SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 290
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७२ ] ___ तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय : तीर्थकरत्व यह बयालीस नाम कर्म* की मूल प्रकृतियां हैं। १२--उच्च गोत्र और नोच गोत्र यह दो गोत्र कर्म की प्रकृतियां हैं। १३–दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य का विघ्न करना रूप पांच प्रकृतियां अन्तराय कर्म की हैं । स्थिति बन्ध१४-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अंतरायकर्म की उतकृष्ट स्थिति तोस कोड़ाकोड़ी सागर की है। १५-मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर को है। १६-नाम और गोत्र कर्म की उतकृष्ट स्थिति बीस कोड़ाकोड़ी सागर की है १७-आयु कर्म की उतकृष्ट स्थिति तेंतीस सागर की है। १८-वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति बारह मुहर्त की है। १६--नाम और गोत्र कर्म की जघन्य स्थिति आठ मुहुर्त की है। २०-शेष ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अंतराय, और भायु कमों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहुर्त है। अनुभाग बन्ध२१-कर्मों का जी विपाक है सो अनुभव अथवा अनुभाग है। २२-वह अनुभाग बंध कर्म की प्रकृतियों के नामानुसार होता है। २३--अनुभव के पश्चात् उन कर्मों की निर्जरा हो जाती है। प्रदेश बन्ध--- २४-बानावरण आदि कर्मों की प्रकृतियों के नामानुसार कारणभूत समस्त भावों अथवा सब समयों में मन वचन काय की क्रिया रूप योगों को * नाम कर्म की उत्तर प्रकृतियां ९३ हैं, जिनका वर्णन इस अन्य में पृष्ठ १८७ से १९३ तक किया गया है। __t बद्ध कर्मों में फलदान शक्ति पड़कर उनके उदय में माने पर अनुभव होने को विपाक कहते हैं।
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy