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तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
पएणते, तं जहा-णिद्धबंधणपरिणामे लुक्खबंधणपरिणामे या'समणिद्धयाए बंधो न होति समलुक्खयाएवि ण होति ।
वेमायणिद्धलुक्खत्तणेण बंधो उ खंधाणं ॥१॥ णिद्धस्स णिद्वेण दुयाहिएणं, लुक्वस्स लुक्खेण दुयाहिएणं। निद्धस्स लुक्खेण उवेइ बंधोः जहण्णवजो विसमो समो वा ॥२॥
प्रज्ञापना० परिणाम पद १३ सूत्र १८५. छाया- बन्धनपरिणामः भगवन् कतिविधः प्रज्ञप्तः १ गौतम! द्विविधः
प्रज्ञप्तस्तद्यथा, -स्निग्धबन्धनपरिणामः रूक्षबन्धनपरिणामश्च,'समस्निग्धतार्या बन्धो न भवति, समरूक्षतायामपि न भवति । वैमात्रस्निग्धरूक्षत्वेन बंधस्तु स्कन्धानाम् ॥१॥ स्निग्धस्य स्निग्धेन द्वयधिकादिकेन, रूक्षस्य रूक्षेण द्वयधिकादिकेन । स्निग्धस्य रूक्षेण (सह) उपैति बन्धः, जघन्यवयः विषमः समो
वा ॥२॥ प्रश्न - भगवन् ! बन्धन परिणाम कितने प्रकार का बतलाया गया है ?
उत्तर- गौतम ! दो प्रकार का बतलाया गया है -स्निग्धबन्धन परिणाम और हतबन्धन परिणाम । बराबर स्निग्धता होने पर बंध नहीं होता । बराबर रूक्षता होने पर भी बन्ध नहीं होता । स्कन्धों का बन्ध स्निग्धता और रूक्षता की मात्रा में विषमता से होता है । दो गुण अधिक होने से स्निग्ध का स्निग्ध के साथ बन्ध हो जाताहै, तथा दो गुण अधिक होने से रूक्ष का रूक्ष के साथ भी बन्ध हो जाता है। स्निग्ध का रूक्ष के साथ बन्ध हो जाता है। किन्तु अपन्य गुण वाले का विषम या सम किसी के साथ भी बन्ध नहीं होता।
संगति -- इन सूत्रों और आगमवाक्य का साम्य देखने योग्य है ।
गुणपर्यायवद्व्यम्।
५, ३८.