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________________ तत्त्वार्थसूत्रजनाऽऽगमसमन्वय: " श्रुतमनिन्द्रियस्य ।” २. २१ सुणेइत्ति सुभं । ___ नन्दि सूत्र २४. छाया- शृणोतीति श्रुतं । भाषा टीका-जिसको सुना जावे उसे श्रुत कहते हैं। संगति - व्यवहार पक्ष में सुनने योग्य पदार्थ को बिना मन के पूर्ण उपयोग के ग्रहण नहीं किया जा सकता है। अतः श्रुत ज्ञान केबल मन के विषय द्वारा ही ग्रहण किया जा सकता है। "वनस्पत्यन्तानामेकम् ।" २. २२. से किं तं एगिदियसंसारसमावन्नजीवपण्णवणा ? एगिदियसंसारसमावण्णजीवपण्णवण्णा पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा - पुढवीकाइया, आउकाइया तेउकाइया वाउकाइया वणस्सइकाइया । प्रज्ञापना प्रथम पद। छाया- अथ किं सा एकेन्द्रियसंसारसमापनजीवप्रज्ञापना ? एकेन्द्रिय संसारसमापनजीवप्रज्ञापना पश्चविधा प्रज्ञप्ता, तपथा-पथिवी कायिका अप्कायिका तेजःकायिका वायुकायिका वनस्पतिकायिका। प्रश्न - एकेन्द्रिय संसारी जीव किन्हें कहते हैं ? उत्तर- वह पांच प्रकार के होते हैं - पृथिवी काषिक, जल कायिक, अग्नि कायिक, वायु कायिक और वनस्पति कायिक । “कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि।” २. २३.
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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