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________________ ११० ] तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय : और शुक्र दोनों; तथा आनत आदि शेष स्वर्गों में शुक्ल लेश्या होती है। परंतु अनुदिश और अनुत्तर इन चौदह विमानों में परम शुक्ल होती है। प्राग्ग्रेवेयकेभ्यः कल्पाः। ४, २३. ४, २४. कप्पोपवरणगा बारसविहा पण्णत्ता। प्रज्ञापना प्रथम पद सूत्र ४६. छाया- कल्पोपपन्नकाः द्वादशविधाः प्रज्ञप्ताः । __ भाषा टीका-[प्रवेयकों से पहिले के] कल्पोपपन्न जाति के देव बारह प्रकार के कहे जाते हैं। ब्रह्मलोकालया लौकान्तिकाः।। बंभलोए कप्पे...... लोगंतिता देवा पण्णत्ता । स्थानांग० स्थान = सूत्र ६२३. छाया- ब्रह्मलोके कल्पे ........ लौकान्तिकाः देवाः प्रज्ञप्ताः । भाषा टीका-ब्रह्मलोक कल्प के अन्त में रहने वाले लौकान्तिक देव कहलाते हैं। सारस्वतादित्यवन्यरुणगर्दतोयतुषिताव्याबाधारिष्टाश्च । सारस्सयमाइच्चा वण्हीवरुणा य गद्दतोया य । तुसिया अव्वावाहा अग्गिच्चा चेव रिट्ठा च ॥ छाया- सारस्वताऽऽदित्याः वन्हयो वरुणाश्च गर्दतोयाश्च । तुषिता अव्याबाधा आग्नेयाश्चैव रिष्टाश्च ॥ * स्थानांग स्थान० ८ सुत्र ६२३ में इसी गाथा में 'रिट्ठा च' के स्थान में 'बोद्धव्वा' पाठ देकर आठ भेद ही माने हैं। ४, २५.
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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