन्वये * चतुर्थाध्याय समाप्तः॥ ४ ॥
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy