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________________ दशमोऽध्यायः [ २३१ खीणमोहे (केवलसम्मत्तं) केवलणाणी, केवलदंसी सिद्धे। अनुयोगद्वारसूत्र षण्णामाधिकार सू० २२६. छाया- क्षीणमोहः ( केवलसम्यक्त्व), केवलज्ञानी, केवलदर्शी, सिद्धः । भाषा टीका - क्षीण मोह वाले, (केवल सम्यक्त्व वाले ), केवल ज्ञान वाले, और केवल दर्शन वाले सिद्ध होते हैं। संगति – केवल सम्यक्त्त्व, केवल ज्ञान, केवल दर्शन और केवल सिद्धत्व भावों के सिवाय अन्य भावों का मुक्त जीवों के अभाव है। अनन्त वीर्य आदि भावों का उपरोक्त भावों के साथ अविनाभाव सम्बन्ध होने से उनका प्रभाव न समझना चाहिये। तदनन्तरमूवं गच्छत्यालोकान्तात् । १०,५. अणुपुव्वेणं अट्ठ कम्मपगडीओ खवेत्ता गगणतलमुप्पइत्ता उप्पिं लोयग्गपतिठ्ठाणा भवन्ति । ज्ञाताधर्मकांग, अध्ययन ६, सू० ६२. छाया- अनुपूर्वेण अष्टकर्मप्रकृतयः क्षपयित्वा गगनतलमुत्पत्य उपरि लोकाग्रप्रतिष्ठानाः भवन्ति । भाषा टीका - इस प्रकार क्रम से आठों कर्मों की प्रकृतियों को नष्ट करके आकाश में ऊर्ध्व गति द्वारा लोक के अप्र भाव में स्थित होते हैं । १०,६. पूर्वप्रयोगादसंगत्वाधच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च । आविद्धकुलालचक्रवद्वयपगतलेपालाबुवदेरण्डबीजवदग्निशिखावच्च । + सिद्धा सम्मदिट्ठी (सिद्धाः सम्यग्दृष्टिः) प्रज्ञापना १९ सम्यक्स्व पद.
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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