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________________ ५२ ] तत्त्वार्थसूत्रजनाऽऽगमसमन्वय : कइसमइएणं विग्गहेणं उववज्जति ? गोयमा! एगसमइएण वा दिसमइएण वा तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गहेणं उववजन्ति । व्याख्याप्रज्ञप्ति शतक ३४ उ० १ सू० ८५१. छाया- नेरइकानां उत्कृष्टेन त्रिसमयेन विग्रहेण उत्पद्यन्ते एकेन्द्रियवयं यावत् वैमानिकानाम् । कतिसमयेन विग्रहेण उत्पद्यन्ते ? गौतम ! एकसमयेन वा द्विसमयेन वा त्रिसमयेन वा चतुःसमयेन वा विग्रहेण उत्पद्यन्ते । भाषा टीका- नारकी लोग अधिक से अधिक तीन समय विग्रह गति में लेकर उत्पन्न होते हैं। प्रश्न – विग्रह गति में कितना समय लेकर उत्पन्न होते हैं ? उत्तर - गौतम ! एक समय, दो समय, तीन समय अथवा चार समय में मोड़ा लेकर उत्पन्न होते हैं। __संगति – सूत्र और आगम वाक्य में बात एक ही कही है, केवल कहने का ढंग मिन्न है। 'एकसमयाऽविग्रहा॥' २, २९. एगसमइयो विग्गहो नत्थि । व्याख्याप्रज्ञप्ति शत० ३४, सू० ८५१. छाया- एक समयकः विग्रहो नास्ति । भाषा टीका - एक समय वाले को मोड़ा लेना नहीं पड़ता। संगति-सिद्ध एक समय में ही मोक्ष जाते हैं । अतः उनकी गति सीधी होती है और सस गति में मोड़ा नहीं होता। 'एकं द्वौ त्रीन्वाऽनाहारकः ॥' २,३०.
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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